शिमला/शैल। लोकसभा चुनाव अगले वर्ष मई में होंगे। इन चुनावों की तैयारियां राजनीतिक दलों ने अभी से शुरू कर दी हैं। इन तैयारियों के तहत चुनावों के लिये संभावित उम्मीदवारों को चिन्हित करना और चुनावी मुद्दों को तलाशने का काम चल रहा है। इस प्रक्रिया में यह स्वभाविक है कि केन्द्र से लेकर राज्यों तक हर जगह सत्तारूढ़ सरकारों का कामकाज ही केन्द्रिय मुद्दा रहेगा क्योंकि हर राजनीतिक दल चुनावों से पहले जनता के सामने लम्बे चैड़े सपने परोसता है। जनता इन सपनों/वायदों पर भरोसा जताकर किसी दल को सत्ता सौंपती है। चुनावी वायदों के बाद हर साल बजट में भी यही सपने बेचे जाते हैं। इन सारे सपनों की व्यवहारिकता का आकलन फिर आकर चुनावों में ही होता है तब फिर से जनता को अपने प्रतिनिधियों से कुछ पूछने का मौका हालिस होता है। इस संद्धर्भ में जनता को जागरूक करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी विपक्ष की रहती है। यह जिम्मेदारी निभाते हुए कई बार विपक्ष बीच-बीच मे सत्तारूढ़ सरकार के खिलाफ राज्यपाल से लेकर राष्ट्रपति तक को आरोप पत्र सौंपता है। यह आरोप पत्र जनता को जागरूक रखने में बड़ी अहम भूमिका निभाते हैं। इसमें मीडिया की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण रहती है।
इस परिदृश्य में यदि प्रदेश की राजनीति का आकलन किया जाये तो यहां पर दो ही राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा के बीच ही लगभग सबकुछ केन्द्रित हो कर रह गया है। यहां का अधिकांश मीडिया भी सुविधा भोगी हो चुका है। उसकी प्राथमिकता भी जन सरोकारों की जगह सत्ता सरोकार होकर रह गये हैं। अन्य राजनीतिक दल भी लगभग तटस्थता की भूमिका में है क्योंकि उनके लिये अपने होने का अहसास करना ही एक बड़ा संकट हो गया है। इस वस्तुस्थिति में प्रदेश कांग्रेस पर ही सबसे अधिक जिम्मेदारी आ खड़ी होती है लेकिन क्या कांग्रेस इस जिम्मेदारी के प्रति ईमानदार सिद्ध हो पा रही है। कांग्रेस के हाथ में सबसे अधिक वक्त तक प्रदेश की सत्ता रही है। अभी तक भी भाजपा ने कांग्रेस से ही सत्ता छिनी है। कांग्रेस के वीरभद्र छः बार प्रदेश के मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। प्रदेश में आज कोई भी दूसरा नेता किसी भी दल में ऐसा नही है जिसका राजनीतिक कद वीरभद्र के बराबर हो। लेकिन क्या वीरभद्र ने अपने ही दल में किसी को अपना उत्तराधिकारी प्रोजैक्ट करने को प्रयास किया है। आज भी वह सातवीं बार प्रदेश का मुख्यमन्त्री बनने का मोह पाले हुए हैं। उन्हे कांग्रेस के संगठन मे तो युवा नेतृत्व चाहिये लेकिन मुख्यमन्त्री बनने के लिये नहीं। आज यह सारे सवाल उठने शुरू हो गये हैं कि आने वाले लोकसभा चुनावों में वीरभद्र की भूमिका क्या रहने वाली है। क्योंकि वह अगला लोकसभा का चुनाव नही लड़ना चाहते हैं यह वह पूरी स्पष्टता से कह चुक हैं बल्कि यहां तक कह चुके हैं कि उनके परिवार से कोई भी यह चुनाव नही लड़ेगा। इसी के साथ वह पार्टी को जीताने के लिये सक्रिय योगदान देने ओर सातवीं बार मुख्यमन्त्री होने की भी बात कह चुके हैं। राजनीतिक विश्लेष्कों की नजर में इस तरह के ब्यानों से अन्त विरोध ही झलकता है। इस तरह के अन्त विरोध के दो ही अर्थ निकलते हैं कि या तो आप अपरोक्ष में पार्टी पर दवाब बना रहे हैं कि वह आपकी शर्ते माने या फिर आप सत्तारूढ़ सरकार के दवाब में चल रहे हैं।
