शिमला/शैल। 1985 बैच के आईएएस अधिकारी बी.के.अग्रवाल की बतौर मुख्य सचिव नियुक्ति को जयराम का पहला सराहनीय फैसला माना जा रहा है। क्योंकि 1982 बैच के विनित चौधरी की सेवानिवृति के बाद प्रदेश सरकार के पास 1983 बैच में चार और 1984 बैच में दो अधिकारी थे। इन छः में से पांच इस समय केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर हैं और केवल वी.सी. फारखा ही प्रदेश में तैनात थे। वीसी फारखा वीरभद्र शासन में मुख्य सचिव रह चुके हैं बल्कि इस नियुक्ति के विरोध में ही विनित चौधरी, दीपक सानन और उपमा चौधरी कैट में गये थे और वरियता को नज़रअन्दाज किये जाने का आरोप लगाया था। 1983 और 1984 बैच के प्रदेश के सारे अधिकारी अरविन्द मैहता को छोड़कर 2018 और 2019 में सेवानिवृत हो जायेंगें। अरविन्द मैहता की सेवा निवृति
2020 में है। इनके बाद 1985 बैच की बारी आती है और उसमें बी.के. अग्रवाल की सेवानिवृति 2021 में है। अग्रवाल अपने बैच में प्रदेश में पहले स्थान पर हैं। इस नाते प्रदेश में उपलब्ध अधिकारियों में कोई भी अपनी वरियता की नजर अन्दाजी का आरोप नही लगा सकता है। इस सारी वस्तुस्थिति को सामने रखते हुए यह आक्षेप भी नही लग पा रहा है कि अग्रवाल, शान्ता, धूमल या नड्डा किसी एक के दवाब में लगाये गये हैं। अग्रवाल संघ की भी पहली पंसद थे और संघ के आदेश तो सबको मानना ही पड़ता है। इस तरह कुल मिलाकर अग्रवाल की नियुक्ति को वर्तमान परिदृश्य में सही ठहराया जा रहा है।
अब अग्रवाल की नियुक्ति का प्रदेश के प्रशासन और राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह एक बड़ा सवाल विश्लेष्कों के सामने रहेगा। अग्रवाल की नियुक्ति मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर और प्रदेश संघ प्रमुख संजीवन दोनों का सांझा फैसला माना जा रहा है। संघ और मुख्यमन्त्री के लिये आने वाला लोकसभा चुनाव पहला राजनीतिक बड़ा टेस्ट होना जा रहा है। इस चुनाव का मुख्यमन्त्री पर अभी से कितना दवाब है इसका अन्दाजा नरेन्द्र बरागटा को मुख्य सचेतक बनाने और राजीव बिन्दल के खिलाफ चल रहे अपराधिक मामले को वापिस लेने के लिये अदालत में आग्रह दायर करने से ही लगाया जा सकता है। जबकि नियमानुसार सरकार के यह दोनां ही फैसले गलत हैं। इन फैसलों से सरकार और मुख्यमन्त्री दोनों की छवि को नुकसान पंहुचा है। क्योंकि बरागटा का मामला जब भी अदालत में पंहुचेगा तो निश्चित है कि यह लाभ के पद के दायरे में आयेगा ही। इसी तरह बिन्दल मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के परिदृश्य में अदालत को यहआग्रह स्वीकार कर पाना बहुत ज्यादा आसान नही होगा।अदालत इन मामलों में समय तो कटवा सकती है लेकिन शायद राहत नही दे पायेगी। कानून के जानकारों का यह मानना है।
इसी के साथ अभी जिला परिषद कुल्लु, कांगड़ा, मण्डी और बीडीसी सुजानपुर के चुनावों में जो कुछ घटा है वह अपने में एक बड़ी राजनीतिक चेतावनी है। क्योंकि सरकार होने के बावजूद यह चुनाव हारना पार्टी के भीतरी समीकरणों और साथ ही जनता में बनती जा रही सरकार की छवि पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। लोकसभा चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार वर्तमान के चारों सासंद फिर से हो जायेंगे