Friday, 19 September 2025
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सुक्खु विरोध को जायज ठहराने के लिये वीरभद्र को चुनावे लड़ने की कसौटी पर उतरना होगा

शिमला/शैल। पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिह आने वाला लोकसभा चुनाव नही लडेंगे। उनकी पत्नी पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह चुनाव लडे़गी या नही इस पर अभी चर्चा नही हुई है। अपने 85वें जन्म दिन पर मीडिया से बात करते हुए वीरभद्र सिंह ने यह स्पष्ट किया है। लेकिन इसी अवसर पर उन्होने प्रदेश पार्टी अध्यक्ष से लेकर केन्द्रिय नेतृत्व पर भी यह कहकर निशाना साधा कि इस समय शिखर से लेकर नीचे तक सभी जगह मनोनयन ही चल रहा है और वह इसका विरोध करते हैं। इस समय संगठन में पदाधिकारी चयन से नही मनोनयन से है। यह फैसला और नीति हाईकान की होती है प्रदेश ईकाई की नही। प्रदेश ईकाई द्वारा मनोनीत पदाधिकारी की योग्यता और उपयोगिता उस पद के लिये कितनी है जिसके लिये उसका मनोनचन किया गया है इसको लेकर मतभेद हो सकते हैं। लेकिन यही बात सरकार पर भी लाग होती है। मुख्यमन्त्री जब अपने मन्त्रीयों का चयन करते हैं तब उनकी योग्यता और उपयोगिता का कोई मानदण्ड नही रहता है। जब विभिन्न निगमों/बोर्डो या अन्य संवैधानिक पदों पर मुख्यमन्त्री नियुक्तियां करते हैं तब भी कोई ठोस मानदण्ड नही रहता है। यही कारण होता है कि पांच वर्ष का पूरा कार्यकाल मन्त्री रहने के बाद भी हार जाते हैं। यह स्थिति सभी राजनीतिक दलों की एक बराबर रहती है। इसमें कोई दो राय नही है।
इस पृष्ठभूमि में यदि आज वीरभद्र के शासनकाल का आकलन किया जाये तो सबसे पहले यही सामने आता है कि जब 2012 में वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे तब उन्हे पार्टी के सभी 36 विधायकों का समर्थन हासिल नही था। पार्टी आधे-आधे में बंटी हुई थी। उसके बाद पार्टी में एक व्यक्ति एक पद को लेकर घमासान हुआ था वीरभद्र ने इस सिद्धान्त को नही माना था। फिर विभिन्न निगमां/बोर्डां में हुई ताजपोशीयों को लेकर भी जो कुछ हुआ था वह भी सभी को याद है। राजेश धर्माणी जैसे मुख्य संसदीय सचिव सरकार से किस कदर असहमत चलते रहे कि उन्होने सचिवालय में अपने कार्यालय आना छोड़ दिया था। तब के परिवहन मंत्री जीएस बाली ने कितनी बार सरकार से असहमति के कारण अपना पद छोड़ने की घोषनाएं की थी। बेरोजगारों को भत्ता देने के नाम पर स्थिति कहां तक पहुंच गयी थी यह भी सब जानते हैं। कुल मिलाकर सरकार के पूरे कार्यकाल में ऐसा बहुत कुछ घटा है जिसे किसी भी गणित में लोकतान्त्रिक नही कहा जा सकता है। बल्कि इसी सबके कारण सरकार पुनः सत्ता में वापसी नही कर पायी। आज भी यदि प्रदेश के अच्छे राजनेता का नाम वीरभद्र को लेना हो ता उनकी जुबान पर सबसे पहला नाम भाजपा के शान्ता कुमार का आता है। उन्हे अपनी पार्टी में कोई अच्छा आदमी/नेता ही नजर नही आता है। यही स्थिति शान्ता कुमार की भी रहती है। दोनां नेता एक दूसरे की तारीफ करने का कोई अवसर नही जाने देते हैं। ऐसा क्यों किया जाता है इसके कारणों का भी बहुत लोगों को पता है।
इस परिदृश्य में यदि आज वीरभद्र बनाम सुक्खु द्वन्द का निष्पक्षता से आकलन किया जाये तो यह स्पष्ट है कि संगठन में हुए मनोनयनों की आड़ लेकर कुछ और हित साधे जा रहे हैं। क्योंकि अब तक जो कुछ सरकार और संगठन में घटा है वह सब एक दूसरे का ही प्रतिफल है इसे भले ही ऊपर बैठे नेता न समझे लेकिन हर कार्यकर्ता इसे जानता और मानता है। विधानसभा चुनावों में 80% टिकट अपनी पसन्द से बांटकर भी वीरभद्र सत्ता में वापसी नही कर पाये हैं यह हकीकत है। चुनावों से पहले खोले गये संस्थानों में कितनी व्यवहारिकता रही है इसका प्रमाण इसी से मिल जाता है कि एक स्वास्थ्य संस्थान पंजाब में ही अधिसूचित कर दिया गया। इसको लेकर भाजपा हर मौके पर तंज कस रही है। ऐसी वस्तुस्थिति के बाद भी वीरभद्र सुक्खु को हटाने का अभियान छेड़े हुए हैं और प्रदेश का भ्रमण कर रहे हैं। जबकि सुक्खु का