शिमला/शैल। पत्रकारिता से राजनीति मे आये और लगातार चैथी बार ऊना के हरोली विधानसभा क्षेत्र से अपनी जीत कायम रखने वाले पूर्व उद्योग मन्त्री मुकेश अग्निहोत्री सदन में कांग्रेस विधायक दल के नेता होंगे। अखिल भारतीय राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी निभाने का दायित्व मुकेश को सौंपा है। स्मरणीय है कि जब कांग्रेस विधायक दल अपनेे स्तर पर नेता का चयन नहीं कर पाया और प्रस्ताव पारित करके नेता चुनने का अधिकार राहुल गांधी को सौंप दिया तब इसके लिये राहुल का मुकेश पर भरोसा जताना अपने में एक बड़ा अहम राजनीतिक फैसला हो जाता है। वीरभद्र सरकार के मन्त्रीमण्डल के सदस्यों में से मुख्यमन्त्री के अतिरिक्त कवेल सुजान सिंह पाठानिया कर्नल डा. धनी राम शांडिल और मुकेश अग्निहोत्री ही इन चुनावों मे जीत हासिल कर पाये हैं इन तीनों में से पिछली सरकार के कार्यकाल में सदन में यदि किसी की परफारमैन्स सराहनीय रही है तो उसमें मुकेश अग्निहोत्री का नाम ही पहले स्थान पर आता है। इस नाते आज नेता प्रतिपक्ष के रूप में मुकेश के चयन को आम आदमी का समर्थन मिल रहा है।
लोकतन्त्र में जितना महत्व सत्ता का होता है उसके मुकाबले में प्रतिपक्ष का महत्त्व उससे ही बड़ा हो जाता है। क्योंकि सरकार के हर काम पर बारिकीे से नज़र रखने और गुण दोष के आधार पर उसका समर्थन अथवा विरोध करना यह सबसे बडी़ जिम्मेदारी एक उत्तरदायी विपक्ष की रहती है। यही नहीं सरकार की गलत नीतियों पर सार्वजनिक जन चर्चा का वातावरण तैयार करना भी विपक्ष का सबसे बड़ा दायिव रहता है। आज संयोगवश केन्द्र से लेकर राज्य तक एक ऐसी पार्टी की सरकार है जो अपनी एक निश्चित विचारधारा रखती हैै और इस पार्टी को संघ की राजनीतिक ईकाई माना जाता है, इसलिये यह स्वभाविक है कि इस सरकार के हर फैसले में कहीं न कहीं इसकी विचारधारा का प्रभाव अवश्य परिलक्षित रहेगा और संघ की विचारधारा की स्वीकार्यता को लेकर पूरे समाज में अभी बहस की ही स्थिति चल रही है। इस नाते भाजपा की कार्यशैली को समझने के लिये संघ की विचारधारा को समझना भी आवश्यक होगा तथा इसके लिये एक व्यापक अध्ययन की भी आवश्यकता रहेगी। इस समय कांग्रेस के जो 21 विधायक चुनकर आये हैं उनमें इन मानकों पर शायद मुकेश ही ज्यादा खरे उतरे हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्षी दल जितना संघ की विचारधारा को लेकर आक्रामक दिखते हैं उतना शायद सरकार के फैसलों को लेकर नही है और यही भाजपा संघ की सफलता है कि उसके फैंसलो की जगह उसकी विचारधारा को लेकर ही आक्रामकता सामने आ रही है।
इस परिदृश्य में नेता प्रतिपक्ष के रूप में मुकेश की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है क्योंकि वह पिछली सरकार में एक महत्वपूर्ण मन्त्री रहे हैं। सरकार के हर फैसलें में वह बराबर के भागीदार रहे हैं। भाजपा ने बतौर विपक्ष इसी सरकार के खिलाफ समय-समय पर आरोप पत्र सौंपे हैं। इन्ही आरोप पत्रों के माध्यम से सरकार कांग्रेस के ऊपर सदन के भीतर और बाहर बराबर दबाव बनाये रखेगी। कांग्रेस सरकार के अन्तिम छः माह के फैसलों पर जय राम सरकार ने पुनर्विचार करने की घोषणा की है। इसलिये इन फैसलों की सदन के भीतर और बाहर वकालत करना नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी हो जाती है। यह एक अच्छा संयोग है कि कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में