शिमला। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष का समय हो गया है। सरकार की सफलता/असफलता के आकलन के लिये यह पर्याप्त समय माना जा रहा है। क्योंकि भाजपा पहले भी केन्द्र में सत्ता में रह चुकी है। कई बडे़ राज्यों में उसकी सरकारें है। मोदी स्वयं पन्द्रह वर्ष तक गुजरात के मुख्य मंत्री रह चुके है फिर 2014 के लोकसभा चुनावों में मोदी ने देश की जनता से साठ महीने का समय सरकार के लिये मांगा था। इस सबको सामने रखते हुए सरकार का एक निष्पक्ष आकलन बनता है। 2014 के चुनावों से पहले यू पी ए सरकार के खिलाफ सबसे बडा आरोप भ्रष्टाचार का था जनता में रामदेव और अन्ना के आन्दोलनों से भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा आक्रोश उभरा और उस आक्रोश में मोदी जनता की उम्मीदों के केन्द्र बन गये थे। लेकिन दो वर्ष के समय में यू पी ए शासन के खिलाफ भ्रष्टाचार के किसी भी मामलें में कोई ठोेस कारवाई अब तक सामने नही आई है। मोदी यह दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई मामला सामने नही आया है। लेकिन यहां प्रधानमंत्री को यह मानना होगा कि क्या वह अपनी राज्य सरकारों के बारे में भी ईमानदारी से यह दावा कर सकते हैं? केन्द्र में आज भ्रष्टाचार है या नही इसका पता आने वाले समय में लगेगा। प्रधानमन्त्री का यह दावा कि एल ई डी बल्बों, कैरोसीन तेल और फर्जी राशन कार्ड, फर्जी अध्यापक आदि कार्डो में लाख करोड़ से अधिक का पर्दाफाश करके इतने धन को बचा लिया गया है। प्रधानमन्त्री का यह दावा सही हो सकता है लेकिन इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि इस भ्रष्टाचार के लिये किसे सजा दी गयी? क्या घपला सिर्फ कांग्रेस शासित राज्यों में ही हुआ है या भाजपा शासित राज्योें में भी फर्जीे राशन कार्ड पाये गये?े प्रधानमंत्री ने आधार कार्ड के साथ लिंक करके लाभार्थी को सीधा लाभ पहुंचाने का भी दावा किया है लेकिन मोदी जी को यह भी स्मरण रखना होगा कि यू पी ए शासन काल में इसी योजना पर भाजपा का विरोध कितना था। फिर इन सब दावों से इस सच्चाई को भी नजर अन्दाज नही किया जा सकता कि आज खाद्य पदार्थो की कीमतें पहलेे से ज्यादा बढ़ गयी है और इस मंहगाई को किसी भी गणित से नजर अन्दाज नही किया जा सकता ।
प्रधानमन्त्री ने इन दो वर्षो में जितनी विदेश यात्राएं की हंै और इन यात्राओं में जितने आपसी समझौते हुए हैैं उनसे आम आदमी को कितना लाभ अब तक मिल पाया है। इसको लेकर कोई दावा अब तक सामने नहीं आया है। काले धन का मसला अपनी जगह पहले की तरह ही खड़ा है। यह सही है कि इन विदेश यात्राओं में प्रधानमन्त्री जंहा भी गये हैं वहां रह रहे प्रवासी भारतीयों में उनको लेकर बड़ा उत्साह देखने को मिला है लेकिन आज भारत से बाहर रह रहे भारतीयों का प्रतिशत कितना है? देश की कुल आबादी के एक प्रतिशत से अधिक नही है। ऐसे में क्या सारी योजनाओं का केन्द्र केवल एक प्रतिशत लोगों को ही मान लिया जाना चाहिए? अभी तक मोदी सरकार ने जितनी भी विकास योजनाओं का चित्र देश के सामने रखा है उसका प्रत्यक्ष लाभ पांच प्रतिशत से अधिक के लिये नही है। प्रधानमंत्री ने स्वयं माना है कि गरीब आदमी को जो दो तीन रूपये किलो सस्ता अनाज मिल रहा है। उसमें 27 रूपये प्रति किलो की सब्सिडी केन्द्र सरकार दे रही है लेकिन यह जो 27 रूपये दिये जा रहे है यह धन कहां से आ रहा है? फिर सरकार यह 27 रूपये तो उस व्यापारी को दे रही है जो इस राशन की सप्लाई कर रहा है। इसी राशन में फर्जी बाडा भी हो रहा है। इसलिये इस व्यवस्था से किसी को भी लाभ नही हो रहा है न सरकार को और न ही अन्न उगाने वाले किसान का। इसलिये आज इतना बड़ा जन समर्थन हासिल करने के बाद मोदी सरकार सरकार को इस संद्धर्भ में अब तक जितनी भी योजनांए आम आदमी के नाम पर आयी हंै उनका सीधा लाभ बडे़ व्यापारी को ही हुआ है। क्योंकि वह हर येाजना में सप्लायर की भूमिका में रहा है। इसलिये यदि मोदी सरकार इस सप्लायर के चगंुल से आम आदमी को बचाने का प्रयास करती है तभी वह सफल हो पायेगी। शहरों के नाम बदलने उनको स्मार्ट बनाने और स्कूली पाठयक्रमों में कुछ बदलाव करके केवल समाज के अन्दर एक अलग तरह का तनाव पैदा किया जा सकता है लेकिन उससे आम आदमी का कोई स्थायी लाभ होने वाला नही है इसलिये अभी मोदी सरकार को व्यापक संद्धर्भो में सफल करार नही दिया जा सकता ।
