शिमला/शैल। प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त का पद 24 मार्च के बाद से खाली चला आ रहा है। जब यह पद खाली हुआ तब सरकार ने इसको भरने के लिये कोई आवदेन आमन्त्रिात नही किये। बिना खुले आमन्त्रण के ही चार आवेदन आ गये। चर्चाएं उठी की मुख्य सचिव पी मित्रा को इस पद पर बिठा कर उनके स्थान पर वीसी फारखा के मुख्य सचिव बना दिया जायगा। लेकिन 31 मई को मित्रा का सेवानिवृति तक इस चर्चा पर अमल नही हो सका और इसी बीच पद को भरने के लिये विज्ञापित जारी करके आवेदन मांग लिये गये। मित्रा की सेवानिवृति के दिन ही उन्हे राज्य चुनाव के अध्यक्ष की जिम्मेदारी मिल गयी और फारखा मुख्य सचिव भी बन गये लेकिन सीआईसी का पद आज तक खाली चला आ रहा है।
अब इस पद के लिये डेढ सौ के करीब आवेदन आ गये है। जिनमें राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष के एस तोमर के अतिरिक्त पूर्व मुख्य सचिव पी मित्रा भारत सरकार से सेवानिवृति सचिव उच्च शिक्षा अशोक ठाकुर, अतिरिक्त मुख्य सचिव नरेन्द्र चैहान, पीसी धीमान अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक वी एन एस नेगी , वर्तमान सूचना आयुक्त के डी वातिश और आर टी आई एक्टिविस्ट देवाशीष भटाचार्य । सीआईसी का चयन मुख्य मन्त्री नेता प्रतिपक्ष और मुख्यन्त्री द्वारा मनोनीत एक कैबिनेट मन्त्री सहित यह तीन सदस्यों की कमेटी अपने बहुमत से करेगी। इसमें वीटो का अधिकार किसी को नही है। यह कमेटी अपने चयन की सिफारिश राज्यपाल को भेजेगी । राज्यपाल इस चनय पर यदि चाहे तो कुछ और स्पष्टीकरण भी मांग सकते हैं। अभी तक चयन कमेटी का गठन नही किया गया है। आवदेकांे की सूची बहुत लंबी है। ऐसे में चयन केमटी चयन से पूर्व एक स्क्रीनिंग कमेटी का गठन कर सकती है यह स्क्रीनिंग केमटी आवदेकों के वायोडाटा को खंगालने के बाद शीर्ष के आठ-दस लोगों को शार्ट लिस्ट करके चयन कमेटी के सामने अन्तिम चयन के लिये रख सकती है।
लेकिन इस समय आवेदकों के रूप में सामने आये उपरोक्त नामों पर उठी चर्चाओं के अनुसार के एस तोमर, नरेन्द्र चैहान और वी एन एस नेगी को सबसे बड़े दावेदारों में माना जा रहा है। तोमर वर्तमान में लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष हंै और उन्हें मुख्यमन्त्री की पहली पसन्द माना जा रहा है। नेता प्रतिपक्ष प्रेम कुमार धूमल भी उनके नाम पर सहमति दे सकती है। यदि तोमर सीआईसी हो जाते हैं तो उनके स्थान पर वी एन एस नेगी और नरेन्द्र चैहान में से किसी एक का चयन तय है।
लेकिन इस चयन से पूर्व ही तोमर की दावेदारी पर देवाशीष भटाचार्य ने प्रदेश के राज्यपाल, नेता प्रतिपक्ष और मुख्य मन्त्री को शिकायत भेज दी है। भटाचार्य ने एतराज उठाया है कि लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष का पद एक संवैधानिक पद है। जिसमें पूरी तरह निष्पक्षता अपेक्षित है। परन्तु सीअीईसी के पद के लिये अपनी दावेदारी जतारक तोमर की निष्पक्षता पर स्वतः ही सवाल उठ जाते हैं क्योंकि सीआईसी का चयन मुख्यमन्त्राी पर आधारित कमेटी करेगी। भटाचार्य ने अपने एतराज में सर्वोच्च न्यायालय के 15.2.13 को पंजाब बनाम सलिल सबलोक मामले में आये फैसले को आधार बनाया है। इसी एतराज के साथ संविधान की धारा 319(b) में लोकसेवा आयोग के सदस्यों पर राज्य या