शिमला/शैल। कांगड़ा केन्द्रीय सहकारी बैंक धर्मशाला का निदेशक मण्डल नाबार्ड और आर.बी.आई. की रिपोर्ट के बाद भंग कर दिया गया है। नाबार्ड ने पूरे निदेशक मण्डल के सदस्यों से जवाब तलबी की है। इसी बीच इस प्रकरण में ई.डी का दखल हो गया है। ई.डी. ने बैंक प्रबंधन से शिमला में पूछताछ की है। माना जा रहा है कि इस प्रकरण में सी.बी.आई. का भी दखल होने वाला है। इसी बीच मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा है कि बैंक के घोटाले में सरकार की कोई भूमिका नहीं है। बैंक में जिस तरह का कामकाज पिछले आठ वर्षों से चल रहा था उसको देखते हुये सरकार ने निदेशक मण्डल को निलंबित कर दिया है। बैंक के निदेशक मण्डल के निलंबन का आधार नाबार्ड और आर.बी.आई. की विस्तृत रिपोर्ट बनी है। लेकिन मुख्यमंत्री की प्रतिक्रिया से यह संदेश गया है कि इस सरकार के कार्यकाल में नियुक्त निदेशक मण्डल भी बैंक की कार्य प्रणाली में सुधार नहीं ला पाया बल्कि उसी कार्य संस्कृति को आगे बढ़ाता रहा। प्रदेश के सरकारी बैंकों पर पंजीयक सहकारी सभाओं के माध्यम से सरकार का पूरा नियंत्रण है और इसी नियंत्रण के माध्यम से सहकारी बैंकों को सहकारिता विभाग से निकाल कर वित्त विभाग के अधीन ला दिया गया और वित्त विभाग का प्रभार मुख्यमंत्री के अपने पास हैं। बैंक किसी को भी कोई भी राहत ऋण के मामले में ओ.टी.एस. योजना के तहत ही दे सकता है। इस परिदृश्य में इन दिनों जिस तरह से 45 करोड़ के ऋण को 21 करोड़ में सेटल करने का प्रकरण चर्चा में आया है और बैंक में ई.डी. का दखल हो गया है उससे इस मामले ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया है।
स्मरणीय है कि कांगड़ा केन्द्रीय सहकारी बैंक धर्मशाला बैंस प्रकरण के कारण चर्चा में आया और इस समय प्रदेश का सबसे गंभीर मुद्दा बन चुका है। जिसका राजनीतिक प्रतिफल बहुत गंभीर होने के संकेत बाहर आते जा रहे हैं। क्योंकि यह चर्चा तब उठी जब बैंस ने एक पत्रकार वार्ता में यह आरोप लगाया कि उसने ई.डी. में शिकायत दर्ज करवाई है और इस शिकायत के आधार पर ई.डी. ने नादौन और हमीरपुर में छापेमारी की तथा दो लोगों को हिरासत में ले लिया। इसी छापेमारी के दौरान बैंस के खिलाफ उसके ऋण मामले को लेकर विजिलेंस में केस दर्ज हो गया। केस दर्ज होने पर बैंस उच्च न्यायालय पहुंच गये और उच्च न्यायालय ने जिस तर्ज में इस मामले में टिप्पणियां की है उनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह मामला बहुत कमजोर है। बैंस को जो ऋण बैंक ने स्वीकृत किया उसमें बैंक ने स्वतः ही कटौती कर दी जबकि बैंस ने इस ऋण के लिए जो संपत्ति बैंक के पास गिरवी रखी थी उसकी कीमत 2018 में 75 करोड़ आंकी गई थी। परन्तु बाद में बैंक प्रबंधन ने बैंस को संद्धर्भ में लिये बिना ही उसकी कीमत 20 करोड़ कर दी। यहां यह स्वभाविक प्रश्न उठता है कि मनाली में जिस जमीन की कीमत 2018 में 75 करोड़ थी उसकी कीमत 2023 में 20 करोड़ कैसे रह गयी। अब जब बैंक में ई.डी. ने दखल दिया है और बैंस का रिकॉर्ड तलब किया तब उसकी फाइल ही बैंक ने गायब कर दी। यह फाइल गायब होने पर बैंक ने अपने अधिकारियों के खिलाफ जांच आदेशित कर दी है। बैंस के केस की फाइल ही बैंक द्वारा गायब कर दिये जाने से बैंस द्वारा बैंक प्रबंधन पर लगे जा रहे आरोप स्वतः ही गंभीर हो जाते हैं। फिर ओ.टी.एस. को लेकर भी यह सामने आ चुका है कि बैंक द्वारा लायी गयी यह योजना स्वतः ही लैप्स हो गयी है क्योंकि इसमें छः माह तक कोई कारवाई ही नहीं हुई है और नियमों के मुताबिक योजना में गैप आने पर इसको पुनः लागू करने के लिये आर.बी.आई. और नाबार्ड से नये सिरे से अनुमति लेनी पड़ती है। पंजीयक सहकारी सभाएं ने यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि यह अनुमति लेना अनिवार्य है। परन्तु बैंक प्रबंधन ने अपने ही स्तर पर ओ.टी.एस. को पुनः चालू कर दिया और 45 करोड़ का ऋण 21 करोड़ में सेटल कर दिया। बैंक में घटे इस सबके परिदृश्य में बैंस द्वारा लगाये जा रहे सारे आरोप स्वतः ही प्रमाणित हो जाते हैं। क्योंकि बैंस ने यह दावा किया है कि उसने इस संद्धर्भ में उससे मिले हर व्यक्ति की ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग कर रखी है। यह रिकॉर्डिंग ई.