शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर कुलदीप राठौर की ताजपोशी के बाद सुक्खु वीरभद्र द्वन्द एक अलग ही अन्दाज में आ गया है क्योंकि इस ताजपोशी के बाद जहां वीरभद्र ने सुक्खु के खिलाफ अपनी भड़ास निकालते हुए भाषायी शालीनता की सारी हदें लांघ दी वहीं पर सुक्खु ने भी वीरभद्र पर हर चुनाव से पहले संगठन को ब्लैकमैल करने का ऐसा तीर छोड़ा है जिससे पूर्व मुख्यमन्त्री का सारा सियासी कुनबा इस कदर लहू लुहान हुआ है कि इसके जख्म देर तक रिसते रहेंगे। इस द्वन्द में पूरी पार्टी सुक्खु-वीरभद्र खेमों में बंटकर चौराहे पर आ खड़ी है। यह सही है कि वीरभद्र विधानसभा चुनावों से बहुत पहले सुक्खु को हटाने का मोर्चा खोल बैठे थे। इसमें वह वीरभद्र ब्रिगेड तक खड़ा करने पर आ गये थे। इसी का परिणाम था कि इस ब्रिगेड के अध्यक्ष बलदेव ठाकुर ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला तक दायर कर दिया जो अभी तक लंबित है। लेकिन यह सबकुछ कर लेने के बाद भी जब वह सुक्खु को हटवाने में सफल नही हो पाये तो शान्त होकर बैठ भी गये। सुक्खु के साथ पार्टी के अनुशासित सिपाही की तरह मंच भी सांझा करना पड़ा।
लेकिन इसी बीच जब वीरभद्र का अभियान फेल हो गया तब इसका लाभ उठाते हुए आनन्द शर्मा ने अपनी चाल चल दी। यह तय है कि देर सवेर अब सुक्खु को हटना ही था क्योंकि उनका कार्यकाल बहुत अरसा पहले ही खत्म हो चुका था। लोस चुनावों से पहले यह बदलाव होना ही था। इसको जानते हुए आनन्द शर्मा ने सुक्खु के बदलाव पर कुलदीप राठौर का नाम आगे कर दिया। इसके लिये आनन्द ने वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री और आशा कुमारी जैसे सारे बड़े नेताओं का कुलदीप के लिये समर्थन भी जुटा लिया। इन सबके समर्थन के परिणाम से हाईकमान ने राठौर के नाम पर अपनी मोहर लगा दी। हाईकमान का फैसला जैसे ही सार्वजनिक हुआ तो उसके बाद वीरभद्र सिंह के तेवर फिर बदल गये। सुक्खु पर नये सिरे से हमला बोल दिया। वीरभद्र के हमले का जवाब सुक्खु के समर्थकों ने भी उसी तर्ज में दिया। सुक्खु के समर्थन में भी पार्टी विधायकों/ पूर्व विधायकों /पूर्व अध्यक्षों का एक बड़ा वर्ग खुलकर सामने आ गया है। कई जिलों में पदाधिकारियों ने वीरभद्र की टिप्पणीयों के विरोध में त्यागपत्रा तक दे दिये हैं। वीरभद्र -सुक्खु के इस द्वन्द में पार्टी किस कदर दो हिस्सों में बंट गयी है इसका तमाशा तब सामने आ गया जब राठौर पार्टी कार्यालय पदभार संभालने पहुंचे। इस अवसर पर जब नारेबाजी हुई तो नौबत हाथापाई तक आ गयी और परिणामस्वरूप एक कार्यकर्ता को आईजीएमसी में भर्ती करवाना पड़ा। राठौर के पदभार समारोह में ही जब नौबत यहां तक आ गयी है तो आगे चलकर यह हालात कहां तक पहंुचेगें इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। अभी लोकसभा चुनावों के लिये पार्टी को तैयार होना है और सरकार के खिलाफ आक्रामकता अपनानी है लेकिन जो वातावरण पहले ही दिन सामने आ गया है उसको देखते हुए राठौर के लिये चुनावों में परिणाम दे पाना बहुत आसान नही लग रहा है। क्योंकि वीरभद्र सिंह मण्डी से चुनाव लड़ने को लेकर जिस तरह से तीन-चार बार ब्यान बदल चुके हैं उसके बाद उनकी नीयत और नीति को लेकर कई सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
वीरभद्र के इन बदले तेवरों से प्रदेश के प्रशासनिक और राजनीतिक हल्को में कयासों का दौर शुरू होना स्वभाविक है। प्रदेश के राजनीतिक पंडित जानते हैं कि जब 2012 में वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे तब उनके पक्ष में केवल आधे ही विधायक थे। लेकिन फिर भी उन्हें मुख्यमन्त्री बना दिया गया था। परन्तु उसके बाद जब पार्टी में ‘‘एक व्यक्ति एक पद’’ के केन्द्र के सिद्धान्त पर अमल करने की बात आयी थी तब उन्होंने इसका खुला विरोध किया था। बल्कि काफी समय तक इस कारण से मन्त्रीमण्डल के विस्तार में गतिरोध भी