शिमला/शैल। चार राज्यों में हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा है। केवल केन्द्र शासित पांड़िचेरी में कांग्रेस को जीत हासिल हुई है। इन राज्यों में पहले केरल और असम में कांग्रेस की सरकारें थी। इन राज्यों में कांगे्रस न केवल हारी है बल्कि शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा है। इन राज्यों में हुए चुनावों से पूर्व बिहार विधान सभा के चुनाव हुए थे और वहां पर कांग्रेस आर जे डी और जे डी यू मिलकर भाजपा को सत्ता से बाहर रखने में सफल हो गये थे। बिहार में भाजपा को मिली हार के बाद यह राजनीतिक चर्चा चल पड़ी थी कि अब गैर भाजपा दल मिलकर भाजपा का आगे आने वाले चुनावों में सत्ता से बाहर रखने में सफल होते जायेंगे। बिहार की जीत के बाद नीतिश कुमार ने भी राष्ट्रीय राजनीति में आने के संकेत दे दिये। नीतिश के संकेतों के साथ ही कांग्रेस ने उनके चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं लेकर उनको यू पी की जिम्मेदारी सौंप दी है। लेकिन इन चार राज्यों के चुनावांे में भाजपा ने असम में शानदार जीत के साथ सरकार बनाने के साथ ही अन्य राज्यां में अपना वोट बैंक प्रतिशत बढाया है। इस चुनाव में भाजपा की असम जीत से ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल है कांग्रेस की हार।
कांग्रेस आज भी भाजपा से बड़ी राष्ट्रीय पार्टी है। देश के हर गांव मंे उसका नाम जानने और लेने वाला मिल जायेगा। क्योंकि देश की अग्रेंजी शासन से स्वतन्त्राता का सारा श्रेय आज भी उसी की विरासत माना जाता है। देश की स्वतन्त्राता के समय यहां की सामाजिक स्थितियां क्या थी और उनसे बाहर निकाल कर आज के मुकाम तक पहुंचाने में कांग्रेस के गांधी-नेहरू पीढ़ी के नेताओं का जो योगदान रहा है उसे आसानी से भुलाया नही जा सकता। भले ही आज नेहरू का नाम स्कूली पाठ्यक्रमों से बाहर रखने का एक सुनियोजित ऐजैन्डा और उस पर अमल शुरू हो गया है लेकिन आज केवल गांधी-नेहरू विरासत के सहारे ही चुनाव नही जीते जा सकते है। देश को आजादी मिले एक अरसा हो गया है। आज सवाल यह है कि इस अरसे में देश पहंुचा कहां है? आज देश की मूल समस्याएं क्या हैं। आज भी सस्ते राशन के वायदे पर चुनाव लडा और जीता जा रहा है। दो रूपये गेहूं और तीन रूपये चावल के चुनावी वायदे अपने में बहुत खतरनाक हंै। इनके परिणाम आने वाले समय के लिये बहुत घातक होंगे। क्योंकि इस सस्ते राशन के लिये धन कहां से आयेगा? फिर क्या किसान इस कीमत पर अनाज बेच सकता है। लेकिन आज इन सवालों पर कोई सोचने तक को तैयार नही है। आज चुनाव खर्च इतना बढ़ा दिया गया है कि आम आदमी चुनाव लड़ने का साहस ही नही कर सकता हैं बल्कि चुनाव की इच्छा रखने वाले हर व्यक्ति को राजनीतिक दलों के पास बंधक बनने के लिये विवश होने जैसी स्थिति बन गयी है। आज जिस तरह के चुनावी वायदे राजनीतिक दल करते आ रहे हैं और उनको पूरा करने की कीमत आम आदमी को कैसे चुकानी पड़ रही है उस पर अभी किसी का ध्यान नही है। लेकिन जब यह सवाल आम बहस का विषय बनेगें तब इसका परिणाम क्या होगा इसकी कल्पना से भी डर लगा है।