इस समय पार्टी अध्यक्ष सुक्खु जयराम सरकार के प्रति काफी आक्रामक दिख रहे हैं। जब उन्होने सरकार के खिलाफ आरोपपत्र लाने की बात की तो उस पर सत्ता पक्ष की ओर से काफी तीव्र प्रतिक्रियाएं आयी। सुक्खु की ही आक्रामकता को आगे बढ़ाते हुए नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने जयराम सरकार से राष्ट्रीय उच्च मार्गों और केन्द्र से विभिन्न योजनाओं के नाम पर नौ हजार करोड़ मिलने के दावों की तफसील मांग कर सरकार को और असहज कर दिया है। क्योंकि इनमें दावों के अतिरिक्त धरातल पर बहुत कुछ है ही नहीं। ऐसे में जब पार्टी अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक के नेता दोनों ही पूरी आक्रामकता में चल रहे हों तब वीरभद्र जैसे नेता का मुख्यमन्त्री को यह अभय दान देना कि अभी उनके कामकाज के आकलन का सही समय नही है। उनकी संभावित भूमिका पर कई सवाल खड़े कर जाता है। क्योंकि इस समय कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व जिस कदर मोदी और उनकी सरकार के प्रति आक्रामक है उसको प्रदेशों में भी आगे बढ़ाने की आवश्यकता है और यह जिम्मेदारी हिमाचल के संद्धर्भ में वीरभद्र पर ही सबसे पहले आती है क्योंकि वही छः बार के मुख्यमन्त्री हैं। लेकिन वीरभद्र के ब्यानों से यही झलक रहा है कि वह अभी जयराम का विरोध करने के लिये तैयार नही हो पाय रहे हैं। क्या सही में अभी जयराम के कामकाज का आकलन करना जल्दीबाजी है यदि इस पर निष्पक्षता से विचार किया जाये तो अधिकांश लोग वीरभद्र सिंह की इस धारणा से सहमत नही होंगे। क्योंकि आकलन जयराम के व्यक्तिगत- पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन का नही किया जाना है। इस दृष्टि से वह एक सरल व्यक्ति हैं लेकिन आकलन मुख्यमन्त्री का होना है क्योंकि बतौर मुख्यमन्त्री उनके एक एक फैसले का पूरे प्रदेश पर असर होगा। अभी दस माह के कार्यकाल में ही सरकार को लगभग हर माह कर्ज लेना पड़ा है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति क्या है? वीरभद्र किस दिशा -दशा में सरकारी कोष को छोड़ कर गये हैं। इसकी जानकारी प्रदेश की जनता को देना जयराम सरकार की जिम्मेदारी थी। यदि यह स्थिति चिन्ताजनक थी तो इस पर सरकार को श्वेत पत्र जारी करना चाहिये था लेकिन ऐसा हुआ नही है। बल्कि जिस अधिकारी ने धूमल- वीरभद्र दोनों के कार्यकाल में वित्त सचिव की जिम्मेदारी निभाई वह आज जयराम के प्रधान सचिव होकर और भी महत्वपूर्ण भूमिका में आ गये हैं। इससे यही प्रमाणित होता है कि विरासत में जयराम को सब कुछ सही दिशा में मिला है। ऐसे में आज जो हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है और परिवहन में किराये बढ़ाने पड़े हैं वह सब इसी सरकार के प्रबन्ध का परिणाम है। जिसे किसी भी तर्क पर जायज नही ठहराया जा सकता है। भ्रष्टाचार के प्रति सरकार की गंभीरता पर अभी से गंभीर प्रश्नचिन्ह लग चुके हैं। कुल मिला कर यह कहना गलत है कि मुख्यमन्त्री का आकलन करना अभी जल्दबाजी है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि वीरभद्र जयराम के प्रति इतने नरम होकर क्यों चल रहे हैं। राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह चर्चा आम हो गयी है कि केन्द्र सरकार वीरभद्र के मनीलाॅंड्रिंग मामले को उन पर अब भी दवाब बनाये हुए है। पिछले दिनों जब ईडी ने वीरभद्र के कारोबारी मित्र वक्कामुल्ला चन्द्र शेखर की इस मामले में जमानत रद्द करवाने के लिये दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका डाली तब से यह चर्चा जोरों पर है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने ईडी के आग्रह को अस्वीकार करते हुए उल्टा यह पूछ लिया कि आप सहअभियुक्तों के प्रति तो इतने सक्रय हैं लेकिन मुख्य अभियुक्त के प्रति एकदम चुप क्यों है। इसका ईडी के पास कोई जवाब नही था और उसने यह याचिका वापिस ले ली। यदि कहीं उच्च न्यायालय इस याचिका को स्वीकार कर लेता तो फिर से अब तक वीरभद्र से पूछताछ किये जाने का दौर शुरू हो चुका होता और यदि ऐसा हो जाता तो पूरा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जाता। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के राज कुमार, राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल मामले में आये फैसले से भी स्थिति असहज हुई है। इस फैसले पर अमल जयराम सरकार को करना है और अभी तक कोई कदम नहीं उठाये गये हैं। माना जा रहा है कि इन फैसलों के परिदृश्यों में ही वीरभद्र का स्टैण्ड स्पष्ट नही हो पा रहा है।
इसी प्रकरण में दर्ज पहली एफ.आई.आर. राजनीतिक
प्रतिशोध का परिणाम-सर्वोच्च न्यायालय
शिमला/शैल। सर्वोच्च न्यायालय ने दो नवम्बर को दिये फैसले में एचपीसीए के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर 12 of 2013 ओर 14 of 2013 को एक ही काॅमन आदेश के साथ रद्द कर दिया था। लेकिन अब इसमें एफआईआर 14 of 2013 को भूलवश रद्द कर दिया जाना मानते हुए इस फैसले को वापिस ले लिया है। इस तरह यह एफआईआर अभी तक अपनी जगह बनी हुई है। स्मरणीय है कि धर्मशाला के राजकीय महाविद्यालय का एक दो मंजिला आवासीय परिसर क्रिकेट स्टेडियम के साथ लगता बना हुआ था और इसमें काॅलिज के प्राध्यापक आदि रह रहे थे। इस परिसर को क्रिकेट खिलाड़ियों की सुरक्षा के लिये खतरा माना जा रहा था। वैसे क्रिकेट स्टेडियम के लिये करीब 49 हज़ार वर्ग मीटर भूमि 2002 में ही दे दी गयी थी। इसकी लीज़ 29 जुलाई 2002 को हस्ताक्षरित हुई थी और इस पर स्टेडियम का निर्माण भी शीघ्र ही हो गया था। लेकिन काॅलिज का आवासीय परिसर खिलाड़ीयों की सुरक्षा के लिये खतरा हो सकता है यह सवाल 2008 में उठा जब इस आश्य की एक बैठक तत्कालीन जिलाधीश केे.के.पन्त की अध्यक्षता में 4.4.2008 को संपन्न हुई। इस बैठक में जिलाधीश के अतिरिक्त एसडीएम धर्मशाला, कार्यकारी अभियन्ता और सहायक अभियन्ता लोक निर्माण विभाग धर्मशाला, प्रिंसिपल राजकीय महाविद्यालय धर्मशाला और एचपीसीए के पदाधिकारी संजय शर्मा भी शामिल हुए।
इस बैठक में खिलाड़ियों की सुरक्षा आवासीय परिसर की जर्जर हालत के कारण इसे किसी दूसरे स्थान पर तामीर करने पर विचार किया गया। बैठक में फैसला लिया गया कि काॅलिज प्रिंसिपल आवासीय परिसर को लेकर लोक निर्माण विभाग से अधिकारिक रिपोर्ट लेंगे। तहसीलदार को पत्र लिखकर इस परिसर के लिये सरकार द्वारा किसी अन्य स्थान पर भूमि उपलब्ध करवाने का आग्रह करेंगे। शिक्षा सचिव को पत्र लिखकर आवासीय परिसर के निर्माण के लिये धन उपलब्ध करवाने का आग्रह करेंगे। इसी के साथ यह भी फैसला हुआ कि एचपीसीए भी इसके निर्माण के लिये धन देगी। इस बैठक के फैसलों की अधिकारिक जानकारी 24.5.2008 को उच्च शिक्षा निदेशक और मुख्यमंत्री कार्यालयों को भी भेज दी गई। इसमें यह भी कह दिया गया कि यह बैठक मुख्यमंत्री के निर्दशों पर बुलाई गयी थी। यह बैठक सरकार के अधिकारियों की अधिकारिक बैठक थी लेकिन इसमें