Thursday, 18 September 2025
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प्रदेश में कांग्रेस को बचाने के लिये सरकार और संगठन दोनों पर कड़ी कारवाई आवश्यक है

  • कांग्रेस में सरकार के आगे संगठन प्रभावी नहीं रह जाता है

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस की कार्यकारिणी नवम्बर 2024 में भंग कर दी गई थी। भंग करने का तर्क यह दिया गया था कि निष्क्रिय पदाधिकारीयों को हटाकर उनके स्थान पर नये ऊर्जावान कार्यकर्ताओं को स्थान दिया जायेगा। हाईकमान के इस फैसले के बाद एक पर्यवेक्षकों की टीम प्रदेश में यह पता लगाने के लिये भेजी गयी थी कि यह निष्क्रियता क्यों आयी और सक्रिय कार्यकर्ताओं का इस बारे में क्या सोचना है। प्रदेश कार्यकारिणी को भंग करने का एक बड़ा कारण यह रहा है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद पहले पार्टी राज्यसभा की सीट हार गयी और फिर चारों लोकसभा सीटें हार गयी। लेकिन इन्हीं लोकसभा चुनावों के साथ हुये प्रदेश विधानसभा के उपचुनावों में पार्टी ने शानदार जीत दर्ज की। इस तरह एक ही समय में हुये मतदान में प्रदेश की जनता ने कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व कोे तो नकार दिया और प्रदेश नेतृत्व को पूरा समर्थन दे दिया। इस तरह एक ही समय में आये दो अलग-अलग आचरणों में हाई कमान और राजनीतिक पंडितों के सामने एक गंभीर स्थिति पैदा कर दी। इस हार-जीत पर चले मन्थन के परिणाम स्वरुप पहले तो कार्यकारिणी को भंग कर दिया और उसके बाद पर्यवेक्षकों के दिल्ली जाने के बाद प्रदेश प्रभारी को हटाकर नया प्रभारी भेज दिया गया।
अब नये प्रभारी के आने के बाद यह चर्चा चला दी गयी है कि प्रदेश अध्यक्ष को बदला जायेगा या कार्यकारिणी का ही गठन किया जायेगा। यह स्थिति अपने में गंभीर बनी हुई है क्योंकि अभी तक सार्वजनिक रूप से यह सामने नहीं आया है कि राज्यसभा चुनाव के दौरान हुये दलबदल के लिये कौन जिम्मेदार है? इसके लिये संगठन कितना जिम्मेदार रहा है और सरकार कितनी? संगठन की ओर से हाईकमान के संज्ञान में यह बार-बार लाया जाता रहा है कि वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का सरकार में उचित समायोजन नहीं हो रहा है। इस संद्धर्भ में उस दौरान हाईकमान को पत्र भी लिखे गये थे। दूसरी ओर सरकार ने दलबदल के लिये धनबल के इस्तेमाल के आरोप लगाये। इन आरोपों को प्रमाणित करने के लिये बालूगंज पुलिस थाना में एक एफआईआर दर्ज हुई। इस एफआईआर की जांच बड़े जोर-शोर के साथ हुई। दल बदल करने वालों को सदन से बाहर का रास्ता दिखाया गया। इसी आधार पर उनकी पैन्शन बन्द करने का विधेयक पारित कर दिया गया। लेकिन अब इस एफआईआर का परिणाम क्या है? इसके आधार पर कब अदालत में चालान पेश होगा और कब वह लोग दण्डित होंगे इस बारे में किसी को कुछ जानकारी नहीं है। बल्कि यह सवाल उठने लगा है कि यदि धन बल का आरोप प्रमाणित नहीं हो पाता है तो इसके आधार पर की गयी कारवाई अपने में कैसे और कितनी वैध रह जायेगी?
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने हुये दो वर्ष से अधिक का समय हो गया है। इस दौरान सरकार ने जो नये विधेयक पारित किये हैं और अपने संसाधन बढ़ाने के लिये जो फैसले लिये हैं उनका आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ा है? कितने फैसलों पर यूटर्न लेना पड़ा है? प्रदेश की वित्तीय स्थिति नाजुक दौर में चल रही है। वित्तीय स्थिति के खराब होने का दोष पूर्व सरकार पर लगाया जा रहा है। लेकिन इस नाजुक स्थिति में सरकार ने अपने खर्चों पर कितना नियंत्रण किया है इसका कोई ठोस प्रमाण जनता के सामने नहीं आ पाया है। प्रदेश का कर्मचारी वर्ग सड़कों पर आने लग पड़ा है और एक बड़े कर्मचारी आन्दोलन की भूमिका बनती जा रही है। आज संगठन में कोई भी फैसला लेने से पहले सरकार के दो वर्ष के कार्यकाल की समीक्षा पूरी ईमानदारी से यदि नहीं की जाती है और उसकी कमियों के लिये किसी को दोषी नहीं ठहराया जाता है तो संगठन में कुछ भी बदलाव करने का कोई परिणाम नहीं होगा। इस समय संगठन को लेकर फैसला लेने से पहले सरकार को लेकर फैसला आवश्यक हो गया है।
इस समय प्रदेश कांग्रेस और सरकार में एक भी नेता ऐसा नहीं है जो अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर किसी दूसरी जगह अपना प्रभाव रखता हो। आज तो इस सरकार के मंत्री भी यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि वह अपनी-अपनी सीट तो अवश्य बचा लेंगे। यदि मंत्रियों से ही हाईकमान गोपनीय तरीके से सरकार के बारे में उनकी राय जानने का प्रयास करें तो उसी से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। यह सरकार कुछ ऐसे अफसर के हाथों की कठपुतली बनकर रह गयी है जिनके बारे में इस सरकार में बैठे मंत्री ही एक समय गंभीर आरोप लगा चुके हैं। आज कांग्रेस को प्रदेश में बचाने के लिये संगठन और सरकार दोनों पर कड़े अंकुश लगाने की आवश्यकता है। अन्यथा लम्बे समय तक कांग्रेस प्रदेश के राजनीतिक पटल से गायब हो जायेगी। कांग्रेस को बचाने के लिये शीर्ष नेतृत्व को आत्म निरीक्षण की भी आवश्यकता है।

