यदि ग्लोबल मन्दी है तो फिर यहां निवेशक क्यों आयेगा
क्या इस निवेश के बहाने प्रदेश में जमीन लेने पर है निवेशकों की नज़र
क्या यह निवेशक आधारभूत ढांचा खड़ा करने में भी निवेश करेंगे
शिमला/शैल। हिमाचल सरकार नवम्बर सात और आठ को धर्मशाला में इन्वैस्टर मीट करने जा रही है। राईजिंग हिमाचल के नाम से आयोजित की जा रही इस मीट में देश-विदेश के बड़े कारपोरेटस को हिमाचल में निवेश करने का न्योता दिया है। Agribusiness food Processing hydro Power से लेकर tourism civil aviation pharmaceuticals, health care, Ayush manufacturing, Education, IT electronics, Housing और transport आदि तक का हर क्षेत्र इनके लिये खोल दिया गया है। इस मीट से पहले मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर अपनी टीम के साथ नीदरलैण्ड, जर्मनी आदि कई देशों का दौरा इस उद्देश्य से कर आये हैं सरकार निवेश जुटाने के लिये इस वर्ष के शुरू से ही प्रयास करती आ रही है और अब तक 45000 करोड़ से अधिक के एमओयू साईन कर चुकी है। सरकार का लक्ष्य 85000 करोड़ का निवेश जुटाने का है इस मीट का उद्घाटन करने के लिये प्रधानमन्त्री आ रहे हैं। सरकार ने इस निवेश लक्ष्य को पूरा करने के लिये छः करोड़ पर एक मीडिया पार्टनर तक की सेवाएं ले रखी हैं। इस मीट के प्रचार-प्रसार के लिये लोक संपर्क विभाग ने करोड़ों के विज्ञापन प्रदेश से बाहर की मीडिया को जारी किये हैं और मुख्यमन्त्री के साक्षात्कार तक करवाये हैं। आने वाले उद्योगपतियों को लुभाने SGST reimburse करने और कम मूल्य पर ज़मीन उपलब्ध करवाने तक के कई वायदे सरकार ने कर रखे हैं। इन वायदों को पूरा करने के लिये भूसुधार अधिनियम की धारा 118 के नियमों में एक बार फिर संशोधन अधिसूचित कर दिये गये है। पूरा सरकारी तन्त्र एक वर्ष से इस निवेश अभियान को सफल बनाने के प्रयासों में लगा हुआ है। इसके लिये 728 एकड़ का लैण्ड बैंक आवंटन के लिये तैयार है और 887 एकड़ और जुटाने का दावा किया जा रहा है। इस लगभग एक लाख करोड़ के निवेश से एक लाख लोगों को रोजगार उपलब्ध होने का भी दावा किया जा रहा है।
सरकार के यह प्रयास कब और कितने सफल होते हैं। यह तो आने वाला समय ही बतायेगा । लेकिन यह सवाल उठना तो स्वभाविक है कि जब देश आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है और सरकार को कारपोरेट जगत के 1.45 लाख करोड़ की राहत देने तथा करीब दो लाख करोड़ आरबीआई से लेकर बाज़ार में डालने के बावजूद भी बाज़ार की हालत नहीं सुधरी है तो फिर हिमाचल में उद्योगपति निवेश का जोखिम क्यों उठायेंगे। सरकार राहत के बावजूद आटो मोबाईल क्षेत्र मे वाहनों की बिक्री नही बढ़ी है। हाऊसिंग में मकान बड़े स्तर पर बिकने शुरू नहीं हुए हैं। कपड़ा उद्योग में निर्यात में 35% की कमी अभी तक सुधरी नहीं है। जीएसटी संग्रह में हर बार कमी तर्ज की जा रही है। जीएसटी संग्रह में कमी एक तरह से पूरे व्यापार जगत का आईना है। हाईड्रो पावर सैक्टर मेे तो हिमाचल स्वयं भुक्त भोगी है क्योंकि पिछले सात वर्षों में कोई निवेशक प्रदेश में नहीं आया है। बल्कि अब सरकार की अपनी ही कंपनीयों को इसमें आगे आना पड़ा है। एसजेवीएनएल में तो हिमाचल सरकार स्वयं एक हिस्सेदार है। जबकि अन्य कंपनीयां भारत सरकार के उपक्रम हैं। यह सरकारी कंपनीयां भी कर्ज लेकर कितना निवेश कर पाती हैं यह भी सवालों में है। क्योंकि केन्द्र सरकार द्वारा प्रदेश को दिये 69 राष्ट्रीय राज मार्गों का काम अभी सैद्धान्तिक स्वीकृति से आगे नहीं बढ़ पाया है और न ही इसकी निकट भविष्य में कोई उम्मीद है।