एचपीसीए के संजय शर्मा के शामिल होने से इसका पूरा चरित्र ही बदल गया। इस बैठक में जो फैसले लिये गये उन पर अमल की स्थिति क्या है इसकी कोई रिपोर्ट आने से पूर्व ही इस परिसर को गिरा दिया गया। यह परिसर 720 वर्गमीटर भूमिे पर स्थित था और इस तरह एचपीसीए ने इस पर अपने आप ही कब्जा कर लिया। यहां तक हुआ कि तत्कालीन शिक्षा सचिव पीसी धीमान ने तो दो कदम आगे जाते हुए यह कह दिया कि आवासीय परिसर के निर्माण के लिये एचपीसीए से धन लेने की आवश्यकता नही है। लेकिन इस 720 वर्ग मीटर भूमि को लेने के लिये एचपीसीए का आवेदन 3.7.2008 को आया। इससे यह सवाल खड़ा हुआ कि 4.4.2008 की बैठक में एचपीसीए के संजय शर्मा कैसे शामिल हो गये। यह 720 वर्ग मीटर भूमि एचपीसीए को आज तक आंबटित नही लेकिन इस पर कब्जा एचपीसीए ने कर रखा है और इसी अवैध कब्जे और आवासीय परिसर को अवैध रूप से गिराये जाने को लेकर ही दूसरी एफआईआर 14 of 2013 को दर्ज हुई थी। जो अब तक रद्द नही हुई है।
पहली एफआईआर 12 of 2013 स्टेडियम के लिये जमीन लीज पर दिये जाने को लेकर हुई थी। यह लीज 2002 में हस्ताक्षरित हुई थी जिसमें 49 हजार वर्ग मीटर से अधिक भूमि दे दी गयी जबकि उस समय के लीज रूल्ज के मुताबिक खेल संघों को दो बिस्वे से अधिक जमीन नही दी जा सकती थी। इस लीज का किराया भी टोकन एक रूपये किया गया है। 2002 में दी गयी लीज नियमों के विरूद्ध थी इसी को लेकर एचपीसीए के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था। इसमें जब एचपीसीए ने सरकार से जमीन मांगी थी तब उसने इसका उद्देश्य क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण करना स्पष्ट रूप से कहा है स्वभाविक है कि स्टेडियम का निर्माण दो बिस्वा में नही हो सकता। नियम दो बिस्वा का था तो इसकी जानकारी संबंधित अधिकारियों को सरकार के सामने रखनी थी जो नही रखी गयी। इस सब में तकालीन निदेशक युवा सेवाएं एवम् खेल सुभाष आहलूवालिया और सचिव टीजी नेगी ने विशेष भूमिका निभायी है बल्कि इन्ही के कारण एचपीसीए को यह जमीन मिली है। यह उस समय सरकार को फैसला लेना था कि प्रदेश में एक अच्छा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का क्रिकेट स्टेडियम चाहिये या नही लेकिन इन अधिकारियों ने सरकार के सामने यह सब नही रखा। अन्यथा संभव था कि सरकार लीज नियमों में उस समय संशोधन कर लेती जो 2012 में किया गया। सरकार बदलने के बाद जब विजिलैन्स ने इस पर मामला दर्ज किया तब इस मामले में प्रभावी भूमिका निभाने वाले अधिकारियों को दोषी नामजद नही किया गया।
इस मामले में सुभाष आहलूवालिया, सुभाष नेगी, टीजी नेगी, अजय शर्मा, दीपक सानन, गोपाल चन्द, के.के.पन्त, पी.सी.धीमान और देवी चन्द सहित नौ अधिकारियों की प्रमुख भमिका रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यदि इस पूरे प्रकरण में कोई पहले दोषी बनते है तो यही अधिकारी हैं क्योंकि इन्होंने कभी भी रिकार्ड पर सरकार के सामने सही स्थिति नही रखी। यदि इन अधिकारियों ने नियमों की सही जानकारी राजनीतिक नेतृत्व के सामने रखी होती और नेतृत्व इसे अनदेखा करके अधिकारियों को लीज हस्ताक्षरित करने के निर्देश दे देता तो सिर्फ नेतृत्व की ही जिम्मेदारी हो जाती परन्तु ऐसा हुआ नही। लेकिन विजिलैन्स ने जब मामला दर्ज किया और जांच आगे बढ़ाई तब सभी सवंद्ध अधिकारियों को एक बराबर इसमें दोषी नामजद नही किया। जिन्हें नामजद किया भी उनके खिलाफ आगे चलकर