यह इनमें से कुछ बदलेंगे यह तस्वीर भी अभी तक साफ नही है। लेकिन मण्डी से जिस तरह पंडित सुखराम की ओर से यह आया है कि यदि उनके पौत्र को पार्टी उम्मीदवार बनाती है तभी वह चुनावों में सक्रिय भूमिका निभायेंगे अन्यथा नही। फिर इसी के साथ यह जोड़ना कि तेरह बार वह और चार बार उनका बेटा यहां का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं उनकी नीयत और नीति को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है। यहां पंडित सुखराम के तेवरों का जो अप्रत्यक्ष जवाब मुख्यमन्त्री की पत्नी डा. साधना ठाकुर का नाम उछाल कर दिया जा रहा है वह भी विश्लेष्कों की नज़र में कोई बहुत बड़ी रणनीतिक समझदारी नही मानी जा रही है। क्योंकि यदि कल को सही में डा. साधना को चुनाव लड़ना पड़ जाता है तो फिर यह जीत हासिल करना पार्टी से ज्यादा मुख्यमन्त्री की अपनी कसौटी बन जायेगा। जबकि जंजैहली में एसडीएम कार्यालय को लेकर अपने ही गृहक्षेत्र में जयराम जो कुछ झेल चुके हैं उसकी पराकाष्ठा धूमल के उस ब्यान तक पंहुच गयी थी जब उन्हे यह कहना पड़ा था कि मुख्यमन्त्री चाहे तो उनकी सीआईडी जांच करवा सकते हैं। इस सबकी पुनरावृति कब हो जाये यह कहना आसान नही है।
इसी के साथ जो संकेत मानसून सत्रा में कांगड़ा से विधायक रमेश धवाला और राकेश पठानिया के तेवरों से उभरें हैं उन्हे भी हल्के से लेना राजनीतिक नासमझी होगा। माना जा रहा है कि कांगड़ा जिला परिषद के वाईस चेयरमैन के पद पर मिली हार ऐसे ही तेवरों का परिणाम है। फिर जब विधानसभा में बजट सत्र में सचेतकों का अधिनियम पारित करवाया गया था उस समय धवाला को मुख्य सचेतक बनाया परिचारित हुआ था। लेकिन अब जब बरागटा को बनाया गया तब धवाला की यह प्रतिक्रिया आयी कि उन्हें उपमुख्य सचेतक का पद ऑफर किया गया था जिसे उन्होने बरागटा से वरिष्ठ होने के कारण स्वीकार नही किया। धवाला की इस प्रतिक्रिया पर संगठन और सरकार की ओर से कोई जवाब नही आया है। ऐसे में अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले चुनावों में धवाला कितना सक्रिय होकर पार्टी के लिये काम कर पायेंगे। अभी बरागटा की नियुक्ति के साथ ही यह भी प्रचारित हुआ था कि निगमों/बोर्डो में नियुक्तियों का मार्ग भी प्रशस्त हो गया है। लेकिन ऐसा अभी तक हो नही पाया है। ऐसे संकेत उभर रहे हैं कि यह ताजपोशीयां भी लोकसभा चुनावों तक रूक सकती हैं। इस तरह जो राजनीतिक परिदृश्य अभी तक सामने आया है वह लोकसभा चुनावों में सफलता सुनिश्चित करने की दिशा में कोई सकारात्मक संकेत नही दे रहा है।
इसी तरह प्रशासनिक परिदृश्य में जहां अग्रवाल की नियुक्ति को सही फैसला माना जा रहा है वहीं पर इसे एक चुनौती भी माना जा रहा है। क्योंकि अभी प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सदस्यों के दो पद भरे जाने हैं। इन पदों को भरने की प्रक्रिया को इसके अतिरिक्त रेरा के गठन में भी मुख्य सचिव की भूमिका रहती है। प्रदेश में फूड कमीशनर का पद भी स्थायी रूप से नही भरा गया है। इन सारे पदों को कितनी जल्दी भरा जाता है और इनमें मुख्य सचिव की मुख्यमन्त्री को क्या मंत्रणा रहती है यह सब अग्रवाल की सफलता के पहले कदम माने जायेंगे। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण रहेगा कि वह अधिकारियों में काम का बंटवारा कैसे करते हैं। इसके लिये कितनी जल्दी और कितना बड़ा प्रशासनिक फेरबदल वह कर पाते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा। अग्रवाल अपने पद पर जून 2021 तक बने रहेंगे और 2022 में विधानसभा चुनाव होंगे। अतिरिक्त मुख्य सचिव वित 2023 तक पद पर बने रहेंगे ऐसे में यह एक अच्छा संयोग माना जा रहा है कि मुख्यमन्त्री, मुख्य सचिव और सचिव वित में एक लम्बे समय तक तालमेल बना रहेगा। क्योंकि राजनीति पर सबसे अधिक प्रभाव प्रशासन डालता है जबकि सामने जिम्मेदारी राजनीति नेतृत्व की रहती है। ऐसे में यदि इन शीर्ष लोगों में सकारात्मक तालमेल रहता है तभी प्रदेश का हित होता है। आज जो प्रदेश कर्ज के गर्त में फंसा हुआ है वह इसी कारण से शीर्ष में किसी ने भी शायद कोई तर्क एक दूसरे के सामने रखा ही नही। यह लोग भूल गये कि जब बजीर राजा की हां में हां मिला दे तो उस राज्य का पतन होते देर नही लगती है यह एक स्थापित सत्य है।
शिमला/शैल। 1985 बैच के आईएएस अधिकारी बी.के. अग्रवाल की बतौर मुख्य सचिव नियुक्ति को जयराम का पहला सराहनीय फैसला माना जा रहा है। क्योंकि 1982 बैच के विनित चौधरी की सेवानिवृति के बाद प्रदेश सरकार के पास 1983 बैच में चार और 1984 बैच में दो अधिकारी थे। इन छः में से पांच इस समय केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर हैं और केवल वी.सी. फारखा ही प्रदेश में तैनात थे। वीसी फारखा वीरभद्र शासन में मुख्य सचिव रह चुके हैं बल्कि इस नियुक्ति के विरोध में ही विनित चौधरी, दीपक सानन और उपमा चौधरी कैट में गये थे और वरियता को नज़रअन्दाज किये जाने का आरोप लगाया था। 1983 और 1984 बैच के प्रदेश के सारे 


अब अग्रवाल की नियुक्ति का प्रदेश के प्रशासन और राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह एक बड़ा सवाल विश्लेष्कों के सामने रहेगा। अग्रवाल की नियुक्ति मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर और प्रदेश संघ प्रमुख संजीवन दोनों का सांझा फैसला माना जा रहा है। संघ और मुख्यमन्त्रा के लिये आने वाला लोकसभा चुनाव पहला राजनीतिक बड़ा टेस्ट होना जा रहा है। इस चुनाव का मुख्यमन्त्री पर अभी से कितना दवाब है इसका अन्दाजा नरेन्द्र बरागटा को मुख्य सचेतक बनाने और राजीव बिन्दल के खिलाफ चल रहे अपराधिक मामले को वापिस लेने के लिये अदालत में आग्रह दायर करने से ही लगाया जा सकता है। जबकि नियमानुसार सरकार के यह दोनां ही फैसले गलत हैं। इन फैसलों से सरकार और मुख्यमन्त्री दोनों की छवि को नुकसान पंहुचा है। क्योंकि बरागटा का मामला जब भी अदालत में पंहुचेगा तो निश्चित है कि यह लाभ के पद के दायरे में आयेगा ही। इसी तरह बिन्दल मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के परिदृश्य में अदालत को यह आग्रह स्वीकार कर पाना बहुत ज्यादा आसान नही होगा।अदालत इन मामलों में समय तो कटवा सकती है लेकिन शायद राहत नही दे पायेगी। कानून के जानकारों का यह मानना है।
