शिमला/शैल। कांगे्रस के मण्डी और शिमला से उम्मीदवारों की हाईकमान द्वारा घोषणा के बाद अब प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने शिमला में आयोजित एक प्रेस वार्ता में कांगड़ा से पवन काजल की उम्मीदवारी का भी ऐलान कर दिया है। राठौर के इस ऐलान के बाद अब केवल हमीरपुर से उम्मीदवार की घोषणा होना बाकी है। हमीरपुर से भाजपा ने वर्तमान सांसद पूर्व मुख्यमन्त्री के बेटे अनुराग ठाुकर को फिर से उम्मीदवार बनाया है। भाजपा ने कांगड़ा और शिमला से उम्मीदवार बदले हैं जबकि प्रदेश चुनाव कमेटी ने सभी वर्तमान चारो सांसदों के फिर से उम्मीदवार बनाने की संस्तुति की थी। प्रदेश कमेटी की इस संस्तुति के बावजूद दो उम्मीदवारों का बदलना जिनमें शान्ता जैसा बड़ा नाम भी शमिल है यह स्पष्ट करता है कि भाजपा हाईकमान की प्रदेश को लेकर मिली सर्वे रिपोर्टाें के अनुसार हिमाचल 2019 में 2014 की तरह सुरक्षित नही रह गया है। इन्ही रिपोर्टों के कारण भाजपा ने प्रदेश के चुनाव प्रचार की कमान पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल को सौंपी है। क्योंकि जब शान्ता कुमार को टिकट नही दिया गया है तो यह स्वभाविक है कि इस चुनाव में उनकी पहले जैसी सक्रीयता नही रह जायेगी। शान्ता ने टिकट कटने को गंभीरता से लिया है। सभी जानते हैं कि इस फैसले से पहले उनकी राय नही ली गयी थी। इस तरह इस चुनाव में भाजपा में धूमल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
ऐसे में जब हमीरपुर से धूमल का अपना बेटा उम्मीदवार है तब स्वभाविक है कि कांग्रेस उन्हें हमीरपुर में ही बांध कर रखना चाहेगी। क्योंकि प्रदेश भाजपा के पास आज भी धूमल से बड़ा कोई नाम नही है। क्योंकि यह धूमल ही थे जिन्होंने अपनी रणनीति से वीरभद्र को अपने दोनों शासनकालों मे ऐसे बांध कर रखा कि आज तक वीरभद्र उस दंश को नही भूल पाये हैं। संभवतः यही कारण है कि हमीरपुर से कांग्रेस के सारे बड़े नेता उम्मीदवार बनने से बचना चाहते रहे हैं। कांग्रेस के इस क्षेत्र के बडे़ नेताओं के साथ धूमल के अपरोक्ष में कैसे रिश्ते रहे हैं यह पूर्व में उस समय सामने आ चुका है जब कांग्रेस ने यहां से एक बार क्रिकेटर मदन लाल को प्रत्याशी बनाने का प्रयास किया था। संभवतः यह रिश्ते एक बार फिर सक्रिय भूमिका में आ चुक हैं और इन्ही के कारण हमीरपुर के टिकट का फैसला अभी तक नही हो पाया है। इस समय हमीरपुर से भाजपा के तीन बार सांसद रह चुके सुरेश चन्देल ने कांग्रेस में जाने और फिर कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के संकेत दिये हैं। इन संकेतो के बाद भाजपा ने चन्देल को रोकने के पूरे प्रयास किये हैं। सत्तपाल सत्ती और जयराम ने चन्देल से बैठक की है। इनके बाद अमितशाह से भी चन्देल की बैठक करवाई गयी लेकिन इन सारे प्रयासों का कोई सार्थक परिणाम नही निकल पाया। परन्तु इस सबसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि यदि कांग्रेस चन्देल को उम्मीदवार बना लेेती है तो वह धूमल को हमीरपुर में ही बांधे रखने में बहुत हद तक सफल हो जाती है।
इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि कांग्रेस हाईकमान ने अभी तक चन्देल का विकल्प खुला रखा है। क्योंकि आज जब सुक्खु ने एक साक्षात्कार के माध्यम से हमीरपुर से उम्मीदवार बनने की हामी भरी है उससे यह स्वभाविक सवाल उठता है कि प्रदेश के पूर्व अध्यक्ष को एक अखबार में साक्षात्कार के माध्यम से उम्मीदवार होने की बात क्यों करनी पड़ रही है। क्या वह कांगे्रस के कार्यकर्ताओं को यह बताना चाह रहे हैं कि उनकी नीयत पर शक न किया जाये। यदि सुक्खु सही में उम्मीदवार होने के लिये तैयार थे तो उन्हें यह सब चन्देल के नाम की चर्चा उठने से पहले ही कर देना चाहिये था आज जिस हद तक चन्देल का कांग्रेस में आना चर्चित हो चुका है। उसके बाद इसका रूकना चन्देल से ज्यादा कांग्रेस की सेहत के लिये ठीक नही रहेगा। क्योंकि जब कांगे्रस सुखराम को लेने के बाद उनके पौत्र को इसलिये टिकट दे सकती है कि इससे जयराम को उसी के जिले में झटका दिया जा सकता है। तब उसी गणित से चन्देल को शामिल करके हमीरपुर से उम्मीदवार बनना एक कारगर रणनीति की मांग हो जाती है। इस तरह आज कांग्रेस की पूरी रणनीति की परीक्षा हमीरपुर का फैसला बन गयी है और यह तय है कि इस फैसले का असर प्रदेश की चारों सीटों पर पड़ेगा।
शिमला/शैल। भाजपा ने प्रदेश की चारों लोकसभा सीटों के लिये उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। इस ऐलान के तुमाबिक कांगड़ा से शान्ता कुमार की जगह अब जयराम के मन्त्री किश्न कपूर को उम्मीदवार बनाया गया है। शिमला आरक्षित सीट से ‘‘ कैश आन कैमरा’’ का मामला झेल रहे वीरेन्द्र कश्यप का टिकट काट कर उनकी जगह पच्छाद के विधायक सुरेश कश्यप को टिकट दिया गया है। हमीरपुर और मण्डी से पुराने ही चेहरों को चुनाव में उतारा गया है। भाजपा की इस सूची के बाहर आते ही यह चर्चा शुरू हो गयी है कि क्या इन चेहरों के सहारे भाजपा 2014 की तरह फिर से चारों सीटों पर कब्जा कर पायेगी या नही। इसका सही आकलन तो प्रतिद्वन्दी कांगे्रस की टीम की घोषणा के बाद ही किया जा सकेगा। लेकिन इससे हटकर भी यह सवाल अपनी जगह खड़ा रहता है कि भाजपा के इन उम्मीदवारों की अपनी-अपनी मैरिट क्या है। क्योंकि ऐसा नही है कि बदले गये उम्मीदवारों के स्थान पर लाये गये लोग पहली बार चुनाव का समाना कर रहे हों। किश्न कपूर वरिष्ठ मन्त्री हैं और लम्बे समय से विधायक चुनकर आ रहे हैं। बतौर मन्त्री भी उनके विभाग को लेकर लोगों में कोई बहुत ज्यादा शिकायतें नही हैं। सुरेश कश्यप भी इस समय विधायक हैं। हां, वह विधायक के नाते कोई बहुत ज्यादा अनुभवी नही हैं। अभी संपन्न हुए बजट सत्र में उनके नाम से केवल आठ प्रश्न सदन में आये हैं और इन प्रश्नों में भी उनका फोकस अपने विधानसभा क्षेत्र तक ही सीमित रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें पूरे शिमला संसदीय क्षेत्र की भी अपने स्तर पर सीधी जानकारी नही रही होगी। जबकि मण्डी के रामस्वरूप शर्मा मौजूदा सांसद भी हैं और इससे पहले पार्टी के प्रदेश संगठन मन्त्री भी रह चुके हैं इस नाते उन्हें अपने चुनाव क्षेत्र में परिचय की आश्वयकता नही है। इसी तरह हमीरपुर से अनुराग ठाकुर की स्थिति है वह चैथी बार सांसद बनने जा रहे हैं। क्रिकेट में जितना काम उन्होने पूरे प्रदेश में किया है उसकी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी एक अलग ही पहचान है। फिर धूमल की विरासत उनकी एक बहुत बड़ी धरोहर है। इस नाते अनुराग ठाकुर सबसे सशक्त उम्मीदवार माने जा रहे हैं।