केन्द्र सरकार में कोई भी स्वीकारने पर लगी बार का भी उल्लेख किया है। भटाचार्य ने लोक सेवा आयोग की कुछ सिफारिशों पर प्रदेश उच्च न्यायालय में आये मामलों का भी जिक्र करते हुए तोमर की निष्पक्षता पर बुनियादी सवाल उठायें है। भटाचार्य का तर्क है कि सीआईसी के लिए आवदेन करने के साथ ही तोमर को लोकसेवा आयेाग के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए था और उन्होने ऐसा नही किया है इसलिये राज्यपाल को उन्हे पद से हटा देना चाहिये । सवोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार यह स्थिति गंभीर रूप ले सकती है।
शिमला/शैल। प्रदेश के वरिष्ठतम आईएएस अधिकारी अतिरिक्त मुख्य सचिव दीपक सानन एस पी सी ए के एक मामले में अभियुक्त है। उनके ऊपर आरोप है कि उन्होंने अपने पद का दुरूपयोग करके 1993 के लीज नियमों की धारा 9 को नजर अन्दाज करके इनमें सबलीज का प्रावधान करके न केवल खिलाडीयों के लिये बनाये गये आवास के सबलीज का वाणिज्यिक उपयोग की अनुमति का एन ओ सी जारी किया बल्कि मन्त्रीमण्डल का भी शक्तियों का भी अपने ही स्तर पर इस्तेमाल कर लिया। यह भी आरोप है कि लीज नियमों में 2003 में हुए संशोधन के बाद भी केवल पांच बीघा जमीन ही लीज पर दी जा सकती थी। स्मरणीय है कि एचपीसीए को 2002 में 49118 वर्गगज और 2009 में होटल के लिये भी करीब इतनी ही जमीन लीज पर दी गयी थी। राजस्व सचिव के नाते नियमों के विरूद्ध दी गयी इतनी ही लीज पर उन्हें आपत्ति उठानी चाहिये थी जो कि उन्होने नही की। यह भी उल्लेखनीय है कि सरकार ने लीज नियमों में 2011 में विधान सभा से संशोधन पारित करवार ज्यादा जमीन लीज पर देने का प्रावधान किया था। वर्ष 2002 और 2009 में सरकार को इतनी जमीन लीज पर देने का अपने स्तर पर कोई अधिकार नहीं था। सरकार केवल विधान सभा में ही संशोधन लाकर यह शक्तियां प्राप्त कर सकती थी अन्यथा नहीं। 2011 का संशोधन पारित होने से पहले ही सर्वोच्च न्यायालय की जस्टिस मार्कण्डेयकाटजु और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा की खण्ड पीठ के जनवरी 2011 में आये फैंसले में विलेज काॅमन लैण्ड के आंवटन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस फैंसले की अनुपालना सुनिश्चित करने और न्यायालय को नियमित रिर्पोट भेजने के लिये राज्यों के मुख्य सचिवों को इसमें पार्टी बनाकर विशेष निर्देश दे रखे है। इस तरह विजिलैन्स ने अपने चालान में सानन के खिलाफ लीज नियमों की अनदेखी और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले तथा निर्देशों की अवहेलना ,रूल्ज आॅफ बिजनैस के शडयूल 20 की उल्लघंना का दोषी मानते हुए भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा 13(2) और आईपी सी की धारा 120 (b) के तहत चालान अदालत में दायर किया है। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मुकद्दमा चलाने की अनुमति दे रखी है भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत अभियोजन की स्वीकृति के लिये मामला केन्द्र सरकार को भेजा । लेकिन भारत सरकार ने 25-08-15 को प्रदेश के प्रधान सचिव कार्मिक को भेजे आदेश में अभियोजन की अनुमति देने से इन्कार कर दिया है। प्रदेश सरकार ने इन्ही आरोपों पर सानन को चार्जशीट भी कर रखा है। लेकिन केन्द्र से अभियोजन की