दिल्ली की केजरीवाल सरकार द्वारा नियुक्त इक्कीस संसदीय सचिवों के भविष्य पर तलवार लटक गयी है। इन विधायकों की सदस्य रद्द होने की संभावना बढ़ गयी है क्योंकि संसदीय सचिव के पद को लाभ के पद की परिभाषा से बाहर रखने के आश्य का एक विधेयक दिल्ली विधानसभा से पारित करवाकर राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये भेजा था। दिल्ली को अभी तक पूर्णराज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसलिये यह विधेयक केन्द्र सरकार के माध्यम से राष्ट्रपति के पास गया। केन्द्र सरकार ने इस पर प्रक्रिया संबधी कुछ तकनीकी टिप्पणीयां के साथ यह बिल राष्ट्रपति को भेजा। लेकिन इन तकनीकी टिप्पणीयों के कारण राष्ट्रपति भवन से इसकी स्वीकृति नही मिली। स्वीकृति न
हिमाचल प्रदेश में नौ मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त हंै। विधानसभा में जब माननीयों के वेतन भत्ते बढ़ौतरी के बिल आये हैं उनमें मुख्यसंसदीय सचिवों का उल्लेख अलग से रहा है। इनके वेतन भत्ते मंत्रीयों से कम और सामान्य विधायकों से अधिक रहे हंै। इन्हें सचिवालय में अलग से कार्यालय मिले हुए हंै। सरकार से मन्त्रीयों के समान सुविधायें इन्हें प्राप्त हैं। कार्यालय में पूरा स्टाफ है तथा सरकार से गाड़ी ड्राईवर और उसके लिये पैट्रोल आदि का सारा खर्च सरकार उठा रही है। पदनाम को छोड़कर अन्य सुविधायें इन्हें मन्त्रीयों के ही बराबर मिल रही है। बल्कि प्रदेश के लोकायुक्त विधेयक में तो इन्हें मन्त्री परिभाषित कर रखा है।
स्मरणीय है कि वर्ष 2005 में एक संविधान संशोधन के माध्यम से केन्द्र और राज्यों की सरकारों में मन्त्रीयों की संख्यां एक तय सीमा के भीतर रखी गयी है। हिमाचल में मन्त्रीयों की अधिकतम सीमा मुख्मन्त्री सहित बारह है। दिल्ली में यह संख्या सात तक है। लेकिन राजनीतिक समांजंस्व बिठाने के लिये संसदीय सचिवों की नियुक्तियां हो रखी हैं। नियमों के मुताबिक संसदीय सचिव को किसी विभाग की वैसी जिम्मेदारी नही दी जा सकती है जो एक मन्त्री/राज्य मन्त्री/ उप मन्त्री को हासिल रहती है। संसदीय सचिव का किसी न किसी मन्त्री से अटैच रहना आवश्यक है। उन्हे एक राज्य मन्त्री की तरह स्वंतत्र प्रभार नही दिया जा सकता । संसदीय सचिव जिस भी विभाग के लिये संवद्ध हो वह उस विभाग की फाईल पर संवद्ध विषय पर अपनी राय अधिकारिक रूप से दर्ज नही कर सकता। नियमों के मुताबिक संसदीय सचिव की भूमिका तभी प्रभावी होती है जब विधानसभा का सत्र चल रहा हो। सत्र के दौरान संव( मन्त्री को संसदीय सलाह/ सहयोग देना ही उसकी जिम्मेदारी रहती है। बल्कि सत्र में मंत्री की अनुपस्थिति में संसदीय सचिव संवद्ध विभाग से जुडे़ प्रश्न का उत्तर भी सदन में रख सकता है। लेकिन सामान्यतः ऐसा किया नही जाता है।
ऐसे में जब किसी संसदीय सचिव किसी भी विभाग की वैधानिक तौर पर जिम्मेदारी नही दी जा सकती है तब उसमें और एक सामान्य विधायक में कोई अन्तर नही रह जाता है। क्योेंकि संसदीय सचिव मन्त्री के समकक्ष नही रखा गया है। लेकिन वह सामान्य विधायक से संसदीय सचिव होने के नाते ज्यादा सुविधायें भोग रहा है। उसके वेतन भत्ते भी सामान्य विधायक से अधिक हंै। लेकिन 2005 में संविधान में संशोधन लाकर मन्त्रीयों की अधिकतम सीमा तय की गयी थी तब संसदीय सचिवोें का कोई प्रावधान नही रखा गया था क्योंकि ऐसा प्रावधान मूलतः संविधान की नीयत के एकादम विपरीत है। ऐसे में अब दिल्ली के संसदीय सचिवों का मुद्दा एक बड़ा सवाल बनकर सामने आ खड़ा हुआ है तो उसके लिये पूरे देश में एक समान व्यवस्था का प्रावधान करना होगा। अलग-अलग राज्यों में आज अलग-अलग प्रावधान नहीं हो सकते। इसके लिये एक बार फिर संशोंधन लाकर मन्त्रीयों की संख्या बढ़ा देना ज्यादा व्यवहारिेक होगा और उसमें संसदीय सचिवों की नियुक्तियों पर विराम लग जाना चाहिए।