शिमला/शैल। कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के दौरान पांच लाख रोजगार उपलब्ध करवाने की भी गारंटी दी थी। सरकार बनने के बाद इस संबंध में एक मंत्री स्तरीय कमेटी का गठन भी किया था। इस कमेटी की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया था की सरकार में ही 70000 पद रिक्त हैं। इससे यह उम्मीद बंधी थी कि सरकार में इतने युवाओं को तो रोजगार मिलेगा ही। लेकिन यह रिपोर्ट आने से पहले ही हमीरपुर स्थित अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड भ्रष्टाचार के आरोपों में भंग कर दिया गया और हजारों युवाओं के विभिन्न परीक्षा परिणाम लटक गये। अब बोर्ड के नए कलेवर में गठन और लंबित परीक्षा परिणाम घोषित करने के निर्देशों के साथ ही यह लगा था कि अब तो युवाओं को रोजगार मिल ही जायेगा। लेकिन जब दो वर्ष या इससे अधिक समय से सरकार और विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों में खाली चले आ रहे पदों को 2012 के निर्देशों के तहत समाप्त कर दिये जाने की अधिसूचना सामने आयी तो फिर सारा परिदृश्य बदल गया। क्योंकि राजनीतिक हल्कों में हलचल हो गई मुख्यमंत्री को स्वयं स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी। इससे पहले जब खराब वित्तीय स्थिति के कारण वेतन भत्ते विलंबित करने की जानकारी सदन के पटल पर रख दी गई और उस पर बवाल मचा तो सरकार को वित्तीय स्थिति ठीक होने का प्रमाण कर्मचारियों और पैन्शनरों को एडवांस में वेतन और पैन्शन देकर रखना पड़ा। फिर टॉयलेट टैक्स की अधिसूचना के प्रकरण में भी यही हुआ सरकार को स्पष्टीकरण देना पड़ा। यह सब चुनाव के दौरान हुआ। सरकार के यह फैसले राष्ट्रीय चर्चा का विषय बने। हरियाणा में कांग्रेस की हार के लिये हिमाचल के इन फैसलों को भी एक बड़ा कारण माना गया। अब फिर महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव के दौरान हिमाचल का यह फैसला आया अधिसूचना सामने आते ही पूरे देश में चर्चा चल पड़ी।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि हिमाचल में एक ही तरह की गलतियां बार-बार क्यों हो रही हैं और यह भी कुछ राज्यों के चुनावों के दौरान। स्वभाविक है कि जब सरकार को अपने फैसलों पर स्पष्टीकरण देने पड़े तो दूसरे लोग उसको किसी अलग ही राजनीतिक पैमाने से मापने का प्रयास करेंगे। क्योंकि हिमाचल के इन फैसलों का चुनावी राज्यों में कांग्रेस के खिलाफ एक नकारात्मक राजनीतिक तस्वीर बनाने में योगदान हो जाएगा। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों के लिये यह एक बड़ा सवाल बन जाता है कि ऐसे फैसले हिमाचल सरकार ले ही क्यों रही है। जिनका स्पष्टीकरण देने के लिए मुख्यमंत्री को सामने आना पड़े। क्योंकि जब एक ही तरह के विवादित फैसले चुनावी वातावरण में आना शुरू हो जायें तो राजनीतिक विश्लेषक उसे सरकार की नीयत से जोड़कर देखना शुरू कर देते हैं। पदों को समाप्त करने के फैसले का स्पष्टीकरण देने के लिए मुख्यमंत्री को आना पड़ा तब यह सवाल उठता है कि संबंद्ध प्रशासन को ऐसी आधिसूचना जारी करने से पहले स्वयं प्रदेश को इसकी जानकारी नहीं देनी चाहिए थी। क्योंकि सरकार में ऐसे खाली चले आ रहे पदों को समाप्त करने का फैसला 2003 में लिया गया था। उस समय योजना आयोग के निर्देशों पर सरकार में एक शानन कमेटी गठित की गई थी। इस कमेटी ने तीन दिन तक फेयरलॉन में अधिकारियों के साथ बैठक करके एक रिपोर्ट तैयार की थी। विधानसभा में इस कमेटी की सिफारिशों पर कांग्रेस और भाजपा में खूब हंगामा हुआ था। दोनों दल एक दूसरे को इसके लिये जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। उसी कमेटी की सिफारिशों के आधार पर 2012 में फैसला हुआ था ।