मुकद्दमा चलानेे की अनुमति देने से इन्कार हो गया। वीरभद्र के पूरे कार्यकाल में इसी एक एचपीसीए प्रकरण पर विजिलैन्स का सारा ध्यान केन्द्रित रहा। इसी कारण से एचपीसीए ने एक स्टेज पर वीरभद्र को भी इसमें प्रतिवादी बना दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी आधार पर पहलीे एफआईआर को रद्द कर दिया। क्योंकि उसमें मामले में संलिप्त रहे अधिकारियों को छोड़ दिया गया और कवेल राजनीतिक लोगों के खिलाफ ही कारवाई की गयी। इसी पर सर्वोच्च न्यायालय ने इस पूरे प्रकरण को एक प्रकार से राजनीति प्रतिशोध करार देते हुए एफआईआर को रद्द किया है।
अभी सर्वोच्च न्यायालय में एक मामला लंबित चल रहा है इसमें एचपीसीए ने राज्य सरकार, वीरभद्र सिंह और एडीजीपी तथा एसपी विजिलैन्स को प्रतिवादी बना रखा है। यह मामला 12.11.18 को सुनवाई के लिये लगा था। उसके बाद 19.12.18 को जब यह सुनवाई के लिये आया तब वीरभद्र सिंह के वकील ने यह अदालत के सामने रखा कि आवासीय परिसर को गिराये जाने को लेकर दर्ज हुई एफआईआर को गलती से रद्द कर दिया गया है। इसमें प्रतिवादी बनाये गये वीरभद्र सिंह की ओर से उनका पक्ष ही अदालत में नही रखा गया है यह सामने आते ही अदालत ने इसे गलती मानते हुए इसकी अगली सुनवाई 29.11.18 को रख दी है। इस तरह यह एफआईआरअभी तक यथास्थिति बनी हुई है और इसमें संलिप्त अधिकारियों की परेशानी बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना बनी हुई है।
शिमला/शैल। हिमफैड और होटल लैण्ड मार्क के बीच पिछले ग्यारह वर्षों से चल रहा मानहानि का विवाद नये अध्यक्ष गणेशदत्त के लिये एक कसौटी बनने जा रहा है। होटल लैण्ड मार्क के खिलाफ मानहानि का यह मामला हिमफैड ने 2007 में दायर किया था। 2017 में लैण्ड मार्क की ओर से गोपाल मोहन ने हिमफैड से संपर्क करके इसमें समझौते की पेशकश की थी। इस पेशकश को जब बीओडी के सामने रखा गया तब बोर्ड ने परूे विचार विमर्श के बाद इसे अस्वीकार कर दिया था। सूत्रों के मुताबिक अब हिमफैड में नये अध्यक्ष और बोर्ड की नियुक्ति के बाद इसमे समझौते के प्रयास फिर से शुरू हो गये हैं। लेकिन इन प्रयासों पर यह सवाल उठ रहा है कि पिछले ग्यारह वर्षों से यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में चल रहा है। अदालत की ओर से इसमें लोकल कमीशनर नियुक्त किया गया था। कमीशनर की रिपोर्ट हिमफैड के आरोप को प्रमाणित करती है। इस रिपोर्ट के बाद यह फैसला हिमफैड के पक्ष में आने की पूरी संभावना मानी जा रही है और यदि फैसला हिमफैड के हक में आ जाता है तो लैण्डमार्क को होटल में आने के लिये बनाया रैंप तोड़ना पड़ता है। रैंप के टूटने से होटल के व्यापार पर असर पड़ेगा। इसलिये लैण्डमार्क अब इसमें समझौते के प्रयास कर रहा है ताकि रैंप न तोड़ना पड़े। दूसरी वर्तमान स्थिति में हिमफैड पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। संभवतः इसी को सामने रखकर हिमफैड बोर्ड ने समझौते से इन्कार कर दिया था। ऐसे में अब पिछले बोर्ड के फैसले को बदलकर लैण्डमार्क की पेशकश को स्वीकार करना नये बोर्ड के लिये एक संवदेनशील मुद्दा बन गया है।
