शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के धर्मशाला और पच्छाद हल्कों से आने वाले दिनों में उपचुनाव होने हैं। इन चुनावों में कौन उम्मीदवार होंगे यह चर्चाएं भी उठनी शुरू हो गयी हैं। भाजपा में टिकट चाहने वालों की लाईन लम्बी है क्योंकि लोकसभा चुनावों के बाद घूस राजनीतिक वातारण बदल गया है। कांग्रेस में बहुत सारे नेता किसी न किसी बहाने से बचना चाह रहे हैं। इस परिदृश्य में प्रदेश के लिये यह उपचुनाव भाजपा के लिये ही परीक्षा बनते जा रहे हैं। क्योंकि जिस बढ़त के साथ लोकसभा चुनाव जीते हैं उसी स्तर की बढ़त को कायम रखना भाजपा और मुख्यमन्त्री जयराम की राजनीतिक आवश्यकता हो जाती है। यदि इस बढ़त में कोई कमी आती है तो वह आगे के लिये शुभ संकेत नही होगा। फिर बढ़त में कमी के लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जाये केन्द्र को या राज्य सरकार को यह तय करना भी आसान नही होगा।
राजनीतिक विश्लेष्कों के अनुसार जयराम ठाकुर इस बात को समझ गये हैं कि उतनी बढ़त को बनाये रखना आसान नही होगा। इसलिये उन्होंने एक साथ भाजपा और कांग्रेस के अन्दर आप्रेशन शुरू कर दिया है। माना जा रहा है कि पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल को धर्मशाला से पार्टी उम्मीदवार बनाने की मांग नगरोटा और ज्वालामुखी मण्डलों से आना इसी आप्रेशन का हिस्सा है। क्योंकि जैसे ही धूमल का नाम उछाला तो तुरन्त उस पर धर्मशाला के कई राजनीतिक और गैर राजनीतिक संगठनों से यह प्रतिक्रिया आ गई कि धर्मशाला को राजनीतिक धर्मशाला नहीं बनने देंगे। धर्मशाला से कोई धरती पुत्र ही लड़ेगा। धूमल ही धर्मशाला से बाहर का नाम है ऐसे में यह साफ हो जाता है कि यह मांग और इस पर आयी प्रतिक्रिया इसी रणनीति का हिस्सा थे। लेकिन शायद धूमल इस राजनीति को समझ गये थे और उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नही दी चुपचाप सारे हालात पर नजर रखे रहे। लेकिन यहां पर यह समझना भी आवश्यक हो जाता है कि धूमल का नाम चर्चा में आया ही क्यों।
स्मरणीय है कि प्रदेश विधानसभा का चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया था। धमूल के स्वयं हार जाने के बावजूद विधायकों का बहुमत उनके साथ खड़ा हो गया था और दो विधायकों ने उन्हें चुनाव लड़वाने के लिये अपनी सीटें खाली करने की आफर दे दी थी। लेकिन तब यह फलित नही हुआ परन्तु मुख्यमंत्री और उसके लोगों के लिये भविष्य के खतरे का एक स्थायी संकेत बन गया। अब संयोगवश धर्मशाला खाली हो गयी और वहां पर क्रिकेट स्टेडियम के कारण एचपीसीए और धूमल के बेटों अनुराग तथा अरूण का अपना एक विशेष प्रभाव और स्थान भी हो गया है। इस अन्तर्राष्ट्रीय स्टेडियम के कारण जो धर्मशाला का विकास हुआ है तथा इसी से स्मार्ट सिटी की योजना में आया है इसे कोई न तो झुठला सकता है और न ही नज़रअन्दाज कर सकता है। धर्मशाला में अनुराग -अरूण के पास ज़मीन भी है। फिर अभी जब राज्यपाल कलराज मिश्र का शपथ ग्रहण समारोह हुआ उसमें धूमल शामिल थे। वहीं उन्हें दिल्ली आने का आमन्त्रण मिला। वह दिल्ली गये और प्रधानमन्त्री से उनकी मुलाकात हुई। इस मुलाकात में राजनीतिक चर्चा ही होनी थी और फिर अब जब यदुरप्पा का राजनीतिक पुनर्वास हो गया है तो धूमल की इस मुलाकात के भी राजनीतिक मायने निकलने स्वभाविक थे और वह निकले भी।