क्या प्रभारी के बदलने के बाद सरकार में भी कोई बदलाव होगा

  • क्या प्रभारी हाईकमान को सरकार के बारे में सही जानकारी ही नहीं दे पाये या उसकी जानकारी को गंभीरता से नहीं लिया गया?
  • क्या सरकार के विवादित फैसलों के लिये संगठन को जिम्मेदार माना जा सकता है?

शिमला/शैल। कांग्रेस हाईकमान ने प्रदेश कांग्रेस के प्रभारी राजीव शुक्ला को पद से हटा दिया है। शुक्ला की जगह महाराष्ट्र की कांग्रेस नेता रजनी पाटिल को प्रभारी लगाया गया है। इस फेरबदल के बाद यह चर्चा चल पड़ी है कि प्रदेश में और क्या बदलाव आता है। इस समय हिमाचल कांग्रेस की कार्यकारिणी पिछले करीब चार माह से बर्खास्त चल रही है। केवल अध्यक्षा को ही इस बर्खास्तगी से बाहर रखा गया है। नई कार्यकारिणी के गठन के लिये कुछ पर्यवेक्षक प्रदेश में भेजे गये थे। उनकी रिपोर्ट के आधार पर अगली कार्यकारिणी का गठन किया जाना था। इन पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट क्या रही है यह तो सामने नहीं आ पाया है। लेकिन प्रभारी को पद से हटा दिया गया है। केन्द्र में कांग्रेस सत्ता में नहीं है। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद कांग्रेस प्रदेश की चार लोकसभा सीटों में से एक भी नहीं जीत पायी है। यहां तक की सरकार होने के बावजूद राज्यसभा की सीट भी हार गयी। जबकि भाजपा सरकार के वक्त कांग्रेस मण्डी लोकसभा उपचुनाव जीत गयी थी। इस समय संयोगवश हिमाचल से न तो लोकसभा और न ही राज्यसभा में कांग्रेस का कोई सांसद है। ऐसे में हाईकमान द्वारा नियुक्त किये गये प्रभारी की अहमियत और भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि हाईकमान को प्रदेश के बारे में निष्पक्ष राय और सूचना देने का पहला स्त्रोत प्रभारी ही रह जाता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि राजीव शुक्ला ने लोकसभा की चारों सीटें हारने और फिर राज्यसभा की सीट हारने और छः कांग्रेस विधायकों के दल बदल करने को लेकर कितनी सही और निष्पक्ष राय दी होगी। इस पर किसी राय पर पहुंचने से पहले प्रदेश सरकार और संगठन की व्यवहारिक स्थिति पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है।
हिमाचल में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह वह नेता हैं जो एन एस यू आई, युवा कांग्रेस और फिर प्रदेश कांग्रेस पाटी्र के अध्यक्ष रहे हैं। इन्हें अध्यक्ष पद से हटाकर कुलदीप राठौर को स्व. वीरभद्र के समय में ही अध्यक्ष बना दिया गया था। कुलदीप राठौर के समय में ही कांग्रेस ने प्रदेश की चार में से दो नगर निगम में भाजपा शासन में जीत हासिल की थी। मण्डी लोकसभा का उपचुनाव भी जयराम सरकार के समय जीता था। प्रतिभा सिंह