Thursday, 18 September 2025
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भाजपा की नीयत और नीति पर उठते सवालों के बीच बढ़ा विश्वसनीयता का संकट

शिमला/शैल। हिमाचल वित्तीय संकट से गुजर रहा है और प्रदेश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं यह चेतावनी मुख्यमंत्री सुक्खू ने प्रदेश की सत्ता संभालते ही जारी कर दी। प्रदेश के वित्तीय संकट के लिये जयराम सरकार के समय रहे कुप्रबंधन को दोषी ठहराया गया था। इसी कुप्रबंधन के नाम पर पिछली सरकार द्वारा अंतिम छः माह में लिये गये फैसलों के अमल पर रोक लगा दी गई। वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र तक लाया गया और केंद्र पर भी प्रदेश के साथ भेदभाव बरतने के आरोप लगाये गये। प्रदेश की कर्ज लेने की सीमा में भारी कटौती कर दिये जाने के भी आरोप लगाये गये। स्वभाविक है कि जिस विपक्ष पर सत्ता संभालते ही सरकार द्वारा इस तरह के आरोप लगा दिये जायें उसके लिये भी स्थितियां बहुत संवेदनशील हो जाती हैं। क्योंकि उसे सरकार के आरोपों का जवाब देने के साथ ही सरकार के हर कामकाज पर पैनी नजर बनाये रखना आवश्यक हो जाता है। राजनीतिक के इस मानक पर विपक्ष का आकलन करना आवश्यक हो जाता है। लेकिन इस आकलन के लिये प्रदेश में रही भाजपा सरकारों की पृष्ठभूमि पर भी नजर डालना आवश्यक हो जाता है।
हिमाचल में भाजपा के तीन मुख्यमंत्री रहे हैं। पहले शान्ता कुमार दूसरे प्रेम कुमार धूमल और तीसरे जयराम ठाकुर। शान्ता पहली बार 1977 में जनता पार्टी के मुख्यमंत्री बने और 1980 में यह सरकार टूट गई तथा शान्ता कुमार कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये। दूसरी बार 1990 में भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री बने लेकिन बाबरी मस्जिद प्रकरण में यह सरकार भी 1992 में गिर गई और शान्ता कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये। शान्त उसके बाद केंद्र में भी मंत्री बने। शान्ता के बाद प्रो.प्रेम कुमार धूमल 1998 में गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने और पूरा कार्यकाल रहे। उसके बाद 2007 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तथा कार्यकाल पूरा किया। 2017 का चुनाव धूमल को नेता घोषित करके लड़ा गया। इस चुनाव में भाजपा तो जीत गई परन्तु धूमल चुनाव हार गये। तब जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बनाये गये। उस समय धूमल को मुख्यमंत्री बनाने के लिये कुछ विधायकों ने अपनी सीटें छोड़ने तक की पेशकश कर दी थी। जगत प्रकाश नड्डा भी उस समय मुख्यमंत्री के लिये प्रबल दावेदारों में थे। शान्ता धूमल और नड्डा के राजनीतिक कद जयराम ठाकुर से कहीं बड़े थे। लेकिन मुख्यमंत्री जयराम बन गये। जयराम और धूमल में सरकार बनने के बाद टकराव की भी स्थिति रही है। यही पृष्ठभूमि जयराम के मुख्यमंत्री काल में भी सक्रिय भूमिका में रही और आज नेता प्रतिपक्ष के दौर में भी है। इसलिए आज भाजपा का बतौर विपक्ष आकलन करने के लिये इस पृष्ठभूमि को भी गणना में रखना होगा।