लेकिन इस सबके बावजूद आज यह दावे से नही कहा जा सकता कि भाजपा को चारों सीटों पर सफलता मिल ही जायेगी। क्योंकि यह जग जाहिर है कि कांगड़ा से शान्ता कुमार का टिकट अन्तिम क्षणों में काटा गया। मुख्यमन्त्री जयराम की मुलाकात के बाद वह यह ब्यान देने पर राज़ी हुए कि वह चुनाव नही लड़ना चाहते। सब जानते है कि वह पूरी तरह से चुनावी काम में जुट गये थे कार्यकर्ताओं/पन्ना प्रमुखों की बैठके ले रहे थे। बल्कि जब उनकी इस सक्रियता पर यह सवाल आया कि इस बार किसी गद्दी नेता को टिकट दिया जाना चाहिये तब उनकी तुरन्त यह प्रतिक्रिया आयी कि यह कोई गद्दी युनियन का चुनाव नही हो रहा है। हांलाकि इस प्रतिक्रिया के लिये उन्हे गद्दी समुदाय को स्पष्टीकरण तक देना पड़ा। इस परिदृश्य में जब उनका टिकट कटा तब कुछ हल्कों में तो यहां तक चर्चा उठ गयी कि शान्ता कुमार को चुनावी राजनीति से जिस चुतराई के साथ जयराम ने बाहर कर दिया ऐसा तो धूमल भी नही कर पाये थे। अब जब उनके स्थान पर किश्न कपूर आ गये हैं तब उनका यह कहना कि वह अब केवल विवेकानन्द ट्रस्ट का ही काम देखेंगे अपने में बहुत कुछ कह जाता है। फिर चुनाव प्रचार अभियान में यह खुलकर सामने आ जायेगा कि उनकी सक्रियता का स्तर क्या रहता है।
इसी तरह मण्डी संसदीय क्षेत्र में पंडित सुखराम अपने पौत्र आश्रय शर्मा के लिये इस हद तक जा पंहुचे है कि वह कांग्रेस में भी अपने पुराने रिश्तों के सहारे टिकट का जुगाड़ बिठा रहे थे। कांग्रेस नेताओं के साथ उनकी मुलाकातें जग जाहिर हो चुकी हैं। पौत्र आश्रय को बहुत अरसे से उन्होने प्रचार अभियान में उतार रखा था। अब जब भाजपा का टिकट अन्तिम रूप से घोषित हो चुका है तब पंडित सुखराम क्या इस स्थिति से समझौता करके चुपचाप भाजपा के प्रचार अभियान में जुट पायेंगे? क्योंकि यदि सुखराम आज आश्रय के लिये कांग्रेस टिकट का भी प्रबन्धन न कर पाये और न ही उसे निर्दलीय के रूप में चुनाव में उतार पाये तो इसका सीधा नुकसान मण्डी में उनकी चाणक्य होने की छवि को लगेगा। क्योंकि भाजपा में सुखराम परिवार की वरियता अन्त में ही रेहेगी और फिर वह आरएसएस के सदस्य भी नही हैं तथा यह बहुत अच्छी तरह जानते है कि भाजपा में गैर आरएसएस होने का अर्थ क्या होता है। सुखराम और अनिल शर्मा को इसका अहसास तो मेहश्वर सिंह की स्थिति से भी हो जाना चाहिये। जो मेहश्वर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और सांसद तक रह चुके हैं। अपनी पार्टी का भाजपा में विलय तक कर चुके हैं। वह आज कहां खड़े हैं। इसको ध्यान में रखने से बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है इस परिदृश्य में सुखराम परिवार का अगला कदम परोक्ष/अपरोक्ष में क्या होता है। इसका प्रभाव मण्डी क्षेत्र पर पड़ेगा ही यह तय है। इसी तरह की स्थिति संयोगवश हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में भी सुरेश चन्देल की सक्रियता से बढ़ गयी है। सुरेश चन्देल कांग्रेस में जाने का प्रयास कर रहे थे यह सामने आ चुका है। उन्हे रोकने के लिये खुद मुख्यमन्त्री जयराम और पार्टी अध्यक्ष सत्ती को मोर्चा संभालना पड़ा है। इस प्रक्रिया में चन्देल उनको मिले आश्वासनों पर कितना भरोसा कर पाते हैं या फिर कांग्रेस में जाने की जुगत बिठा ही लेते हैं इसका पता तो आने वाले दिनों में लगेगा। लेकिन इसी के साथ यह भी जाहिर है कि बिलासपुर के ही वरिष्ठ नेता रिखी राम कौण्डल भी कोई बहुत ज्यादा सन्तुष्ट नही चल रहे हैं। उनका टिकट काट कर जीत राम कटवाल को लाया गया था और इसके लिये वह धूमल परिवार को जिम्मेदार ठहराते हैं। फिर जंजैहली प्रकरण पर धूमल और जयराम के रिश्तों में भी काफी कड़वाहट आ गयी थी यह भी जग जाहिर है।