वित्त विभाग के प्रमुख की जिम्मेदारी जो अधिकारी निभा रहा था आज जयराम सरकार में भी यह जिम्मेदारी उसी अधिकारी के पास है। सरकार के हर फैसले में विभाग की भागीदारी रहती है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि वित्त विभाग की स्वीकृति के बिना कोई भी फैसला हो ही नही पाता है। ऐसे में इस संद्धर्भ में यह सरकार पिछली सरकार के प्रति ज्यादा आक्रामक हो ही नही पायेगी। इसकी पहली झलक राजस्व विभाग में हुई सेवानिवृत कर्मचारियों की नियुक्तियों को लेकर इस सरकार के यूटर्न लेने से समाने भी आ गयी है।
लेकिन राजनीतिक परिदृश्य में मुकेश का नेता प्रतिपक्ष बनाना इस संद्धर्भ में भी एक बड़ा फैसला बन जाता है कि वीरभद्र के कार्यकाल में मुख्यमन्त्री और संगठन प्रमुख में अन्त तक टकराव की स्थिति बनी रही है। क्या यह टकराव आज भी उसी स्थिति में बना रहेगा या इसमें कमी आयेगी क्योंकि मुकेश को बहुत हद तक वीरभद्र का ही प्रतिनिधि अभी तक माना जा रहा है। इस संद्धर्भ में मुकेश पर वीरभद्र के साये का तमगा कब तक चिपका रहता है और वह व्यवहारिक तौर पर इस साये से कब और कैसे बाहर आते हैं इस पर सबकी निगाहें बनी रहेगी। आज संयोगवश कांग्रेस अध्यक्ष सुक्खु और नेता प्रतिपक्ष मुकेश दोनों हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं फिर जातिय समीकरण में भी दोनों प्रदेश की दो बड़ी जातियों से आते हैं। यह दोनो नेता आपस मे किस तरह का तालमेल बिठाते हैं इस पर भी सबकी नजरें रहेंगी क्योंकि आने वाले लोकसभा चुनावों में पार्टी को जीत दिलाने की जिम्मेदारी इन्ही दोनो की होगी।
शिमला/शैल। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी सचिव, पंजाब की प्रभारी और बनीखेत की विधायक, प्रदेश की वरिष्ठ कांग्रेस नेता आशा कुमारी का थप्पड़ प्रकरण जिस ढंग से प्रचारित /प्रसारित हुआ है उससे कई ऐसे राजनीतिक और प्रशासनिक सवाल खड़े हो गये हैं जिन पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक हो गया है क्योंकि इस प्रकरण की एक पात्र महिला कांस्टेबल ने आशा कुमारी के खिलाफ मामला थाना सदर में दर्ज करवा दिया है। इस कांस्टेबल के बाद आशा कुमारी ने भी मामला दर्ज करवा दिया है। यह मामला जब घटा था उसके बाद आशा कुमारी ने इस पर खेद भी व्यक्त कर दिया था लेकिन इस खेद जताने के वाबजूद यह मामला दर्ज हुआ है।
स्मरणीय है कि घटना वाले दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कांग्रेस भवन में काग्रेस के नेताओं की एक बैठक लेने आये थे जिसमें यह विधानसभा चुनाव लड़े सारे प्रत्याशीयों, जिला एवम ब्लाक अध्यक्षों को आमन्त्रित किया गया था क्योंकि इस बैठक में कांग्रेस की हार के कारणों का आंकलन किया जाना था। राहुल गांधी को एसपीजी की सुरक्षा उपलब्ध है जिसका अर्थ है
कि जहां भी जिस भी बैठक में राहुल गांधी शामिल होंगे उसमें भाग लेने वालों को इस सुरक्षा ऐजैन्सी से पास लेना अनिवार्य होगा और उसमें भाग लेने वालों की सूची और उसका अनुमोदन स्थानीय आयोजकों से किया जाता है। इस अनुमोदन के बाद ही एसपीजी अपना पास जारी करती है। स्वभाविक है कि इस बैठक के लिये भी यही व्यवस्था थी। इस बैठक में कांग्रेस के सारे नवनिर्वाचित विधायक भाग ले रहे थे। आशा कुमारी चम्बा से जीतने वाली अकेली कांग्रेस नेता है। जबकि हर्ष महाजन से अनुमोदित नीरज नैय्यर और पूर्व वन मन्त्री ठाकुर सिंह भरमौरी तक यह चुनाव हार गये है। आशा कुमारी न केवल विधायक ही है बल्कि वह पंजाब की प्रभारीे भी है। शायद ही प्रदेश में ऐसा कोई हो जो आशा कुमारी के नाम से परिचित न हो।