इस परिदृष्य में आज कांगे्रस जैसे बड़े दल का यह दायित्व है कि वह इन चुनाव परिणामों की समीक्षा अपनी विरासत की पृष्ठ भूमि को सामने रखकर करे। आज भ्रष्टाचार बेरोजगारी और मंहगाई ही देश की सबसे बड़ी समस्यायें और इनका मूल चुनावी व्यवस्था है। कांग्रेस पिछले लोकसभा चुनावों से लेकर अब तक जो कुछ खो चुकी है उसके पास शायद अब और ज्यादा खोने को कुछ नही रह गया है पंजाब और यू पी के चुनावों में भी कांग्रेस के लिये बहुत कुछ बदलने वाला नही है। ऐसे में यदि कांग्रेस अपने अन्दर बैठे भ्रष्ट नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा देती है तो उसकी स्थिति में बदलाव आ सकता है अन्यथा नही।
शिमला। उत्तराखण्ड में अन्ततः राष्ट्रपति शासन हट गया है। क्योंकि शक्ति परीक्षण में कांग्रेस बहुमत पाने में सफल हो गयी। उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन के खिलाफ पहले वहां के उच्च न्यायालय ने फैसला दिया जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौति दी गयी।
इस बीच स्टिंग आपरेशन हुए जिसको लेकर सी.बी.आई. की जांच चल रही है। इसी बीच राष्टपति शासन के खिलाफ फैसला देने वाले न्यायध्ीश को लेकर सोशल मीडिया में हर तरह का प्रचार और प्रतिक्रियाएं भी सामने आयी और संभवतः इसी सबके कारण उनका वहां से तबादला भी हो गया। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय भी इस फैसले को पलट नहीं सका है। उत्तराखण्ड में राजनीतिक तौर पर जो कुछ घटा और उसका जो भी अन्तिम परिणाम शक्ति परीक्षण में सामने आया है उसे राजनीतिक दलों की अपनी-अपनी राजनीति के तौर पर देखा जा सकता है। उसके पक्ष और विरोध में अपने-अपने तर्क हो सकते हैं। लेकिन इस पूरे प्रकरण में जिस तरह का प्रचार उच्च न्यायालय के न्यायाध्ीश के खिलाफ आया है वह पूरी व्यवस्था के लिए एक गम्भीर संकेत और संदेश है जिसके परिणाम भयानक और दूरगामी होंगे। क्योंकि यह प्रतिक्रिया फैंसले पर ना होकर फैंसला देने वाले के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर थी। यह न्यायधीश एक अरसे से उच्च न्यायपालिका में है और दर्जनों मामलों में फैंसले दिये होंगे लेकिन आज तक इस तरह उनके खिलाफ पहले कभी नहीं आया।
इसमें चिन्ता जनक सवाल यह उभरता है कि क्या जब भी राजनीतिक हितों के खिलाफ कोई ऐसा फैसला देगा तो क्या उसका इस तरह से चरित्र हनन किया जायेगा? फिर यदि न्यायाधीश के खिलाफ सही में ही ऐसा कुछ था तो फिर उसका विरोध पहले क्यों नहीं किया गया। आज उत्तराखण्ड के राष्ट्रपति शासन का लाभ केवल भाजपा को मिलना था। इस लाभ के लिए ही विधानसभा को भंग किये बिना राष्ट्रपति शासन लगाया था ताकि आगे चलकर चुनावों से पहले ही वहां पर भाजपा सरकार बना लेती। लेकिन जब उच्च न्यायालय के फैसले से बाजी पलट गयी तो न्यायधीश को ही निशाने पर ले लिया गया। निश्चित तौर पर इस तरह के प्रचार के पीछे भाजपा/ संघ के समर्थकों की ही भूमिका थी। इससे भाजपा और संघ की छवि को लेकर आने वाले समय में यह प्रचारित होता चला जाएगा कि यदि इनके राजनीतिक हितों के खिलाफ कहीं पर भी इस तरह का कुछ घटता है तो उसको लेकर यह लोग किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। क्योंकि भाजपा/संघ के किसी भी बड़े ने इस तरह के प्रचार की निन्दा नहीं की है।
अभी भाजपा को देश भर में स्थापित होने में समय लगेगा भले ही लोकसभा में उनके पास 282 सीटें अपनी अकेली हैं। लेकिन जब तक राज्यों की सत्ता उनके हाथ में नही आ जाती है तब तक उसके हिन्दुवादी स्थापनों के प्रयासों को देश स्वीकार नहीं करेगा। आज राजस्थान में जिस तरह से स्कूली पाठ्यक्रम से देश के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू का नाम हटाया गया है वह भी उत्तराखण्ड़ के न्यायाध्ीश के खिलाफ किये जा रहे प्रचार जैसा ही प्रयास है। ऐसे ही गुजरात में दीनानाथ बत्रा की पुस्तकों को स्कूल पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने का कदम है। भाजपा को केन्द्र की सत्ता भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ ठोस कड़ी कारवाईयां