डी. और सी.बी.आई. को भी उपलब्ध करवा दिये जाने का दावा बैंस ने किया है। बैंस ने यह आरोप लगाया है कि उसकी अपने ऋण मामले में मनाली में बैंक के पास गिरवी रखी गयी जमीन को कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी को देने की योजना बनायी गयी थी। प्रियंका गांधी को यह जमीन देने की बात बैंस को ज्ञानचन्द के माध्यम से सूचित की गयी थी। बैंस के मुताबिक इस सबकी उसने रिकॉर्डिंग कर रखी है। स्वभाविक है कि जब ई.डी. को कोई ठोस साक्ष्य उपलब्ध करवाया गया होगा तभी ई.डी. ने इस मामले में कदम उठाया होगा। वैसे ही ई.डी. पर यह आरोप है कि वह राजनीतिक आकांओं के इशारे पर काम करती है। इस समय राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति जिस मोड पर आ पहुंची है उसके परिदृश्य में भी यह माना जा रहा है कि हिमाचल में अगले दो-तीन माह में कुछ बड़ा घटेगा। क्योंकि यदि बैंस की जमीन प्रियंका गांधी को दिये जाने का संदेश किसी भी नेता ने दिया है और उसकी ऑडियो वीडियो रिकॉर्डिंग ई.डी., सी.बी.आई. तक पहुंच चुकी है तो उसके राजनीतिक अर्थ बहुत दूरगामी हो जाते हैं यह तय है।
शिमला/शैल। क्या भाजपा सुक्खू सरकार के प्रति ईमानदार, गंभीरता से आक्रामक है या उसकी आक्रामकता एक राजनीतिक रस्म अदायगी भर है? यह सवाल इसलिये उठ रहा है कि सुक्खू सरकार जिस तरह से कर्ज पर आश्रित हो गयी है वह भविष्य के लिये एक बड़े संकट का न्योता साबित होगी। क्योंकि बढ़ते कर्ज का सबसे पहला और बड़ा असर यह होता है कि सरकार को अपने प्रतिबद्ध खर्चों में सबसे पहले कटौती करनी पड़ती है। इन प्रतिबद्ध खर्चों में सबसे पहले कर्मचारी वर्ग आता है। उसमें स्थायी नियमित रोजगार को कम करके अस्थायी और आउटसोर्स का सहारा लेना पड़ता है। जब से प्रदेश में आउटसोर्स का चलन शुरू हुआ है तभी से उसी अनुपात में नियमित रोजगार में कटौती हुई है। बढ़ते कर्ज का दूसरा प्रभाव जन सुविधाओं पर पड़ता है। सरकार नियमित सुविधाओं से कर्ज के अनुपात में ही पीछे हटती जाती है। इस सरकार पर कर्ज पर आश्रित होने का जितना आरोप लगता जा रहा है उसी अनुपात में यह सरकार पूर्व सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाती जा रही है। लेकिन पूर्व के सरकार के नेतृत्व द्वारा इस कुप्रबंधन का कोई कड़ा जवाब नहीं दिया जा रहा है। इस सरकार पर विपक्ष भ्रष्टाचार के जितने आरोप लगा रहा है वह सब अपने में गंभीर हैं। लेकिन उन आरोपों पर अब तक एक भी आरोप पत्र विधिवत राज्यपाल को सौंपकर किसी जांच की मांग नहीं की गयी है। बल्कि जो आरोप देहरा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी रहे होशियार सिंह ने वाकायदा विधिवत शिकायत के रूप में महामहिम राज्यपाल को सौंपे हैं उनकी जांच की मांग को लेकर पूरी भाजपा खामोश खड़ी है और राजभवन भी शायद उस शिकायत को भूल ही गया है। बल्कि एचआरटीसी कि ई-वर्कशॉप को लेकर नादौन में खरीदी गई जमीन में घपला होने के जो आरोप विधायक सुधीर शर्मा ने लगाये थे उन आरोपों पर भी पूरी भाजपा ने मौन साध लिया है। ऐसे और भी कई उदाहरण है जो भाजपा नेतृत्व से इस दिशा में जवाब मांगते हैं।
इस परिदृश्य में भाजपा की आक्रामकता को लेकर आम आदमी भी इसे एक रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं है। भाजपा की इस नीयत और नीति पर अब कुछ सवाल उठने लग पड़े हैं। क्योंकि भाजपा ने राज्यसभा चुनाव के दौरान अपने उम्मीदवार को विजयी बना लिया था उस समय भाजपा पर धन बल के सहारे सरकार गिराने का आरोप लगा था। इस आरोप के बाद कांग्रेस और भाजपा में जिस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चला और अदालत तक भी पहुंच गया उसका अंतिम परिणाम कोई सामने नहीं आया है। यह सही है कि इस समय राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रही है। इसी नाजुकता के कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का अभी तक विकल्प नहीं ला पायी है। यह माना जा रहा है कि भाजपा के राष्ट्रीय परिदृश्य का असर प्रदेश पर भी पड़ रहा है। प्रदेश भाजपा की नई कार्यकारिणी में क्षेत्रीय असन्तुलन के आरोप मुखरित होने लग पड़े हैं। इसलिये प्रदेश सरकार के प्रति भाजपा की आक्रामकता पर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। बल्कि यह कहा जाने लगा है की मुख्यमंत्री सुक्खू की सियासी चालों ने कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को पंगु बना दिया है और भ्रष्टाचार के आरोपों पर ई.