हिमाचल सरकार की अपनी आर्थिक स्थिति यह है कि अभी वैट में बढ़ौत्तरी कर पैट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाने अब सरकार ने रसोई गैस सिलैण्डर के दाम में 77 रूपये बढ़ा दिये हैं। जो राहतें लोकसभा चुनावों को सामने रखकर एक समय दी गयी थी अब उन्हें न केवल वापिस ही लिया गया है बल्कि इनमें दाम और बढ़ा दिये हैं। यदि यह बढ़ौत्तरी विधानसभा उपचुनावों से पहले हो जाती तो शायद चुनाव परिणाम सरकार के पक्ष में न जा पाते। सरकार को अपने खर्च चलाने के लिये हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे परिदृश्य में निवेशक मीट के परिणामों पर हर आम आदमी का ध्यान जाना स्वभाविक है क्योंकि जिस बड़े स्तर पर यह निवेश का सपना देखा जा रहा है उसमें 70% हिमाचलीयों को रोज़गार देने की शर्त कितनी मानी जायेगी यह कहना अभी आसान नहीं होगा। क्योंकि हिमाचलीयों का रोज़गार इस पर निर्भर करेगा कि किस तरह के कौन से उद्योग यहां आते हैं और प्रदेश में उनकी अपेक्षानुसार श्रमिक उपलब्ध हो पाते हैं या नही।
इसी के साथ यह पक्ष भी महत्वपूर्ण रहेगा कि इन उद्योगों को धरातल पर शक्ल लेने में एक दशक के आस-पास का समय लग जायेगा। क्योंकि उसके लिये आधारभूत ढांचा पहले तैयार करना होगा। जिस स्थान पर उद्योग स्थापित होना है वहां पर बिजली, पानी और सड़क की बुनियादी सुविधा पहले चाहिये। इसी के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की आवश्यकता होगी। यह आधारभूत संरचना खड़ी करने में जो निवेश आवश्यक होगा क्या प्रदेश सरकार इसे अपने स्तर पर कर पायेगी यह सवाल सरकार की वर्तमान स्थिति को सामने रखते हुए महत्वर्पूण होगा क्योंकि यदि आजतक के प्रदेश के औद्यौगिक विकास पर नजर दौड़ाई जाये तो कोई उत्साहवर्धक तस्वीर सामने नही आती है। उद्योगों को सहायता देने के लिये वित्त निगम की स्थापना की गयी थी और यह निगम इस सरकार के समय में बन्द करना पड़ गया है। राज्य खादी बोर्ड भी उद्योगों की सहायता के लिये ही था और इसकी स्थिति भी बन्द होने जैसी ही है। हैण्डीक्राफ्ट और हैण्डलूम कारपोरेशन को जिन्दा रहने के लिये दलाली का काम करना पड़ रहा है। राज्य के सहकारी बैंकों ने जब से उद्योगों को फाईनैंस करने का काम शुरू किया है उसका परिणाम इन बैंकों का एनपीए 980 करोड़ के रूप में सामने है। कैग रिपोर्ट के मुताबिक उद्योगों को अब तक सरकार अपने कर्ज से कहीं अधिक आर्थिक सहायता दे चुकी है। कुल मिलाकर स्थिति यह रही है कि जब तक उद्योगों को प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से सरकारी सहायता उपलब्ध रही है तभी तक उद्योग प्रदेश में बने रहे हैं। सरकारी सहायता बन्द होने के साथ ही अधिकांश उद्योग बन्द हो गये हैं। इस सरकार के दौरान भी उद्योगों का पलायन