खड़ा हो गया था। इसी गतिरोध का परिणाम था कि आगे चलकर निगमों /बोर्डों में दर्जनों के हिसाब से ताजपोशीयां हो गयी जो विपक्ष के लिये एक बड़ा मुद्दा बन गयी। बल्कि यहां तक हालात पहुंच गये कि सरकार को ‘वृद्धाश्रम’ तक की संज्ञा दी गयी। इस परिप्रेक्ष में यदि वीरभद्र के सारे राजनीतिक कार्यकाल का आंकलन किया जाये तो यह सभी मानेंगे कि उन्होंने हर समय दबाव की राजनीति की है और इस दबाव में वह कई बार असफल भी रहे हैं। उनके ऐसे राजनीतिक रिश्तों का सबसे बड़ा उदाहरण विजय सिंह मनकोटिया रहा है जिसने एक समय पूरा एक सप्ताह वीरभद्र से प्रतिदिन पांच-पांच प्रश्न पूछे थे। वीरभद्र के शासनकाल में अपनों की गलतीयों पर कैसे आंखे बन्द कर ली जाती थी इसका सबसे बड़ा प्रमाण 24 सितम्बर 2018 को उनके भाई राज कुमार राजेन्द्र सिंह के मामले में आये सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के रूप में सामने आ चुका है। इस फैसले पर जयराम सरकार कब, कैसे और कितना अमल करती है इसका पता आने वाले दिनो में लग जायेगा।
इस परिदृश्य में राजनीतिक दलों के संगठन और उनकी सरकारों का आंकलन किया जाये तो यह सामने आता है कि अधिकांश में सरकार बनने के बाद संगठन बहुत हद तक अर्थहीन होकर रह जाते हैं। सरकारें ही संगठन का पर्याय बन जाती है और कांग्रेस के संद्धर्भ में तो यह बहुत स्टीक बैठता है। इसलिये आज जब सुक्खु और वीरभद्र के द्वन्द का आंकलन किया जाये तो वीरभद्र और मुख्यमन्त्री अध्यक्ष पर भारी पड़ते रहे हैं बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि कई बार सरकार के फैसलों की जनता में वकालत करना कठिन ही नही बल्कि असंभव हो जाता है। क्योंकि अधिकांश फैसले संगठन की राय के बिना ही ले लिये जाते हैं और जब जब सरकार और संगठन के बीच तालमेल गड़बड़ा जाता है तब तब निश्चित रूप से सरकारों की हानि होती है। सुक्खु और वीरभद्र के संद्धर्भ में भी यही हुआ है।
लेकिन इस समय राठौर के बनने के साथ ही वीरभद्र सिंह ने जिस तर्ज में हाईकमान को भी अपरोक्ष में कोसा है उससे कई सवाल खड़े हो गये हैं। राठौर विधायक नही हैं इस नाते वह विधायकों/मन्त्रीयों के बराबर नहीं आ पाते हैं। फिर जब संगठन की बागडोर किसी गैर विधायक को ही दी जानी थी तो क्या उसमें संगठन के वर्तमान पदाधिकारियों में से भी कोई नाम गणना में नही आना चाहिये था। इस समय संगठन में उपाध्यक्षों और महामन्त्रियों की एक लम्बी सूची है। कुछ तो ऐसे हैं जिन्हे हाईकमान ने विशेष रूप से नियुक्त किया है लेकिन इस समय वह गणना में नही आये। क्योंकि इस बार एक अकेले वीरभद्र सिंह ही नहीं बल्कि चार अन्य नेताओं का भी बदलाव के लिये दबाव रहा है। इस वस्तुस्थिति में यह पूरी संभावना बनी हुई है कि वीरभद्र -सुक्खु के इन तेवरों का अपरोक्ष में उन पदाधिकारियों के मनोबल पर भी प्रभाव पड़े जिन्हे गणना में नहीं लिया गया है। यह स्थिति नये अध्यक्ष के लिये एक बड़ी चुनौती होने जा रही है। इसमें कोई दो राय नही है।
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के पिछले करीब छः वर्ष से चले आ रहे अध्यक्ष ठाकुर सुखविन्दर सिंह सुक्खु को हटाकर कुलदीप सिंह राठौर को पार्टी की कमान सौंपी गयी है। कांग्रेस पार्टी में हुए इस बदलाव से प्रदेश के सियासी समीकरणों में भी बदलाव आनेे की संभावनाएं प्रबल हो गयी हैं। स्मरणीय है कि सुक्खु को हटाने के लिये वीरभद्र सिंह एक लम्बे अरसे से मुहिम छेड़े हुए थे लेकिन अब जब यह बदलाव आया है तब वीरभद्र सिंह इस मुहाने पर शांत चल रहे थे। बल्कि अब तो सुक्खु के साथ सार्वजनिक मंच भी सांझा करने लग गये थे। वीरभद्र में यह बदलाव पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद आया था। लेकिन इसी बीच आनन्द शर्मा ने अपने निकटस्थ कुलदीप राठौर को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की रणनीति तैयार कर ली क्योंकि सुक्खु का हटना सिन्द्धात रूप से तय था।