इस परिदृश्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा के यह भीतरी समीकरण आने वाले दिनों में क्या शक्ल लेते हैं और प्रचार अभियान में कौन कितना सक्रिय भूमिका में रहता है। यह स्पष्ट है कि इस चुनाव में जयराम सरकार की परफारमैन्स पर ही सब कुछ केन्द्रित रहेगा। कांग्रेस इस सरकार के खिलाफ कितनी आक्रामक हो पाती है और कौन से मुद्दों पर सरकार को घेर पाती है। इसी सबसे चुनाव का रूख तय होगा। इस समय दोनों दल एक बराबर धरातल पर खड़े हैं। लेकिन इसमें जयराम की अपनी साख दाव पर रहेगी यह भी स्पष्ट है।
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश सरकार का कर्जभार 52000 करोड़ तक पहुंच गया है। इस बढ़ते कर्जभार पर अब आम आदमी भी चिन्ता व्यक्त करने लग गया है। क्योंकि जब सरकार को कर्ज उठाने की नौबत आ जाती है तब उसका असर हर चीज पर पड़ता है यह एक स्थापित सच है। फिर अगर कर्ज लेकर कोई स्थायी संपत्ति बनायी जाये और उससे भविष्य में आत्म निर्भर होने का साधन बने तब यह कर्ज चिन्ता का विषय नही होता है। यदि कर्ज से स्थायी आय के स्त्रोत न बने तो यह कर्ज गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन जाता है। 31 मार्च को समाप्त होने जा रहे वित्त वर्ष 2018-1़9 का सरकार का कुल खर्च अनुपूरक मांगो को डालकर 44000 करोड़ से थोड़ा अधिक है। इस खर्च के मुकाबले इस वर्ष की सरकार की कुल आय 30,000 हजार करोड़ से कुछ अधिक है। इस तरह सरकार के आय और व्यय में 14000 करोड़ का अन्तर है। स्वभाविक है कि इस खर्च को पूरा करने के लिये सरकार के पास कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता है। लेकिन सरकार बनने के बाद जिस तरह का खर्च यह सरकार करती आ रही है उसको लेकर समय-समय पर सवाल भी उठते आ रहे हैं। जिनमें कर्ज लेकर आरामदेह मंहगी गाड़ियां खरीदे जाने का मुद्दा प्रमुखता से उठता रहा है। कर्ज लेने के बावजूद सरकार बेरोजगारों को स्थायी नौकरीयां नही दे पा रही है। नौकरीयों में अभी भी आऊट सोर्स, आर के एस और पीटीए जैसी योजनाएं चलानी पड़ रही है। क्योंकि इनमें नियमित नौकरी पर मिलने वाले वेतन के आधे से भी कम वेतन देकर काम चलाया जा रहा है।
ऐसे में यदि यह सवाल उठाया जाये कि इतना कर्ज लेकर सरकार ने आय के कौन से स्थायी साधन खड़े किये हैं तो शायद इसका कोई बड़ा प्रमाणिक जवाब सरकार के पास नही है। सरकार को टैक्स के रूप में जो कुल आय हो रही है उसकी स्थिति यह है
कर आय के बाद सरकार को गैर करों से भी आय होती है। उसकी स्थिति इस प्रकार है।