जारी है और इसकी चर्चा विधानसभा सदन तक में हो चुकी है। आज प्रदेश में सबसे अधिक संभावना केवल पर्यटन की ही रह जाती है। लेकिन इसमें भी पिछले दिनों जब मुख्यमन्त्री ने एक पत्रकार वार्ता में यह कहा कि प्रदेश के होटलों में 35% से अधिक आक्यूपैन्सी नही हो पायी है इससे इस उद्योग को लेकर भी प्रश्नचिन्ह लगने शुरू हो गये हैं। फिर जब से एनजीटी ने प्रदेश के पूरे प्लानिंग क्षेत्रों में अढ़ाई मंजिल से अधिक के निर्माण पर प्रतिबन्ध लगा रखा है तब से यह एक अलग समस्या खड़ी हो गयी है। इस संद्धर्भ में सर्वोच्च न्यायालय तक से कोई राहत नहीं मिल पायी है और संभावना भी कम ही नजर आ रही है। सरकार ने जो लैण्ड बैंक बना रखा है उस पर वन और पर्यावरण मन्त्रालय की स्वीकृति उपलब्ध है या नहीं इस पर भी स्थिति कोई साफ नही है। इस तरह एनजीटी और वन एवम् पर्यावरण के प्रतिबन्धो के चलते अलग प्रश्नचिन्ह उठ रहे हैं।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि जब सरकार को रसोई गैस और पैट्रोल तथा डीजल के दाम बढ़ाने पड़े हैं और हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है तब क्या इस समय ऐसा प्रयास करने की कोई व्यवहारिक आवश्यकता थी। क्योंकि इस प्रयास पर धन और समय दोनों का ही निवेश तो हुआ ही है। जबकि इस समय सरकार को अपने संसाधन सुधारने की आवश्यकता थी लेकिन इस दिशा में अफसरशाही के प्रयास कोई सन्तोषजनक नही रहे हैं बल्कि अब तो भाजपा के ही मेहश्वर सिंह जैसे नेताओं ने सरकार पर अफसरशाही के हावी होने के आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं। इसका अर्थ यह तो खुले रूप से वीरभद्र से सहयोग ओर सुझाव मांगे हैं। शान्ता कुमार ने तो खुले रूप ये वीरभद्र से सहयोग और सुझाव मांगे हैं। इसका अर्थ यह है कि यह बड़े नेता भी आज की तारीख मे जयराम सरकार की नीतियों और कार्यशैली से पूरी तरह से सन्तुष्ट नही है।
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने यह उपचुनाव हारने के बाद अपनी प्रतिक्रिया मे यह कहा था कि संगठन हार के कारणों का पता लगायेगा और दोषियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करेगा। राठौर के बाद पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने भी धर्मशाला में हार के कारणों की जांच किये जाने और दोषियों को सजा देने की बात की है। राठौर की प्रतिक्रिया के बाद धर्मशाला ब्लाक कांग्रेस को भंग भी कर दिया गया और युवा कांग्रेस ईकाई पर भी इसकी गाज गिरी है। लेकिन धर्मशाला ईकाई पर हुई कारवाई के बाद भंग ईकाई के नेताओं ने भी इस पल्टवार किया है। इस पल्टवार से एक नया अध्याय शुरू हो गया हैं और इसमें अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस द्वन्द में किस किस पर क्या -क्या आरोप प्रत्यारोप आते हैं। लेकिन यह सब पुरे परिदृश्य का एक पक्ष है जो शायद अपने को बहुत बड़ा नही है।