इसमें केवल यही शेष बचा था कि बदलाव लोकसभा चुनावों के बाद हो या पहले और इसकी जानकारी आनन्द शर्मा को थी। इस परिदृश्य में आनन्द को अपनी रणनीति को अमली जामा पहनाने का मौका मिल गया।
इसके लिये आनन्द ने वीरभद्र सिंह को भी राजी कर लिया। वीरभद्र सिंह ने भी कुलदीप राठौर के लिये अपनी सहमति जता दी क्योंकि वह अपने तौर पर सुक्खु को हटवाने में सफल नही हो पाये थे। इसलिये वीरभद्र सिंह के पास और कोई विकल्प शेष नही रह गया था। क्योंकि प्रदेश अध्यक्ष के लिये नये संभावितों में सबसे ऊपर आशा कुमारी का नाम चल रहा था लेकिन उनके खिलाफ प्रदेश उच्च न्यायालय में लंबित याचिका सबसे कड़ा व्यवधान बन रही थी। ऐसे में आनन्द शर्मा ने वीरभद्र के साथ ही आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री से भी राठौर के
लिये सहमति हासिल कर ली इस तरह प्रदेश के इन शीर्ष नेताओं की सहमति होने से पहली बार एक गैर विधायक/सांसद को यह जिम्मेदारी मिल गयी। यह सही है कि कांग्रेस के संगठन में एनएसयूआई से लेकर युवा कांग्रेस और मुख्य संगठन में बतौर महामन्त्री जिम्मेदारी निभा चुके राठौर के पास एक अच्छा अनुभव है। राठौर को कभी विधायक बनने के लिये पार्टी का टिकट नही मिल पाया है इसलिये उनके राजनीति आकंलन में चुनावी हार-जीत का मानक लागू नही होता। अब आने वाला लोकसभा चुनाव न केवल राठौर बल्कि आनन्द से लेकर वीरभद्र सिंह तक के लिये एक बड़ी परीक्षा सिद्ध होगा।
राठौर के अध्यक्ष बनने के साथ ही कांग्रेस के भीतरी समीकरणों में उथल -पुथल होनी शुरू हो गयी है। जब दिल्ली में इस बदलाव पर मोहर लगायी जा रही थी तब सुक्खु भी दिल्ली में ही मौजूद थे। सुक्खु ने दावा किया है कि बदलाव के लिये उनसे सहमति ली गयी थी। जब सुक्खु ने सहमति दे दी थी तो फिर उन्होंने उसी दिन प्रदेश की कुछ जिला इकाईयों में फेरबदल क्यों किया? क्या उस फेरबदल को नया अध्यक्ष यथास्थिति बनाये रखेगा यह राजनीतिक विश्लेषण की नजर से एक महत्वपूर्ण सवाल है। इस पर राठौर का रूख क्या रहता है इसका पता आने वाले दिनो में लगेगा। इसी के साथ एक सवाल वीरभद्र सिंह को लेकर भी खड़ा हो गया है। इस बदलाव के बाद वीरभद्र सिंह ने फिर कहा है कि वह स्वयं चुनाव न लड़कर दूसरों से चुनाव लड़वायेंगे। वीरभद्र सिंह का यह ब्यान फिर उसी तर्ज पर आया है जब उन्होंने यह कहा था कि मण्डी से कोई भी मकरझण्डू चुनाव लड़ लेगा। यही नहीं उन्होंने हमीरपुर और कांगड़ा से पार्टी के संभावित उम्मीदवारों के तौर पर हमीरपुर से राजेन्द्र राणा के बेटे और कांगड़ा से सुधीर शर्मा का नाम उछाल कर पार्टी मे कई चर्चाओं को जन्म दे दिया था। वीरभद्र के इस ब्यान पर जब प्रदेश प्रभारी रजनी पाटिल की कड़ी प्रतिक्रिया आयी तब वीरभद्र ने मण्डी जाकर स्वयं चुनाव लड़ने की सहमति जता दी। वीरभद्र कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं में आते हैं और प्रदेश में छः बार मुख्यमन्त्री रह चुके हैं। ऐसे में उनके हर ब्यान के राजनीतिक अर्थ देखे जाने स्वभाविक हैं। क्योंकि आज भी प्रदेश में जब किसी राजनेता के जनाधार का आंकड़ा देखा जाता है तो उस गिनती में उनका पहला स्थान आता है। लेकिन अभी थोड़े ही अन्तराल में वीरभद्र जैसे नेता का तीन बार ब्यान बदलना अपने में बहुत कुछ कह जाता है।
यह सही है कि इस समय वीरभद्र आयकर सीबीआई और ईडी के मामलें झेल रहे हैं। सीबीआई अदालत में आये से अधिक संपत्ति मामले में वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह और छः अन्य आरोपियों के खिलाफ आरोप तय हो गये हैं। 