करने की उम्मीद में मिली है। लेकिन अभी दो वर्षों में भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रचार के अतिरिक्त कुछ भी ठोस नहीं किया जा सका है। भाजपा जिस तरह से नेहरू गांधी को घेरने का प्रयास कर रही है उससे उसे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। बल्कि इस तरह के प्रयासों से राहुल/सोनिया को और ताकत मिलेगी। जिस तरह से उत्तराखण्ड में सरकार गिराने का प्रयास किया गया यदि वैसा ही प्रयास किसी और राज्य में किया गया तो परिणाम बहुत भयानक होंगे। यदि भ्रष्टाचार के ठोस मामलों में कुछ एक भाजपा नेताओं और कुछ कांग्रेस के मुख्यमन्त्रियों के खिलाफ तुरन्त कारवाई की जाती है तो उससे ही भाजपा और मोदी दोनांे को लाभ मिलेगा अन्यथा नही है।
गांधी जी ने राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक या जो भी विचार व्यक्त किए हैं उनका आधार कोई स्वरचित ग्रन्थ नही था वरन् वह मानवतावादी विचारक थे। भारतीय निर्धनों की दशा से द्रवित होकर उन्होने समय -समय पर जो भी विचार प्रतिपादित किये वे उनकी आर्थिक योजनाओं तथा अर्थव्यवस्थाओं पर प्रकाश डालते हैं। गांधी जी, अन्य विचारकों के समान अपने समय की अर्थव्यवस्था से असन्तुष्ट थे क्योंकि तत्कानील पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा उसकी उत्पादन क्षमता सामाजिक जीवन की आवश्कयताओं को पूरा करने में असमर्थ थी और आज भी है। गांधीजी पूंजीवाद को शोषण पर आधारित व्यवस्था बताते हैं। इसलिए, वह सरल अर्थव्यवस्था प्रतिपादित करने के समर्थक थे। गांधीवादी अर्थव्यवस्था की व्याख्या हम गांधीजी के निम्मलिखित विचारों के आधार पर कर सकते है।
रोटी के लिए श्रम का सिद्धांत (Bread Labour) सर्वप्रथम हम गांधी जी के द्वारा प्रतिपादित रोटी के लिए श्रम का सिद्धांत की व्याख्या करेंगे। यह सिद्धांत ‘जो कार्य नहीं करेगा वह खायेगा भी नहीं’ का सिद्धांत है। गांधी जी का कहना है कि जीवन में रोटी मुनष्य की अनिवार्यतम आवश्यकता है और वह कठिन परिश्रम से प्राप्त होती है। अतः जो व्यक्ति बिना उपयुक्त श्रम के भोजन करता है वह चोर है। वह व्यक्ति जो आधुनिक सभ्यता के आवरण में अपनी आवश्यकताएं बढ़ाए जाते है तथा स्वयं शारीरिक श्रम नहीं करते वे अन्य व्यक्तिों (गरीबो) का शोषण करते हैं। गांधीजी शारीरिक श्रम को अधिक महत्व देते हैं। उनका विचार था कि शारीरिक श्रम करने वाला मेहनती ईमानदार तथा चरित्रवान होता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजि परिश्रम से तथा खाने की वस्तु का उत्पादन करने से आर्थिक समानता की नींव पडे़गी। यदि प्रत्येक व्यक्ति ऐसा नहीं कर सकते तो उन्हेें ऐसे कार्य करने चाहिए जिसमें उनका शारीरिक श्रम लगता हो जैसे कताई, बुनाई, काष्ठकला तथा अन्य हस्त कलाएं।
गांधी जी शारीरिक श्रम को प्राकृतिक नियम मानते थे। जिस तरह मानसिक भूख को शांत करने के लिए लौकिक कार्य किये जाते हैं उसी प्रकार शरीर की भूख रोटी से शान्त होती है। गांधी जी का मामना है कि बौद्धिक या मानसिक श्रम करने वाले को भी शारीरिेक श्रम करना चाहिए उसके द्वारा ही वह अपनी बौद्धिक प्रतिभा को अधिक विकसित कर सकता है। यह श्रम ऐच्छिक होना चाहिए, अनिवार्य नहीं, क्योंकि इसकी अनिवार्यता व्यक्ति को असन्तुष्ट बनाए रखेगी ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाः गांधी जी आधुनिक अर्थव्यवस्था को पूंजीवादीे अर्थव्यवस्था बताते थे तथा वह इसके विरूद्ध थे। इस प्रणाली में कुछ बडे-बडे धनाढ्य व्यक्ति अपनी पूंजी का उपयोग बडी बडी मशीनों में लगाते है और मशीनों द्वारा उत्पादन किया जाता है। पूंजीपति उन कारखानों में कार्यरत मजदूरों का शोषण करते है। उद्योगों का सचालन मुटठी भर पूंजीपतियों के हाथों में चला जाता है उन्ही के हाथों में समाज का धन भी केन्द्रित हो जाता है। धन का असमान वितरण और संचय होने से शोषण, भूखमरी और आर्थिक विषमता बढ़ती चली जाती है। पूंजीपति अपने कारखानों के लिए कच्चा माल प्राप्त करने तथा निर्मित माल की मंडिया प्राप्त करने के लिए साम्राज्य निर्माण में प्रवृत हो जाते हैं। राज्य इसी प्रवृति के अधीन होकर कार्य करते हैं, इससे अन्तर्राष्ट्रीय तनाव, अशांति और महायुद्ध उत्पन्न होते हैं।