हटना तो इस अभियान के बिना भी तय है क्योंकि उनका कार्यकाल तो बहुत अरसा पहले ही पूरा हो चुका है। बल्कि यह वीरभद्र का सुक्खु विरोध ही है जिसके कारण सुक्खु का राजनीतिक कद बढ़ गया है। हाईकमान सुक्खु की सेवाएं राष्ट्रीय स्तर पर कोई जिम्मेदारी देकर लेने जा रहा है। सुक्खु हट रहे हैं यह वीरभद्र भी जानते हैं लेकिन अन्दर खाते सवाल तो यह है कि वीरभद्र अगला अध्यक्ष अपनी पसन्द का चाहते हैं जो उनके बेटे के हितांं की रक्षा कर सके। जो नाम इस समय चर्चा में चल रहे हैं उनमें शिमला संसदीय क्षेत्र से हर्षवर्धन चौहान और रोहित ठाकुर है दोनों की ही समृद्ध राजनीतिक पृष्ठभमि है। लेकिन यह दोनो ही शायद वीरभद्र को पसन्द नही है। मण्डी में कौल सिंह का विरोध तो वह बहुत पहले से करते आ रहे हैं। 2012 के चुनावों के नाम पर कैसे कौल सिंह से अध्यक्षता छिनी थी यह सब जानते हैं। हमीरपुर में कोई राजपूज नेता वीरभद्र की नजर में इस योग्य नही है। कांगड़ा से सुधीर शर्मा, जीएस बाली और आशा कुमारी हैं। आशा कुमारी राजपूत गणित में फिट बैठती हैं। यदि उनके खिलाफ उच्च न्यायालय में लंबित चल रहा आपराधिक मामला आड़े न आया तो वह अगली अध्यक्ष हो सकती हैं ऐसा माना जा रहा है।
लेकिन इस सबके के साथ सबसे महत्वपूर्ण सवाल तो यह बन रहा है कि कांग्रेस के अगले लोकसभा उम्मीदवार कौन होंगे। कांगडा लम्बे असरे से ब्राहमण बहुलक्षेत्र माना जाता है भापजा यहां से पंडित को ही टिकट देती आ रही है और इस गणित में कांग्रेस के पास दो ही नाम हैं पूर्व मन्त्री जीएस बाली या सुधीर शर्मा। लेकिन सूत्रों की माने तो वीरभद्र इनमें से किसी के लिये भी हामी नही भर रहे हैं। हमीरपुर और मण्डी दोनां राजपूत बहुल क्षेत्र माने जाते हैं।
हमीरपुर से अनुराग ठाकुर इस बार चौथी बार लडेंगे। इससे पहले धूमल, सुरेश चन्देल और स्व. मेजर जनरल विक्रम सिंह सभी राजपूत सांसद रहे चुके हैं। हमीरपुर में कांग्रेस के पास सुक्खु, रामलाल और अनिता वर्मा तीन बराबर के राजपूत नाम हैं। लेकिन यहां से वीरभद्र की पसन्द राजेन्द्र राणा और राजेन्द्र की पसन्द उनका बेटा बन रहे हैं। इसी तरह मण्डी में तो वीरभद्र और प्रतिभा की पारम्पारिक सीट मानी जाती है। सुखराम और अनिल शर्मा तो कांग्रेस से बाहर हो चुके हैं। कौल सिंह तो विधानसभा में भी अपनी हार के लिये वीरभद्र के भीतरघात को जिम्मेदार ठहरा चुके हैं। ऐसे में मण्डी की सीट भाजपा से छीनने के लिये कांग्रेस के पास वीरभद्र और प्रतिभा सिह के अतिरिक्त कोई विकल्प नही है। इन दोनों में से जो भी उम्मीदवार होगा उसका संदेश पूरे प्रदेश में जायेगा। यदि वीरभद्र प्रतिभा सिंह दोनों ही चुनाव लड़ने के लिये तैयार नही होते हैं जिसके संकेत यह अब तक दे चुके हैं तो इसका सीधा संदेश जायेगा कि वीरभद्र, जयराम ठाकुर को कमजोर नही करना चाहते हैं। क्योंकि वीरभद्र या प्रतिभा सिंह उम्मीदवार होते है तो जयराम को मण्डी से बाहर प्रचार पर निकलना आसान नही होगा। इस परिदृश्य में यदि वीरभद्र अन्ततः चुनाव लड़ने के लिये तैयार नही होते हैं तो फिर उनकी नीयत को लेकर जो सन्देहात्मक सवाल उठेंगे उनका कोई स्पष्टीकरण उनके पास नही होगा। सूत्रों की माने तो हाईकान से इस आश्य के संकेत भी वीरभद्र तक पहुंच चुके हैं। उमर और राजनीति के इस पड़ाव पर आकर यदि वीरभद्र की नीयत पर ऐसे सवाल खड़े होते हैं तो यह भविष्य के लिये घातक होते हैं। राजनीतिक विश्लेष्कों के मुताबिक सुक्खु के सैंद्धान्तिक विरोध को वीरभद्र तभी जायज ठहरा सकेंगे यदि वह स्वयं या उनकी पत्नी चुनाव लड़ने के लिये तैयार होते हैं। यदि ऐसा नही करते हें तो उनके सुक्खु विरोध को अपरोक्ष में जयराम और भाजपा की मदद का ही प्रयास माना जायेगा।

विनित चौधरी के माध्यम से कांग्रेस का जयराम सरकार पर हमला

