शिमला/शैल। दो दिवसीय इन्वैस्टर मीट को जहां सत्तापक्ष बड़ी उपलब्धि मान रहा है वहीं पर विपक्ष ने इसे गैर जरूरी करार देते हुए आर्थिक कठिनाईयों के मध्य फिजूल खर्ची कहा है। विपक्ष यह आरोप इस कारण से लगा रहा है कि एक ओर तो सरकार हर माह कर्ज ले रही है और पेट्रोल, डीजल तथा रसोई गैस की कीमतें बढ़ाने को बाध्य हो गयी है। ऐसे में इस स्तर पर सरकारी संसाधनों की कीमत पर यह मैगा शो करना आम आदमी के साथ क्रूर मजा़क हो जाता है। विपक्ष के इन आरोपों को यदि राजनीति से प्रेरित भी मान लिया जाये तो प्रलोभनों के सहारे निवेश को आमन्त्रित करने को प्रधानमन्त्री ने भी जायज नहीं ठहराया है। लेकिन इस मीट के माध्यम से जयराम की सरकार और भाजपा के संगठन की जो अन्दरूनी खेमेबाजी आम आदमी के सामने आ गयी है उसके परिणाम कालान्तर सरकार की सेहत पर भारी पड़ने वाले हैं।
इस समय प्रदेश के दो नेता जगत प्रकाश नड्डा और अनुराग ठाकुर केन्द्र में महत्वपूर्ण भूमिकाओं में बैठे हुए हैं नड्डा आज भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं तो इससे पहले वह राष्ट्रीय स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं। स्वास्थ्य मन्त्री के नाते नड्डा के देश -विदेश के फार्मा जगत में बहुत अच्छे रिश्ते रहे हैं इन रिश्तो का लाभ उनके माध्यम से जयराम सरकार फार्मा उद्योग में निवेश हालिस करने में उठा सकते थे। लेकिन इस पूरी मीट में नड्डा का जिक्र किसी भी स्थान पर नही आया। नड्डा एक तरह से इस आयोजन से दूर ही रहे हैं और राजनीतिक तथा प्रशासनिक हल्कों में यह चर्चा का विषय बना हुआ है। इसी तरह अनुराग ठाकुर आज केन्द्र में वित्त राज्य मन्त्री हैं और महत्वपूर्ण भूमिका में हैं क्योंकि वही अकेले वित्त मन्त्रालय में राज्यमंत्री हैं। धर्मशाला का अन्तर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। यह स्टेडियम दलाईलामा के बाद इस शहर का दूसरा आकर्षण है। लेकिन इस मीट के प्रबन्धकों ने महामहिम दलाईलामा और क्रिकेट स्टेडियम को इसमें जिस तरह की प्रौजेक्शन दी है उससे कई लोगों के माथे पर शिकन की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती है।
यही नहीं विधानसभा का चुनाव भाजपा ने धूमल को भावी मुख्यमंत्री घोषित करके लड़ा था लेकिन इस आयोजन से उनको ऐसे दूर रखा गया जिससे फिर राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में नयी चर्चाओं का दौर शुरू हो गया है। इस समय जयराम सरकार की परफारमैन्स का अन्दाजा दोनों विधानसभा उपचुनावों के परिणामों से लग जाता है। चार माह में ही जीत के अन्तराल में इस तरह की कमी आ जाना वोट की राजनीति में किसी को भी विचलित कर सकता है। ऊपर से सरकार की आर्थिक सेहत बहुत अच्छी नहीं है। अभी जो पैट्रोल, डीजल और रसोई गैस के दाम बढ़ें हैं उसने बैठे बिठाये कांग्रेस को महंगाई के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। सरकारी खर्चे पर इस मैगा शो के आयोजन ने विपक्ष को सरकार पर हिमाचल बेचने और लूटने के आरोप लगाने का खुला मौका दे दिया है। सरकार के पास इन आरोपों का कोई ठोस