Friday, 19 September 2025
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नौ वर्षों में 35,000 करोड़ डकार चुके उद्योगों के लिये फिर मांगी गयी राहतें

शिमला/शैल। कैग रिपोर्ट के मुताबिक हिमाचल के उद्योगों को 2009 से 2014 के बीच 35000 करोड़ की विभिन्न करों में राहत मिल चुकी है लेकिन इस राहत के बावजूद यह उद्योग प्रदेश के युवाओं को वांच्छित रोज़गार नही दे पाये हैं। 35000 करोड़ का यह आंकड़ा सरकारी फाईलों में दर्ज रिटर्नज़ पर आधारित है। यह दावा है केन्द्र के वित्त विभाग का जिसे प्रदेश की अफसरशाही मानने को तैयार नही हैं लेकिन कैग में दर्ज इस रिपोर्ट को प्रदेश के यह बड़े बाबू खारिज भी नही कर पाये हैं। 2017 में उद्योग विभाग ने प्रदेश में पंजीकृत छोटे बडे़ उद्योगों, उनमें हुए निवेश और इनमे मिले रोज़गार के आंकड़े जारी किये थे। इन आंकड़ो के मुताबिक प्रदेश में 40,000 उद्योग ईकाईयां पंजीकृत हैं जिनमें उद्योगपतियों का 17000 करोड़ का निवेश है तथा इन उद्योगों में 2,58,000 कर्मचारी कार्यरत है। इन आंकड़ोे से यह स्पष्ट होता है कि 52,000 करोड़ के निवेश से करीब तीन लाख लोगों को रोज़गार हासिल हुआ है। क्योंकि 40,000 उद्योपति और 2,58,000 कर्मचारी मिला कर तीन लाख का आंकड़ा बनता है। 35000 करोड़ की राहत तो 2009 से 2014 के बीच मिली है जबकि उद्योगों की ओर से 1977 से ही जब शान्ता कुमार के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तभी से विशेष ध्यान दिया जा रहा है। उसी दौरान परवाणु, मैहतपुर-पांवटा साहिब और डमटाल के ओद्यौगिक परिसरों की स्थापना हुई थी।
1977 से ही उद्योगों को राहतें प्रदान की जाती रही है और यदि तब से लेकर अब तक मिल चुकी राहतों के सारे आंकड़ो को इकट्ठा करके देखा जाये तो यह रकम एक लाख करोड़ से अधिक की हो जाती है। उद्योगों को सुविधायें देने के लिये ही वित्त निगम की स्थापना की गयी थी। प्रदेश का खादी बोर्ड भी उद्योगों की ही सेवा कर रहा था। इन संस्थानों के माध्यम से उद्योगों को ऋण सुविधा दी जाती रही है लेकिन आज यह दोनों संस्थान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इनके प्रदेश मुख्यालय के बाहर के कई कार्यालय बन्द हो चुके हैं क्योंकि इनका दिया हुआ बहुत सारा कर्ज डूब चुका है। इस परिदृश्य में आज यह सबसे बड़ा सवाल बन चुका है कि क्या हमारी उद्योगनीति सही दिशा में रही या नहीं। आज उसका नये सिरे से आंकलन करने की आवश्यकता है लेकिन क्या प्रदेश की अफसरशाही यह आंकलन होने देना चाहेगी? क्योंकि वित्त निगम का तो पूरा प्रबन्धन अफसरशाही के ही पास रहा है। प्रदेश का मुख्य सचिव ही वित्त निगम का अध्यक्ष होता है और सचिव वित्त इसके निदेशकों में शामिल रहता है। इसी अफसरशाही के प्रबन्धन में चलता आ रहा वित्त निगम पूरी तरह फेल हो चुका है।