स्मरणीय है कि जब 1986 में हिमफैड का निर्माण किया गया था तब इसकेे निर्माण से एक तिलक राज की 36.4 वर्ग गज ज़मीन का नुकसान हो गया था। इस नुकसान पर तिलक राज ने हिमफैड को 81000/- रूपये के हर्जाने का नोटिस दे दिया और दावा दायर कर दिया। इसके बाद 29-8-1986 को इसमें 48000 रूपये पर समझौता हो गया और तिलक राज ने यह 36.4 गज जमीन हिमफैड के नाम करवा दी। इसके बाद 1989 में तिलक राज और हिमफैड में दफतर के सामने पड़ी खाली जमीन के उपयोग को लेकर फिर झगड़ा हो गया और 20-12-1995 को फिर समझौता हो गया और तिलक राज ने इसके उपयोग को हिमफैड को एनओसी दे दिया। इस समझौते के बाद 2002 में तिलकराज की मौत हो गयी और उसके वारिसों रणवीर शर्मा और अरूणा शर्मा ने यह संपत्ति 23-10-2002 मूल कृष्ण और गोपाल कृष्ण को बेच दी। इस बिक्री के बाद नये खरीदारों ने 20-12-1995 को तिलक राज के साथ हुए समझौते को मानने से इन्कार कर दिया और हिमफैड के सामने लोहे का गेट लगा दिया। इस गेट के लगने से हिमफैड और लैण्डमार्क में यह नया विवाद खड़ा हुआ है जो ट्रायल कोर्ट से होकर उच्च न्यायालय में 2007 में पहुंच गया और अब तक लंबित चल रहा है। हिमफैड और तिलक राज में समझौता 1995 में हो गया था और लैण्डमार्क के मालिकों ने यह संपत्ति 2002 में खरीदी यह मामला एक बार सर्वोच्च न्यायालय में भी पहुंच गया था और सर्वोच्च न्यायालय ने इसे उच्च न्यायालय में उठाने के निर्देश दिये थे।
शिमला/शैल। प्रदेश के भू-सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत कोई भी गैर कृषक प्रदेश में जमीन नही खरीद सकता है। इसके लिये सरकार से पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है। इसमें आवास के लिये पांच सौ वर्ग गज और दुकान आदि के लिये केवल तीन सौ गज जमीन ही खरीदी जा सकती है। बड़ी परियोजनाओं के लिये भी 118 के तहत ही जमीन खरीद की अनुमति मिलती है। लेकिन किस परियोजना के लिये जमीन खरीदी जा रही है इसका विवरण अनुमति के प्रार्थना पत्र में ही दर्ज रहता है। आवास, दुकान और परियोजना के लिये अलग -अलग प्रावधान परिभाषित हैं। इसमें स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति आवास के लिये 118 के तहत जमीन खरीद कर उस पर व्यवसायिक गतिविधि नही शुरू कर सकता है।
आवासीय परिसर के लिये जमीन खरीद कर उसमें अस्पताल बना लेना और वह भी सरकार की पूर्व अनुमति के बिना इस आश्य की एक शिकायत पिछले दिनों प्रदेश के सेवानिवृत पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव दीपक सानन ने मुख्य सचिव को सौंप रखी है। शिकायत के मुताबिक बड़ोग के होटल कोरिन, शिमला के तेनजिन अस्पताल और चम्बा के लैण्डलीज़ मामलों में सारे नियमों/कानूनों को अंगूठा दिखाते हुए भारी भ्रष्टाचार हुआ है। होटल कोरिन को लेकर यह आरोप है कि पीपी कोरिन और रेणु कोरिन ने 1979/1981 में बड़ोग में होटल के लिये जमीन खरीद की अनुमति मांगी जो कि 1990 तक नही मिली। लेकिन इसी बीच होटल का निर्माण कर लिया गया और इस तरह यह मामला जमीन की अनुमति मिले बिना ही निर्माण कर लिये जाने का खड़ा हो गया। इस मामले में कांग्रेस और भाजपा दोनों सरकारों के कार्याकाल में घपला होने का आरोप है।
इसी तरह शिमला के कुसुम्पटी स्थित होटल तेनजिन का मामला है। इसमें तेनजिन कंपनी ने 7.6.2002 को 471.55 वर्ग मीटर जमीन खरीद की अनुमति कंपनी का दफतर और आवासीय कालोनी बनाने के लिये मांगी और उसे यह अनुमति मिल गयी लेकिन कंपनी ने वहां दफतर और आवासीय कालोनी बनाने की बजाये वहां पर अस्पताल का निर्माण कर लिया और इस तरह धारा 118 के प्रावधानों का खुला उल्लंघन हुआ।