विकेन्द्रीकरणःगांधी जी ने आर्थिक क्षेत्रों में विकेन्द्रीयकरण के सिन्द्धात का प्रतिपादन किया है वह आर्थिक क्षेत्रों में धन के संकेन्द्रीकरण को सब बुराईयों की जड़ मानते थे। अतः आदर्श अहिंसात्मक राज्य में अर्थव्यवस्था को परिवर्तित किया जाएगा और उत्पादन के साधन पर जनसमूहं का स्वामित्व होगा तथा ईश्वर प्रदत प्राकृतिक साधनों पर सामूूहिक रूप से समाज का आधिपत्य होगा। उत्पादन का विकेन्द्रीकरण ही इस समस्या का समाधान होगा। रक्तिम क्रान्ति उसे समाप्त नही कर सकती।
गांधीजी आर्थिक क्षेत्र में केन्द्रीकरण को व्यक्ति के विकास में बाधक मानते है। अतः आर्थिक दृष्टि से ग्रामों को स्वावलंबी बनाया जाना चाहिए। गांधीजी ‘हिन्द स्वराज’ नामक ग्रन्थ में अपने आदर्श ग्राम स्वराज्य का चित्रांकन करते हुए बताते है कि उसमें प्रत्येक ग्राम एक पूर्ण गणराज्य होगा वह अपनी आवश्यक वस्तुओं के लिए पड़ोसी राज्यों पर निर्भर नही होगा वरन उनका उत्पादन करेगा। प्रत्येक कार्य सहकारिता के आधार पर किया जाएगा। ग्राम का शासन पंचायत द्वारा संचालित किया जायेगा और इस व्यवस्था का मूलाधार व्यक्ति स्वातंत्रय होगा। इस प्रकार प्रत्येक ग्राम अपने शासन उत्पादन, वितरण आदि का स्वयं स्वामी होगा।
केन्द्रीय उत्पादन को सुधारने के लिए गांधीजी ने व्यक्तिगत स्वामित्व को उस समय तक उचित बताया है जब वे श्रमिकों का स्वर इतना उठाये कि उन्हे अपना भागीदार समझे श्रमिक और पूंजीपति सम्पति को अपने पास धरोहर समझे। यदि वे ऐसा नहीं समझते तो उन पर राज्य का स्वामित्व होना चाहिए। राज्य का कारखानों में स्वामित्व हो जाने पर भी श्रमिक अपने निर्वाचित प्रतिनिधों द्वारा सरकार के प्रतिनिधियों के साथ प्रबन्ध में हाथ बटायेंगे।
भारत की आर्थिक व्यवस्था सुधारने के लिए गांधीजी ने कुटीर उ़द्योग, ग्रामद्योग एवं स्वदेशी पर विशेष जोर दिया है घर-घर में स्त्राी पुरूष और बच्चे सभी कताई-बुनाई करेंगे तो उससे एक ओर नागरिको की बेकारी दूर होगी, दूसरे उन्हे पर्याप्त धन मिल जाता है और उनके जीवन के आर्थिक व्यवधान दूर हो जाते हैं स्वदेशी का महत्व देश को आत्म-निर्भर बनाता है अपनी आवश्यकाओं को पूरा करने के लिए अन्य देशों का मुहं नही ताकना पड़ता है। गांधीजी गांवों में मशीनों के प्रयोग के पक्ष में थे। परन्तु उन्हें शोषण करने के लिए नही किया जाएगा। ग्रामीण मशीन के यदि दास नहीं बनेेगे तो उनका प्रयोग वर्जित नही होगा।
आर्थिक समानता का सिन्द्धातः सामाजिक जीवन में न्याय लाने के लिए आर्थिक समानता एंव स्वतन्त्रता स्थापित करनी चाहिए। गांधीजी का मानना था कि आर्थिक समानता का अर्थ सह नहीं कि हर को अक्षरशः उसी मात्रा में कोई चीज मिले बलिक प्रत्येक एक को अपनी आवश्यकता के लिए काफी मात्रा में मिले गांधी जी का आर्थिक समानता का अर्थ था कि सबको अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार मिले, माक्र्स की व्याख्या भी यही है यदि अकेला आदमी भी उतना ही मांगे जितना स्त्री और चार बच्चों वाला व्यक्ति मागें तो यह आर्थिक समानता के सिन्द्धात का भंग होगा। गांधीजी का आर्थिक समानता का सिन्द्धात प्रत्येक को सतुलित भोजन, रहने का अच्छा मकान, बच्चो को शिक्षा और दवा की मदद का है।
