शिमला/शैल। क्या हिमाचल कांग्रेस में एक बड़े विद्रोह और विरोध की परिस्थितियां बनने लग पड़ी है? क्या परिस्थितियां हिमाचल सरकार के लिये घातक होगी? यह सवाल और ऐसे ही कई और सवाल इस प्रदेश की राजनीतिक तथा प्रशासनिक गलियारों में चर्चा में आने लगे हैं। क्योंकि हिमाचल सरकार वित्तीय कुप्रबंधन के लिये जितना पूर्व सरकार को दोषी करार देती आ रही है उससे कहीं ज्यादा इस कुप्रबंधन के प्रमाण अपने खिलाफ खड़े करती जा रही है। विपक्ष एक लम्बे अरसे से यह आरोप लगाता आ रहा है कि यह सरकार केन्द्रीय योजनाओं के नाम पर मिल रहे पैसे को डाईवर्ट करके अपने खर्च चलाने के लिये इस्तेमाल कर रही है। इसका प्रमाण उस समय सामने आ गया जब भाजपा विधायक रणधीर शर्मा ने यह आरोप लगा दिया की समग्र शिक्षा अभियान के पैसे से एलिमेंट्री शिक्षकों का वेतन अदा किया गया। रणधीर शर्मा ने इस आरोप की पुष्टि में सरकार द्वारा 20 जनवरी को लिखा गया पत्र भी सामने रखा। ऐसे ही आरोप वन और अन्य विभागों को लेकर सामने आये हैं। इन्हीं आरोपों के विधानसभा सचिवालय द्वारा की गई नियुक्तियों को लेकर बड़ा विवाद खड़ा हो गया है और इन नियुक्तियों के लिये अपनायी गयी चयन प्रक्रिया की पारदर्शिता पर सवाल उठे हैं। इसी के साथ युक्तिकरण के नाम पर बिजली बोर्ड में 700 पदों को समाप्त करने और आउटसोर्स पर रखे गये 81 ड्राइवरों को निकाले जाने के प्रकरण ने जलती आग में घी डालने का काम किया है। आउटसोर्स के माध्यम से की जाने वाली भर्तीयों को संविधान के अनुच्छेद 16 की उल्लंघना करार देते हुये इन पर प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रतिबंध लगा दिया है। लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद कुछ कंपनियां सरकारी विभागों के नाम पर युवाओं से आवेदन मांगने का काम जारी रखे हुये हैं क्योंकि राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है इन लोगों को। इस तरह कर्मचारियों में 1990 की तर्ज पर एक बड़े आन्दोलन की स्थितियां बनती जा रही हैं।
दूसरी ओर सरकार वित्तीय संकट से निपटने के लिये आम आदमी पर और ज्यादा करों और शुल्कों का बोझ डालने के विकल्प पर चल रही है। कर्ज की सीमा पहले ही सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इसी वित्तीय परिदृश्य में विपक्ष ने बजट पूर्व होने वाली विधायक प्राथमिकता बैठकों का बहिष्कार कर दिया है। विधायकों और बड़े अधिकारियों को पूरी तरह यह जानकारी है कि सरकार की वित्तीय स्थिति ठीक नहीं है और ऐसे में सरकार की कोई भी घोषणा जमीन पर उतरना संभव नहीं है। जब राजनीतिक क्लास के सामने यह आ जाता है कि सरकार विकास के किसी भी काम को अमली जामा पहनाने की स्थिति में नहीं रह गयी है तब सरकार की करनी और कथनी की व्यवहारिक विवेचना शुरू हो जाती है। इस प्रकार का कार्य सूत्र अब तक व्यवस्था परिवर्तन रहा है जो अब सूत्र से निकलकर जुमले के दायरे में आ गया है। स्वभाविक है कि जो सरकार शिक्षकों का वेतन देने के लिये समग्र शिक्षा के धन का इस्तेमाल करने पर विवश हो जाये वह राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूल बनाने और बच्चों को विदेश भ्रमण पर ले जाने का प्रबंध कैसे करेगी? यह सवाल अब आम आदमी भी पूछने लग पड़ा है।
अब कांग्रेस के विधायकों का एक बड़ा वर्ग सरकार से हटकर अपने राजनीतिक भविष्य के बारे में चिंता और चिंतन करने लगा पड़ा है। चर्चा है कि कांगड़ा के एक विधायक के घर में हुई बैठक में इस पर खुलकर चर्चा हुई है। बैठक में यह प्रश्न उठा है कि विधानसभा का चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा गया था और उसके बाद नेतृत्व का चयन उच्च कमान ने स्वयं किया था। यह एक स्थापित सच है कि सरकार बनने के बाद कांग्रेस जैसी पार्टी में संगठन पृष्ठभूमि में चला जाता है और अग्रणी भूमिका में केवल सरकार रह जाती है। इसी अग्रणी भूमिका के कारण सरकार बनने के बाद पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के स्थान पर पहले मित्रों को ताजपोशियां दी गयी और कार्यकर्ताओं की अनदेखी की गयी। इस अनदेखी की शिकायत हाईकमान तक भी पहुंची। जब हाईकमान ने भी इस सब की अनदेखी की तब पार्टी के छः विधायक टूटकर भाजपा में चले गये। यह नेतृत्व के खिलाफ पहला मुखर रोष था। इस रोष के बाद तो प्रदेश सरकार के कुछ फैसले ऐसे राष्ट्रीय चर्चा का विषय बने की हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभाओं के चुनाव में भी मुद्दा बने। अब दिल्ली के चुनाव में भी कांग्रेस को कोई बड़ी सफलता मिलने का आसार नहीं है। क्योंकि कांग्रेस की विश्वसनीयता उसकी राज्य सरकारों के फैसलों और कार्यशैली से बनेगी। जो सरकार पहले दिन से ही मीडिया को बांटने और दबाने की नीति पर चलते-चलते दो साल में मान्यता प्राप्त और गैर मान्यता प्राप्त में भेद करके सचिवालय में प्रवेश देने के लिये यह सूची जारी करने पर आ जाये उसकी मानसिकता का अनुमान कोई भी लगा सकता है। शायद इसी सबको देखते हुये हर्ष महाजन जैसे भाजपा नेता को यह दावा करने का साहस हुआ है कि हम जब चाहें तब सरकार गिरा सकते हैं। शायद इसी सब को देखते हुये कांग्रेस के दो दर्जन विधायकों ने अपना रोष हाईकमान के सामने रखने के लिये हस्ताक्षर नीति का सहारा लिया है।