29 जनवरी को वीरभद्र सिंह आनन्द चौहान और प्रेम राज के खिलाफ आरोप तय होंगे। इससे पहले प्रतिभा सिंह के साथ चुन्नी लाल, जोगिन्द्र सिंह धाल्टा, लवण कुमार, राम कुमार भाटिया और वक्कामुल्ला चन्द्रशेखर के खिलाफ आरोप तय हो चुके हैं। वीरभद्र के खिलाफ आरोप तय होने के बाद वह चुनाव लड़ने के लिये अपात्र नही हो जाते हैं। जब सीबीआई ने उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला बनाया था तब इस मामले का अदालत में आना तय था और यह आरोप तय होना प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिये यह नही माना जा सकता कि इसके दबाव में वीरभद्र अपने ब्यान बदल रहे हों। वीरभद्र, जयराम के प्रति अभी तक कोई ज्यादा आक्रामक नही रहे हैं इसी के साथ यह भी एक सच्च है कि इस समय कांग्रेस के पास मण्डी से वीरभद्र स्वयं या उनके परिवार के किसी सदस्य से ज्यादा उपयुक्त उम्मीदवार नही हो सकता।
इस वस्तुस्थिति में कांग्रेस के नये अध्यक्ष के लिये वीरभद्र सिंह को मण्डी से चुनाव लड़ने के लिये राजी करना पहली आवश्यकता होगी। क्योंकि मण्डी मुख्यमन्त्री जयराम का अपना जिला है। इसलिये अपने नेतृत्व को समर्थन देना एक व्यवहारिक सच्चाई हो जाती है। ऐसे जयराम को मण्डी में ही घेरे रखने के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि कांग्रेस वहां से वीरभद्र जैसे नेता को ही मैदान में उतारे।
इसी के साथ कांग्रेस को सरकार के खिलाफ भी अपनी आक्रामकता को तेज करना होगा। लेकिन जो आरोप पत्र अभी कांग्रेस, सरकार के खिलाफ लेकर आयी है उस स्तर की आक्रामकता से चुनावी सफलता हालिस कर पाना संभव नही होगा। इस तरह नये अध्यक्ष के लिये पार्टी के सारे नेताओं को साथ लाकर चलना और सरकार के खिलाफ गंभीर रूप से आक्रामक हो पाना बड़ी चुनौतियां मानी जा रही है।
यही नही वीरभद्र सिंह ने सुक्खु को औरंगजेब करार देकर एक बार फिर हाईकमान पर सवाल उठा दिये हैं क्योंकि यदि सुक्खु छः वर्ष तक अध्यक्ष रहे हैं तो ऐसा हाईकमान की मंशा से ही संभव हुआ है। ऐसे में जब सुक्खु के हमीरपुर से लोकसभा प्रत्याशी होने पर पूछा गया तो उनका यह कहना कि हाईकमान में कोई इतना मूर्ख नही हो सकता है, वीरभद्र इसी पर नही रूके बल्कि यहां तक कह दिया कि कुछ लोगों का वश चले तो वह नौकर को भी टिकट दिला दें। वीरभद्र के ऐसे ब्यान निश्चित रूप से पार्टी को कमजोर बनाते हैं। भाजपा को कांग्रेस की एकजुटता पर तंज कसने का मौका मिल जाता है। जबकि इस समय हाईकमान ने नये अध्यक्ष को कमान संभाली है तब वीरभद्र जैसे बड़े नेता के ऐसे ब्यान अध्यक्ष के लिये परेशानी खड़ी करने वाले साबित होंगे।
दूसरी ओर सुक्खु ने भी वीरभद्र को जवाब देते हुए यह गंभीर आरोप लगाया है कि हर चुनाव से पहले वह पार्टी को ब्लैक करते आये हैं। सुक्खु ने सीधे आरोप लगाया है कि वीरभद्र के मुख्यमन्त्री रहते जो भी चुनाव पार्टी ने लड़े हैं वह सब हारे हैं। सुक्खु ने सवाल किया है कि वीरभद्र आज तक एक बार भी पार्टी को सत्ता में रिपीट क्यों नहीं कर पाये हैं। वैसे वीरभद्र सिंह ने जिस तरह से 1983 से पहले तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. ठाकुर रामलाल के खिलाफ फोरेस्ट माफिया को लेकर पत्र लिखा था और फिर 1993 में पंडित सुखराम को रोकने के लिये विधानसभा का घेराव तक करवा दिया था उससे खुक्खु के आरोपों में बहुत दम दिखाई देता है। अभी पिछले कार्यकाल में भी कांग्रेस के अधिकांश चुनाव क्षेत्रों में समानान्तर सत्ता केन्द्र खड़े कर दिये थे जो पार्टी के हार के कारण बने हैं। इस परिदृश्य में वीरभद्र की अब शुरू हुई ब्यानबाजी से भी निश्चित रूप से संगठन को नुकसान होगा यह तय है।