जवाब नहीं है। ऐसे में राजनीतिक हल्कों में अभी से यह चिन्ता व्यक्त की जाने लगी है कि यदि संभावित निवेश अमली जामा न ले पाया तो सरकार कर्ज लेकर घी पीने के आरोपों से नहीं बच पायेगी। क्योंकि इस निवेश के माध्यम से बड़े बाबू आने वाले दिनों में और कर्ज लेने की भूमिका तैयार कर रहे हैं जितना निवेश आयेगा उससे उतना ही जीडीपी बढ़ेगा और उसी अनुपात में कर्ज लेने का आधार बन जायेगा। अन्यथा भारत सरकार के वित्त मन्त्रालय ने मार्च 2017 में ही प्रदेश सरकार को उसके कर्ज लेने की सीमा से अवगत करवा रखा है। इस सीमा से कितना अधिक कर्ज सरकार ले चुकी है इसकी जानकारी तो 2017-18 की कैग रिपोर्ट से सामने आयेगी। यह रिपोर्ट 2019 के बजट सत्र में आ जानी चाहिये थी लेकिन अभी तक नहीं आ पायी है। यह एक बड़ी चिन्ता बनी हुई है और इससे बाहर निकलने के लिये ही इस मैगा मीट का जोखिम उठाया गया है।
यदि किन्ही कारणों से इस मीट के वांच्छित परिणाम नहीं आ पाते हैं तो आने वाले दिनों में सरकार को और कर्ज लेना कठिन हो जायेगा। कर्ज न मिलने पर हर तरह का संकट गहरा जायेगा और इसके लिये एकदम नेतृत्व के सिर पर सारी जिम्मेदारी डाल दी जायेगी। स्वभाविक है कि जब इस तरह के हालात पैदा हो जाते हैं तो वोट की राजनीति पर आश्रित लोग अपने को असुरक्षित महसूस करने लग जाते हैं और फिर नया सहारा तलाशने लग जाते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट मानना है कि जिस तरह के राजनीतिक ध्रुवीकरण के संकेत इस मीट में उभरे हैं उनकी अगली कड़ी नेतृत्व परिवर्तन की मांग तक आ सकती है। क्योंकि इस मीट में जिस तरह से प्रबन्धकों का प्रबन्धन सामने आया है उस पर अनुराग ठाकुर ने ईशारों -ईशारों में अपने भाषण में जयराम सरकार व उनके शीर्ष नौकरशाहों को अपनी नाराजगी का इजहार भी कर दिया। उन्होंने अपने संबोधन में कहा कि इस मीट से दो महत्वपूर्ण चीजें गैर हाजिर है। धर्मशाला की पहचान बौद्ध धर्मगुरू दलाईलामा से है। उनसे आशीर्वाद लेने दुनिया भर से तमाम लोग आते हैं उनका कहीं कोई जिक्र नहीं है। इसके अलावा धर्मशाला का क्रिकेट स्टेडियम भी आयोजकों की ओर से जितनी भी प्रेजेंटेशन दिखाई गई उसमें से यह गायब है। जब वह यह भाषण दे रहे थे तो जयराम सरकार के सबसे ताकतवर अधिकारियों में दूसरे स्थान पर के अधिकारी संजय कुंडू मौजूद थे।
अनुराग ठाकुर ने कहा कि इस स्टेडियम की वजह से धर्मशला से चार उड़ाने शुरू हुई। यहां पर बड़े होटल बनने शुरू हुए। सालाना स्टेडियम देखने सात लाख लोग पहुंचते है। उन्होंने यहां आए निवेशकों का आहवान किया कि वह स्टेडियम देखने जरूर जाएं। अनुराग ठाकुर विदेशी निवेशकों के एक समूह के साथ खुद स्टेडियम देखने गए। साफ है कि सत्ता केंद्रों में किस तरह की तलवारें खींची हुई है।