कांग्रेस भवन में हुई इस बैठक के लिये सुरक्षा प्रबन्धों की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस की थी क्योंकि एसपीजी जो राहुल गांधी की सुरक्षा के लिये जिम्मेदार है। स्थानीय प्रबन्धन में उसकी भूमिका इतनी ही थी कि उसके द्वारा जारी पास के बिना भीतर बैठक में कोई नहीं जा सकता था। पुलिस प्रबन्धन भी ऐसी बैठकों के लिये तैनात किये गये सुरक्षा कर्मियों से यह सुनिश्चित करता है कि वह बैठक में भाग लेने वालों को जानता हो या उन्हें आसानी से चिहिन्त कर पाये ताकि कोई अव्यवस्था की शिकायत न आयेे। इस बैठक के लिये जब आशा कुमारी और अन्य लोग तो प्रत्यक्षदर्शीयों के मुताबिक सबसेे आगे मुकेश अग्निहोत्री उनके पीछे आशा कुमारी और फिर धनीराम शांडिल थे। आशा कुमारी के साथ उनका पीएसओ भी था। सबसे पहले मुकेश निकले उनका पास वहां तैनात इसी महिला कांस्टेबल ने चैक किया फिर उनको वापिस कर दिया और वह आगे चले गये। फिर आशा कुमारी ने पास दिखाया लेकिन इस पास को देखने के बाद इसे आशा को वापिस नही किया गया। जब पास वापिस मांगा गया और बताया गया कि आशा कुमारी विधायक है तो इसी पर महिला कांस्टेबल तर्क करने लग गयी उसने साथ खड़े पीएसओ को देखकर भी नही पहचाना जबकि धनीराम शांडिल भी वहीं आशा के पीछे खड़े थे। प्रत्यक्षदर्शीयों के अनुसार कांस्टेबल का व्यवहार जायज़ नही था और इसी पर नौबत थप्पड़ तक पहुंच गयी और उसी क्षण उसका विडियो भी शूट हो गया और तुरन्त ही वायरल भी हो गया। फिर जो विडियो वायरल हुआ है उसमें आशा से पहले मुकेश के जाने की घटना नही है। पास का दिखाना और वापिस मांगना भी रिकार्ड नही है केवल थप्पड़ और उसके बदले में फिर थप्पड़ यही रिकार्ड है।
वायरल हुए विडियो को देखने से यह सवाल उठता है कि विडियो रिकार्ड करने वाला पहले से ही इस बैठक में आने जाने वालो, पुलिस के सरुक्षा कर्मीेयों और एसपीजी की कारवाई को स्वभाविक रूप से रिकार्ड नही कर रहा था जिससे आगे-पीछे की कोई चीज रिकार्ड नही है तो स्वभाविक है कि रिकार्ड करने वाले के लिये भी यह अप्रत्याशित घटना रही हो। तब यह सवाल उठता है कि ऐसे माहोल में तो सामान्यतः दोनों पक्षों को शान्त करने का प्रयास पहले किया जाता है उस माहौल में ऐसी रिकार्डिंग तो तभी संभव है जब रिकार्ड करने वालों को पहले से ही यह ज्ञात रहा हो कि अब ऐसा घटने वाला है। इस प्रकरण में न तो आशा कुमारी के व्यवहार को जायज़ ठहराया जा सकता है और न ही महिला कांस्टेबल के व्यवहार को। फिर यह सामने आना भी आवश्यक है कि क्या यहां तैनात इन सुरक्षा कर्मीयों को यह तक नही समझाया गया था कि किसी भी व्यक्ति के साथ यदि कोई पीएसओ है तो उसका अर्थ क्या होता है। फिर यहां आने वाले लोग किसी मेले में नही जा रहे थे बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष की बैठक के लिये विधायक जा रहे थे। ऐसे मे क्या वहां तैनात सुरक्षा कर्मीयों को अधिक संवदेनशील नही होना चाहिये था। क्या इस संवदेनशीलता की जिम्मेदारी अप्रत्यक्षतः शीर्ष प्रशासन की नही हो जाती है। क्या यह सुरक्षा कर्मी इन वी आई पी लोगों को नहीं जानती थी या उन्हे पहचानने की उसे सामान्य समझ भी नही थी। ऐसे बहुत सारे सवाल है जो आगे उठेंगे।
शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा की 44 सीटें जीतने के बाद भी भाजपा को मुख्यमन्त्री का चयन करने में एक सप्ताह का समय लग गया। ऐसा इसलिये हुआ कि भाजपा का मुख्यमन्त्री के तौर पर घोषित चेहरा पूर्व मुख्यमन्त्री एवम नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल सुजानपुर से अपना ही चुनाव हार गये। धूमल की हार के साथ ही प्रसारित हो गया कि जयराम ठाकुर को भाजपा हाईकमान ने दिल्ली बुला लिया है और वह प्रदेश के अगले मुख्यमन्त्री होने जा रहें है। इस प्रसारण को इसलिये भी बल मिला क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान जय राम के विधानसभा क्षेत्र में हुई एक रैली को संबोधित करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने सिराज की जनता को आश्वासन दिया था कि उनके विधायक को जीतने के बाद एक बड़ी जिम्मेदारी दी जायेगी। लेकिन जैसे ही जयराम का नाम मुख्यमन्त्री के लिये आगे बढ़ा उसी के साथ राजीव बिन्दल सुरेश भारद्वाज, नरेन्द्र बरागटा और किशन कपूर के नाम भी मीडिया ने सीएम के दावेदारों के साथ जोड़ दिये। लेकिन इसी बीच जब कार्यकर्ताओं से लेकर नेताओं तक ने धूमल और संयोगवश उनके निकटस्थों की हार मोदी लहर के होते हुए चर्चा का विषय बनी और कार्यकर्ताओं ने इसे महज एक संयोग मानने से इन्कार कर दिया तब सीएम के चयन का विषय भी एक प्रश्नचिन्ह बन गया। इस प्रश्नचिन्ह के आते ही दो दर्जन से ज्यादा विधायकों ने धूमल को ही फिर से सीएम बनाने की मांग कर दी। बल्कि दो विधायकों वीरेन्द्र कंवर और सुखराम चौधरी ने धूमल को पुनः चुनाव लड़वाने के लिये अपनी सीटें खाली करने का आॅफर तक दे दिया। पर्यवेक्षकों के सामने धूमल और जयराम के समर्थकों में समानान्तर नारेबाजी तक हो गयी। दोनों के समर्थकों ने कड़ा स्टैण्ड लेकर प्रोटैस्ट दर्ज करवाया। इस वस्तुस्थिति को देखते हुए पर्यवेक्षक दिल्ली लौट गये।
हाईकमान को सारी वस्तुस्थिति से अवगत करवाकर नये निर्देशों के साथ जब पुनः शिमला लौटे तो पूरे प्रदेश में यह संदेश फैल गया कि अब नड्डा मुख्यमन्त्री बनने जा रहे हैं। इस पर नड्डा के समर्थकों ने भी लडडू बांटकर जश्न की तैयारी कर ली। प्रदेश की जनता इस संदेश पर भी सतुंष्ट हो गयी। क्योंकि चुनावों की प्रक्रिया शुरू होने से बहुत अरसा पहले ही नड्डा संभावित मुख्यमन्त्री के रूप में देखे जाने लग पड़े थे। उनकी कार्यशैली से भी यही संकेत और संदेश जा रहे थे। इसलिये अब जब नड्डा का नाम नये सिरे से चर्चा में आया तो किसी को भी यह केवल मीडिया ही की खबर नही लगी। परन्तु जब अन्तिम परिणाम सामने आया तब फिर फैसला जयराम के पक्ष में सुनाया गया। इस फैसले की घोषणा के साथ यह भी चर्चा में आ गया कि देर शाम तक पंडित सुखराम और किश्न कपूर तथा धवाला की धूमल के साथ बैठक हुई जिसमें हाईकमान को अवगत करवा दिया गया कि विधायकों का बहुमत तो धूमल के साथ ही खड़ा है। सूत्रों के मुताबिक इस शक्ति प्रदर्शन से बचने के लिये ही धूमल ने एक वक्तव्य जारी करके स्पष्ट किया कि सीएम की वह रेस में नही है। धूमल के इस वक्तव्य के बाद ही जयराम का मार्ग प्रशस्त हुआ और उनके नाम की औपचारिक घोषणा हुई।