शिमला/शैल। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने प्रदेश के मुख्य सचिव विनित चौधरी के माध्यम से जयराम सरकार पर हमला बोला है। स्मरणीय है कि विनित चौधरी के खिलाफ संजीव चतुर्वेदी ने एक मामला उछाल रखा है और यह मामला पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील प्रशान्त भूषण के एनजीओ के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय में भी पहुंच चुका है और जुलाई में ही सुनवाई के लिये लगा है। इस मामले में चौधरी के साथ केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा भी सहअभियुक्त बने हुए हैं। इसी सबके चलते चौधरी केन्द्र सरकार में सचिव के पैनल में नही आ पाये हैं। इसी प्रकरण में चौधरी ने शिमला की ए सी जे एम की अदालत में संजीव चतुर्वेदी के खिलाफ मानहानि का मामला भी दायर कर रखा है। मानहानि के इस मामले में अदालत ने एक बार संजीव चतुर्वेदी के वांरट भी जारी कर दिये थे। वारंट और मानहानि के मामले को रद्द करवाने के लिये चतुर्वेदी ने प्रदेश उच्च न्यायालय में गुहार लगायी थी जिस पर उच्च न्यायालय ने वांरट तो रद्द कर दिया लेकिन शेष मामले पर कोई कारवाई किये बिना ही मामला अदालत को वापिस भेज दिया। उच्च न्यायालय की इस कारवाई को चतुर्वेदी ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे दी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह मामला उच्च न्यायालय को लौटाते हुए यह निर्देश दिये हैं कि उच्च न्यायालय को वह कारण स्पष्ट करने होंगे जिनके आधार पर उसने मामला अधिनस्थ अदालत को लौटा दिया। उधर ए सी जे एम ने किन्ही कारणों से अपने को इस मामले से अलग कर लिया है। संजीव चतुर्वेदी के मुताबिक जिस दस्तावेज के आधार पर मानहानि का मामला बनाया गया है उस पर यह बनता ही नही है। यह मामला अभी अदालतों में इसी मोड़ पर लंबित है और सबकी नज़रें इस पर लगी हुई हैं।
जयराम सरकार ने वरियता और वरिष्ठता के तर्क पर चौधरी को मुख्य सचिव बनाया है जबकि पूर्व की वीरभद्र सरकार ने उनके जूनियर फारखा को मुख्य सचिव बना दिया था। चौधरी इस पर कैट में चले गये थे और कैट ने उन्हे फारखा के समक्ष ही सारे सेवा लाभ देने के निर्देश दिये थे जो उन्हे दे दिये गये थे। लेकिन कैट ने उन्हे मुख्य सचिव बनाने की संस्तुति नही की थी। फारखा समकक्ष ही सारे लाभ देने के निर्देशों के साथ ही कैट ने चौधरी को अन्य मामलों के लिये केन्द्र को प्रतिवेदन भेजने के भी निर्देश दिये थे। लेकिन चौधरी ने कोई प्रतिवेदन केन्द्र को भेजा नही है। यह प्रतिवेदन भेजने के कारण चौधरी ने अपनी वरिष्ठता को नज़रअदांज किये जाने के साथ ही जो अन्य मुद्दे उठाये थे वह वैसे के वैसे ही खड़े रहे हैं। लेकिन उन्हीं मुद्दों का अपरोक्ष तर्क लेकर और लोगों को उनका अधिकार नही दिया जा रहा है जबकि बाकि प्रदेशों में दिया जा रहा है। इसी के साथ एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह खड़ा हो गया है कि जब चौधरी कैट में गये थे तब दीपक सानन भी उनके साथ सह याचिकाकर्ता बने थे। उस समय चौधरी और दीपक सानन छुट्टी पर चले गये थे। लेकिन जब कैट ने चौधरी को फारखा के समकक्ष लाने के निर्देश दिये तब उन्होने अपनी छुट्टी रद्द करके डयूटी ज्वाईन कर ली। परन्तु सानन छुट्टी पर चलते रहे। सानन की सेवानिवृति 31 जनवरी 2017 को थी इसलिये उन्होने 24 जनवरी को डयूटी ज्वाईन कर ली। सानन 24 अक्तूबर 2016 से 24 जनवरी 2017 तक छुट्टी पर थे। अब जयराम सरकार ने सानन की 24 अक्तूबर 2016 से 24 जनवरी 2017 की छुट्टी को स्टडीलीव मानकर उन्हे सारे वित्तिय लाभ दे दिये हैं। जोकि नही दिये जा सकते थे क्योंकि जब सेवानिवृति के दो वर्ष रह जायें तो स्टडी लीव दिये जाने का कोई प्रावधान नही है। परन्तु प्रदेश सरकार ने आईएएस स्टडी लीव नियमों में ढील देकर लाभ दिया है। आईएएस एक अखिल भारतीय सेवा है और इसके सेवा नियमों में कोई भी ढील देने का अधिकार केवल केन्द्र सरकार को है राज्य सरकार को नही। मुख्य सचिव और मुख्यमन्त्री ने अपने ही स्तर पर यह लाभ दे दिया है। कानून की नज़र में यह आपराधिक षडयंत्र का मामला बनता है।