शिमला/शैल। इन्वैस्टर मीट का आयोजन पूरा हो गया है। इस आयोजन के बाद मुख्यमन्त्री ने दावा किया है कि इस मीट में साईन हुए एमओयू के माध्यम से प्रदेश में 93000 करोड़ का निवेश आयेगा। जयराम सरकार निवेश जुटाने के इन प्रयासों में इस वर्ष के शुरू से ही लग गयी थी और वर्ष के अन्त तक 614 एमओयू साईन करने में सफल हो गयी है। सबसे बड़ा निवेश हाईड्रो पावर के क्षेत्र में 27000 करोड़ का सरकार की कंपनीयों एसजेवीएनएल, एच पी सी और एन टी सी पी के साथ साईन हुआ है। यह सरकार की कंपनीयां है और यदि इस मीट का आयोजन न भी होता तो भी यह कंपनीयां इस काम को करती ही। फिर इसके लिये अपफ्रंट प्रिमियम और 12% रायल्टी की शर्ते इन कपंनीयों पर लागू नही होंगी क्योंकि इसके नियमों में छूट दी गयी है। जबकि यह अपफ्रंट प्रिमियम और 12% रायल्टी सीधे सरकार की आय थी। यह छूट देने के बाद भी हाईड्रो क्षेत्र में कोई प्राईवेट निवेशक नहीं आ पाया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्र मे नये सिरे से नीति बनाने की आवश्यकता है।
सरकार ने उद्योगों को आमन्त्रित करने के लिये आठ कानूनों की अनुपालना में भी तीन वर्षों के लिये छूट प्रदान कर रखी है। इनमें पंचायती राज अधिनियम, नगर निगम अधिनियम, नगर पालिका अधिनियम, फार फायरिंग अधिनियम 1984, रोड़ साईट कन्ट्रोल एक्ट 1968, हि प्र. शाप एवम वाणिज्यिक स्थापना एक्ट 1969 और टीसीपी एक्ट 1977 शामिल हैं। पहले यह प्रावधान था कि उद्योग की स्थापना से पूर्व इन अधिनियमों में संबंधित संस्थानों से उद्योगपति को एनओसी लेना अनिवार्य होता था परन्तु अब यह अनिवार्यता तीन वर्षों के लिये हटा दी गयी है जिसका अर्थ है कि उद्योग की स्थापना से तीन वर्ष बाद भी यह एनओसी लिये जा सकते हैं। यह छूट अपने में ही स्वतः विरोधी हो जाती है क्योंकि एनओसी तो अन्ततः लेना ही पड़ेगा। ऐसे में यदि तीन वर्ष बाद संबंधित संस्थान एनओसी देने से इन्कार कर देता है या फिर तब तक नियमों में और कोई बड़ा संशोधन केन्द्र या राज्य सरकार कर देती है तब उस उद्योग का क्या होगा। क्योंकि जो अधिनियम संविधान संशोधन के माध्यम से आये हैं उनमें राज्य सरकार का दखल तो एक सीमा तक ही रहेगा। फिर भूसुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत वांच्छित अनुमतियां पहले की तरह पूर्व में ही लेनी होंगी।
प्रदेश के भूसुधार अनिधियम - 1972 को संविधान के नौवें शैडयूल के तहत प्रोटैक्शन हालिस है जिसका अर्थ है कि इसमें राज्य सरकार के संशोधन के अधिकार नहीं के बराबर है। इस अधिनियम में जो संशोधन 1976, 1987, 1994 और 1997 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश खान विल्कर और न्यायमूर्ति जस्टिस कुलदीप सिंह की खण्डपीठ ने उनको नौवें शैडयूल में नहीं रखा गया है क्योंकि इनमें केवल कृषक की परिभाषा को लेकर ही संशोधन किये गये हैं इन संशोधनों के बाद तो गेर कृषक को प्रदेश में ज़मीन लेना और कठिन हो गया है। इसके बाद CWP 700 of 2011 में उच्च न्यायालय ने 24-04-2011 को कुछ निर्देश जारी किये थे जिनके तहत नियमों में संशोधन किया गया था अब भी सरकार इन नियमों के सरलीकरण से अधिक कुछ नही कर पायी है और न ही कर सकती है। फिर कोई भी नियम अपने मूल अधिनियम का विरोधाभासी नहीं हो सकता है। ऐसे में किसी भी गैर कृषक को प्रदेश में सरकार की अनुमति के साथ भी 300 या 500 वर्ग गज जमीन लेने पर पाबंदी कायम है। इसलिये आज