को उम्मीदवार बनाया गया था। प्रतिभा सिंह पहले भी मण्डी से लोकसभा सांसद रह चुकी थी। स्व. वीरभद्र सिंह की राजनीतिक विरासत का विधानसभा चुनावों में लाभ लेने के लिये प्रतिभा सिंह को राठौर की जगह पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। लेकिन विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने सामूहिक नेतृत्व में लड़ने का फैसला लिया और किसी एक को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया। परन्तु विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत मिलने के बाद प्रदेश के नेता के चयन के लिये पर्यवेक्षकों ने सुक्खू को नेता घोषित कर दिया। सुक्खू के साथ ही मुकेश अग्निहोत्री को उपमुख्यमंत्री बना दिया गया। इस चयन की आधिकारिक सूचना राजभवन को प्रदेश अध्यक्ष द्वारा दिये जाने की बजाये पर्यवेक्षकांे द्वारा दी गयी। पार्टी अध्यक्षा को मनाने के लिये पर्यवेक्षक हॉलीलाज गये और यहीं से यह सामने आ गया की पार्टी में भीतर से सब कुछ अच्छा नहीं है। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के शपथ समारोह से ही निकला गुटबाजी का सन्देश हर रोज बढ़ता ही चला गया। मंत्रिमण्डल के विस्तार से पहले ही सरकार के फैसलों ने विपक्ष को मुद्दा थमा दिया था। शपथ ग्रहण करने के बाद दूसरे ही दिन पूर्व सरकार के छः सौ फैसले पलट दिये गये। जबकि एक ही दिन में छः सौ फाईलें पढ़कर उन पर फैसला ले पाना किसी के लिये भी संभव नहीं हो सकता। परन्तु मुख्यमंत्री ने यह किया और इससे यह संदेश गया कि यह सरकार पहले ही दिन से नौकरशाहों के हाथ में किस तरह से खेल गयी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। प्रदेश की यह स्थिति अचानक नहीं बनी है बल्कि नीयतन बनायी गयी है।
प्रदेश की स्थिति की जानकारी यदि प्रभारी समय पर हाईकमान के सामने नहीं रख पाया है तो निश्चित रूप से उसकी निष्ठाएं सन्देह के घेरे में आती हैं। यदि हाईकमान ने यह सब संज्ञान में होने के बावजूद इस पर कोई कारवाई नहीं की है तो स्पष्ट हो जाता है कि हाईकमान प्रदेश को कोई अहमियत ही नहीं देता है। यही स्थिति नये प्रभारी के लिये भी किसी परीक्षा से कम नहीं होगी। इस समय प्रदेश में ईडी, सीबीआई और आयकर दस्तक दे चुके हैं। इसका अंतिम परिणाम कब क्या सामने आता है इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है। ऐसे में जब तक सरकार को लेकर हाईकमान कोई फैसला नहीं लेता है तब तक संगठन कुछ नहीं कर सकता।

क्या कांग्रेस में एक बड़ा विद्रोह और विरोध मुखर होने जा रहा है?

  • दो दर्जन विधायकों के हस्ताक्षरों से उठी चर्चा
  • 1990 की तर्ज पर प्रदेश में बड़े कर्मचारी आन्दोलन की संभावना