प्रदेश के उद्योगों और उद्योग नीति का निष्पक्ष और व्यवहारिक आंकलन राजनीतिक नेतृत्व को करना है लेकिन अभी दिल्ली में राज्यों के वित्त मन्त्रीयों की केन्द्रिय वित्त मन्त्री के साथ आयोजित बजट पूर्व बैठक में मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने उद्योगों के लिये नये सिरे से राहत की मांग की है। उन्होनेे प्रदेश में लगने वाले उद्योगों के लिये पहले पांच वर्षों में सौ प्रतिशत और अगले पांच वर्षों में 50% करो में राहत प्रदान करने की मांग की है। इसी के साथ सात वर्षों की अवधि के लिये ब्याज में सात प्रतिशत की छूट दिये जाने की भी मांग की है। इसके तहत उद्योगपतियों को लम्बी अवधि के कर्जों और पूंजीगत कर्जों पर सात प्रतिशत ब्याज की राहत मांगी गयी है।

राज्यपाल के अभिभाषण पर अनचाहे ही घिर गयी सरकार

शिमला/शैल। नवनिर्वाचित विधायकों को शपथ दिलाने के लिये धर्मशाला के तपोवन स्थित विधानसभा परिसर में आयोजित पहले ही सत्र में विपक्ष सत्ता पक्ष पर हावी रहा है। हालांकि इस सत्र में विधायकों की शपथ के बाद विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चयन एक सामान्य कार्यावाही ही थी। इस कार्यावाही के बाद दूसरा बड़ा काम राज्यपाल का अभिभाषण था। क्योंकि नव निर्वाचित विधायक शपथ के बाद ही सही अर्थो में विधायक बनें हैं और इसके बाद ही वह विधायी कार्य कर पायेंगे। ऐसे में नयी विधानसभा के पहले ही सत्रा में राज्यपाल के अभिभाषण और उस पर चर्चा के अतिरिक्त और कोई बड़ा कार्य नही था।
राज्यपाल का अभिभाषण मन्त्रीमण्डल तैयार करता है और उसके अनुमोदन के बाद ही इसे राज्यपाल को भेजा जाता है। अभिभाषण का प्रारूप जब राजभवन में पंहुच जाता है तब राज्यपाल का सचिवालय इसका अध्ययन करता है और फिर राज्यपाल के पास इसे रखा जाता है। यदि राजभवन को लगे कि अभिभाषण के किसी बिन्दु पर सरकार से और जानकारी या चर्चा की आवश्यकता है तो ऐसी जानकारी मांग ली जाती है। क्योंकि राज्यपाल जब सदन को संबोधित करते हैं तब वह सरकार को ‘‘ मेरी सरकार’’ कहकर संबोधित करते हैं। क्योंकि सरकार ही राज्यपाल की सहायक और सलाहकार होती है। सरकार का हर आदेश राज्यपाल के नाम से ही जारी होता है। इस परिदृश्य में जब राज्यपाल सदन को संबोधित करते हैं तो उनका हर कथ्य सरकार का कथ्य बन जाता है। उनका संबोधन सरकार के पूरे कार्य चित्र और चरित्र का आईना होता है।
राज्यपाल के इस संबोधन में यह दावा किया गया है कि जयराम प्रदेश के अब तक रहे मुख्यमन्त्रिायों में सबसेे युवा मुख्यमन्त्री हैं। विपक्ष ने इस दावे को तथ्यों केे विपरीत करार देते हुए सदन में रखा कि डा.परमार, ठाकुर रामलाल, शान्ता कुमार और वीरभद्र जब मुख्यमन्त्री बने थे तब वह आयु में जयराम से छोटेे थे। बल्कि जब धूमल मुख्यमन्त्राी बने थे तब वह भी इसी आयु वर्ग में थे। इस तरह राज्यपाल के इस संबोधन का यह कथ्य तथ्यों के विपरीत था। यह कथ्य ऐसा कुछ बड़ा नही था जिससे सरकार की कारगुजारी पर गुणात्मक रूप से कोई बड़ा फर्क पड़ेगा। लेकिन यह कथ्य अभिभाषण में आया है इसलिये इसकी अहमियत बढ़ जाती है। इस कथ्य के तथ्य की दर्ज होने से पहले पड़ताल हो जानी चाहिये थी इसे हल्के से नही लिया जाना चाहिये था। तथ्यों के गलत होने की जिम्मेदारी किसी पर तय होनी चाहिये थी। क्योंकि यह एक सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता का किसी सड़क के नुक्कड़ पर दिया जाने वाला भाषण नही था।