जब सरकार उद्योगों में निवेश आमन्त्रित करने के लिये इस तरह के आयोजन कर रही है तब उसे इन बंदिशों का व्यापक अध्ययन कर लेना आवश्यक है। क्योंकि जब 118 के इन प्रावधानों को प्रदेश उच्च न्यायालय में आधा दर्जन याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी गयी थी और अदालत के सामने यह रखा गया था कि In this way non agriculturists in Himachal Pradesh have absolutely debarred from buying any land लेकिन जब सरकार ने अपने संशोधनों को लेकर अदालत में अपना पक्ष रखा था तब याचिकाकर्ताओं की ओर से इसका कोई प्रतिवाद नही आया था। इस पर 1.10.2013 को दिये अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने इस स्थिति में कोई बदलाव नही किया है। ऐसे में जब एनजीटी और सर्वोच्च न्यायालय में प्रदेश में हो रहे निर्माणों का पर्यावरण को लेकर कड़ा संज्ञान लिया है तब इन निमयों में और कोई छूट देना कितना सही होगा इसको लेकर कभी भी मामला अदालत तक जा सकता है।
इस परिदृश्य में औद्यौगिक निवेश को लेकर हुई इस मीट पर प्रश्न उठने स्वभाविक हैं। क्योंकि इन नियमों में छूट देने के साथ ही जीएसटी में छूट देना सीधा आर्थिक लाभ पहुंचाना हो जाता है। आज तक प्रदेश में उद्योगों को आर्थिक लाभों का प्रलोभन देकर ही आमन्त्रित किया जाता रहा है। इसलिये आर्थिक लाभों की समय सीमा खत्म होने के बाद उद्योग पलायन करते रहे हैं। यह सिलसिला 1977 से शुरू होकर आज तक लगातार जारी है। जबकि अब तो यह आकलन होना चाहिये था कि प्रलोभनों के सहारे उद्योगों को आमन्त्रण देना प्रदेश के हित में कितना है। क्योंकि कोई भी उद्योगपति उद्योग लगाकर लोगों को कुछ भी मुफ्त में तो नहीं देता है। फिर जिन संसाधनों पर प्रदेश के आम आदमी का हक है उन्हें कुछ लोगों तक ही सीमित कर देना आज की परिस्थितियों में स्वीकार्य नही हो सकता। आज इस आयोजन के लिये जिस तरह से सरकारी पैसा खर्च करके उद्योगपतियों को बुलाया गया और उनके लिये सारे प्रबन्ध किये गये। एक सप्ताह तक पूरा प्रशासन इसी कार्य में व्यस्त रहा इससे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब सरकार के पास इसके लिये संसाधन है तो वह हर माह कर्जा क्यों ले रही है? इस आयोजन में जो 93000 करोड़ का निवेश आने का दावा किया गया है क्या उस पर सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि एक वर्ष के भीतर आधे निवेश पर तो व्यवहारिक रूप से जमीन पर काम हो पायेगा। आज प्रदेश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये यहां के किसान और बागवान की दशा बदलनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसान का एक भी खेत बिना फसल के न रहे। आज किसान को जो सरकार ने डिपो पर सस्ते राशन के चक्र में उलझा दिया गया है उससे किसान और सरकार दोनों का अहित हो रहा है। आज इस दिशा में सार्थक नीति बनाने की आवश्यकता है न कि प्रलोभन देकर उद्योगपतियों बुलाने की।