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश में किसी भी गैरकृषक के लिये भूमि खरीदने पर प्रतिबन्ध है। ऐसी खरीद के लिये पहले सरकार से भू राजस्व अधिनिमय की धारा 118 के तहत अनुमति चाहिये। कोई भी संस्था /सभा चाहे वह सहकारी नियमों या अन्य के तहत पंजीकृत हो वह गैर कृषक परिभाषा में आती है यह नियमों में पूरी सपष्टता के साथ परिभाषित है। इसमें किसी को कोई छूट नही है। प्रदेश में भू राजस्व अधिनियम की धारा 118 की उल्लघंना के मामले कई बार चर्चा में आ चुके हैं और इस पर जांच आयोग तक बैठ चुके हैं। इन आयोगों की रिपोर्ट विधानसभा तक में चर्चा में रही है। आज भी इस धारा की उल्लघंना को लेकर हर विपक्ष हर सत्ता पक्ष पर हिमाचल बचेने के आरोप लगाता आया है। धारा 118 में अनुमति लेकर खरीदी गयी जमीन को दो वर्ष के भीतर उपयोग में लाना होता है और ऐसा न हो पाने पर यह अनुमति रद्द हो जाने का प्रावधान है लेकिन इस प्रावधान पर अमल कई बड़े लोगों के मामले मे नही हुआ है इसके भी कई मामले सामने हैं। सोलन में प्रदेश के एक बड़े आईएएस अधिकारी ने वर्षों पहले 118 की अनुमति लेकर जमीन खरीदी थी जिस पर आज तक कोई मकान आदि नही बना है। यह मामला सचिवालय के वरिष्ठ अधिकारियों के संज्ञान में है लेकिन इस पर आजतक कोई कारवाई नही हुई है। यह अधिकारी इस समय भारत सरकार में सेवाएं दे रही है।
अभी पिछले दिनों शिमला की सनातन धर्मसभा द्वारा 1992 में लीज पर स्कूल भवन बनाने के लिये सनातन धर्म स्कूल के सामने 3744 वर्ग गज जमीन ली गयी थी। इस पर दो वर्ष के भीतर स्कूल भवन बनाया जाना था। लेकिन अब 2018 में इस जगह पर स्कूल की जगह होटल नुमा सरायं बन गयी है और मजदूर कानून कुछ नही कर पा रहा है। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय ने जनवरी 2013 में दिये एक फैसले में विलेज काॅमन लैण्ड के हर तरह के आवंटन पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और ऐसे आवंटन के लिये सारी राज्य सरकारों द्वारा बनाये गये नियमों /कानूनों को एकदम गैर कानूनी करार देकर इस तरह के आवंटनो को रद्द करने के आदेश किये हुए हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश को अंगूठा दिखाते हुए ऐसे आवंटन किये जा रहे हैं। इसमें ताजा मामला मातृवन्दना को दी गयी करीब 30 बीघे जमीन का सामने आ चुका है। लेकिन यहां पर भी कारवाई के नाम पर कानून बेबस हो गया है।
इसी कड़ी में सबसे चौंकाने वाला सच तो सहकारी हाऊसिंग सभाओं के रूप में सामने आया है। प्रदेश में चम्बा, लाहौल स्पिति और किन्नौर को छोड़कर हर जिले में सहकारी हाऊसिंग सभाएं पंजीकृत हैं। एक आरटीआई के तहत आयी सूचना के अनुसार इस समय प्रदेश में करीब 90 ऐसी संस्थाएं पंजीकृत है। इस सूचना के अनुसार ऊना मे आठ, देहरा-2, बिलासपुर-3, नूूरपुर 2, हमीरपुर-2, धर्मशाला-5, मण्डी-5, कुल्लु-2, सोलन-14, जुब्बल -14, रोहडू-1 और शिमला में 33 ऐसी संभाएं पंजीकृत हैं। इसमें सिरमौर की सूचना अभी तक नही आ पायी है। पंजीकृत संभाओं के इस आंकड़े को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में हाऊसिंग का काम बड़े पैमाने पर हो रहा है और इसके लिये सहकारिता नियमों के तहत पंजीकरण का भी पूरा लाभ उठाया जा रहा है। क्योंकि पंजीकृत सभाओं के लिये सरकार से भी जमीन लेने का प्रावधान नियमों में उपलब्ध है। इसका लाभ उठाकर कितनी सभाओं ने सरकार से जमीन ले रखी है इसके आंकड़े अभी सामने नही आये हैं। लेकिन निश्चित रूप से ऐसी कई सभाएं हैं जिन्होंने सरकार से जमीन ले रखी है। ऐसी कितनी सभाओं ने भू-राजस्व अधिनियम की धारा 118 के तहत जमीन खरीद की अनुमति ले रखी है इसकी कोई पुख्ता जानकारी संबंधित विभागों के पास उपलब्ध नही है। इससे यहआशंका पुख्ता हो जाती है कि सहकारिता के नाम पर 118 की अनुमति के संद्धर्भ में कोई बड़ा घपला हो रहा है। कई ऐसी सभायें भी सामने आयी हैं जिन्होंने पंजीकरण तो हाऊसिंग के नाम पर करवा रखा है लेकिन काम कुछ ओर किया जा रहा है।