वितरण का प्राकृतिक सिन्द्धातः गांधीजी का विचार था कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए ही वस्तुओें को प्राप्त करना चाहिए। अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना चोर प्रवृति है। मनुष्य की अधिक से अधिक सग्रंह करने की प्रवृति ही निर्धनता और विषमता उत्पन्न करती हैं क्योंकि अधिक सग्रंह करने पर वह न तो उस व्यक्ति के प्रयोग में आती है और न ही अन्य व्यक्ति उसका लाभ उठा सकते है। सम्पति का कुछ हाथों में सीमित हो जाना विकास में बाधक होता है तथा पतन को आमंत्रित करता है। अतः गांधीजी ने न्याय युक्त वितरण के लिए प्रकृति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आवश्यकाएं पूरी करने के समान अवसर उपलब्ध हों। प्रकृति उतनी ही वस्तु उत्पन्न करती है जितनी की आवश्यकता होती है।
गांधी जी ने धन के समान बंटवारे के लिए दैनिक आवश्यकताओं को कम से कम करने पर जोरे दिया है। गांधीजी ने लिखा है अब हम इस बात का विचार करे कि अहिंसा के द्वारा समान वितरण कैसे कराया जा सकता है? इस दिशा में पहला कदम यह होगा कि जिसने इस आदर्श को अपने जीवन का अंग बना लिया है वह अपने व्यक्तिगत जीवन में तदानुसार जरूरी परिवर्तन करेगा। भारत की दरिद्रता को ध्यान में रखते हुए वह अपनी जरूरतें कम कर लेगा उसकी कमाई बेईमानी से मुक्त होगी। जीवन के हर क्षेत्र मेें वह संयम का पालन करेगा। जब वह अपने ही जीवन में जो कुछ हो सकता है वह सब कर लेगा तभी वह इस स्थिति में होगा कि वह अपने साथियों और पडोसियों में इस आदर्श का प्रचार करेगा।
समान वितरण के लिए संरक्षकता या प्रन्यास पद्धति: गांधीजी ने आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए पूंजीपतियों के लिए न्यास या प्रन्यास की विचार धारा का प्रतिपादन किया हैं उन्होनें लिखा है ‘‘अगर धनवान लोग अपने धन का और उसके कारण मिलने वाली सत्ता को खुद राजी -खुशी से छोडकर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतनेे को तैयारे न होगें, तो यह समझिए कि हमारे देश में हिंसक और खूंखार क्रान्ति हुए बिना न रहेगी।’’
समान वितरण का सिद्धांत कहता है कि अमीरों को अपने पडोसियों से एक रूपया भी अधिक नही रखना चाहिए। यह सब कैसे किया जाये? अहिंसा के द्वारा या धनवानों की सम्पति छीनकर? सम्पति छीनने के लिए हमें स्वाभाविक रूप से हिंसा का आश्रय लेना पडेगा। यह हिसंक कार्यवाही समाज को लाभ नही पहुंचा सकती। समाज उल्टा घाटे में रहेगा क्योंकि वह उस आदमी के गुणों से वंचित हो जायेगा जो धन इकटठा करता है। इसलिए अहिसक उपाय स्पष्ट ही श्रेष्ठ है। धनवान आदमी के पास उसका धन रहने दिया जाएगा परन्तु उसका उतना ही भाग वहअपने काम में लेगा जितना उसे अपनी जरूरतांे के लिए उचित रूप में चाहिए, बाकी को वह समाज के उपयोग के लिए धरोहर (संरक्षक) समझेगा।
गांधी जी का मत था कि आर्थिक व्यवस्था को सुधारने के लिए विषमता को मिटना आवश्यक है यह विषयमता दो प्रकार से मिटाई जा सकती है। एक साम्यवादी-उपाय से जो पूंजीपतियों की सम्पति छीन कर क्रान्ति द्वारा समानता लाना चाहते है। गांधीजी क्रांन्ति के द्वारा समानता के पक्ष मंे नही थे। दूसरा उपाय है कि पूंजीपति स्वेेच्छा से अपनी सम्पति दूसरों के हित के लिए प्रयोग करें। अतः गांधी जी साम्यवादी नीति के स्थान पर प्रन्यास (न्यास) सिद्धांत के समर्थक थे।
प्रन्यास सिद्धांत विशुद्ध भारतीय है। गांधीजी ने इसकी व्याख्या वेदान्त और ईसाई धर्म की मान्यताओं के अनुसार की है। हिन्दु धर्म के अनुसार सम्पति एक पवित्रा प्राप्ति है। यह उसी व्यक्ति के पास होनी चाहिए, जो उसे सामान्य हित के लिये प्रयोग करे।
यह विचारधारा गीता के अपरिग्रह (Non - possession) सिद्धान्त के अनुकूल है। अपरिग्रह का अर्थ है कि मनुष्य अपने पास अपने जीवन की आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं का संचय ना करे। यह सिद्धान्त ईशावास्योपनिषद् के प्रथम भाग के अनुकूल है जिसके अनुसार ईश्वर ही सम्पति आदि सभी वस्तुओं का उत्पादन है। यदि किसी के पास इससे अधिक सम्पति है तो उसे वह अपनी ना समझकर ईश्वर या समाज की समझनी चाहिए। संग्रहकर्ता को ईश्वरीय दृष्टि से प्रत्येक वस्तु को अपने साथियो की सेवा में लगाकर उन्हे देवार्पण करनी चाहिए। सम्पति का त्यागपूर्वक उपयोग किया जाना चाहिए।