इसी तरह धार्मिक पर्यटन के लिये भी जिस तरह का शब्द चयन किया गया है उसको लेकर भी विपक्ष की टिप्पणी सरकार पर भारी पड़ी है। यही नही भाजपा ने चुनावों के दौरान जो चुनाव घोषणा पत्रा ‘‘दृष्टि पत्र’’ के नाम से जारी किया था उसे राज्यपाल के अभिभाषण में सरकार का नीति पत्रा करार दिया गया है। यह स्वभाविक और तय सत्य है कि हर सरकार अपने घोषणा पत्रा के दावों को पूरा करने के लिये काम करती है और उसे अपना नीति दस्तावेस बनाकर चलती है। लेकिन जब राज्यपाल के अभिभाषण में यह दावा किया जाता है तब यह अपेक्षित हो जाता है कि इस दृष्टि पत्रा को भी सदन में रखा जाता। क्योंकि अभिभाषण की प्रति सदन में रखी जाती है और सभी सदस्यों को उपलब्ध करवाई जाती है। परन्तु इस अभिभाषण में उल्लेखित दृष्टि पत्र एक अलग दस्तावेज है जिसका अभिभाषण में जिक्र किया जा रहा है और वही दस्तावेज सदन के पटल पर नही है। कायदे से ऐसा नही होना चाहिये था।
यह कुछ छोटे-छोटे बिन्दु रहे हैं जिन पर विपक्ष सत्तापक्ष पर भारी पड़ गया। इन बिन्दुओं का ध्यान यह अभिभाषण तैयार कर रहे सचिवालय के अधिकारियों को रखना चाहिये था। सचिवालय के साथ ही राजभवन के सचिवालय ने भी इन पर ध्यान नही दिया। जबकि राज्यपाल और मुख्यमन्त्राी दोनों के पास ही अधिकारियों के साथ ही सलाहकार भी नियुक्त हैं । लेकिन ऐसा लगता है कि इस अभिभाषण को किसी ने भी गंभीरता से नही लिया है और इसी कारण से विपक्ष सता पक्ष पर भारी पड़ गया।

पुलिस में हुए फेरबदल में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने प्रदेश के पुलिस प्रमुख सोमेश गोयल को हटाकर सीताराम मरड़ी को पुलिस प्रमुख के तौर पर तैनाती दी है। मरड़ी 1886 बैच और गोयल 1984 बैच के आई पी एस अधिकारी हैं। गोयल जून 2017  में  डी जी पी स्टेट बने थे। उनसे पहले 1985 बैच के संजय कुमार डी जी पी थे। क्योंकि जब संजय कुमार को डी जी पी बनाया गया था उस समय गोयल के खिलाफ विजिलैन्स में एक मामला चल रहा था। इस कारण से उनकी वरिष्ठता को नज़रअन्दाज किया गया। लेकिन अब जब 2017 में गोयल का मामला समाप्त हुआ तो संयोगवश उसी दौरान संजय कुमार केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर चले गये और गोयल आसानी से डी जी पी स्टेट बन गये। परन्तु अब गोयल केन्द्र में प्रतिनियुक्ति पर नही गये  हैं और उन्हें छः माह के बाद ही पद से हटाकर उनसे कनिष्ठ को डी जी पी नियुक्त कर दिया गया है। पुलिस के शीर्ष पर हुए फेरबदल को लेकर पुलिस मुख्यालय से लेकर सचिवालय तक में सवाल उठने शुरू हो गये हैं। सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार पुलिस प्रमुख को दो सालों के कार्यकाल से पहले ही हटा सकती है या नही? 