राठौर ने इसी वर्ष के शुरू में संगठन की बागडोर संभाली थी । यह परिवर्तन तत्कालीन अध्यक्ष सुखविन्दर सिंह सुक्खु और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बीच चल रहक द्वन्द का परिणाम रहा है। इस परिवर्तन के लिये वीरभद्र सिंह आन्नद शर्मा, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी सबने लिखित में सहमति जताई थी।। इसलिये राठौर को स्थापित करने में इन सबकी भूमिका भी समीक्षा का विषय बन जाती है। राठौर ने जिम्मेदारी संभालने के बाद पुरानी कार्यकारिणी को भंग करने के स्थान पर उसी मे नये लोग और जोड़ दिये । राठौर के इस विस्तार की पहली परीक्षा लोकसभा चुनाव में आयी और उसमें असफलता मिली। लेकिन लोकसभा चुनावों में किस बड़े नेता की भूमिका कितनी नकारात्मक और सकारात्मक रही है इस पर मीडिया में टिप्पणीयां उठती रही लेकिन संगठन के स्तर पर आज तक किसी के खिलाफ कोई कारवाई नही हो सकी।
स्मरणीय है कि 2014 में भाजपा ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार पर्याय प्रचारित करके सता पर कब्जा किया था। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुये भाजपा के निशाने पर वीरभद्र आये और सीबी आई तथा ईडी ने इसमें मुख्य भूमिकायें अदा की। ईडी और सीबीआई के मामले आज तक चल रहे है। ऐंसे में यह आवश्यक था कि भाजपा को भी सता में आने पर उसी के हथियार से घेरा जाता लेकिन राठौर के नेतृत्व मे कांग्रेस आज तक ऐसा कोइ मुद्दा नही उठा पायी जबकि ऐसे मुद्दों की कोई कमी नही है। भाजपा ने भ्रष्टाचार का डर दिखाकर ही विधानसभा और फिर लोकसभा में काग्रेस को मात दी। आज विधान सभा के उप चुनाव में भी वही खेल दोहराया गया। कांग्रेस उपचुनावों में आचार सहिंता के उल्लंघन के आरोप तो लगाती रही लेकिन लेकिन इसी मुद्दे पर चुप रहीकि चुनाव के दौरान भी मुख्य निर्वाचन अधिकारी के पास अन्य विभागों की जिम्मेदारी कैसे रही। क्योंकि यह स्वभविक है कि जो मुख्य निर्वाचन अधिकारी हर समय मुख्यसचिव के आदेशों निर्देशों से बंधा हुआ है वह आचार संहिता के उल्लंघन क आरोंपों पर निष्पक्ष कैसे रह सकता है।
इसी के साथ कांगड़ा केन्द्रीय सहकारी बैंक के मनाली के एक पर्यटक कारोबारी को 65 करोड़ के ऋण मामले में जिस तरह से ऋणकर्ता ने शान्ता कुमार के विवेकानन्द ट्रस्ट को इस ऋण से पन्द्रह लाख के दान देने का चैक सामने आया और शान्ता ने इसे लेने से इन्कार कर दिया उससे जहां ऋण लेने वाले की जायज पात्रता पर स्वाल खड़े होते थे वहीं पर यह सवाल भी अहम हो जाता है कि ऋण देने वाले बैंक का चेयरमैन भी इसी ट्रस्ट का एक ट्रस्टी है। यही नही पिछले दिनों जिस वायरल पत्र में सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थें और इस पर आदेशित जांच में भाजपा के ही एक पूर्व मंत्री का मोबाइल फोन तक पुलिस ने जब्त किया है। यह ऐसे मुद्दे थे जिनका सरकार के पास जबाव नही है लेकिन पूरे चुनाव में कांग्रेस ने इन मुद्दों पर ढ़ग से आवाज नही उठायी। कांग्रेस ने अपने को इसी तक सीमित रखा कि सरकार सता का दुरपयोग कर रही है और धन बल का इस्तेमाल हो रहा है। आज के परिदृश्य में ऐसे आरोपों की कोई अहमियत नही रह जाती है। जबकि यह एक स्थापित सत्य है कि जब राजनिति में धन का प्रयोग हो रहा हो तो उस समय उसको भ्रष्टाचार के प्रमाणिक आरोंपों से ही हराया जा सकता है। फिर राठौर तो एक ऐसा चेहरा है जिसके अपने खिलाफ इस तरह का कोई आरोप नही है। इससे यह सवाल उठना स्वभविक है कि राठौर इस मोर्चे पर असफल क्यों रहे। क्या जो लोग राठौर को लेकर आये थें वही भीतर से उसके साथ नही हैं। क्योंकि जो मुद्दे पार्टी के प्रवक्ताओं को उटाने चाहिये थे वह अध्यक्ष उठा रहा था। एक तरह से अध्यक्ष व प्रवक्ताओ का काम राठौर को ही करना पड़ रहा था।