लेकिन इस बार यह अधिसूचना करने से पहले कोई इस तरह का होमवर्क नहीं किया गया। बल्कि जो स्पष्टीकरण मुख्यमंत्री ने दिया है वह किसी भी अधिसूचना में नहीं है। फिर सरकार के यह फैसले तब आये हैं जब दूसरे राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। निश्चित रूप से जिस तर्ज में यह फैसले प्रचारित और प्रसारित हुये हैं उससे कांग्रेस की कार्यशैली पर सवाल उठने सवभाविक हैं। फिर ऐसे फैसलों के नाजुक पक्षों को देखना शीर्ष प्रशासन का काम है और इसमें हर बार प्रशासन की भूमिका सवालों में रही है। इससे आने वाले समय में राजनीतिक कठिनाइयां बढ़ने की संभावना है। क्योंकि विक्रमादित्य ने जिस तरह से अपनी प्रतिक्रिया दी है उससे यह संकेत साथ दिखाई देते हैं। इसलिए यह अधिसूचनायें पाठकों के सामने रखी जा रही है ताकि आप स्वयं आकलन कर सकें। ऐसे विवादित फैसले चुनावों के दौरान ही क्यों आ रहे हैं यह सबसे बड़ा सवाल बनता जा रहा है ।
यह है अधिसूचनाएं
शिमला/शैल। क्या हरियाणा में कांग्रेस की हार का हिमाचल सरकार पर कोई असर पड़ेगा? क्या हिमाचल में नेतृत्व परिवर्तन पर कांग्रेस हाईकमान विचार कर रही है? क्या हिमाचल में नेतृत्व के प्रति रोष मुखर होगा? यह और ऐसे ही कई सवाल हरियाणा चुनाव के बाद हिमाचल के संद्धर्भ में अचानक सचिवालय के गलियारों से लेकर सड़क तक चर्चाओं का विषय बने हुये हैं। यह शायद इसलिये हो रहा है कि जब मीडिया के एक वर्ग में हरियाणा की हार के लिये सुक्खू सरकार को भी एक कारण कहा गया तो उस पर जो प्रतिक्रिया आयी उसमें उस न्यूज़ पोर्टल के पत्रकार के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाये जाने के रूप में सामने आयी। यह एफआईआर निश्चित रूप से मुख्यमंत्री के अनुशंसा के बिना नहीं हो सकती। इस एफआईआर से पिछले मामले भी ताजा हो गये। जब पावर कारपोरेशन में भ्रष्टाचार को लेकर एक पत्र बम्ब वायरल होकर समाचार बना था तब भी ऐसे ही एफआईआर दर्ज की गयी थी। जब मुख्यमंत्री की बीमारी को लेकर कुछ चर्चाएं उठी थी तब भी कांग्रेस के कार्यालय सचिव ने एसपी शिमला को शिकायत भेज कर ऐसी चर्चाएं उठाने वालों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज करने का आग्रह किया गया था। यही नहीं मीडिया के खिलाफ परोक्ष/अपरोक्ष में जो कुछ भी सत्ता कर सकती है वह सब कुछ इस सरकार में हुआ है। क्योंकि मीडिया हर सरकार के लिये स्थायी विपक्ष की भूमिका में रहता है कोई न कोई पत्रकार इस स्थायी विपक्ष के धर्म को निभाने वाला निकल ही आता है और गोदी मीडिया पर भारी पड़ जाता है। ऐसे में जो सरकार मीडिया द्वारा उठाये सवालों के जवाब एफआईआर से दे उसके बारे में आम आदमी कैसे और क्या धारणा बनायेगा उसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। हिमाचल सरकार ने अब तक के कार्यकाल में करीब पांच हजार करोड़ का राजस्व प्रदेश के आम आदमी की जेब से अर्जित किया है। जो सुविधायें पहले से मिल रही थी उन में कटौती की गयी है। यह जो 2027 में प्रदेश के आत्मनिर्भर हो जाने का दावा किया जा रहा है उसमें यह नहीं बताया जा रहा है कि उस समय प्रदेश का कर्ज भार कितना होगा? क्या उस कर्ज का ब्याज प्रदेश अपने ही संसाधनों से अदा कर पायेगा? भविष्य के नाम पर वर्तमान को गिरवी रखा जा रहा है और सब चुप है। आज की सरकार पूर्व सरकार द्वारा छोड़ी गयी देनदारीयों के नाम पर प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में फंसाती जा रही है। लेकिन यह नहीं बता रही है की कर्ज का निवेश कहां हो रहा है। क्योंकि सरकार अपने खर्चों पर तो कोई लगाम नहीं लगा पा रही है केवल आम आदमी की सुविधाओं पर कैंची चलाकर संसाधन बढ़ाने का काम हो रहा है।