आरटीआई के तहत आयी सूचना के तहत शिमला में 33 सहकारी हाऊसिंग सभाएं पंजीकृत है। इनमें से 12 सभायें डिफ्ंकट हो चुकी है। इन पर नियमों की अनुपालना न करने के भी आरोप हैं। इन सभाओं में से सात तो दिवालिया प्रक्रिया से गुजर रही हैं। इस प्रक्रिया में चल रही सभाओं में शिवालिक हाऊसिंग सोसायटी संजौली, सतलुज जलविद्युत निगम बीसीएस शिमला, हिमाचल राजभवन कर्मचारी हाऊस बिल्डिंग सोसायटी, इंण्डियन एक्स सर्विस मैन वैल्फेयर हाऊसिंग सोसायटी संजौली, दी एक्सचेंज हाऊस बिल्डिंग सहकारी सभा निकट लिफ्ट, पदकम नगर हाऊस बिल्डिंग सोसायटी रामपुर और हि.प्र. एजी आफिसरज़ सहकारी हाऊसिंग सोसायटी बेमलोई शिमला शामिल है। दिवालिया प्रक्रिया से गुजर रही सोसायटीयों के लेखे-जोखों को लेकर कई विवाद चल रहे हैं। शिमला की इन सोसायटीयों को लेकर एक रोचक जानकारी यह सामने आयी है कि सतलुज जल विद्युत निगम के नाम पर दो सभाएं पंजीकृत हैं और दोनो ही दिवालिया प्रक्रिया में हैं। इसमें पत्रकारों की भी दो सभाएं पंजीकृत हैं। इनमें एक एचपी मीडिया पर्सन हाऊस बिल्डिंग सहकारी सोसायटी अल मंजिल यूएस क्लब गेट शिमला और शिमला जर्नलिस्ट हाऊस बिल्डिंग सोसायटी दी माल के नाम से पंजीकृत है। इसी तरह आईएएस, आईएफएस और जजों की भी हाऊसिंग सोसायटीयां पजींकृत है। जिन सोसायटीयों ने सरकार से जमीने ले रखी हैं उनमें आई ए एस अधिकारी भी शामिल हैं। इनमें कई ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने यहां मकान बनाकर आगे बेच भी दिये हैं जो शायद नियमों के विरूद्ध हैं। आई ए एस सोसायटी में तो गैर आईएएस को सदस्य बनाने का भी प्रावधान नही है। लेकिन चर्चाओं के मुताबिक अब कुछ गैर आईएएस को भी मकान बेच दिये गये हैं जो सीधे नियमों के विरूद्ध है लेकिन यहां भी कानून बेबस हो गया है।



शिमला/शैल। क्या भाजपा में गुटबन्दी सुलगना शुरू हो गयी है? यह सवाल सरकार द्वारा धर्मशाला में एक साल पूरा होने के मौके पर मनाये गये जश्न के बाद अचानक चर्चा में आ गया है। क्योंकि इस मौके पर शान्ता, धूमल और नड्डा को मंच से जनता को संबोधित करने का अवसर नही मिल पाया। यही नही इस अवसर पर जो प्रदर्शनी आयोजित की गयी थी उसमें प्रधानमन्त्री के साथ जे.पी. नड्डा तक शामिल नही हो पाये। क्योंकि प्रधानमन्त्री के साथ प्रदर्शनी में कौन साथ रहेगा और मंच कौन -कौन सांझा करेगा इसकी सूची राज्य सरकार तैयार करके पीएमओ तथा एसपीजी को भेजती है। सूत्रों के मुताबिक राज्य सरकार की सूची में नड्डा का नाम ही शामिल नही किया गया था। इस
कारण से नड्डा यह प्रदर्शनी देखने और इसमें बुलाये गये लाभार्थियों को नही मिल पाये। नड्डा का नाम राज्य की सूची से जानबुझ कर बाहिर रखा गया या अनजाने में छूट गया इसको लेकर कई तरह के कयास लगाये जा रहे हैं। लेकिन यह जो कुछ भी घटा है उसका संदेश बहुत ज्यादा सकारात्मक नही गया है। क्योंकि इस रैली के मंच से मोदी के आने के बाद केवल दो ही भाषण हुए। एक जयराम का और दूसरा स्वयं मोदी का। यहां तक की धन्यवाद भाषण भी नही हुआ। यह सब जितनी जल्दी निपटाया गया उसके लिये उसी दिन संसद में तीन तलाक पर बहस और मतदान से पहले संसद में पहुंचने का कवर लिया गया। लेकिन यहां समय इतना भी कम नही था कि शान्ता और धूमल से दो-दो मिनट का संबोधन न करवाया जा सकता था। यही नही मोदी ने भी अपने भाषण में शान्ता-धूमल का केवल रस्मी तौर पर ही नाम लिया। जबकि पहले मोदी शान्ता-धूमल की सरकारों के वक्त हुए काम का जिक्र जरूर किया करते थे। लेकिन इस बार मोदी का पूरा फोक्स जयराम पर ही रहा। जयराम के एक वर्ष में अनेकों विकास योजनाएं बनी है यह कह कर मोदी ने यह साफ संकेत दिया कि अब उनके लिये हिमाचल में जयराम ही सब कुछ हैं। वह जयराम को अपना परम मित्र बता गये। जयराम ने भी इसके बदले में मोदी को आश्वस्त कर दिया कि वह हर मोर्चे पर उनके साथ खड़े मिलेंगे। मोदी हिमाचल के प्रभारी भी रहे चुके हैं और इस दौरान जो जो मोदी के घनिष्ठ रहे हैं उन्हें जयराम ने भी 32 सदस्यी योजना आयोग में स्थान देकर स्पष्ट कर दिया है कि वह मोदी की अपेक्षाओं पर पूरे खरे उतरेंगे।