गांधी जी का प्रन्यास सिद्धान्त पूर्णतः अहिंसात्मक है। वह साध्य और साधन में उचित सम्बन्ध रखना चाहते थे। उचित साधनो द्वारा ही उचित साध्य होता है। हिंसा के अनुचित साधनों द्वारा जो समानता लाई जाएगी वह हितकारी नहीं हो सकती और न ही स्थायी। यदि पूंजीपति हृदय परिवर्तन करके अपनी ही अतिरिक्त सम्पति तथा कारखानों आदि का न्यासी मान लेता है तो यह अहिंसात्मक है।
गांधीजी ने संरक्षकता (ट्रस्टीशिप) के सिद्धान्त के असफल होने पर मजदूरों द्वारा असहयोग और सविनय अवज्ञा का सुझाव दिया है। गांधीजी कहते हैं ‘‘यदि भरसक कोशिशों के बावजूद धनवान लोग सच्चे अर्थ में निर्धनों के संरक्षक ना बनें, और गरीबों को अधिकाधिक कुचला जाए और वे भूख से मरे, तो क्या किया जाए? इस पहेली का हल ढूंढने के प्रयत्न में मुझे अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा भंग का सही और अचूक उपाय सूझा है। धनवान लोग समाज के गरीबों के सहयोग के बिना धन संग्रह नहीं कर सकते। यदि ज्ञान गरीबों में प्रवेश करके फैल जाए तो वे बलवान हो जायेंगे और अहिंसा के द्वारा अपने आप को उन कुचलने वाली असमानताओं से मुक्त करना सीख लेंगे। जिन्होने उन्हें भूखमरी के किनारे पहुंचा दिया है।
इस विचारधारा के अनुसार पूंजीपतियों को अपनी सम्पति समाज की धरोहर समझने के लिए समझाना चाहिए। वे उस समाज की धरोहर में से जीविका निर्वाह के लिए आवश्यक धनराशि ले सकते हैं। शेष धनराशि को समाज के हितकारी कार्यों में लगा देना चाहिए इसका अर्थ यह नहीं है कि वे उस सम्पति को निर्धन व्यक्तियों में बांट दें। क्योंकि यदि ऐसा किया जाएगा तो निर्धन उसका दुरूप्योग करेंगे और इस प्रकार वितरण करने से सम्पति उपभोग में आकर शीघ्र नष्ट हो जाएगी। व्यक्ति स्वावलम्भी बनकर धन कमाने में उदासीन रहेंगे। उस सम्पति को ऐसे, उद्योग धन्धों में लगाया जाना चाहिए, जिससे जनसाधारण को रोजगार मिल सके अथवा उत्पादन बढ़ा कर सार्वजनिक हित की वृद्धि की जा सके। माक्र्सवादी तथा अन्य विचारक यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि धनी लोग स्वेच्छापूर्वक अपनी सम्पति का त्याग कर देंगे किन्तु गांधीजी को मानवीय प्रकृति की उदारता, दिव्यता तथा सुधार में अगाध विश्वास था। उनकी धारणा थी कि प्रारम्भ में दो-चार साधु स्वभाव वाले पूंजीपति कत्र्तव्य भावना से प्रेरित होकर इस सिद्धान्त का अनुसरण करेंगे, बाद में अन्य पूंजीपति भी उनकी प्रेरणा ग्रहण करके उनका अनुसरण करने लगे। फिर भी यदि वह स्वेच्छापूर्वक अपनी सम्पति का परित्याग करने को तैयार ना हो तो अहिंसात्मक असहयोग और सत्याग्रह के बह्मास्त्र से उन्हें विवश किया जा सकता है।
यह कहा जा सकता है कि गांधी जी का प्रन्यास सिद्धान्त विश्व को भारत की देन है। उनके अनुयायी विनोवा भावे के भूदान आन्दोलन द्वारा गांधी जी के प्रन्यास सिद्धान्त को क्रियान्वित करते हुए हजारों एकड़ भूमि भूमिहीन किसानों को दिलवाई। यह सही है कि प्रन्यास सिद्धान्तों को अपनाकर आर्थिक समानता और शोषणविहीन समाज की स्थापना की जा सकती हैः पर सत्य यह है कि कोई भी पूंजीपति कभी भी अपनी सम्पति को समाज की धरोहर नहीं समझ सकता। यदि एकाध पूंजीपति इस सिद्धान्त का अनुसरण कर भी ले तो पूंजीवाद समाप्त नहीं हो जाएगा। शायद गांधीजी पूंजीपतियों की सही प्रवृति को पहचान नहीं सके। सम्पति को पूंजीपतियों के नियन्त्रण और निर्देशन में रखने से उनका लाभ आम जनता को मिल जाएगा, ऐसी आशा रखना सदैव निराशाजनक ही रहा है। पूंजीपति हमेशा से शोषक रहे हैं और कुछ गिने चुने चन्द पूंजीपतियों के उदाहरण से सामान्य नियम नहीं बनाए जा सकते। सम्पति के जनहितकारी उत्पादन, विनिमय, वितरण आदि पर प्रभावशाली नियन्त्रण और निर्देशन, तथा जागरूक शासन की शक्ति होना आवश्यक है।