यह सवाल इसलियेे उठ रहा है कि पुलिस तन्त्र में सुधार किये जाने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रयास एक लम्बे अरसे से चले आ रहे थे उनके तहत 1979 में राष्ट्रीय पुलिस कमिशन का गठन किया गया था। इस कमिशन की रिपोर्टों पर जब कोई कारवाई नही हुई तब 1996 में दो सेवानिवृत पुलिस प्रमुखों ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की। डी जी पी प्रकाश सिंह और एन के सिंह ने याचिका दायर करके अदालत से आग्रह किया कि सरकार को एनपीसी की सिफारिशें लागू करने के निर्देश दिये जायें। इस याचिका पर 22 सितम्बर 2006 को सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया और इसमें सरकार को सात निर्देश दिये गये और इस पर राज्य सरकारों से भी अनुपालना रिपोर्ट तलब की गयी थी। इसके लिये 16 मई 2008 को एक माॅनिटरिंग कमेटीे का भी गठन किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में जो सात निर्देश जारी किये थे उनके तहत पहला था कि स्टट सिक्योरिटी कमीशन का गठन किया जाये। दूसरा था कि डी जी पी की नियुक्ति पारदर्शी हो और उसका कार्याकाल कम से कम दो वर्ष का रहे। तीसरा था कि आॅप्रेशन डयूटी पर तैनात जिला पुलिस चीफ से लेकर एस एच ओ तक को दो वर्ष का कार्यकाल दिया जाये। 

स्मरणीय है कि जब सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया था और उस पर अमल की रिपोर्ट तलब की गयी थी तब हिमाचल सरकार ने एक अध्यादेश लाकर तुरन्त प्रभाव से इस पर अमल किया था और बाद में विधानसभा सत्रा के दौरान इस आश्य का नियमित विधेयक पारित किया गया था। इस विधेयक और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पुलिस में इन पदों पर तैनात अधिकारियों को दो वर्ष के कार्यकाल से पहले किसी ठोस कारण के बिना हटाना संभव नही है। केरल और गोवा में राज्य सरकारों द्वारा डी जी पी को उनके पदों से हटाया गया था। इस हटाने को जब अदालत में चुनौती दी गयी थी तब सरकार को अपने फैसले वापिस लेने पडे़ थे। अब 2017 में भी सर्वोच्च न्यायालय ने दो वर्ष के कम से कम कार्यकाल को लेकर सरकार को कड़े़ निर्देश दिये हैं। यह सब संभवतः इसलिये किया गया है ताकि पुलिस और जांच ऐजैन्सीयों  पर ‘‘पिंजरे का तोता’’ होने के आरोप कम से कम लगें। आज प्रदेश में सरकार बदली है। नये मुख्मन्त्री ने कार्यभार संभाला है। गृह विभाग भी उन्ही के पास है। संभव है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले और सरकार के अपने ही विधेयक की जानकारी शायद मुख्मन्त्री को न रही हो। लेकिन गृह सचिव को इसकी जानकारी रहना स्वभाविक और आवश्यक है तथा यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह मुख्मन्त्री को भी इससे अवगत करवायें। क्योंकि आज यदि कोई अधिकारी या अन्य व्यक्ति इस फैसले को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटा देता है तो सरकार के लिये कठिनाई पैदा हो सकती है। क्योंकि अभी सरकार ने यह ऐलान किया है कि वह पिछली सरकार द्वारा बनाये गये मामलों को वापिस लेगी। जबकि यह मामले वापिस लेने के लिये संबंधित जांच अधिकारियों के खिलाफ भी झूठे या कमजा़ेर मामले बनाने के लिये कारवाई करने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय एक मामले में संबधित अधिकारियों को जारी कर चुका है। कानून के इस परिदृश्य में पुलिस में हुए कुछ फेर बदल सरकार के लिये परेशानी खड़ी कर सकते हैं क्योकि कई अधिकारियों का दो साल का कार्यकाल पूरा नही हुआ है।

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