हिमाचल में 2022 में भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई। जबकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री भी सक्रिय प्रचार में रहे। नड्डा केंद्रीय राजनीति में बड़े मुकाम पर थे। अनुराग केंद्र में मंत्री थे। लेकिन यह सब होने के बावजूद हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में भाजपा को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। शान्ता के कांगड़ा में भी कोई ज्यादा सुखदः स्थिति नहीं रही। केवल मंडी की जीत ने भाजपा को संबल दिया और इससे जयराम का नेता प्रतिपक्ष बनना आसान हो गया। वह विधायकी की शपथ से पहले ही नेता प्रतिपक्ष बन गये। उधर नई सरकार ने जिस तरह से वित्तीय संकट के लिये पूर्व सरकार को जिम्मेदार ठहराया और साथ ही व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर प्रशासन में कोई फेरबदल नहीं किया और पिछले फैसला पलट दिये उससे प्रशासन के लिये फिर पूर्व नेतृत्व ही संबल रह गया। इसका व्यवहारिक परिणाम यह हुआ कि सरकार की हर अन्दर की सूचना पूर्व मुख्यमंत्री नेता प्रतिपक्ष तक आसानी से पहुंचना शुरू हो गई। सरकार द्वारा कर्ज लेने का हर आंकड़ा बाहर आना शुरू हो गया। सरकार में सीपीएस की नियुक्तियों और राजेन्द्र राणा तथा सुधीर शर्मा का मंत्री परिषद से बाहर रहना कांग्रेस में असंतोष का बड़ा कारण बनता चला गया। कार्यकर्ताओं की अनदेखी की शिकायतें हाईकमान तक पहुंचना शुरू हो गई। लेकिन कांग्रेस हाईकमान स्थितियों का सही आकलन नहीं कर पायी और राज्यसभा चुनाव में यह असंतोष खुलकर सामने आ गया। कांग्रेस के छः विधायक भाजपा में चले गये। इन्हीं के साथ तीनों निर्दलीय विधायक भी भाजपा में शामिल हो गये।
इस दलबदल पर जिस तरह की पुलिस और अदालती कारवाईयां शुरू हुई उससे आरोपों-प्रत्यारोपों का जो दौर शुरू हुआ वह ईडी और आयकर की छापेमारी से कुछ लोगों की गिरफ्तारी तक पहुंच गया। इस गिरफ्तारी का प्रसंग जिस तरह से विधानसभा पटल तक जब पहुंचा और मुख्यमंत्री को अपने जवाब में यह कहना पड़ गया कि ज्ञानचन्द विधानसभा में उनके समर्थक है तो लोकसभा में अनुराग ठाकुर का है। मुख्यमंत्री नेे इसी प्रसंग में पूर्व विधायक रमेश ध्वाला और विजय अग्निहोत्री का जिक्र भी सदन में कर दिया। अब भाजपा में शामिल हुये कांग्रेस के छः विधायकों के पास हर समय ईडी और सीबीआई तथा आयकर तक पहुंचे मामलों को जल्द से जल्द अंतिम अंजाम तक पहुंचाने के लिये भाजपा नेतृत्व पर दबाव बनाना आवश्यक हो गया है। जब यह लोग भाजपा में शामिल हुये थे नड्डा तब भी राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और आज भी हैं। इसलिए जिस तरह की परिस्थितियों स्वतः ही बनती जा रही है उनमें नड्डा और अनुराग को भी सरकार के खिलाफ राज्यपाल को सौंपे काले चिट्ठे पर आक्रामक होना ही पड़ेगा। क्योंकि भाजपा पर प्रदेश की सरकार को तोड़ने के आरोप लग ही चुके हैं और इन आरोपों की ज्यादा आंच नड्डा और अनुराग पर है। क्योंकि वह केंद्र में हैं। इस परिदृश्य में नड्डा और अनुराग यदि पूरा मुखर होकर सरकार के खिलाफ आक्रामक नहीं होते हैं तो इसके लिये उन्हीं पर आगे चलकर सवाल उठेंगे। क्योंकि इस समय सरकार के खिलाफ जितनी आक्रामकता जयराम अपनाये हुये हैं उतनी दूसरे नेता नहीं। यही आक्रामकता आने वाले दिनों में यह तय करेगी कि भाजपा का प्रदेश नेतृत्व किन हाथों में कितना सुरक्षित रहेगा। इसमें यह भी महत्वपूर्ण रहेगा कि संगठन के चुनाव में दल बदल कर आये नेताओं को क्या मिलता है क्योंकि भाजपा की विश्वसनीयता के लिये यह आवश्यक होगा। क्योंकि भाजपा जिस तरह से राज्यपाल को सौंप काले चिट्ठे को विधानसभा में दस्तावेजों के साथ प्रमाणित नहीं कर पायी है उससे विपक्ष की नीयत और नीति दोनों सवालों के घेरे में आ गये हैं। दो वर्ष में सदन में सदस्यों का आंकड़ा 25 से 28 पहुंचने से असफल लोटस ऑपरेशन का आरोप कहीं बड़ा है।

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