अनुमति न दिये जाने के आधार पर सानन प्रदेश सरकार से चार्जशीट वापिस लेने का आग्रह कर रहें है। इसके लिये उन्होने सरकार को प्रतिवेदन भी कर रखे है। जिन पर सरकार की ओर से कोई कारवाई नही की गयी है। सानन ने अपने प्रतिवेदनों पर हुई कारवाई की जानकारी आरटीआई में भी मांग रखी है। इस मामले में अनुराग ठाकुर और प्रेम कुमार धूमल सहित कुल अठाहर आरोपी है। इसी मामले में सुभाष आहलूवालिया, सुभाष नेगी और टीजी नेगी को विजिलैन्स ने खाना 12 का आरोपी बना रखा है। इसी मामले में एचपीसीए के खिलाफ सोसायटी से कंपनी बनाये जाने का आरोप भी शामिल हैं जब अदालत ने इस मामले का संज्ञान लेकर अगली कारवाई शुरू की थी तभी एच पी सी ए ने इसे अदालत में चुनौती दे दी । आज इस मामले का ट्रायल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्टे हो चुका है। सोसायटी से कंपनी बनाये जाने का मामला भी अभी तक प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित है। प्रदेश उच्च न्यायालय से यह मामला वापिस आर सी एस के पास जायेगा क्योंकि सोसायटी से कंपनी बनाया जाना सही था या नहीं इसका पहला क्षेत्राधिकार आर सी एस का कोर्ट है। इस तरह यह मामला इतने स्तरो पर लंबित चल रहा है कि निपटारा होने में काफी समय लग जायेगा । इसी मामले के कारण सानन मुख्य सचिव नहीं बन पाये है। इसी मामले का एक रोचक तथ्य यह भी है कि विजिलैन्स ने अपने चालान में स्पष्ट कहा है कि इनती जमीन लीज पर दिया जाना नियमों के विरू( है लेकिन इसके लिये किसी को भी अभियुक्त नामजद नहीं किया गया है। भारत सरकार ने अभियेाजन की अनुमति न दिये जाने के लिये सानन के प्रतिवेदन को आधार बनाया है। सानन ने अपने बचाव में 13-10-2003 के राजस्व विभाग के स्टैण्डिगं आर्डर का सहारा लिया है। अपने डिफैन्स में रूल्ज आॅफ बिजनैस के शडयूल 13 के नियम 14,15 और 16 का भी तर्क लिया है। सानन ने संशोधित लीज नियमों का भी सहारा लिया है। अभियोजन की अनुमति पर सानन ने अपना पूरा डिफैन्स रखा है जबकि सीबीसी के 12 मई 2005 को जारी दिशा निर्देशों के अनुसार अभियोजन की अनुमति के समय डिफैन्स रखने का प्रावधान ही नहीं है। फिर संशोधित लीज नियम 2-8-2011 को अधिसूचित हुए जबकि सर्वोच्च न्यायालय का फैंसला 20-01-2011 को आ गया था। फिर संशोधित नियमों से पहले इतनी लीज का सरकार को अधिकार ही नहीं था। इस पृष्ठ भूमि में सानन के प्रतिवेदनों पर सरकार फैंसला नहीं ले पा रही है। केन्द्र सरकार का आदेश सीबीसी के दिशा निर्देश और विजिलैन्स के चालान का आरोप पृष्ठ पांच पर पढें़...
शिमला/शैल।वीरभद्र सरकार प्रदेश में हुए अवैध भवन निर्माणों को नियमित करने के लिये एक बार फिर रिटैन्शन पालिसी लेकर आयी है। इस आश्य का एक अध्यादेश 8जून को अधिसूचित किया गया है जो कि 15 जून से लागू हो गया है और एक वर्ष तक रहेगा। अध्यादेश में कहा गया है कि यह अध्यादेश इसके प्रारम्भ होने की तारीख से एक वर्ष की अवधि के लिये प्रवृत रहेगा। इस अध्यादेश के माध्यम से हिमाचल प्रदेश नगर और ग्राम योजना अधिनियम 1977 की धारा क के पश्चात् कुछ प्रावधान किये गये हैं जिनके अनुसार अवैध निमार्ण नियमित किये जायेंगे। इसमें किसी भी भवन की पांच मंजिलों तक हुई अनियमितता/अवैधता को कुछ जुर्माने/फीस के नियमित किया जायेगा या उन्हें नियमित नही किया जायेगा इसको लेकर कुछ भी स्पष्ट नही किया गया है। जबकि नगर निगम शिमला क क्षेत्रा में ही पांच मंजिलों से अधिक मंजिलों वाले सरकारी और निजि भवन हैं जिनकी सूची विधान सभा के पटल तक भी आ चुकी है।