अब जब कांग्रेस राष्ट्रीय प्रवक्ता सुरजेवाला ने इस पर मुद्दा बना लिया है तो यह माना जाने लगा है कि दीपक सानन को नियमों के विरूद्ध यह लाभ दिये जाने का मामला आगे बढ़ेगा ही। क्योंकि यह एक प्रमाणिक और पुख्ता मामला है। इसके माध्यम से जयराम और भाजपा को घेरने का एक गंभीर मामला कांग्रेस के हाथ लग गया है। जो मामले उच्च न्यायालय में लंबित हैं उनका फैसला चौधरी की सेवानिवृति के बाद ही आयेगा। उससे चौधरी को कोई ज्यादा फर्क नही पड़ेगा। लेकिन इसी मामले में नड्डा पर चौधरी को नियमों के विरूद्ध जाकर बचाने का आरोप है और इसमें नड्डा के लिये कठनाई पैदा हो सकती है। उधर कांग्रेस इस मुद्दे पर जयराम और नड्डा पर भ्रष्टाचारियों को बचाने का आरोप लगायेगी क्योंकि सानन एचपीसीए में अभियुक्त हैं और इसमें राज्य सरकार का अधिकार बहुत सीमित है सब कुछ अदालत के पाले में है।

क्या अभी तक नहीं बन पा रही जयराम की स्वीकार्यता

शिमला/शैल। क्या मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की कुर्सी के लिये अभी भी खतरे के बादल बरकरार है यह सवाल मुख्यमन्त्री के अपने ही ब्यान के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में चर्चा का विषय बन गया है। जयराम ने प्रैस क्लब शिमला के एक आयोजन में जब यह कहा कि पहले कोई और मुख्यमन्त्री बन रहा था लेकिन अब जयराम बन गया है। ‘‘बन गया है तो स्वीकार भी कर लो’’ तब इस ब्यान पर हर कोई हैरान था। क्योंकि प्रदेश की जनता ने तो भाजपा को पूरा बहुमत देकर सत्ता में बैठा दिया है और इसे विपक्ष से कोई खतरा नही है। यदि जयराम को कोई खतरा होगा तो वह अपनी ही पार्टी से होगा। यह स्वभाविक है कि जब जयराम मुख्यमन्त्री बन गये हैं तो पार्टी के भीतर तो उनके ही समकक्ष या वरिष्ठ है उनके मन मे भी इस कुर्सी पर बैठने की ईच्छा होना कोई अपराध नही है। हाईकमान को सरकार से परिणाम चाहिये। उसमें अब पहला टैस्ट आ रहा है लोकसभा चुनावों का इसमें हाईकमान को यदि जयराम फिर से प्रदेश की चारो सीटें जीतकर दे देते हैं तो उनकी कुर्सी को कोई खतरा नही होगा। यदि ऐसा नही हो पाता है तो फिर हाईकमान को सोचने का मौका मिल जायेगा। पार्टी के भीतर बैठे दूसरे लोगों को भी यह कहने का मौका मिल जायेगा कि इस नेतृत्व में अगला विधानसभा चुनाव सुरक्षित नही होगा। राष्ट्रीय दलों में आकलन का मानदण्ड यही रहता है।
इस आईने में यदि जयराम के पांच माह के कामकाज का आकलन किया जाये तो स्थिति कोई बहुत सुखद नज़र नही आती है। अभी जो पेयजल का संकट राजधानी शिमला सहित प्रदेश के अन्य जिलों मे पेश आया है उसमें सरकार के प्रयास और प्रबन्धन कितने पाकसाफ रहे हैं इसका अन्दाजा उच्च न्यायालय की टिप्पणी से ही लग जाता है। उच्च न्यायालय ने इस संकट के लिये जिम्मेदार लोगों को चिहिन्त करके उनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश दिये थे और अदालत को इससे अवगत करवाने के भी निर्देश दिये थे लेकिन जब मुख्य सचिव और आयुक्त नगर निगम ने इस पर उच्च न्यायालय में शपथ पत्र दायर किया तो उस पर अदालत की यह टिप्पणी आयी है ॅ We notice the affidavit of the chief Secretary, Govermenet of Himachal Pradesh and the Commissioner, Municipal Corporation, shimla to be conspicuously silent of the action taken against such of those persons whose acts of omission and commission led to the situation of crisis. we are assured that appropriate action in this regard shall positively be taken before the next date of hearing. इसी तरह आईजीएमसी शिमला में पार्किंग की समस्या को लेकर आयी एक जनहित याचिका की सुनवाई में भी उच्च न्यायालय की यह टिप्पणी आयी है Despite repeated opportunities, no reply has been filed on behalf of respondents No.1 to 3 and 5. Respondent No.4, Municipal Corporation, Shimla has filed its reply. This Court in many other petitions repeatedly cautioned respondent-State with regard to manifold increase in traffic in Shimla town, where admittedly roads are congested and there