शिमला/शैल। इन्वैस्टर मीट का आयोजन पूरा हो गया है। इस आयोजन के बाद मुख्यमन्त्री ने दावा किया है कि इस मीट में साईन हुए एमओयू के माध्यम से प्रदेश में 93000 करोड़ का निवेश आयेगा। जयराम सरकार निवेश जुटाने के इन प्रयासों में इस वर्ष के शुरू से ही लग गयी थी और वर्ष के अन्त तक 614 एमओयू साईन करने में सफल हो गयी है। सबसे बड़ा निवेश हाईड्रो पावर के क्षेत्र में 27000 करोड़ का सरकार की कंपनीयों एसजेवीएनएल, एच पी सी और एन टी सी पी के साथ साईन हुआ है। यह सरकार की कंपनीयां है और यदि इस मीट का आयोजन न भी होता तो भी यह कंपनीयां इस काम को करती ही। फिर इसके लिये अपफ्रंट प्रिमियम और 12% रायल्टी की शर्ते इन कपंनीयों पर लागू नही होंगी क्योंकि इसके नियमों में छूट दी गयी है। जबकि यह अपफ्रंट प्रिमियम और 12% रायल्टी सीधे सरकार की आय थी। यह छूट देने के बाद भी हाईड्रो क्षेत्र में कोई प्राईवेट निवेशक नहीं आ पाया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस क्षेत्र मे नये सिरे से नीति बनाने की आवश्यकता है।
सरकार ने उद्योगों को आमन्त्रित करने के लिये आठ कानूनों की अनुपालना में भी तीन वर्षों के लिये छूट प्रदान कर रखी है। इनमें पंचायती राज अधिनियम, नगर निगम अधिनियम, नगर पालिका अधिनियम, फार फायरिंग अधिनियम 1984, रोड़ साईट कन्ट्रोल एक्ट 1968, हि प्र. शाप एवम वाणिज्यिक स्थापना एक्ट 1969 और टीसीपी एक्ट 1977 शामिल हैं। पहले यह प्रावधान था कि उद्योग की स्थापना से पूर्व इन अधिनियमों में संबंधित संस्थानों से उद्योगपति को एनओसी लेना अनिवार्य होता था परन्तु अब यह अनिवार्यता तीन वर्षों के लिये हटा दी गयी है जिसका अर्थ है कि उद्योग की स्थापना से तीन वर्ष बाद भी यह एनओसी लिये जा सकते हैं। यह छूट अपने में ही स्वतः विरोधी हो जाती है क्योंकि एनओसी तो अन्ततः लेना ही पड़ेगा। ऐसे में यदि तीन वर्ष बाद संबंधित संस्थान एनओसी देने से इन्कार कर देता है या फिर तब तक नियमों में और कोई बड़ा संशोधन केन्द्र या राज्य सरकार कर देती है तब उस उद्योग का क्या होगा। क्योंकि जो अधिनियम संविधान संशोधन के माध्यम से आये हैं उनमें राज्य सरकार का दखल तो एक सीमा तक ही रहेगा। फिर भूसुधार अधिनियम की धारा 118 के तहत वांच्छित अनुमतियां पहले की तरह पूर्व में ही लेनी होंगी।
प्रदेश के भूसुधार अनिधियम - 1972 को संविधान के नौवें शैडयूल के तहत प्रोटैक्शन हालिस है जिसका अर्थ है कि इसमें राज्य सरकार के संशोधन के अधिकार नहीं के बराबर है। इस अधिनियम में जो संशोधन 1976, 1987, 1994 और 1997 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश खान विल्कर और न्यायमूर्ति जस्टिस कुलदीप सिंह की खण्डपीठ ने उनको नौवें शैडयूल में नहीं रखा गया है क्योंकि इनमें केवल कृषक की परिभाषा को लेकर ही संशोधन किये गये हैं इन संशोधनों के बाद तो गेर कृषक को प्रदेश में ज़मीन लेना और कठिन हो गया है। इसके बाद CWP 700 of 2011 में उच्च न्यायालय ने 24-04-2011 को कुछ निर्देश जारी किये थे जिनके तहत नियमों में संशोधन किया गया था अब भी सरकार इन नियमों के सरलीकरण से अधिक कुछ नही कर पायी है और न ही कर सकती है। फिर कोई भी नियम अपने मूल अधिनियम का विरोधाभासी नहीं हो सकता है। ऐसे