इस उप चुनाव मे जब सुधीर के भाजपा मे जाने की चर्चाएं पहली बार उठी थी तभी से संगठन को इस बारे में गंभीर हो जाना चाहियें था। सुधीर वीरभद्र के निकटस्थ रहे हैं लेकिन जहां आज वीरभद्र धर्मशाला पर जांच की मांग कर रहे हैं उस समय सुधीर को लेकर यह सवाल उठे थे त बवह क्यों खामोश रहे इस पर अभी तक कुछ सामने नही आया है। जबकि अब धर्मशाला की भंग ईकाई के लोग अपरोक्ष में सुधीर और जी एस बाली के द्वन्द की ओर इस प्रकरण को मोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। अब इस प्रकरण में राठौर क्या भूमिका निभाते हैं इस पर भी सब की निगाहें रहेंगी। यदि आने वाले समय में राठौर संगठन में अनुभवी प्रवक्ता लेकर नही आ पातें हैं तो उनके लिये इस स्थान पर बने रहना आसान नही रहेगा क्योंकि आगे चलकर केवल भ्रष्टाचार के मुद्दों पर ही सरकार को घेरा जा सकेगा।
क्या सक्सेना सरकारी गवाह बनकर भी ओडीआई सूची से बाहर आ पायेंगे
शिमला/शैल। क्या मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर और उनकी सरकार पूर्व केन्द्रिय वित्त मंत्री पी चिदम्बरम के खिलाफ बनाये गये आई एन एक्स मीडिया केस को जायज नहीं मानती है? क्या यह सरकार अपने प्रधान सचिव वित्त प्रबोध सक्सेना को इस केस में सरकारी गवाह बनाने का प्रयास कर रही है? जब से इस मामले में चिदम्बरम की गिरफ्तारी हुई है तभी से यह सवाल प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में चर्चा का विषय बने हुए हैं। क्योंकि इस प्रकरण में चिदम्बरम की गिरफ्तारी हो गयी लेकिन जिन अधिकारियों की अनुशंसा का चिदम्बरम ने बतौर वित्तमन्त्री अनुमोदन किया उनकी कोई गिरफ्तारी नही हुई। फिर अदालत ने चिदम्बरम की जमानत याचिकाएं भी यह कहकर खारिज की कि वह जमानत पर आने के बाद गवाहों और सबूतों को प्रभावित करेंगें जबकि इसी पर यह सवाल खड़ा होता है कि चिदम्बरम के साथ सहः अभियुक्त बने सक्सेना आदि अधिकारी क्या बाहर रहकर अपने खिलाफ सबूतों को पुख्ता करेंगे? क्योंकि कानून की यह स्थापित स्थिति है कि अकेले मन्त्री अपने स्तर पर ही ऐसे मामलों में भ्रष्टाचार नहीं कर सकता जिनकी फाईल नीचे विभाग के अधिकारियों से होकर उसके पास आनी हो। फिर अब तक जो जांच इस मामले में हुई है उसमें किसी भी स्टेज पर किसी भी अधिकारी का ऐसा कोई कथन सामने नहीं आया है जिसमें किसी ने भी यह कहा हो कि उसने ऐसा मन्त्री का दवाब आने के बाद किया है। अब तो इस मामले में अदालत में आरोप पत्र भी दायर हो गया है जिसका अर्थ है कि इसमें संवद्ध हर अधिकारी अपने अपने स्तर पर अपने अपने कृत्य के लिये स्वयं में ही जिम्मेदार है।