is very little scope of expansion. Recently, this Court in CWPIL No. 19 of 2016 titled Court on its own motion versus State of Himachal Pradesh and others, taking note of affidavit having been filed by Deputy Commissioner, Shimla had directed the Chief Secretary to the Government of Himachal Pradesh to set up a Committee to look into parking and traffic problem in Shimla town, but it appears that none in the helm of affairs is actually bothered about problem of traffic/parking शिक्षा विभाग में अध्यापकों की कमी को लेकर आयी एक याचिका में उच्च न्यायालय ने विभाग के शपथ पत्र पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए सचिव शिक्षा को अगली सुनवाई के दौरान अदालत में हाजिर रहने के आदेश किये हैं। ऐसे ही कई और मामलों में उच्च न्यायालय प्रशासन की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठा चुका है।
उच्च न्यायालय की शीर्ष प्रशासन को लेकर आयी ऐसी टिप्पणीयों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शासन और प्रशासन में सब कुछ सही नही चल रहा है। जब प्रदेश का उच्च न्यायालय शीर्ष प्रशासन को लेकर इस तहर की टिप्पणी करेगा तो इससे प्रदेश की जनता में सरकार को लेकर क्या संदेश जायेगा। उच्च न्यायालय की इन टिप्पणीयों से हटकर भी यदि सरकार का आकलन किया जाये तो यह सामने आता है कि अब तक प्रशासन पर मुख्यमन्त्री की पकड़ नही बन पायी है। क्योंकि एक ओर तो सरकार राजस्व को पहुंचे नुकसान के कारणों की जांच करवाने की बात कर रही है और दूसरी ओर कर्ज लेकर घी पीने की कहावत को चरितार्थ किया जा रहा है। पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव दीपक सानन को उनकी सेवानिवृति के एक वर्ष बाद जिस तर्क पर स्टडी लीव दी गयी है वह अपने में ही एक घोटाला बन गया है। राज्य के राजस्व को कहां और कैसे नुकसान पहुंचाया जा रहा है यह एक जनचर्चा बन चुका है। विभिन्न निगमों/बोर्डो में कार्यकर्ताओं की ताजपोशीयां रूकी हुई हैं जबकि कई जगह ऐसा कर दिया गया है कि जिन्हे कांगेस ने ताजपोशी दी थी उन्हे इस सरकार ने भी ताजपोशी दे दी है। कार्यकर्ताओं में एक अधिकारी की पत्नी को समाज कल्याण बोर्ड में दी गयी तैनाती पर रोष देखने को मिल रहा है क्योंकि कांग्रेस के वीरभद्र शासन में भी इन्हे यह ताजपोशी मिली हुई थी। उच्च न्यायालय सरकार की कार्य प्रणाली को लेकर आये दिन कोई न कोई टिप्पणी कर रहा है। जिससे यह संदेश जा रहा है कि शायद सरकार के महाधिवक्ता और उनकी टीम उच्च न्यायालय में सरकार का पक्ष प्रभावी ढ़ग से नहीं रख पा रहे हैं। रिटायर्ड लोगों को फिर से नौकरी में वापिस बुलाया जा रहा है जबकि वीरभद्र सरकार को इसके लिये हररोज कोसा जाता था। जब सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर इस तरह की चर्चाएं लगातार बाहर आती जायेंगी तो निश्चित रूप से प्रशासन और जनता में शीर्ष नेतृत्व की स्वीकार्यता को लेकर सवाल उठेंगे ही। शायद यही अन्दर की ऊहा-पोह मुख्यमन्त्री के इस ब्यान में अनायास ही बाहर आ गयी है।

शिमला में पहली ही पत्रकार वार्ता में जयराम ने साथ नहीं रखा कोई भी मंत्री

शिमला/शैल। जिस जयराम को वीरभद्र राजनीति में बच्चा करार देते आ रहे हैं उसने पांच माह में ही एशियन विकास बैंक से 4378 करोड़ की योजनाएं पर्यटन, पेयलन और बागवानी क्षेत्रा मे स्वीकार कर वीरभद्र और अपने विरोधीयों को बड़ा करारा जबाव दिया है। यही नहीं बल्कि 4751 करोड़ की एक और योजना भी स्वीकृति के कगार पर पंहुच चुकी है। जबकि वीरभद्र के शासनकाल में केवल 2011 में ही एक 600 करोड़ की एक योजना पर ही काम हो पाया है। यह जानकारी मुख्यमन्त्री जयराम ने शिमला में अपना पदभार संभालने के बाद आयोजित हुई पहली पत्रकार वार्ता में रखी।