इसी के साथ अभी जिला परिषद कुल्लु, कांगड़ा, मण्डी और बीडीसी सुजानपुर के चुनावों में जो कुछ घटा है वह अपने में एक बड़ी राजनीतिक चेतावनी है। क्योंकि सरकार होने के बावजूद यह चुनाव हारना पार्टी के भीतरी समीकरणों और साथ ही जनता में बनती जा रही सरकार की छवि पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। लोकसभा चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार वर्तमान के चारों सासंद फिर से हो जायेंगे यह इनमें से कुछ बदलेंगे यह तस्वीर भी अभी तक साफ नही है। लेकिन मण्डी से जिस तरह पंडित सुखराम की ओर से यह आया है कि यदि उनके पौत्र को पार्टी उम्मीदवार बनाती है तभी वह चुनावों में सक्रिय भूमिका निभायेंगे अन्यथा नही। फिर इसी के साथ यह जोड़ना कि तेरह बार वह और चार बार उनका बेटा यहां का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं उनकी नीयत और नीति को पूरी तरह स्पष्ट कर देता है। यहां पंडित सुखराम के तेवरों का जो अप्रत्यक्ष जवाब मुख्यमन्त्री की पत्नी डा. साधना ठाकुर का नाम उछाल कर दिया जा रहा है वह भी विश्लेष्कों की नज़र में कोई बहुत बड़ी रणनीतिक समझदारी नही मानी जा रही है। क्योंकि यदि कल को सही में डा. साधना को चुनाव लड़ना पड़ जाता है तो फिर यह जीत हासिल करना पार्टी से ज्यादा मुख्यमन्त्री की अपनी कसौटी बन जायेगा। जबकि जंजैहली में एसडीएम कार्यालय को लेकर अपने ही गृहक्षेत्र में जयराम जो कुछ झेल चुके हैं उसकी पराकाष्ठा धूमल के उस ब्यान तक पंहुच गयी थी जब उन्हे यह कहना पड़ा था कि मुख्यमन्त्री चाहे तो उनकी सीआईडी जांच करवा सकते हैं। इस सबकी पुनरावृति कब हो जाये यह कहना आसान नही है।
इसी के साथ जो संकेत मानसून सत्र में कांगड़ा से विधायक रमेश धवाला और राकेश पठानिया के तेवरों से उभरें हैं उन्हे भी हल्के से लेना राजनीतिक नासमझी होगा। माना जा रहा है कि कांगड़ा जिला परिषद के वाईस चेयरमैन के पद पर मिली हार ऐसे ही तेवरों का परिणाम है। फिर जब विधानसभा में बजट सत्र में सचेतकों का अधिनियम पारित करवाया गया था उस समय धवाला को मुख्य सचेतक बनाया परिचारित हुआ था। लेकिन अब जब बरागटा को बनाया गया तब धवाला की यह प्रतिक्रिया आयी कि उन्हें उपमुख्य सचेतक का पद ऑफर किया गया था जिसे उन्होने बरागटा से वरिष्ठ होने के कारण स्वीकार नही किया। धवाला की इस प्रतिक्रिया पर संगठन और सरकार की ओर से कोई जवाब नही आया है। ऐसे में अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले चुनावों में धवाला कितना सक्रिय होकर पार्टी के लिये काम कर पायेंगे। अभी बरागटा की नियुक्ति के साथ ही यह भी प्रचारित हुआ था कि निगमों/बोर्डो में नियुक्तियों का मार्ग भी प्रशस्त हो गया है। लेकिन ऐसा अभी तक हो नही पाया है। ऐसे संकेत उभर रहे हैं कि यह ताजपोशीयां भी लोकसभा चुनावों तक रूक सकती हैं। इस तरह जो राजनीतिक परिदृश्य अभी तक सामने आया है वह लोकसभा चुनावों में सफलता सुनिश्चित करने की दिशा में कोई सकारात्मक संकेत नही दे रहा है।
इसी तरह प्रशासनिक परिदृश्य में जहां अग्रवाल की नियुक्ति को सही फैसला माना जा रहा है वहीं पर इसे एक चुनौती भी माना जा रहा है। क्योंकि अभी प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सदस्यों के दो पद भरे जाने हैं। इन पदों को भरने की प्रक्रिया को इसके अतिरिक्त रेरा के गठन में भी मुख्य सचिव की भूमिका रहती है। प्रदेश में फूड कमीशनर का पद भी स्थायी रूप से नही भरा गया है। इन सारे पदों को कितनी जल्दी भरा जाता है और इनमें मुख्य सचिव की मुख्यमन्त्री को क्या मंत्रणा रहती है यह सब अग्रवाल की सफलता के पहले कदम माने जायेंगे। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण रहेगा कि वह अधिकारियों में काम का बंटवारा कैसे करते हैं। इसके लिये कितनी जल्दी और कितना बड़ा प्रशासनिक फेरबदल वह कर पाते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा। अग्रवाल अपने पद पर जून 2021 तक बने रहेंगे और 2022 में विधानसभा चुनाव होंगे। अतिरिक्त मुख्य सचिव वित 2023 तक पद पर बने रहेंगे ऐसे में यह एक अच्छा संयोग माना जा रहा है कि मुख्यमन्त्री, मुख्य सचिव और सचिव वित में एक लम्बे समय तक तालमेल बना रहेगा। क्योंकि राजनीति पर सबसे अधिक प्रभाव प्रशासन डालता है जबकि सामने जिम्मेदारी राजनीति नेतृत्व की रहती है। ऐसे में यदि इन शीर्ष लोगों में सकारात्मक तालमेल रहता है तभी प्रदेश का हित होता है। आज जो प्रदेश कर्ज के गर्त में फंसा हुआ है वह इसी कारण से शीर्ष में किसी ने भी शायद कोई तर्क एक दूसरे के सामने रखा ही नही। यह लोग भूल गये कि जब बजीर राजा की हां में हां मिला दे तो उस राज्य का पतन होते देर नही लगती है यह एक स्थापित सत्य है।
शिमला/शैल। प्रदेश में अवैध भवन निर्माण एक बहुत बड़ी समस्या बन गये हैं। प्रदेश उच्च न्यायालय नैशनल ग्रीन ट्ब्यिनल और सर्वोच्च न्यायालय तक ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए इसके खिलाफ कारवाई के निर्देश जारी किये हैं। यही नहीं इन निमार्णों के लिये जिन संवद्ध विभागों के अधिकारी और कर्मचारी जिम्मेदार रहे हैं उन्हें भी चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई किये जाने के निर्देश दिये हैं और उनकी सूची तक अदालत में तलब की है। इन अवैध निमार्णों में आवासीय भवनों से ज्यादा तो होटल इसके दोषी पाये गये हैं। सैंकड़ों होटलों के अवैधताओं के चलते बिजली पानी के कनैक्शन काट दिये गये हैं। यह अवैध निर्मित होटल वैध कमाई का साधन बने हुए हैं। यह अवैध निर्माण संवद्ध प्रशासन के परोक्ष-अपरोक्ष सहयोग के बिना संभव नही हो सकते हैं। इन्ही आरोंपों को लेकर शिमला के होटल लैण्डमार्क को लेकर एक डॉ. पवन कुमार बंटा ने प्रदेश उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है। इस याचिका में होटल मालिक विनोद अग्रवाल के साथ प्रदेश सरकार टी सी पी तथा नगर निगम शिमला व उसके कुछ अधिकारी और बिजली बोर्ड के अधिशासी अभियन्ता को प्रतिवादी बनाया गया है। आरोप है कि इन सभी विभागां ने इस होटल निर्माण में हुई अवैधताओं के प्रति औखें मूंद कर सहयोग दिया है।
इस होटल निर्माण में अवैधताओं का पहला आरोप है कि इनसे जान बूझकर नगर निगम ने पॉर्पटी टैक्स पूरा नही वसूला है और जब यह उसके संज्ञान में आ गया उसके बाद भी इसे वसूलने के प्रयास नही किये गये। दूसरा आरोप पानी के कनैक्शन को लेकर है। इसमें अलग-अलग नामों के कई कनैक्शन दिये गये। जो कनैक्शन निर्माण के लिये दिया गया था न तो उसे निर्माण पूरा होने के बाद काटा गया और न ही नये सिरे से जारी किया गया। यही नही इस पर नगर निगम ने आर टी आई के तहत यह जवाब दिया है कि प्लानिंग एरिया में पानी कनैक्शन के लिये कोई नियम नीति ही नही है। तीसरा आरोप वैनक्वैट हॉल को लेकर है इसमें