शिमला। भ्रष्टाचार से देश का आम आदमी कितना और किस कदर आहत है इसका प्रमाण जनता ने 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को एक तरफा समर्थन देकर दे दिया है। लेकिन इस भ्रष्टाचार से छुटकारा कैसे मिलेगा? भ्रष्टाचारियों को सजा कब मिलेगी? भ्रष्टाचार की निष्पक्ष और निडर जांच कौन करेगा? यह सवाल केन्द्र में हुए इतने बड़े सत्ता परिवर्तन के बाद और भी जटिल और गंभीर हो गये हैं क्योंकि मालेगांव और ईशरत जहां जैसे बडे मामलों पर आज हमारी जांच ऐजैन्सीयों का जो चेहरा सामने आया है उससे जांच ऐजैन्सीयां की विश्वसनीयता पर ही गंभीर सवाल और संकट खड़ा हो गया है। आज कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि जांच ऐजैन्सीयां तब सही थी। या आज सही हैं। अभी हैलीकाप्टर खरीद घोटाला सामने आया है। इसमें इटली की अदालत घूस देने वालों को सजा दे चुकी है। इस सौदे के लिये घूस दी गयी थी यह प्रमाणित हो चुका है। घूस देने वाले कौन हैं उनकी पकड़ और पहचान की जिम्मेदारी भारत सरकार की है। लेकिन इन घूसखोरों के खिलाफ तुरन्त प्रभाव से कारवाई करने की बजाये उस पर राजनीति शुरू हो गयी है। इस राजनीति में इटली के प्रधानमन्त्री और हमारे प्रधानमंत्री के बीच सांठगांठ होने तक के आरोप लग गये हैं। इन आरोपों से एक तरह से इटली की न्यायव्यवस्था पर भी सवाल उठ गये हैं। जो भी वस्तुस्थिति इस पूरे प्रकरण में अब तक उभर चुकी है उससे लगता है कि निकट भविष्य में इस घूस कांड पर से पर्दा उठना संभव नही है।
भ्रष्टाचार के जितने भी बडे़ मामलें आज तक सामने आये हैं उनमें बहुत कम पर सजा हुई है। बल्कि जिन मामलों में बड़े राजनेताओं की संलिप्तता सामने आती है उन मामलों में कारवाई भी उनके राजनीतिक कद के मुताबिक ही सामने आती है। जयललिता और मायावती के मामले इसके बडे़ प्रमाण है। आज मोदी सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ उठे अन्ना के आन्दोलन का ही प्रतिफल है लेकिन क्या अब तक भ्रष्टाचार के मामलांे पर राजनीति के अतिरिक्त और कुछ हो पाया है? मालेगांव और ईशरत जंहा मामलों में जहां आरोपों की सूई संघ से प्रत्यक्ष /अप्रत्यक्ष ताल्लुक रखने वालोें की ओर घूमी थी आज उस सूई का रूख मोड़ कर जांच ऐजैन्सी की विश्वसनीयता को ही सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया गया है।
यदि मालेगांव और ईशरत जहां मामलों में अब हुए खुलासे सही है तो ऐसा करने वालों के खिलाफ अब तक कारवाई करके उन्हें अदालत से दण्डित नहीं करवा दिया जाता है तब तक इन खुलासों पर विश्वास कर पाना कठिन होगा। क्योंकि आज मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रीयों के खिलाफ भी भ्रष्टाचार के बडे़ मामले चर्चा में हैं जिन पर हो रही कारवाई से देश की जनता कतई संतुष्ट नही है। बल्कि यह हो रहा है कांग्रेस के घोटाले को भाजपा के घोटाले से बड़ा /छोटा प्रमाणित करने की राजनीतिक कवायद हो रही है।
ऐसे में आज मोदी सरकार की देश को यही बड़ी देन होगी यदि देश की सारी जांच ऐजैन्सीयों को केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रभाव/दबाव से मुक्त रखने की कोई व्यवस्था कर पाये। क्योंकि जो जांच अधिकारी मामले की जांच शुरू करता है मामले का चालान अदालत तक ले जाने तक वह मामले से अलग हो चुका होता है । जब तक जांच अधिकारी को जांच से लेकर अदालत तक उसे सफल बनाने की जिम्मेदारी से बांध कर नही रखा जाता है तब तक भ्र्रष्टाचार के मामलों में कमी नही आयेगी और न ही सरकारों तथा जांच ऐजैन्सीयों की विश्वसनीयता बन पायेगी। क्योंकि आज जिसकी सरकार उसी की जांच ऐजैन्सी वाली धारणा बनती जा रही है। यह धारणा कालान्तर में देश के लिये अति हानिकारक सिद्ध होगी।