पर्यटन के क्षेत्र में 1892 करोड़ की येजना स्वीकार हुई है और इसका प्रारूप प्रधानमन्त्री को 26 फरवरी 2018 को भेजा गया था। इस योजना को लेकर पत्रकार वार्ता में जो पत्र जारी किया गया है उसमें यह दावा किया गया है कि इस योजना का प्रारूप तैयार करने से पहले प्रदेश के 324 स्थलों का सर्वेक्षण किया औ 90,000 पर्यटकों से पर्यटन के विकास के लिये राय मांगी है। स्वभाविक है कि इतनी बड़ी योजना तैयार करने के लिये इस स्तर का ग्रांऊड वर्क किया जाना आवश्यक है लेकिन क्या पर्यटन विभाग ने दो माह में ही 324 स्थलों का सर्वेक्षण भी कर लिया और 90,000 पर्यटकों से राय भी ले ली? इतना आधारभूत काम करने के लिये तो कम से कम एक वर्ष का समय चाहिये जबकि अभी सरकार को सत्ता में आये छः माह भी पूरे नही हुए हैं। लेकिन मुख्यमन्त्रा ने पत्रकार वार्ता में दावा किया है कि यह योजना एकदम मौलिक है और पूर्व सरकार के समय इसका स्वप्न तक नही लिया गया था। स्वभाविक है कि दावा विभाग द्वारा दी गयी फीडबैक पर आधारित रहा होगा जिसकी व्यवहारिक प्रसांगिकता पर किसी ने ध्यान नही दिया है।
इसी तरह बागवानी के क्षेत्र में भी 1688 करोड़ की योजना स्वीकृत होने का दावा किया गया है। इस योजना से प्रदेश के निचले क्षेत्रों के किसान और बागवान लाभान्वित होगें। इस योजना से पहले भी एशियन विकास बैंक से पोषित एक योजना बागवानी के क्षेत्र में चल रही है जिसको लेकर वर्तमान बागवानी मंत्री मेहन्द्र सिंह ठाकुर और पूर्व मन्त्री विद्या स्टोक्स में काफी लंबी जुबानी जंग भी रही है क्योंकि विद्या स्टोक्स यह दावा करती रही है कि पूर्व योजना में भी प्रदेश के निचले क्षेत्रा बराबर शामिल रहे हैं लेकिन महेन्द्र सिंह स्टोक्स के इस दावे को सिरे से खारिज करते रहे हैं। इस योजना के आकार लेते समय यह सवाल अवश्य उठेगा कि एक ही ऐजैन्सी एक ही योजना पर दो बार सही में ही धन दे रही है या इसमें भी विभाग द्वारा मन्त्री के सामने तथ्य रखने में कोई चूक हुई है। इसपर स्थिति तब स्पष्ट होगी जब विकास बैंक की टीम डीपीआर का आकलन करने आयेगी।
सिंचाई एवम् जनस्वास्थ्य विभाग के तहत 2001 से पहले की निर्मित 1421 पेयजल योजनाओं के संवर्द्धन के लिये 798.19 की करोड़ की एक योजना स्वीकृत हुई है। इस योजना के लिये 80% धन एशियन विकास बैंक उपलब्ध करवायेगा और 20% (159.54 करोड़) राज्य सरकार को अपने साधनों से जुटाना होगा यह जानकारी इस आश्य के जारी हुए प्रेस नोट में दी गयी है। जबकि मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव जो पहले वित्त सचिव भी थे ने यह दावा किया है कि इन योजनाओं के लिये राज्य सरकार को केवल 10% के ही अपने हिस्से के रूप में देना होगा। 10% के हिस्से की शर्त एशियन विकास बैंक की सभी योजना पर लागू होगी या केवल पर्यटन और बागवानी पर ही होगी यह स्पष्ट नही हो पाया है।
एशियन विकास बैंक की इन योजनाओं को जमीनी आकार लेने में समय लगेगा। क्योंकि यह स्वीकृतियां अभी सिन्द्धात रूप में ही मिली है। इसके बाद इनकी डीपीआर बनेगी और उसका निरीक्षण विकास बैंक की टीम करेगी उसके बाद ही एम ओ यू साईन होंगे। इतना योजनाओं की सैद्धान्तिक स्वीकृति मिलना भी अपने में एक उपलब्धि है। लेकिन इसको लेकर समय समय पर खबरें छपती भी रही हैं ऐसे में क्या इन योजनाओं को लेकर इस स्टेज पर ही मुख्यमन्त्री द्वारा पत्राकार वार्ता किया जाना आवश्यक था या नही इसको लेकर भी चर्चाएं चल पड़ी है। क्योंकि इन योजनाओं को इस अंजाम तक पंहुचाने में संबधित मन्त्रीयों का भी योगदान रहा है ऐसे में इस मौके पर संवद्ध मन्त्री का भी साथ होना बनता था। फिर राजधानी में मुख्यमन्त्री बनने के बाद यह जयराम की पहली प्रैस वार्ता थी। विपक्ष इस समय सरकार और मुख्यमनी पर यह आरोप लगा रहा है कि सारे मन्त्री और विधायक उन्हे सहयोग नही दे रहे हैं। इस पत्रकार वार्ता में किसी भी मन्त्री का उनके साथ शामिल न रहना केवल यही संकेत देता है कि यह वार्ता अधिकारियों की सलाह पर बुलायी गयी थी क्योंकि इसकी जानकारी मीडिया को केवल तीन घन्टे पहले ही दी गयी थी। फिर इस वार्ता में पर्यटन को लेकर मुख्यमन्त्री से यह दावा करवा दिया गया कि यह विचार यह विज़न केवल अभी की उपज है जबकि प्रैस नोट में दर्ज आंकड़े इसको सत्यापित नही करते है। स्वभाविक है कि सरकार द्वारा स्वयं अपने ही प्रैस नोट में दिये गये आंकड़ों के आधार पर मुख्यमन्त्री के दावे पर विपक्ष सवाल खड़े करेगा जिनका कोई तर्क संगत जवाब नही होगा।