आज सरकार को यह अध्यादेश क्यों लाना पडा है? किन लोगों ने अवैध निर्माण कर रखे हैं जिनके लिये भवन निर्माण नियमांे में नौवीं बार संशोधन लाना पडा है। उसका पता तो इस संवद्ध आने वाले आवेदनांेे से ही सामने आयेगा। लेकिन इस अध्यादेश को लेकर यह सवाल खड़ा हो गया है। कि इसकी अवधि एक वर्ष क्यों रखी गयी है। अध्योदश का सहारा तब लिया जाता है जब विधान सभा का सत्रा न चल रहा हो और स्थिति की गंभीरता की मांग यह हो कि इसके तुरन्त समाधान के लिये अध्यादेश का रास्ता अपनाना ही एक मात्रा विकल्प हो। 15 जून से यह अध्यादेश लागू हो गया है। इसकी एक वर्ष की अवधि जून 2017 में पूरी होगी। इस एक वर्ष के अन्तराल में मानसून, शीत कालीन और फिर बजट सत्रा आने है। नियमों के मुताबिक अध्यादेश जारी होने के बाद जो भी विधान सभा सत्रा आयेगा उसमें अध्यादेश के स्थान पर नियमित विधेयक सदन मंें पेश करके पारित करवाना पड़ता है। सत्रा में यदि विधेयक पारित हो जाये तो वह मूल अधिनियम का अंग बन जाता है यदि सदन में पारित न हो पाये तो छः सप्ताह के भीतर स्वतः समाप्त हो जाता है। फिर किसी भी सत्रा का अन्तराल छः महीने से अधिक का हो नहीं सकता है। छः माह के सत्रा बुलाना ही पड़ता है। इसलिये अध्यादेश की मूल अवधि छः माह रखी जाती है। और हर छः माह बाद उसे पुनः जारी करके दो वर्ष की अधिकतम अवधि पर लाया जा सकता है।
ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या अभी विधान सभा का सत्रा नहीं होगा? क्या इस अध्यादेश की अवधि एक मुफ्त एक वर्ष रखने को निकट भविष्य में विधान सभा भंग करके नये चुनाव करवाये जाने का संकेत माना जाये। या फिर अध्यादेश के इस तकनीकी पक्ष की ओर से किसी ने ब्यान नही दिया हैै। कानूनी हल्को में एक वर्ष की अवधि को कानून वैधता के आईने में भी देखा जा रहा है।
शिमला/शैल। भाजपा प्रदेश का अगला चुनाव किसके नेतृत्व में लडे़गी यह सवाल नड्डा के उस ब्यान के बाद चर्चा का विषय बना है जब उन्होने प्रदेश की राजनीति में वापिस आने के संकेत दिये है। नड्डा के ब्यान पर धूमल और अनुराग की प्रतिक्रियाओं ने भी इस सवाल को और हवा दी है। इस परिदृश्य में यदि भाजपा का आकलन किया जाये तो जो तस्वीर उभरती है उसमें भाजपा के लिये अगला चुनाव बहुत आसान नजर नही आता है। क्योंकि धूमल के दोनों कार्यकालों में जिस तरह से वीरभद्र को घेरा गया उसमें भले ही वीरभद्र का कोई ठोस नुकसान नहीं हो पाया हो लेकिन वीरभद्र धूमल और उसकी सरकार का कोई नुकसान नहीं कर पाये। हांलाकि धूमल के पहले कार्यकाल में सरकार पंडित सुखराम की बैसाखीयों के सहारे सत्ता में आयी जबकि सुखराम एक बार स्वयं भी मुख्यमन्त्राी बनने की ईच्छा पाले हुए थे। बल्कि एक बार तो भाजपा के शान्ता समर्थकों ने विधानसभा सत्रा का वायकाट करके अपने मनसूबे जग जाहिर भी कर दिये थे।