इसी संभावित राजनीतिक संकट को भांपते हुए मुख्यमन्त्री के सिपहसलारों ने भी अपनी रणनीति को अंजाम देना शुरू कर दिया। सूत्रों के मुताबिक इसकी पहली कड़ी में कांग्रेस नेता और पूर्व मन्त्री सुधीर शर्मा के निकटस्थों के साथ कुछ मन्त्रीयों ने संपर्क साधा। फिर इस संपर्क के बाद दिल्ली में मुख्यमन्त्री और सुधीर शर्मा में बैठकों का आयोजन किया गया। इन बैठकों का परिणाम था कि सुधीर शर्मा कांग्रेस की कुछ बैठकों में शामिल नही हुए। यही नहीं कांग्रेस के कई बड़े नेताओं का एक वर्ग डा. परमार के गांव में मनाये गये जयन्ती समारोह में भी शामिल नही हुआ। इससे कांग्रेस में भी सबकुछ ठीक न होने के संकेत जाने स्वभाविक थे और वह गये भी। क्योंकि जम्मू- कश्मीर से धारा 370 को समाप्त किये जाने का कई कांग्रेस नेताओं ने स्वागत किया। संयोगवश स्वागत करने वाले अधिकांश नेता वीरभद्र के निकटस्थ माने जाते हैं। वीरभद्र पर सीबीआई और ईडी की तलवार लगातार लटकी ही हुई है। यह सार्वजनिक हो चुका है कि कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों के जिन- जिन नेताओं के खिलाफ सीबीआई, ईडी, आयकर या अन्य कोई आपराधिक मामले हैं उनमें से अधिकांश भाजपा में शामिल हो गये हैं या किसी न किसी तरह भाजपा को परोक्ष/अपरोक्ष में समर्थन दे रहे हैं यहां अभी जिस तरह से विक्रमादित्य ने मोदी और जयराम की प्रशंसा की है और उसपर कांग्रेस में काफी बखेड़ा भी खड़ा हो गया है उसे इसी संद्धर्भ में देखा जा रहा है। क्योंकि लोकसभा चुनावों के दौरान वीरभद्र सिंह के भी ऐसे ही विवादित ब्यान आते रहे हैं जिनका चुनावों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। अब विक्रमादित्य के ब्यानों को भी उसी भूमिका की पुनर्रावृति के रूप में देखा जा रहा है। धर्मशाला से सुधीर शर्मा की उम्मीदवारी की चर्चा भी इसी रणनीति का हिस्सा मानी जा रही है।
बल्कि अब तो यहां तक चर्चा चल पड़ी है कि उपचुनावों से पहले आधा दर्जन विधायक कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो सकते हैं।
लेकिन भाजपा की इस रणनीति को कांग्रेस की इस मानसून सत्र में सदन में अपनाई गयी आक्रामकता से धक्का लग सकता है। क्योंकि कांग्रेस अधिकांश मुद्दों पर सरकार पर भारी पड़ गयी है। कांग्रेस विधायक रायज़ादा के मामले में सदन में तीन दिन तक हंगामा सहने के बाद सरकार को एस पी ऊना को ट्रेनिंग पर भजने का विकल्प तलाशना पड़ा। बहुचर्चित निवेश के दावों पर सरकार के अपने ही जवाब ने प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कम्पयूटर शिक्षा और कर्मचारियों के लिये नयी पैन्शन योजना पर सरकार को सदन में मानना पड़ा है कि उसके पास संसाधनों की कमी है। पर्यटन ईकाईयों को लीज़ पर देने के प्रस्तावित खुलासे से सरकार की छवि को गहरा धक्का लगा है। मुख्यमन्त्री को यह कहना पड़ा है कि ऐसी सूचना को पोर्टल पर उनकी अनुमति और जानकारी के बिना डालने के लिये जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ कारवाई की जायेगी। भूअधिनियम की धारा 118 और चाय बागान के संद्धर्भ में लैण्ड सिलिंग एक्ट की धारा 6 और 7 को लेकर भी सरकार अपनी स्थिति स्पष्ट नही कर पायी है। फिर केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर भी अब बहस चल पड़ी है।
ऐसे परिदृश्य में यदि आज भी भाजपा कांग्रेस के अन्दर तोड़फोड़ करके किसी कांग्रेस नेता को ही धर्मशाला से अपना उम्मीदवार बनाती है तो निश्चित रूप से पार्टी के कार्यकर्ताओं के मनोबल पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और पार्टी पर राजनीतिक फायदे के लिये अपने कार्यकर्ताओं की अनदेखी करने का आरोप लगेगा। फिर कांगड़ा के नेता जिस तरह से खेमों में बंटे हैं उससे भी धर्मशाला के लिये उम्मीदवार तय करना कठिन हो गया है।