मुख्यमन्त्री ने पत्रकार वार्ता में जिस तर्ज पर वीरभद्र और मुकेश अग्निहोत्री पर हमला बोला है उसकी धार के पहली ही प्रैस वार्ता में मन्त्रीयों और पार्टी के पदाधिकारियों का साथ न होना स्वयं ही कुन्द कर जाता है। इस वार्ता से स्वतः ही यह संदेश गया है कि मुख्यमन्त्री अपने मन्त्रीयों से अधिक अधिकारियों पर ज्यादा निर्भर कर रहे हैं और यह भूल रहे हैं कि कल तक यही अधिकारी वीरभद्र के हर फैसले का ऑंख बन्द करके अनुमोदन कर रहे थे। इन्ही के गलत फैसलों का परिणाम है कि आज स्कूलों में अध्यापकों के लिये बच्चों को हड़ताल करनी पड़ रही है और दवाब में एक प्रधानाचार्य की हार्टअटैक से मौत तक हो गयी है।

सुक्खु-वीरभद्र द्वन्द में फिर लगी कांग्रेस दाव पर

शिमला/शैल। पिछले दिनों कांग्रेस हाईकमान ने रजनी पाटिल को प्रदेश का प्रभारी नियुक्त किया है। इस नियुक्ति के बाद वीरभद्र सिंह ने फिर से प्रदेश अध्यक्ष सुक्खु को हटवाने की मुहिम छेड़ दी है। इस मुहिम की शुरूआत उन्होंने रजनी पाटिल के लिये प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित की गयी पहली ही बैठक में गैर हाजिर रह कर की। इसके बाद अब प्रदेशभर में अपने समर्थकों की बैठकें करके सुक्खु के खिलाफ माहौल तैयार किया जा रहा है। इन बैठकों के पहले चरण में हमीरपुर, कांगड़ा, धर्मशाला और बिलासपुर में यह बैठकें की गयी है। इन बैठकों में पार्टी के भीतर बैठे वीरभद्र के वैचारिक विरोधियों को आमन्त्रित तक नहीं किया गया। एक प्रकार से वीरभद्र प्रदेश में समानान्तर कांग्रेस खड़ी करने की लाईन पर चल पड़े हैं। क्योंकि जिस तरह से वीरभद्र ने अपने समर्थकों की बैठकें करके हाईकमान को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि हिमाचल में वीरभद्र ही कांग्रेस है। यदि इस दबाव के बाद भी हाईकमान सुक्खु को नहीं हटाती है तब वीरभद्र के पास पार्टी को दो फाड़ करने के अलावा कोई विकल्प शेष नही रह जाता है क्योंकि इस बार वह बहुत दूर निकल आये हैं। वीरभद्र की दबाव की राजनीति और रणनीति के आगे हाईकमान इस बार कितना झुकता है इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं। इसी दवाब की रणनीति के सहारे 1983 में वीरभद्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने थे। इसके बाद 1993 में जब सुखराम को हाईकमान का आर्शीवाद मिलने की बात तब वीरभद्र ने विधानसभा का घेराव करवाकर कुर्सी पर कब्जा किया।
इस तरह प्रदेश की राजनीति और वीरभद्र की रणनीति की जानकरी रखने वाले जानते हैं कि वीरभद्र ने जो हासिल किया है वह दवाब की राजनीति का ही परिणाम रहा है। वीरभद्र 1983 से लेकर अबतक करीब 22 वर्ष प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे हैं। लेकिन आज प्रदेश जिस स्थिति से गुज़र रहा है उसके लिये वीरभद्र बहुत हद तक जिम्मेदार रहे हैं क्योंकि जब वीरभद्र ने अप्रैल 1983 में प्रदेश संभाला था उस समय प्रदेश के पास 80 करोड़ सरप्लस था यह जानकारी 1998 में जब धूमल ने प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर श्वेत पत्र रखा था उसमें दर्ज है। आज प्रदेश का कर्ज पचास हज़ार करोड़ से ऊपर जा चुका है लेकिन यदि यह सवाल पूछा जाये कि इस कर्ज का निवेश कहां हुआ है तो शायद प्रशासन के पास कुछ बड़ा दिखाने लायक नही है। 1990 में जब शान्ता कुमार जेपी उद्योग को प्रदेश में लाये थे तब वीरभद्र ने पूरे प्रदेश में यह आन्दोनल खड़ा कर दिया था कि प्रदेश को नीजि क्षेत्रा को सौंपा जा रहा है। 1993 में सत्ता में आते ही शान्ता काल के बेनामी सौदों पर एसएस सिद्धु की अध्यक्षता में जांच बिठा दी थी परन्तु उसकी रिपोर्ट पर कोई कारवाई नही की थी। 