में किसी भी गैर कृषक को प्रदेश में सरकार की अनुमति के साथ भी 300 या 500 वर्ग गज जमीन लेने पर पाबंदी कायम है। इसलिये आज जब सरकार उद्योगों में निवेश आमन्त्रित करने के लिये इस तरह के आयोजन कर रही है तब उसे इन बंदिशों का व्यापक अध्ययन कर लेना आवश्यक है। क्योंकि जब 118 के इन प्रावधानों को प्रदेश उच्च न्यायालय में आधा दर्जन याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी गयी थी और अदालत के सामने यह रखा गया था कि In this way non agriculturists in Himachal Pradesh have absolutely debarred from buying any land लेकिन जब सरकार ने अपने संशोधनों को लेकर अदालत में अपना पक्ष रखा था तब याचिकाकर्ताओं की ओर से इसका कोई प्रतिवाद नही आया था। इस पर 1.10.2013 को दिये अपने फैसले में उच्च न्यायालय ने इस स्थिति में कोई बदलाव नही किया है। ऐसे में जब एनजीटी और सर्वोच्च न्यायालय में प्रदेश में हो रहे निर्माणों का पर्यावरण को लेकर कड़ा संज्ञान लिया है तब इन निमयों में और कोई छूट देना कितना सही होगा इसको लेकर कभी भी मामला अदालत तक जा सकता है।
इस परिदृश्य में औद्यौगिक निवेश को लेकर हुई इस मीट पर प्रश्न उठने स्वभाविक हैं। क्योंकि इन नियमों में छूट देने के साथ ही जीएसटी में छूट देना सीधा आर्थिक लाभ पहुंचाना हो जाता है। आज तक प्रदेश में उद्योगों को आर्थिक लाभों का प्रलोभन देकर ही आमन्त्रित किया जाता रहा है। इसलिये आर्थिक लाभों की समय सीमा खत्म होने के बाद उद्योग पलायन करते रहे हैं। यह सिलसिला 1977 से शुरू होकर आज तक लगातार जारी है। जबकि अब तो यह आकलन होना चाहिये था कि प्रलोभनों के सहारे उद्योगों को आमन्त्रण देना प्रदेश के हित में कितना है। क्योंकि कोई भी उद्योगपति उद्योग लगाकर लोगों को कुछ भी मुफ्त में तो नहीं देता है। फिर जिन संसाधनों पर प्रदेश के आम आदमी का हक है उन्हें कुछ लोगों तक ही सीमित कर देना आज की परिस्थितियों में स्वीकार्य नही हो सकता। आज इस आयोजन के लिये जिस तरह से सरकारी पैसा खर्च करके उद्योगपतियों को बुलाया गया और उनके लिये सारे प्रबन्ध किये गये। एक सप्ताह तक पूरा प्रशासन इसी कार्य में व्यस्त रहा इससे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब सरकार के पास इसके लिये संसाधन है तो वह हर माह कर्जा क्यों ले रही है? इस आयोजन में जो 93000 करोड़ का निवेश आने का दावा किया गया है क्या उस पर सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि एक वर्ष के भीतर आधे निवेश पर तो व्यवहारिक रूप से जमीन पर काम हो पायेगा। आज प्रदेश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिये यहां के किसान और बागवान की दशा बदलनी होगी। यह सुनिश्चित करना होगा कि किसान का एक भी खेत बिना फसल के न रहे। आज किसान को जो सरकार ने डिपो पर सस्ते राशन के चक्र में उलझा दिया गया है उससे किसान और सरकार दोनों का अहित हो रहा है। आज इस दिशा में सार्थक नीति बनाने की आवश्यकता है न कि प्रलोभन देकर उद्योगपतियों बुलाने की।
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