धर्मशाला की रैली के इस सारे घटनाक्रम से यह साफ हो जाता है कि मोदी जयराम को प्रदेश में खुला हाथ दे गये हैं। इस नाते अब प्रदेश से चारों लोकसभा सीटें जीत कर मोदी के हाथ मजबूत करना जयराम की नैतिक और व्यक्तिगत जिम्मेदारी बन जाती है। आगे लोकसभा के लिये उम्मीदवार कौन होंगे यह तय करने में भी जयराम की भूमिका अहम होगी। क्या पूराने ही उम्मीदवार फिर से मैदान में होंगे या कोई नये चेहरे होंगे यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा। यह साफ हो गया है कि लोकसभा जीतना अब केवल जयराम की ही जिम्मेदारी होगी। लेकिन क्या जयराम मोदी की अपेक्षाओं पर खरे उतर पायेंगे यह एक बड़ सवाल बनता जा रहा है क्योंकि इस समय जयराम की सरकार पर सबसे जयादा प्रभाव विद्यार्थी परिषद और आरएसएस का माना जा रहा है। क्योंकि मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर तथा पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष सतपाल सत्ती और कई अन्य मंत्री स्वयं विद्यार्थी परिषद के नेता रह चुके हैं। इस नाते विद्यार्थी परिषद का वर्तमान नेतृत्व भी सरकार पर पूरा दखल बनाये हुए है। प्रदेश के संघ प्रमुख संजीवन तो सचिवालय में अधिकारियों और मन्त्रियों के साथ बैठक में भाग ले चुके हैं इसी के साथ मुख्यमन्त्री के गिर्द कुछ अधिकारियों का भी पूरा घेरा है। मुख्यमन्त्री के विश्ववस्त पत्रकार इन अधिकारियों की प्रशसां के पुल भी बांध चुके हंै। भले ही स्तुतिगान के बाद अन्य अधिकारियों ने नियमों के दायरे में रह कर सरकार के आदेशों की अनुपालना करने की नीति अपना ली है। इस तरह मुख्यमन्त्री के गिर्द घेरा डाले बैठे कुछ अधिकारी और कुछ पत्रकारों का दखल आज सबकी चर्चा का विषय बना हुआ है।
इस परिदृश्य में यह बड़ा सवाल हो जाता है कि क्या यह सब लोग मिलकर जयराम और भाजपा को प्रदेश की चारों लोकसभा सीटें दिला पायेंगे? इसके लिये यदि एक साल पर नज़र दौड़ाएं तो सबसे पहले यह आता है कि जब जयराम ने सत्ता संभाली थी तब प्रदेश का कर्जभार 45000 करोड़ था जो अब 50973 करोड़ को पहुंच गया है । इस एक वर्ष में सरकार कितनों को रोज़गार दे पायी है इसका पता इसी से चल जाता है कि आज शिक्षा विभाग के अध्यापकों के खाली पद उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद नही भरे जा सके हैं। बिजली बोर्ड में आऊट सोर्स के लिये टैण्डर आने के बाद भी कुछ फाइनल नही हो पाया है। हर विभाग में कोई भी रिक्त पद भरने के लिये मन्त्रीमण्डल की बैठक में प्रस्ताव लाये जाते हैं। जबकि यह एक सतत प्रक्रिया है जो स्वतः ही चलती रहनी चाहिये। इससे यह सामने आता है कि अधिकारी हर छोटे काम पर भी कबिनेट की मोहर लगवा रहे हैं जो एक तरह से सरकार पर विश्वास की कमी को दिखाता है। मुख्यमन्त्री ने अपने बजट भाषण में जिन नयी योजनाओं को शुरू करने की बात की थी उनमें से अभी अधिकांश की अधिसूचनाएं तक जारी नही हुई हैं। ऐसे में केन्द्र से जो राष्ट्रीय उच्च मार्ग प्रदेश को मिलने का दावा किया गया था वह अब महज जुमला साबित होने वाला है। इसी तरह जिन नौ हजार करोड़ की योजनाओं के केन्द्र से मिलने का दावा मुख्यमन्त्री और जेपी नड्डा करते आये हैं उनकी व्यवहारिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगने का खतरा मडराता नजर आ रहा है। क्योंकि यह सारी योजनाएं एडीवी से पोषित होनी है और पर्यटन के मामले में एडीवी ने जो नाराजगी जाहिर की है उसका असर इन योजनाओं पर पड़ने की पूरी संभावना है। भ्रष्टाचार के मामले में जो सरकार अपनी ही पार्टी के आरोप पत्र पर गंभीर न हो वह अन्य मामलों में क्या करेगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इस वस्तुस्थिति में लोकसभा चुनावों में सफलता मिलना लगातार संदिग्ध होता जा रहा है और इस परिदृश्य में जयराम की चुनौतीयां बढ़ती जा रही है।