1983 में जिस फारैस्ट माफिया के खिलाफ जिहाद छेड़कर सत्ता हासिल की थी आज उसका आलम यह है कि प्रदेश में वनभूमि पर हुए अवैध कब्जों को हटाने के लिये प्रदेश उच्च न्यायालय को कड़े आदेश जारी करने पड़े हैं। इन अवैध कब्जों में भी रोहडू का स्थान प्रदेश में पहले स्थान पर आता है। 1993 से 1998 के बीच सरकारी विभागों और निगमों में हजारां लोगों को चिट्टां पर भर्ती करने का कीर्तिमान भी वीरभद्र सिंह के ही नाम है। यदि अभय शुक्ला और हर्ष गुप्ता कमेटीयों की रिपोर्ट पर धूमल ने कारवाई की होती तो आज प्रदेश की राजनीति का स्वरूप ही कुछ और होता। वीरभद्र के शासन मेंं ही प्रदेश के सहकारी बैंकों का एनपीए ही 900 करोड़ से ऊपर हो गया है। शिक्षा के क्षेत्र में आज प्रदेश के रोज़गार कार्यालयों में करीब एक लाख बीएड और एमएड बेरोज़गारों के तौर पर पंजीकृत हैं और दूसरी सरकारी और प्राईवेट स्कूलों में करीब नौ हज़ार ऐसे टीचर पढ़ा रहे हैं जिनके पास जेबीटी और बी एड की कोई डीग्री ही नहीं है। प्रदेश की इस स्थिति के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार वीरभद्र ही रहे हैं।
व्यक्तिगत तौर पर भी आय से अधिक संपति मामले में जिस तरह से अभी तक वीरभद्र घिरे हुए हैं वह सबके सामने है। ईडी ने जिस तरह से वीरभद्र के साथ सहअभियुक्त बने आनन्द चौहान और वक्का मुल्ला चन्द्र शेखर को गिरफ्तार कर लिया तथा मुख्य अभियुक्त वीरभद्र को छोड़ दिया। इसको लेकर जो चर्चाएं लोगों में चल रही हैं उस पर मोदी सरकार से लेकर वीरभद्र तक किसी के पास भी कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं है। क्योंकि कल तक इस मामले को लेकर जो आरोप पूरी भाजपा लगाती रही है वह आज इस पर जुबान खोलने की स्थिति में नही है लेकिन वीरभद्र भी इस स्थिति में नही है कि वह कह सकें कि मोदी की ऐजैन्सीयों ने उनके खिलाफ झूठा मामला बनाया था और आनन्द चौहान की गिरफ्तारी एकदम गलत थी। इस परिदृश्य में जब वीरभद्र की सुक्खु हटाओ मुहिम का आकलन किया जाये तो यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यह सब करने में उनकी नीयत क्या है। क्योंकि जब किसी पार्टी की सरकार बन जाती है तब संगठन के जिम्मे उस सरकार की नीतियों और उपलब्धियों का प्रचार प्रसार रहता है। सरकार संगठन पर हावी रहती है संगठन सरकार के आगे एक तरह से बौना पड़ जाता है कम से कम कांग्रेस में तो यही प्रथा रहती आयी है। वीरभद्र सरकार का पिछला कार्यकाल उपलब्धियों के नाम पर बिल्कुल नगण्य रहा है। इस काल में कोई बड़ी परियोजना बड़े निवेश के साथ प्रदेश में नही आ पायी है। आवश्यकता से अधिक ऐसे संस्थान खोल दिये गये जिनको चला पाना किसी के लिये भी संभव नही हो पायेगा। वित्त विभाग वीरभद्र के ईशारे पर नाचता रहा और केवल कर्ज जुटाने की ही जुगाड़ में लगा रहा। भारत सरकार के मार्च 2016 के पत्र की अनदेखी करके कर्ज उठाया जाता रहा। इसलिये यह कहना गलत होगा कि संगठन ने सरकार का साथ नही दिया। बल्कि जब वीरभद्र के लोगों ने वीरभद्र ब्र्रिगेड बनाकर समानान्तर संगठन खड़ा करने का प्रयास किया था उसी समय यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाला समय प्रदेश में कांग्रेस के लिये नुकसानदेह होने जा रहा है और वैसा हुआ भी। क्योंकि वीरभद्र पूरी तरह से कुछ स्वार्थी लोगों से घिर गये थे। आज जब राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पुनः सशक्त होने के प्रयास कर रही है जिसका संदेश कर्नाटक और उसके बाद हुए उपचुनावों के परिणामों से सामने आ चुका है। ऐसे में वीरभद्र का अपने ही संगठन में कुछ लोगों के खिलाफ मोर्चा खोलना अप्रत्यक्षतः कांग्रेस को कमज़ोर करके भाजपा को ही लाभ पंहुचाने का प्रयास माना जा रहा है। क्योंकि सुक्खु का अध्यक्ष के रूप में कार्यकाल पूरा हो चुका है उनका हटना तय है। वीरभद्र इसे जानते हैं फिर भी वीरभद्र का सुक्खु विरोध सुक्खु को हटाने से ज्यादा अपनी पंसद का अध्यक्ष बनाने का प्रयास ही माना जा रहा है।

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