अब जब हरियाणा में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है तब यह सवाल उभर कर सामने आया है कि हरियाणा की जनता कांग्रेस के चुनावी वायदों पर विश्वास क्यों नहीं कर पायी? तब इसके लिये हिमाचल की व्यवहारिक स्थित प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के हर कार्यकर्ता ने जनता के समक्ष परोसी जिसका कोई खण्डन नहीं कर सका। हरियाणा की हार से निश्चित रूप से कांग्रेस हाईकमान कमजोर हुई है। इस कमजोरी के आधार पर हिमाचल के नेता भी अब हाईकमान को प्रदेश की व्यवहारिक स्थिति के बारे में बताने के लिये तैयार हो जायेंगे। इसके संकेत केंद्रीय सहायता को स्वीकारने के स्वरों से सामने आने लग पड़े हैं। आज तक हिमाचल में मुख्यमंत्री से लेकर नीचे तक हर नेता यही कहता रहा है कि केन्द्र प्रदेश की कोई सहायता नहीं कर रहा है। लेकिन जे.पी.नड्डा के इस ब्यान के बाद की केन्द्र की सहायता के बिना प्रदेश सरकार एक दिन नहीं चल सकती लेकिन कांग्रेस के नेता प्रदेश में इस सहायता को स्वीकार नहीं कर रहे हैं जबकि केन्द्र में जाकर सहायता मांगते हैं जो मिल भी रही है। नड्डा के ब्यान के बाद लोक निर्माण मंत्री विक्रमादित्य सिंह के स्वरों में बदलाव आया है। विक्रमादित्य सिंह न केवल केन्द्र की सहायता की स्वीकारोक्ति ही कर रहें है बल्कि केन्द्र का आभार भी जता रहे हैं। जबकि मुख्यमंत्री केन्द्र की सहायता को स्वीकारने की बजाये यह कह रहे हैं कि केन्द्र ने एक फूटी कौड़ी तक नहीं दी है। इस तरह मुख्यमंत्री और उनके ही सहयोगी मंत्री के स्वरों में यह विरोधाभास इसका स्पष्ट संकेत है कि आने वाले दिनों में यह विरोधाभास और बड़ा आकार ले सकता है। इसी कड़ी में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षा प्रतिभा सिंह के इस ब्यान को देखे की निष्क्रिय कार्यकर्ता की जगह नये लोगों को जगा दी जायेगी यहां पर यह सवाल उठता है कि कार्यकर्ता अभी से निष्क्रिय कैसे और क्यों हो गये हैं। सरकार के फैसलों और कार्यक्रमों को जनता तक ले जाने का काम कार्यकर्ता करता है। इस समय सरकार ने जन सुविधाओं पर कैंची चलाने का काम किया है। गांव में पानी के हर कनैक्शन पर 100 रूपये का बिल आयेगा। सस्ते राशन के चावल और आटे के दामों में 3 रूपये और 2 रूपये की वृद्धि की गयी है। पहले से मुफ्त मिल रही बिजली योजना बन्द कर दी गयी है। महिलाओं को 1500 रूपये देने पर पात्रता के इतने राइडर लगा दिये हैं कि इनकी संख्या एक तिहाई रह गयी है। सीमेंट के दामों में इस सरकार के कार्यकाल में करीब 100 रूपये की बढ़ौतरी हुई है। पेट्रोल और डीजल पर वेट लगाकर बढ़ाकर वैसे ही हर चीज महंगी हो गयी है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि गारंटियां देकर सत्ता में आयी सरकार का कार्यकर्ता क्या लेकर आम आदमी के पास जायेगा? कैसे वह सरकार के फैसलों को जायज ठहरा पायेगा। शायद कांग्रेस का कार्यकर्ता इस व्यवहारिक स्थिति के बाद अपने को निष्क्रिय कहलाना ज्यादा पसन्द करेगा। पार्टी अध्यक्षा कार्यकर्ता की इस मनोदशा को कैसे बदल पायेगी? इसलिये देर-सवेर संगठन और सरकार में टकराव होना तय है। राज्यसभा चुनाव से पूर्व भी कार्यकर्ताओं की अनदेखी एक बड़ा मुद्दा बना था और हाईकमान तक भी पहुंचा था। हाईकमान ने एक कोऑर्डिनेशन कमेटी भी बनाई थी जो शायद व्यवहार में कुछ कर नहीं पायी। इसलिये एक बार फिर से वही पहले वाली स्थितियां बन रही हैं। उधर ईडी की सक्रियता को लेकर नई चर्चाएं सामने आ रही हैं। सहारनपुर में एक स्टोन क्रेशर की खरीद के तार नादौन से जोड़े जा रहे हैं। ईडी सूत्र इसे एक बड़ी सफलता मान रहे हैं। आने वाले कुछ दिनों में एक साथ इतना कुछ उभरने की संभावना है जिसका राजनीतिक प्रतिफल दूरगामी होगा। फिर नवम्बर के पहले सप्ताह में सीपीएस प्रकरण का भी फैसला आने की संभावना है। क्योंकि फैसला रिजर्व होने के छः माह के भीतर इसका सुनाया जाना अपेक्षित है। इसलिये सारी स्थितियां एक साथ बनने से इनका राजनीतिक परिदृश्य पर प्रभाव पड़ना तय माना जा रहा है।
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