इस तरह सीएम के चयन में यह जो कुछ घटा उससे यह स्पष्ट हो गया है कि इस सहमति पर पहुंचने के लिये बड़ी कसरत करनी पड़ी है। इस पूरे घटनाक्रम में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल सामने आ खड़ा हुआ है कि क्या धूमल और उनके निकटस्थों की एक साथ हार क्या एक महज संयोग है या इसके पीछे कोई सुनियोजित शडयंत्र था? क्योंकि यदि यह एक संयोग है तब इन हारने वाले और दूसरे नेताओं को भी यह आत्मचितन्तन का अवसर है। लेकिन यदि यह एक षडयंत्र रहा है तो फिर यह संघ और भाजपा के लिये एक बड़े संकट का संकेत है क्योंकि आगे एक वर्ष के बाद लोकसभा के चुानव आने हैं। फिर इस बार भाजपा के लगभग सभी चुनावों क्षेत्रों से भीतरीघात की शिकायतें मिली हैं। इतने बडे पैमाने पर ऐसी शिकायतें पहली बार ही मिली हैं। इन शिकयतों पर पार्टी का आंकलन क्या रहता है इसका खुलासा तो आने वालेे दिनों में ही सामने आयेगा। लेकिन अब तक जो कुछ घट चुका है उसका प्रभाव सरकार पर अवश्य पडेगा। मन्त्रीमण्डल का गठन कैसा रहता है इसमें पुरानेे अनुभवी लोगों को जो पहले भी मन्त्री या मन्त्री स्तर तक की जिम्मेदारी निभा चुके हैं उन्हें कितनी जगह मिलती है और इनके साथ नये लोगों को कितना स्थान दिया जाता है इस पर सबकी निगाहें रेहगी। क्योंकि प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ है कि चुनावों के दौरा कांग्रेस से निकलकर एक मन्त्री भाजपा में शामिल होता है और पार्टी उसे टिकट देती है तथा वह जीत भी जाता है। अनिल शर्मा का मामला ऐसा ही है। अब क्या अनिल शर्मा को मन्त्रीमण्डल में स्थान मिलता है या नही। यह पार्टी के लिये भी एक कसौटी रहेगा। क्योंकि मण्डी में ही सबसे सशक्त और वरिष्ठ ठाकुर महेन्द्र सिंह हैं। ऐसे में क्या महेन्द्र सिंह और अनिल शर्मा दोनों को एक साथ जगह मिल पायेगी। इसी तहर शिमला में सुरेश भारद्वाज और नरेन्द्र बरागटा का मामला है क्या इन दोनों को भी एक साथ ले लिया जायेगा? कांगड़ा में किशन कपूर, सरवीण चौधरी, राकेश पठानिया, विपिन परमार और रमेश धवाला सब एक बराबर के दावेदार हैं। इनके बाद राजीव बिन्दल, वीरेन्द्र कंवर, गोबिन्द ठाकुर और डा॰ रामलाल मारकण्डेय पुराने लोगों में से हैं। इन सारे पुराने लोगों का ही एक साथ मन्त्रीमण्डल में आ पाना संभव नही है। फिर ऐसे में नये लोगों को कैसे समायोजित किया जायेगा यह बड़ा सवाल मुख्यमन्त्री के सामने रहेगा। स्वभाविक है कि भाजपा को भी संसदीय सचिव बनाकर ही यह तालमेल बिठाना पड़ेगा।
इस समय प्रदेश का कर्जभार 50,000 करोड़ से ऊपर जा पहुंचा है। भारत सरकार का वित्त विभाग मार्च 2016 में कर्ज की सीमा को लेकर सरकार को कड़ा पत्र लिख चुका है। ऐसे में वित्तिय स्थिति भी नई सरकार के लिये गंभीर चुनौति होगी। इसके लिये पिछली सरकार के अन्तिम तीन माह में लिये गये फैसलों पर नये सिरे से विचार करने या इन्हे बदलने से ही समस्या हल नहीं होगी। भ्रष्टाचार पर जीरो टालरैन्स का दावा हर बार किया जाता रहा है लेकिन आज तक अपने ही आरोप पत्रों पर भाजपा सत्ता में आकर कोई कारवाई नहीं कर पायी है। इस बार अनिल शर्मा तो एक ऐसा मुद्दा बन जायेगा कि एक ओर उस पर भाजपा के ही आरोप पत्र मे आरोप दर्ज हैं तो दूसरी ओर उसका मन्त्री बनना भी तय माना जा रहा है। ऐसे दर्जनों मामले हैं जहां सरकार को कड़ी परीक्षा से गुजरना होगा। वनभूमि पर हुए अतिक्रमणों से लेकर प्रदेश भर में हुए अवैध निर्माणों पर उच्च न्यायालय से लेकर एन जी टी तक के आये फैसलों पर अमल करना जयराम सरकार के लिये सबसे चुनौति और कसौटी सिद्व होगी।
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