प्रवेश और निकासी के लिये केवल एक ही मार्ग है जबकि नियमों के मुताबिक दो होने चाहिये थे। ऐसे में इसे होटल चलाने का एन ओ सी कैसे जारी हो गया। इसके साथ ही होटल के सबसे उपर बने पार्क को लेकर है। इस पार्क के रखाव का खर्च नगर निगम कर रहा है। जिसका लाभ बच्चों के खेलने के लिये कम और होटल को ज्यादा मिल रहा है। क्योंकि इसमें प्रवेश के दो रास्ते दे दिये गये है। इसी तरह जो ट्रांसफार्मर बिजली के लिये लगाया है वह वन विभाग की ज़मीन पर बिना एन ओ सी लिये लगा दिया गया है और बिजली बोर्ड इस पर चुप्प बैठा है।
याचिका में कहा गया है कि इतनी सारी अवैधताओं का एक साथ पाया जाना निश्चित रूप से यह संकेत देता है कि यह सब संवद्ध प्रशासन के सहयोग के बिना संभव नही हो सकता। इस याचिका पर उच्च न्यायालय का रूख क्या रहता है इस पर निगाहें लगी हैं।
शिमला/शैल। सरकार में सरकारी कामकाज निपटाने के लिये वाकायदा रूलज़ ऑफ बिजनेस बने हुए हैं और यह सदन से भी पारित है। इन नियमों में सरकार की हर कर्मचारी एवम् अधिकारी की कार्य शक्तियां परिभाषित हैं। इन नियमों के अतिरिक्त हर विभाग में इस आश्य का एक स्टैण्डिंग आर्डर भी रहता है। इसमें स्पष्टतः परिभाषित रहता है कि विभाग से संबंधित किस विषय का निपटारा सचिव के ही स्तर पर हो जायेगा और किस विषय में मन्त्री के स्तर पर ही फैसला होगा तथा कौन सा विषय मुख्यमन्त्री या मन्त्री से जायेगा। इन शक्तियों का सामान्यत अतिक्रमण नही किया जाता है और अतिक्रमण को शक्तियों के दुरूपयोग और भ्रष्टाचार की संज्ञा दी जाती है।
फिर जब ऐसा अक्रिमण जब मुख्य सचिव के स्तर पर हो जाये तो उसे क्या कहा जायेगा। अभी कुछ दिन पहले सहकारिकता विभाग में एक महिला अधिकारी झारखण्ड सरकार से डैपुडेशन पर शिमला पंहुच गयी। शिमला पंहुच कर महिला अधिकारी ने विभाग में जाकर जब ज्वाईनिंग देने के लिये संपर्क किया तो विभाग हैरान हो गया कि यहां पर दूसरे राज्य से अधिकारी की सेवाएं लेने की आवश्यकता क्यों और कैस पड़ गयी। जब विभाग में इसकी पड़ताल की गयी तब पता चला कि विभाग की ओर से ऐसा कोई आग्रह झारखण्ड सरकार को गया ही नही है तो फिर यह महिला अधिकारी बतौर सहायक पंजियक झारखण्ड से पदमुक्त होकर शिमला कैसे आ गयी। पता करने पर यह सामने आया कि इस महिला का पति प्रदेश के पुलिस विभाग में बतौर डीआईजी कार्यरत है और उसने अपनी पत्नी को शिमला लाने के लिये मुख्य सचिव से आग्रह किया था। मुख्य सचिव ने इस आग्रह पर अपने ही स्तर पर झारखण्ड सरकार को पत्र भेज दिया जिसके परिणामस्वरूप वहां की सरकार ने इस महिला अधिकारी को पदमुक्त करके शिमला भेज दिया। अब इस महिला अधिकारी श्रीमति जलाल को विभाग में ज्वाईन करवाने को लेकर समस्या खड़ी हो गयी है।
सहकारिता विभाग में 2013 को जारी हुए स्टैण्डिंग आर्डर के मुताबिक विभाग से किसी को डैपूटेशन पर भेजने और विभाग में किसी को डैपुटेशन पर लेने का फैसला लेने के लिये केवल संबंधित मन्त्री ही अधिकृत हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि मुख्यसचिव ने विभाग और उसके मन्त्री को बाईपास करके अपने ही स्तर ऐसा फैसला कैसे ले लिया? क्या मुख्यसचिव की नजर में विभाग के मन्त्री की कोई अहमियत नही है। जबकि यही मुख्यसचिव जब वीरभद्र शासन में