शिमला/शैल। क्या हिमाचल कांग्रेस में एक बड़े विद्रोह और विरोध की परिस्थितियां बनने लग पड़ी है? क्या परिस्थितियां हिमाचल सरकार के लिये घातक होगी? यह सवाल और ऐसे ही कई और सवाल इस प्रदेश की राजनीतिक तथा प्रशासनिक गलियारों में चर्चा में आने लगे हैं। क्योंकि हिमाचल सरकार वित्तीय कुप्रबंधन के लिये जितना पूर्व सरकार को दोषी करार देती आ रही है उससे कहीं ज्यादा इस कुप्रबंधन के प्रमाण अपने खिलाफ खड़े करती जा रही है। विपक्ष एक लम्बे अरसे से यह आरोप लगाता आ रहा है कि यह सरकार केन्द्रीय योजनाओं के नाम पर मिल रहे पैसे को डाईवर्ट करके अपने खर्च चलाने के लिये इस्तेमाल कर रही है। इसका प्रमाण उस समय सामने आ गया जब भाजपा विधायक रणधीर शर्मा ने यह आरोप लगा दिया की समग्र शिक्षा अभियान के पैसे से एलिमेंट्री शिक्षकों का वेतन अदा किया गया। रणधीर शर्मा ने इस आरोप की पुष्टि में सरकार द्वारा 20 जनवरी को लिखा गया पत्र भी सामने रखा। ऐसे ही आरोप वन और अन्य विभागों को लेकर सामने आये हैं। इन्हीं आरोपों के विधानसभा सचिवालय द्वारा की गई नियुक्तियों को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया है और इन नियुक्तियों के लिये अपनायी गयी चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठे हैं। इसी के साथ युक्तिकरण के नाम पर बिजली बोर्ड में 700 पदों को समाप्त करने और आउटसोर्स पर रखे गये 81 ड्राइवरों को निकाले जाने के प्रकरण ने जलती आग में घी डालने का काम किया है। आउटसोर्स के माध्यम से की जाने वाली भर्तीयों को संविधान के अनुच्छेद 16 की उल्लंघना करार देते हुये इन पर प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद कुछ कंपनियां सरकारी विभागों के नाम पर युवाओं से आवेदन मांगने का काम जारी रखे हुये हैं क्योंकि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है इन लोगों को। इस तरह कर्मचारियों में 1990 की तर्ज पर एक बड़े आन्दोलन की स्थितियां बनती जा रही हैं।
दूसरी ओर सरकार वित्तीय संकट से निपटने के लिये आम आदमी पर और ज्यादा करों और शुल्कों का बोझ डालने के विकल्प पर चल रही है। कर्ज की सीमा पहले ही सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इसी वित्तीय परिदृश्य में विपक्ष ने बजट पूर्व होने वाली विधायक प्राथमिकता बैठकों का बहिष्कार कर दिया है। विधायकों और बड़े अधिकारियों को पूरी तरह यह जानकारी है कि सरकार की वित्तीय स्थिति ठीक नहीं है और ऐसे में सरकार की कोई भी घोषणा जमीन पर उतरना संभव नहीं है। जब राजनीतिक क्लास के सामने यह आ जाता है कि सरकार विकास के किसी भी काम को अमली जामा पहनाने की स्थिति में नहीं रह गयी है तब सरकार की करनी और कथनी की व्यवहारिक विवेचना शुरू हो जाती है। इस प्रकार का कार्य सूत्र अब तक व्यवस्था परिवर्तन रहा है जो अब सूत्र से निकलकर जुमले के दायरे में आ गया है। स्वभाविक है कि जो सरकार शिक्षकों का वेतन देने के लिये समग्र शिक्षा के धन का इस्तेमाल करने पर विवश हो जाये वह राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूल बनाने और बच्चों को विदेश भ्रमण पर ले जाने का प्रबंध कैसे करेगी? यह सवाल अब आम आदमी भी पूछने लग पड़ा है।
अब कांग्रेस के विधायकों का एक बड़ा वर्ग सरकार से हटकर अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चिंता और चिंतन करने लगा पड़ा है। चर्चा है कि कांगड़ा के एक विधायक के घर में हुई बैठक में इस पर खुलकर चर्चा हुई है। बैठक में यह प्रश्न उठा है कि विधानसभा का चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा गया था और उसके बाद नेतृत्व का चयन उच्च कमान ने स्वयं किया था। यह एक स्थापित सच है कि सरकार बनने के बाद कांग्रेस जैसी पार्टी में संगठन पृष्ठभूमि में चला जाता है और अग्रणी भूमिका में केवल सरकार रह जाती है। इसी अग्रणी भूमिका के कारण सरकार बनने के बाद पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के स्थान पर पहले मित्रों को ताजपोशियां दी गयी और कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गयी। इस अनदेखी की शिकायत हाईकमान तक भी पहुंची। जब हाईकमान ने भी इस सब की अनदेखी की तब पार्टी के छः विधायक टूटकर भाजपा में चले गये। यह नेतृत्व के खिलाफ पहला मुखर रोष था। इस रोष के बाद तो प्रदेश सरकार के कुछ फैसले ऐसे राष्ट्रीय चर्चा का विषय बने की हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभाओं के चुनाव में भी मुद्दा बने। अब दिल्ली के चुनाव में भी कांग्रेस को कोई बड़ी सफलता मिलने का आसार नहीं है। क्योंकि कांग्रेस की विश्वसनीयता उसकी राज्य सरकारों के फैसलों और कार्यशैली से बनेगी। जो सरकार पहले दिन से ही मीडिया को बांटने और दबाने की नीति पर चलते-चलते दो साल में मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त में भेद करके सचिवालय में प्रवेश देने के लिये यह सूची जारी करने पर आ जाये उसकी मानसिकता का अनुमान कोई भी लगा सकता है। शायद इसी सबको देखते हुये हर्ष महाजन जैसे भाजपा नेता को यह दावा करने का साहस हुआ है कि हम जब चाहें तब सरकार गिरा सकते हैं। शायद इसी सब को देखते हुये कांग्रेस के दो दर्जन विधायकों ने अपना रोष हाईकमान के सामने रखने के लिये हस्ताक्षर नीति का सहारा लिया है।

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