धूमल उस समय न केवल उस राजनीतिक संकट से ही निकले बल्कि हिमाचल विकास कांग्रेस को ही अपना बोरिया-बिस्तर समेटने तक पहुंचा दिया। दूसरे कार्यकाल में वीरभद्र को सीडी के संकट में ऐसा लेपटा कि वीरभद्र केन्द्र में मन्त्री होकर भी धूमल और उनकी सरकार का कुछ नही बिगाड़ पाये। वीरभद्र ध्ूामल के दोनों कार्यकालों में मिले जख्मांे की टीस से आज तक कराहते हैं। इन्ही जख्मों के दंश से यह आशंका थी कि वीरभद्र इस बार हर हालात में धूमल से हिसाब किताब बराबर करने का प्रयास करेंगे। वीरभद्र ने इस दिशा में प्रयास भी किये। एचपीसीए को लेकर मामले बनाये। धूमल की संपत्तियों पर डिप्टी एडवोकेट जनरल का पद देकर शिकायत तक हासिल की। लेकिन यह सब कुछ होते हुए भी धूमल ने ऐसी व्यूह रचना की जिसके आगे वीरभद्र पूरी तरह परस्त हो गये। बल्कि हिमाचल आॅन सेल के जिस आरोप को चुनावों में बड़े ब्रहमास्त्र के रूप में प्रयोग किया उसका एक मामला तक नहीं बन पाया। इस तरह धूमल ने वीरभद्र के इस शासन काल में वीरभद्र को उसी के हथियारों से मात दी उसे धूमल की सफलता ही माना जायेगा।
लेकिन इसी गणित में वीरभद्र भी भाजपा पर भारी पडे हैं। क्योंकि नम्बर, दिसम्बर 2010 में जिस तरह इस्पात उद्योग समूह पर हुई छापेमारी में मिली डायरी के खुलासों का बढ़ाकर धूमल परिवार ने आज उसे सीबीआई और ईडी की जांच तक तो भले ही पहुंचा दिया है लेकिन वीरभद्र को सत्ता से बेदखल करने में सफल नहीं हो पाये हंै। धूमल की प्रदेश में समय पूर्व चुनाव होने की सारी भविष्य वाणियां हवा-हवाई ही साबित हुई हैं । हालांकि इन जांचो को लेकर वीरभद्र धूमल, जेटली और अनुराग को बराबर कोसते आ रहे हैं। वीरभद्र के खिलाफ चल रहे इन मामलों को अन्तिम अंजाम तक पहुंचाना एक तरह से केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी है आज केन्द्र में भाजपा के नड्डा एक बड़े और प्रभावी मंत्री है। शान्ता भले ही मंत्री नहीं है लेकिन केन्द्र में उनका अपना प्रभाव है। लेकिन यह एक संयोग ही है कि प्रदेश के तीन सासंद शांता, कश्यप और रामस्वरूप शर्मा वीरभद्र के मामलें में लगातार खामोशी ही अपनाये हुए हंै। जबकि अनुराग सीबीआई पर धीमा होने का आरोप लगा चुके हैं ऐसे में भाजपा के अन्दर वीरभद्र के प्रति नरम रूख अपनाना भी भाजपा और कांग्रेस को एक बराबर धरातल पर ला कर खड़ा कर देगा। क्योंकि धूमल के शासन कालों भाजपा के काग्रेंस के खिलाफ सौंपे आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नहीं हो पायी है।
बल्कि संभवतः इसी प्रतिस्पर्धा के चलते आज भाजपा वीरभद्र के खिलाफ कुछ बड़ा नहीं कर पा रही है। जिस भाजपा ने ईडी के स्थानीय सहायक निदेशक द्वारा मुख्यमन्त्री के प्रधान निजि सचिव को एक शिकायत की जांच के संद्धर्भ बुलाये जाने पर हुए पत्राचार पर विधानसभा सत्रा नहीं चलने दिया था वही भाजपा मुख्यमन्त्री की सीबीआई में हुई पन्द्रह घन्टो की पूछताछ के बावजूद खामोश बैठी है। अब भाजपा ने फिर सरकार के खिलाफ आरोप पत्रा लाने की बात की है। इस आरोप पत्र में कितनी आक्रामकता रहेगी यह तो इसके आने पर पर ही पता चलेगा। लेकिन अपने आरोप पत्रों के आरोपों को प्रमाणित करने के लिये क्या भाजपा अदालत तक जाने का साहस करेगी? पूर्व की परम्परा को देखते हुए इसकी उम्मीद कम है बल्कि भाजपा और कांग्रेेस में आपसी सहमती केवल भ्रष्टाचार के मुद्दों पर ही सामने लाती है। क्यांेकि दोनो ने सत्ता में आने पर ऐसे आरोप पत्रों को रद्दी की टोकरी में डालने से अधिक कुछ नही किया है। ऐसे में क्या जनता भाजपा द्वारा लाये जा रहे आरोप पत्रा को गंभीरता से लेगी इसको लेकर सन्देह है। बल्कि रस्मी आरोप पत्रों की संस्कृति इन पर भारी पड़ सकती है। इस पृष्ठभूमि में धूमल-नड्डा के खेमों मे बंटती भाजपा के लिये भविष्य कोई बहुत सुरक्षित नही कहा जा सकता।