शिमला/शैल। शिमला के माल रोड पर बन रहे कालरा कम्पलैक्स का अन्ततः नगर निगम शिमला के आयुक्त की अदालत ने बिजली पानी काटने के आदेश सुनाने के साथ ही इस पर पचास हजार का जुर्माना भी लगा दिया है। यही नही इसके निर्माण पर भी रोक लगा दी है और अपने आदेशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये यहां पर इसी व्यवसायी के खर्च पर निगम का कर्मचारी भी तैनात कर दिया है। अभी यह कम्पलैक्स निर्माणाधीन स्टेज के दायरे में आता है और निगम के नियमों के मुताबिक ऐसे निर्माण में कोई व्यवसायी गतिविधियां शुरू नही की जा सकती हैं। लेकिन निगम के नियमों को नजरअन्दाज करते हुए यहां पर सरेआम व्यवसायी गतिविधियां भी चल रही हैं। निगम कोर्ट के फैसले पर अमल करते हुए बिजली बोर्ड ने यहां की बिजली जो काट दी है लेकिन बिजली काटने के बाद यहां पर जैनरेटर से काम चलाया जा रहा है लेकिन यहां पर एक रोचक सवाल यह खड़ा हो गया है कि बिजली काटने के आदेश कोई बिल की अदायगी न हो पाने के कारण नही हुए हैं बल्कि यह निर्माण स्वीकृत नक्शे के अनुरूप न होने पर सज़ा के तौर पर हुए हैं। अब इस काॅम्पलैक्स में जैनरेटर से बिजली दी जा रही है ऐसे में इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है कि इस पर क्या प्रावधान समाने आता है।
कालरा काॅम्पलैक्स माल रोड़ पर स्थित है और यह हैरिटेज जोन में आता है। इस क्षेत्र में प्रदेश सरकार ने वर्ष 2000 से ही नये निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा रखा है। सरकार के इसी प्रतिबन्ध पर एनजीटी ने दिसम्बर 2017 में दिये फैसले में मोहर लगा दी है। एनजीटी के फैसले का अनुमोदन सर्वोच्च न्यायालय भी कर चुका है। प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी पिछले दिनों अवैध निर्माणों का कड़ा संज्ञान लेते हुए इनके बिजली, पानी काटने के आदेश किये हुए हैं और इन आदेशों की अनुपालना भी हुई है। इस तरह यह कालरा काॅम्पलैक्स हैरिटेज जोन में आता है और यहां पर केवल ओल्ड लाईनज़ पर ही निर्माण करने की अनुमति है। यहां पर भी गौरतलब है कि यहां के पुराने भवन में 1991 में आग लगी थी। उसके बाद जब यहां पर पुनः निर्माण की बात आयी थी तब यह मामला प्रदेश उच्च न्यायालय तक पहुंच गया था और अदालत ने नये निर्माण के लिये कुछ शर्ते लगा दी थी। तब इन शर्तों पर अमल न हो पाने के कारण यहां कोई निर्माण नही हो पाया था।
उसके बाद यह काॅम्पलैक्स कालरा के पास आ गया और 25.5.2008 को इसके निर्माण का नक्शा पास करवाया गया। अब जब सरकार ने वर्ष 2000 में ही हैरिटेज जोन में नये निर्माणों पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया था तब स्वभाविक है कि इसका नक्शा भी ओल्ड लाईनज पर ही स्वीकृति हुआ होगा। लेकिन अब जब यह निर्माण सामने आया तब इस पर स्वीकृत नक्शें से हटकर निर्माण करने के आरोप लगने शुरू हो गये। इन आरोपों का संज्ञान लेते हुए निगम ने कालरा को कारण बताओ नोटिस जारी करते हुए तुरन्त प्रभाव से काम बन्द करने के आदेश दिये। लेकिन इन आदेशों पर कोई अमल नही हुआ। निगम ने पहला नोटिस 11-7-2018 और अन्तिम नोटिस 2-11-18 को दिया तथा इस तरह चार नोटिस दिये। इस निर्माण में स्वीकृत नक्शे से हटकर कितना निर्माण हुआ है इस पर संबंधित जेई से लेकर निगम के वास्तुकार तक से रिपोर्टे ली गयी। जब लगातार नोटिस दिये जाने के बाद भी काम बन्द नही किया गया तब यह मामला आयुक्त की कोर्ट में आया और अन्ततः यह फैसला सुनाया गया। इस फैसले की अपील की जा रही है। अब सबकी नज़रें इस अपील पर आने वाले फैसले पर लगी हैं।
स्मरणीय है कि इस समय नगर निगम के पास इस तरह के निर्माणों के 960 मामले लंबित हैं इनमें कई मामले तो ऐसे भी है जहां पर रिटैन्शन पाॅलिसी आने के बाद निर्माण बढ़ाये गये हैं लेकिन संयोगवश ऐसे निर्माणों की कम्पलीशन रिपोर्ट न तो गिनम में दायर हो पायी और न ही स्वीकृत हो पाये। अब एनजीटी का फैसला उन्ही निर्माणों पर लागू नही होगा। जिनकी कम्लीशन फैसला आने तक स्वीकार हो चुकी है अन्य पर नही। ऐसे में कालरा कम्पलैक्स के मामले में सबकी निगाहें इस पर लगी है कि निर्माणों में अवैधतता को रोकने के लिये अदालत, प्रशासन और सरकार क्या रूख अपनाते हैं क्योंकि कालरा को सरकार का नजदीकी माना जाता है।