दीपक सानन अतिरिक्त मुख्य सचिव राजस्व भी रहे हैं और इस नाते यह माना जाता है कि उन्हें राजस्व नियमों की पूरी जानकारी रही है। सानन की इन शिकायतों के अनुसार आवासीय कालोनी बनाने के लिये 118 के तहत अनुमति लेकर वहां अस्पताल का निर्माण नही किया जा सकता था। इस शिकायत के साथ ही यह सवाल खड़ा हो जाता है कि जो सरकारी अधिकारी/कर्मचारी गैर कृषक और गैर हिमाचली होने के कारण यहां पर अपने आवास के लिये जमीन खरीद की अनुमति लेते हंै वह वहां पर आवास के अतिरिक्त उसका कोई अन्य उपयोग नही कर सकते हैं। ऐसा नही हो सकता कि व्यक्ति अपने आवास के लिये 118 के तहत अनुमति लेकर जमीन खरीदे और फिर उसमें दस कमरे किराये पर दे दे या वहां पर कोई गैस्ट हाऊस या होम स्टे आदि शुरू कर दे।
सानन की इन शिकायतों के बाद सानन के अपने ही खिलाफ धारा 118 के दुरूपयोग का मामला सामने आया है। सानन के कुफरी क्षेत्र में भू-सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत अनुमति लेकर अपने नीजि आवास के लिये कुफरी में जमीन खरीदी है। वहां पर उन्होंने अपने आवास के साथ ही एक गैस्ट हाऊस बना रखा है और उसमें पर्यटन विभाग से होम स्टे की अनुमति ले रखी है। लेकिन जब 118 के तहत जमीन खरीद की अनुमति ली गयी थी तब वहां पर आवास के साथ ही एक होमस्टे गैस्ट हाऊस बनाने की मंशा जाहिर नही की थी। यहां पर यह सवाल उठना स्वभाविक है कि सरकार अपने अधिकारियों/ कर्मचारियों के मकान के लिये जमीन खरीद की अनुमति सहजता से दे देती है। लेकिन क्या मकान की अनुमति लेकर उसमें गैस्ट हाऊस का निर्माण कर लेना नियमों का उल्लघंन नही है। क्योंकि यदि कोई गैस्ट हाऊस के लिये जमीन खरीद की अनुमति मांगेगा तो उसे होटल जैसी ही औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ेगी। फिर सरकार ने जो होम स्टे योजना 2008 में अधिसूचित की है उसके मुताबिक अधिक से अधिक तीन कमरे ही दिये जा सकते हैं। लेकिन दीपक सानने जो होम स्टे गैस्ट हाऊस चला रहे हैं उसमे कहीं अधिक कमरे हैं बल्कि एक तरह का होटल ही बन जाता है। इस तरह दीपक सानन ने धारा 118 के दुरूपयोग के जो आरोप दूसरों पर लगाये हैं यह होम स्टे चलाने के बाद वह स्वयं भी उन्हीं आरोपों के शिकार हो जाते हैं।
यही नहीं दीपक सानन ने इस मकान के लिये टी डी का लाभ भी लिया है। उन्होंने 4-11-2004 को टी डी के लिये आवेदन किया और 16-12-2004 को यह टी डी मिल भी गयी। जबकि भू सुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत ज़मीन खरीद कर टी डी की पात्रता नही बनती है। सरकार के नियमो मे यह पूरी स्पष्टता के साथ परिभाषित है। इसी तरह दीपक सानन ने सेवानिवृति से एक सप्ताह पहले तक जो स्टडी लीव लाभ लिया है वह भी एकदम नियमो के विरूद्ध है। क्योंकि इसके लिये जो आवेदन उन्होंने किया है उसमें स्वयं स्वीकारा है कि स्टडी लीव समाप्त होने के बाद तीन वर्ष का कार्यकाल शेष होना चाहिये। इस आवेदन मे भी उनका तर्क यह रहा है कि सरकार ने ऐसा ही लाभ एक समय ओ पी यादव को दिया है और अब विनित चैधरी तथा उपमा चौधरी को भी यह लाभ मिला है जबकि उनके पास भी तीन वर्ष का कार्यकाल शेष नही था। दीपक सानन की जयराम सरकार में बहुत ऊंची पैठ है और इसी के चलते वह तीन-तीन कमेटीयों के सदस्य हैं। ऐसे मे क्या जयराम सरकार इस अधिकारी के खिलाफ कोई कारवाई कर पायेगी इसको लेकर संशय बना हुआ है।