शिमला/शैल। वर्ष 1993 से 1998 के बीच प्रदेश में घटे बहु चर्चित चिटों पर भर्ती मामलें में विजिलैन्स ने जो चार चालान अदालत में पहुंचाये थे उनमें नामजद दोषी चार आई ए एस अधिकारियों के खिलाफ भी अब वीरभद्र सरकार मामले वापिस लेने तैयारी में है। यह अधिकारी है डा. एआरबासू, एस के जस्टा वी के बंसल और विनोद लाल। इनके मामले इस आधार पर वापिस लिये जा रहे है क्योंकि इनसे पहले ऐसे ही मामलंे में अश्वनि कुमार के विरूद्ध चल रहा मामला वापिस ले लिया गया है। इस प्रकरण में विजिलैन्स ने पहले ही 53 विभागों के संवंध में क्लोजर रिपोर्ट अदालत में दायर कर दी थी जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया है। इसी कारण से अब इन चारों के मामले भी वापिस लिये जा रहें हैं।
इस समय पूर्व डीजीपी मिन्हास के खिलाफ दो मामले अदालत में ट्रायल में चल रहे हैं। इनमें मिन्हास के नववहार स्थित मकान के मामलें में नगर निगम की शिकायत पर मामला दर्ज हुआ था। दूसरा मामला मिन्हास के बेटे के नर्सिगं काॅलिज को लेकर है और इनमें विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार की ओर से शिकायत है। मिन्हास के अतिरिक्त पूर्व उद्योग मन्त्री किश्न कपूर के खिलाफ पिछली जिला परिषद के चुनावों के दौरान जो मामला बना था उसकी जांच पूरी होने के बाद उसका चालान भी अदालत में पहुंच चुका है। इन सारे मामलों की जांच डी डब्लू नेगी के पास थी।
स्मरणीय है कि चिटों पर भर्ती मामला धूमल शासन में शुरू हुआ था। इन भर्तीयों को लेकर हर्ष गुप्ता और अवय शुक्ला के अधीन दो जांच कमेटीयां बनाई गयी थी। इनकी जांच रिपोर्ट जब सार्वजनिक हुई थी तब धूमल सरकार ने अपने स्टैण्ड को बदलते हुए इनकी कारवाई करने से मना कर दिया था। जबकि 1993 से 98 के बीच सरकारी विभागों में 16842 और निगमों/बार्डो में 6147 नौकरियां जांच के दायरे में लायी गयी थी। इनमें सरकारी विभागों में 1414 और निगमोें/ बार्डो में 239 नियुक्तियां शुद्ध राजनीतिक आधार पर हुई पायी गयी थी। लेकिन जब इस मामले में धूमल सरकार ने कारवाई नही की तब एस एम कटवाल ने एक याचिका डालकर मामलें को प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंचा दिया। उच्च न्यायालय के सामने जब जांच कमेटीयों की रिपोर्ट आई तब उसका कड़ा संज्ञान लेते हुए अदालत में स्पष्ट कहा कि प्ज पे दवज पद कपेचनज जींज उंल पससमहंस ंचचवपदजउमदज ींअम जंाम चसंबम इस मामले में चिटे देने वाले और उन पर नौकरी पाने वाले दोनों ही पूरी तरह चिन्हित थे लेकिन विजिलैन्स ने उच्च न्यायालय के आदेश पर 5.1.2006 को एफआईआर दर्ज करके सरकारी विभागों की 81 फाईलें और निगमों/बोर्डो की 32 फाईलें अपने कब्जे में ले ली। लेकिन सारा रिकार्ड कब्जे में नहीं ले पायी। शेष रिकार्ड के लिये 65 विभागों और 21 निगमों/बोर्डो को पत्र लिखे गये। लेकिन इस सबके वाबजूद यह पहला मामला है जिसमें उच्च न्यायालय की स्पष्ट और गंभीर टिप्पणीयों के वाबजूद अन्ततः परिणाम शून्य ही रहा है।