नज़रअन्दाज हुए थे तब कैट में यही याचिका लेकर गये थे कि कार्मिक विभाग का प्रस्ताव नियमों के विरू़़द्ध है। वैसे तो दिल्ली के ऐम्ज़ में रही तैनाती के दौरान भी इन पर अपने पद के दुरूपयोग का मामला अभी तक चल रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जो अधिकारी एक डैपुटेशन के मामले में उन शक्तियों का प्रयोग कर जाये जो नियमों में उसके पास है ही नही तो ऐसा अधिकारी अपनी शक्तियों का दुरूपयोग किस स्तर तक कर सकता है इसकी कल्पना करना भी भयावह लगता है। यह अधिकारी प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सदस्य के खाली पद के लिये आवेदक है। यह भी चर्चा है कि प्रदेश में रेरा की स्थापना भी इन्ही को वहां समायोजित करने के लिये की जा रही है। जबकि एनजीटी के आदेश के मुताबिक अब प्रदेश में अढ़ाई मंजिल से अधिक निर्माण हो ही नही सकता है। इस परिदृश्य में प्रदेश में कोई भी बिल्डर कितना निवेश करने को तैयार होगा। वैसे जब इस स्तर का अधिकारी किसी विभाग के मन्त्री को नज़र अन्दाज कर जाये तो इससे मन्त्री और मुख्यमन्त्री के बीच भी संबंधों को लेकर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। वैसे जब चौधरी वीरभद्र शासन में नज़रअन्दाज होने से आहत होकर स्वयं स्टडीलीव पर चले गये थे तब इन्होने जाने से पहले वाकायदा सरकार को बांड भरकर दिया था। लेकिन जब छुट्टी स्थगित करके वापिस आ गये थे तब इस बांड की रिक्वरी के लिये कार्मिक विभाग ने जो कारवाई शुरू की थी वह अब तक लंबित चली आ रही है। बांड के मुताबिक इन्हें सरकार को करीब पांच लाख रूपये देने हैं। अब क्या जयराम बतौर मुख्यमन्त्री इस पांच लाख की रिकवरी को अन्जाम देते हैं या नही इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है।
शिमला/शैल। मुख्यमंत्री एवम भाजपा विधायक दल के नेता जय राम ठाकुर द्वारा नरेन्द्र बरागटा को भाजपा दल का मुख्य सचेतक नियुक्त करने के आश्य का पत्रा प्राप्त होने के बाद विधानसभा सचिवालय ने इस नियुक्ति को मान्यता देते हुये इस आश्य की अधिसूचना जारी कर दी है। सचिव विधानसभा की ओर से जारी अधिसूचना में 

कानून के जानकारों के मुताबिक सचेतकों की भूमिका संसदीय सचिवों से भी कम है। दूसरे शब्दों में संसदीय सचिवों को तो यह अधिकार रहता है कि वह संबधित मंत्रा को विधायी कार्यां में राय दे सकते हैं। जबकि सचेतक न तो मंत्री से संवद्ध होगा न ही किसी विधायी कार्य में उसकी कोई भी भूमिका होगी। ऐसे में सरकारी मुख्य सचेतक के रूप में अधिसूचना जारी होना अपने में ही प्रश्नवाचक हो जाती है क्योंकि ‘‘सरकारी सचेतक’’ के नाम से सरकार में कोई पद ही सृजित नही है और शायद न ही हो सकता है।
इस परिदृश्य में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि सचेतक का संस्थान है क्या। भारत में सचेतक की प्रथा ब्रिटिश शासन से ली गई है। उसमें इसे इस तरह परिभाषित किया गया है Every major political party appoints a whip who is responsible for the party's disciplineand behaviour on the floor of the house. Usually, he /she directs theparty members to stick to the party's stand on certain issuesand directs them to vote as per the directions of the senior party members .