अब इस मामले में चालान दायर हो गया है और सक्सेना भी इसमें एक अभियुक्त नामजद हैं। यह मामला कितना हाई प्रोफाइल है और कालान्तर में इसका सरकार की साख पर कैसा असर पड़ेगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर प्रबोध सक्सेना को लेकर जयराम सरकार की नीयत और नीति क्या है। क्योंकि सक्सेना के पास आज भी सरकार के महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी कायम है। जबकि सरकार के गृह एवम विजिलैन्स विभाग द्वारा 23 अप्रैल 2011 को सारे प्रशासनिक सचिवों को जारी पत्र के अनुसार सक्सेना सन्दिग्ध निष्ठा वाले अधिकारियों की श्रेणी में आते हैं और ऐसे लोगों को अहम पदों की जिम्मेदारी नही सौंपी जा सकती है। ओडीआई लिस्ट को लेकर अभी पिछले दिनों जयराम सरकार ने भी एक पत्र जारी करके भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टालरैन्स के दावे को दोहराने का प्रयास किया है। अप्रैल 2011 में जारी पत्र में साफ शब्दों में कहा गया है कि ओडीआई सूची के मानक यह होंगे।
As per the said scheme, the names of those officers/officials are to be included in these lists who have been (i) either convicted by the court or against whom criminal proceedings are pending in the court or(ii) who have been awarded major penalty after departmental action or against whom departmental proceedings for major penalty are in process at department level or(iii) who have been prosecuted but have been acquitted on technical grounds and in whose case on basis of evidence during the trial, there remained a reasonable suspicion about their integrity.
भारत सरकार ने इस संद्धर्भ में 28 अक्तूबर 1969 को एक 12 पन्नों का गोपनीयता पत्र जारी करके विस्तृत दिशा निर्देश जारी किये हुए हैं। इस पत्र के बाद हिमाचल सरकार ने 6 जून 1985 को पांच पन्नों के निर्देश जारी किये हैं प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी CWP No. 4916/2010 के माध्यम से सरकार को इस संद्धर्भ में गंभीर लताड़ लगाई हुई है। बल्कि इस लताड़ के बाद भी सरकार ने 2011 में नये सिरे से दिशा निर्देश जारी किये हैं।
इन सारे निर्देशों को सामने रखने से स्पष्ट हो जाता है कि प्रबोध सक्सेना प्रकरण में सरकार सारे दिशा निर्देशों की पूरी तरह अनदेखी कर रही है। इस पर यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि जयराम सरकार आखिर ऐसा कर क्यों रही है। क्या सरकार को इसमें सही राय नहीं मिल रही है या फिर सरकार सक्सेना को सरकारी गवाह बनाने का प्रयास कर रही है। सरकारी गवाह बनने के लिये भी पहले अपना दोष स्वीकारना पड़ता है। उसके बाद क्षमा की गुहार लगानी पड़ती है। इस सबके लिये भी अदालत से अनुमति लेनी पड़ती है। यदि अदालत इसकी अनुमति दे भी दे तो भी अप्रैल 2011 में जारी निर्देशों के अनुसार सक्सेना को ओडीआई सूची से बाहर निकालना संभव नही होगा और न ही उसे महत्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी दी जा सकेगी। ऐसे में यह अलग सवाल उठना शुरू हो गया है कि क्या सरकार का शीर्ष प्रशासन क्या टाईम पास करने और मौज काटने की नीति पर चल रहा है जबकि अभी तीन अक्तूबर को ही एक मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी अराजकता फैलाने की टिप्पणी की है।
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