डी. में जाने की चुनौती दे रहे हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस का पुनर्गठन अभी तक नहीं हो पाया है। यहां तक कांग्रेस हाईकमान के साथ भी इस संबंध में प्रदेश नेताओं की बैठक हो चुकी है। पिछली बैठक में हाईकमान ने प्रदेश के मंत्रियों से अलग मंत्रणा की थी और तब यह लगा था कि एक-दो दिन में घोषणा हो जायेगी। परन्तु ऐसा हो नहीं सका। क्योंकि प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह ने शिमला में पत्रकारों से बात करते हुये स्पष्ट कहा कि वीरभद्र लीगेसी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा कि अगला अध्यक्ष अनुसूचित जाति से होना चाहिये। साथ ही यह भी कहा कि अगला अध्यक्ष कोई मंत्री हो सकता है। प्रतिभा सिंह और मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के बयानों से स्पष्ट हो जाता है कि अभी अगले गठन पर प्रदेश के नेताओं में ही कोई सहमति नहीं हो पायी है।
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने अढ़ाई वर्ष हो गये हैं। प्रदेश संगठन में पिछले वर्ष नवम्बर से सारी कार्यकारणीयां भंग हैं। यदि सरकार और संगठन में अब तक के कार्यकाल की समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में अब तक तालमेल का अभाव रहा है और यह अभाव खुलकर जगजाहिर भी हो चुका है। वरिष्ठ कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं ने सरकार में यह यथोचित समायोजन की मांग उठी और हाईकमान तक भी पहुंची लेकिन कोई समाधान नहीं निकल सका। इसी तालमेल के अभाव का परिणाम था की छः विधायकों ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। कांग्रेस प्रदेश में लोकसभा और राज्यसभा सभी कुछ हार गयी लेकिन हाईकमान ने इस हार का कोई गंभीर संज्ञान नहीं लिया। हाईकमान इसी में खुश रही की दल बदल के प्रयासों के बावजूद भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बच गयी। आपसी तालमेल का अभाव उस समय भी जगजाहिर हो गया था जब धर्माणी और गोमा को मंत्री बनने के बाद उन्हें विभागों के आवंटन में जरूरत से ज्यादा समय लगा दिया गया। यह स्थिति व्यवहारिक रूप से अब तक बनी हुई है और इसी के कारण सरकार पर अफसरशााही के हावी होने की शिकायतें हाईकमान तक भी जा पहुंची है।
इसी वर्ष के अन्त में पंचायत और पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव होने हैं। यह चुनाव सरकार के कामकाज की परीक्षा होंगे। कांग्रेस विधानसभा चुनावों में दस गारंटियां जनता को देकर सत्ता में आई थी। अब यह गारंटियां कितनी पूरी हुई हैं इसका हिसाब हर वोटर मांगेगा और हर कांग्रेस कार्यकर्त्ता को इसका जवाब देना होगा। इस दौरान वित्तीय संकट के आवरण में जनता पर कितना कर्जभार लाद दिया गया और उसके अनुपात में आम आदमी के संसाधन कितने बढ़े हैं इसका भी व्यवहारिक लेखा-जोखा इन चुनावों में रखना पड़ेगा। यह सबसे बड़ा सवाल होगा कि कांग्रेस का कार्यकर्ता क्या संदेश लेकर जनता के बीच जायेगा। सरकार ने स्थानीय निकायों के चुनाव में ओबीसी को आरक्षण देने की बात की है। परन्तु यह आरक्षण तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक जातीय जनगणना नहीं हो जाती है। इसलिये यह बहुत संभव है कि विधानसभा के इस सत्र में यह प्रस्ताव आये कि स्थानीय निकायों के चुनाव दो वर्षों के लिये टाल दिये जायें। यह चुनाव टलने से इन निकायों में तो हार से बच जाएंगे परन्तु पंचायत के चुनाव में क्या होगा यह एक बड़ा सवाल रहेगा। इन्हीं चुनावों के कारण इस समय संगठन के पुनर्गठन को और टालना संभव नहीं होगा। हिमाचल में संगठन का पुनर्गठन प्रदेश नेतृत्व के साथ हाई कमान के लिए भी चुनौती बनता जा रहा है।
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