संसद में 1998 में सचेतक को लेकर चर्चा आयी थी और 1999 में विधेयक लाया गया तथा पारित हुआ जिसे 2000 में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली। लेकिन संसद द्वारा पारित विधेयक में इन्हें मंत्री के समकक्ष नही रखा गया है। संसद में किस उद्देश्य के लिये यह विधेयक लाया गया था और उन्हे क्या क्या सुविधायें प्राप्त है वह इस प्रकार हैं THE LEADERS AND CHIEF WHIPS OF RECOGNISED PARTIES AND GROUPS IN PARLIAMENT (FACILITIES) ACT, 1998 (No. 5 of 1999) (As amended by Act No. 18 of 2000) [7th January, 1999] An Act to provide for facilities to Leaders and Chief Whips of recognised parties and groups in Parliament. Be it enacted by Parliament in the Forty-ninth Year of the Republic of India as follows:—
1. Short title and commencement. — (1) This Act may be called the Leaders and Chief Whips of Recognised Parties and Groups in Parliament (Facilities) Act, 1998. (2) ) It shall be deemed to have come into force on the 5th day of February, 1999’’.
2. In this Act, unless the context otherwise requires,—
(a) ‘‘recognised group” means,— (i) in relation to the Council of States, every party which has a strength of not less than fifteen members and not more than twenty-four members in the Council;
(ii) in relation to the House of the People, every party which has a strength of not less than thirty members and not more than fifty-four members in the House.
(b) “recognised party” means,— (i) in relation to the Council of States, every party which has a strength of not less than twenty-five members in the Council; (ii) in relation to the House of the People, every party which has a strength of not less than fifty-five members in the House.
*3. Facilities to the Leaders and Chief Whips of recognised groups and parties.—Subject to any rules made in this behalf by the Central Government, each leader, deputy leader and each Chief Whip of a recognised group and a recognised party shall be entitled to telephone and secretarial facilities: Provided that such facilities shall not be provided to such leader, deputy leader or Chief Whip, as the case may be, who— (i) holds an office of Minister as defined in section 2 of the Salaries and Allowances of Ministers Act, 1952; or (ii) holds an office of the Leader of the Opposition
as defined in section 2 of the Salary and Allowances of Leaders of Opposition in Parliament
Act, 1977; or (iii) is entitled to similar telephone and secretarial facilities by virtue
of holding any office of, or representation in, a Parliamentary Committee or other Committee, Council, Board, Commission or other body set up by the Government; or (iv) is entitled to similar telephone and secretarial facilities provided to him in any other capacity by the Government or a local authority or Corporation owned or controlled by the Government or any local authority.
सचेतक की परिभाषा और संसद द्वारा पारित किये गये विधेयक से यह स्पष्ट हो जाता है कि सचेतक न तो कोई सरकारी कार्य और न ही विधानसभा का ही अधिकारिक कार्य करेगा। सचेतक की भूमिका तो केवल विधानसभा सत्र के दौरान अपने ही विधायक दल के प्रति रहेगी। सत्र के बाहर सचेतक की कोई भूमिका नही रहती है। सदन में सत्र के दौरान किसी भी विधेयक या अन्य मुद्दे पर जिसमें सदन के भीतर मतदान होना हो उसमें सचेतक जारी करके अपने दल के विधायकों को सदन के नेता की ईच्छानुसार मतदान करने के लिये बाध्य किया जा सकता है। सचेतक जारी होने के बाद भी यदि कोई सदस्य सदन के नेता की ईच्छानुसार वोट नही करता है तब सचेतक की उल्लंघना पर संबंधित सदस्य के खिलाफ अनुंशासनात्मक कारवाई की जा सकती है यदि सदन का नेता चाहे तो। सदन के हर दल को अपना अपना सचेतक नियुक्त करने का अधिकार रहता है।
इस नियुक्ति के बाद यह बहस अवश्य उठेगी कि क्या सचेतक लाभ के पद के दायरे में आता है या नहीं। क्योंकि जब सचेतक की भूमिका उसके अपने दल से बाहर है ही नही तो फिर उसे सरकारी कोष से वेतन-भते और अन्य सुविधायें कैसे दी जा सकती हैं। जब यह विधेयक सदन मे आया था तब कांग्रेस ने इसका विरोध किया था। अब जब इसमें पहली नियुक्ति भी हो गयी है तब क्या कांग्रेस इसे उच्च न्यायालय में चुनौति देगी या नही। यह कांग्रेस की नीयत और नीति को लेकर एक बड़ा सवाल रहेगा। भाजपा के भीतर भी इस नियुक्ति के बाद किस तरह के समीकरण बनते बिगड़ते हैं और उनका आने वाले लोक सभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा यह देखना भी दिलचस्प होगा।