शिमला/शैल। ऊना के एक लग्ज़री कारों के व्यापारी तुशार शर्मा मान्टी को प्रदेश के आबकारी एवम् कराधान विभाग ने 27.40 करोड़ की कर अदायगी का नोटिस जारी किया है। विभाग ने यह कारवाई एक शिकायत की जांच करने के बाद की है। कारोबारी के खिलाफ एक कर चोरी की शिकायत आयी और इस पर विभाग ने छः टीमें बनाकर इसके विभिन्न प्रतिष्ठानों पर छापामारी की। इस छापामारी में 144 करोड़ के टर्नओवर और अपने तथा परिजनों के नाम कई परिसंपत्तियां बनाने का खुलासा सामने आया। यह खुलासा सामने आने के बाद 27.40 करोड़ का नोटिस भेजकर यह राशि एक माह के भीतर विभाग में जमा करवाने को कहा गया है। इस नोटिस के साथ ही विभाग ने जहां-जहां इस कारोबारी की परिसंपत्तियां चिन्हित हुई हैं वहां के तहसीलदारों को भी यह निर्देश दिये हैं कि वह इस कारोबारी की परिसंपत्तियों की तब तक बिक्री न होने दें जब तक की यह व्यक्ति सरकारी पैसे का पूरा-पूरा भुगतान नही कर देता है।
तुषार शर्मा प्रदेश के पूर्व स्वास्थ्य निदेशक आर.के.शर्मा के बेटे हैं और 2001-02 में इन्होंने ऊना के रक्कड़ काॅलोनी में मोटर वेज के नाम से अपना कारोबार शुरू किया था। उसके बाद 2002 में इन्होने हौण्डा, शैवरलेट और टोयटा की ऐजैन्सीयां ले ली। ऊना, कांगड़ा के नगरोटा बगवां, हमीरपुर और सोलन तक अपना कारोबार फैला लिया। इसी बीच एक तेल निर्माण का उद्योग भी स्थापित कर लिया। तुशार शर्मा के कांग्रेस और भाजपा दोनों के कई बड़े नेताओं से बहुत ही करीबी रिश्ते रहे हैं। बल्कि एक समय प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतपाल सत्ती के भतीजे ऊमंग ठाकुर ने भी इन्हे काफी सहयोग प्रदान किया है। बल्कि एक बार जब इनकी गाड़ीे से एक बच्चा टकराकर जख्मी हो गया था और आपराधिक मामला दर्ज होने की नौबत आ गयी थी तब इन्हीं राजनीतिक संपर्काें के चलते एक लाख देकर इस मामले को रफा-दफा किया गया था।
इस परिदृश्य में अब यह सवाल उठता है कि विभाग ने शिकायत आने के बाद तो यह कारवाई करते हुए नोटिस दे दिया जिसका सीधा सा अर्थ है कि यदि अब भी शिकायत न आती तो शायद अभी तक कुछ न होता। यहां पर कारोबारी से ज्यादा तो विभाग की अपनी कारवाई पर सवाल खड़े हो जाते हैं। क्योंकि जो अदायगी गाड़ी की ऐजैन्सी लेकर उसकी खरीद-फरोख्त का काम कर रहा है वह अपनी बिक्री को छिपा कैसे सकता है क्योंकि जो गाड़ियां आ रही हैं वह निश्चित रूप से रिकार्ड पर दर्ज होंगी। जब दूसरे प्रदेश से यहां प्रदेश में सामान आता है तब वह बैरियर पर दर्ज होता है और यह कारवाई यही कराधान विभाग करता है। फिर जब गाड़ी बिकती है तब भी वह सरकार के रिकार्ड पर आती है। ऐसे में यदि आज विभाग के मुताबिक इतनी टैक्स की चोरी पकड़ी गयी है तब क्या विभाग ने अपने यहां इसकी जांच पड़ताल की कि उसके संज्ञान में यह सब पहले क्यों नही आया? क्या इसमें विभाग की कार्यप्रणाली पर अपने मे ही सवाल खड़ेे नहीं होते है? क्या कहीं ऐसा तो नही है कि कुछ बड़े लोगों ने भी इस कारोबारी से गाड़ियां खरीदी हैं और उसमें उन्हें काफी रिवेट दे दिया गया हो। विभाग ने अभी कर अदायगी का नोटिस ही जारी किया है। इस नोटिस का जवाब देकर इसको चुनौती भी दी जा सकती है विभाग के आकलन पर सवाल उठ सकते हंै। फिर कारोबारी ने यह कर अदा करने से अभी तक मना नही किया है। ऐसे में विभाग द्वारा कराधान अधिनियम के प्रावधानों का सहारा लेकर कारोबारी और उसके परिजनों की सम्पतियों की बिक्री पर रोक लगा दिये जाने को अलग ही अर्थों में देखा जा रहा है। वैसे अभी तक संबंधित क्षेत्रों के तहसीलदार कार्यालयों में ऐसे निर्देश पहुंचने की पुष्टि नही हो पायी है।