इस तरह टैक्स और नाॅन टैक्स दोनों का आंकलन करने से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार आय के स्थायी साधन बढ़ाने में कोई बड़ा काम नही कर पायी है। एक समय सरकार ने पनवि़द्युत परियोजनाओं को यह माना था कि आने वाले समय में अकेले विद्युत से ही ही प्रदेश आत्मनिर्भर हो जायेगा लेकिन सरकार का रिकार्ड दिखाता है कि विद्युत क्षेत्र से हर वर्ष टैक्स और गैर टैक्स राजस्व में कमी आती जा रही है। प्रदेश सरकार की अपनी ही परियोजनाओं में हर वर्ष हजारों घण्टों शटडाऊन हो रहा है। सरकार और विजिलैन्स तक इसकी शिकयतें गयी हुई हैं लेकिन इसकी जांच करने के लिये कोई तैयार नही है। जबकि इस शटडाऊन से हर दिन करोड़ो के राजस्व का नुकसान हो रहा है।
दूसरी ओर सरकार का वित्तीय प्रबन्धन सरकार की नीयत और नीति पर भी बहुत गंभीर प्रश्नचिन्ह लगाता है। संविधान की धारा 204(3) के तहत राज्य की समेकित निधि से अधिक एक पैसा भी खर्च नही किया सकता है। यदि किन्ही अपरिहार्य कारणों से सरकार को इस निधि से अधिक खर्च करना पड़ जाये तो ऐसे खर्च को संविधान की धारा 205 के तहत एकदम सदन से अनुमोदित करवाना पड़ता है। कैग की 31 मार्च 2017 तक की रिपोर्ट के मुताबिक 2011-12 से लेकर 2015-16 तक हुए ऐसे खर्च को सितम्बर 2017 तक भी अनुमोदित नहीं करवाया गया था। कैग की रिपोर्ट से स्पष्ट हो जाता है कि इस संद्धर्भ में सरकार संविधान की भी अनुपालना नहीं कर रही है। सरकार का कर्ज जीडीपी के अनुपात में तय सीमा से बढ़ता जा रहा है इसके लिये भारत सरकार का वित्त विभाग 2016-17 में प्रदेश सरकार को चेतावनी पत्र तक जारी कर चुका है। इस पत्र को शैल अपने पाठकों के सामने पहले ही रख चुका है। इस अधिक खर्च को लेकर कैग की टिप्पणी भी पाठकों के सामने रखी जा रही है।
As per Article 204 (3) of the Constitution of India, no money shall be withdrwwn from Consolidated fund of the State except under appropriation made by law passed in accordance with the provisions of this article.
Not withstanding the above excess expenditure over budget provision increased by Rs.189.18 crore ( 6.64 percent) from Rs. 2.848.43 crore in 2015-16 to Rs.3,037.61 crore ( includes Rs.2,890.50 crore relating to UDAY scheme) in 2016-17 indicating that budgetary estimates were not reviewed properly. Details of various grants / appropriations where aggregate expenditure (Rs. 10,803.41 crore) exceeded by Rs. 3,037.22 crore from the approved provisions in four cases (Rs. one crore or more in each case ) are given in Appendix 2.1
Firm measures need to be insitutied against the defaulting departments to avoid excess expenditure. There is no cogent reason for the inevitability of excess expenditure when Government gets opportunities to present the supplementary Demands for Grants during the three sessions of Legislature in a year. The exceeding of Budgetary Grant is the result of bad planning, lack of foresight and ineffective monitoring on the part of budget estimates as well as supplementary Demands for Grants.
2.3.1.1 Excess over provisions requiring regularization -As per Article 205 of the Constitution of India it is mandatory for a state Government to get the excess over a grant/appropriation regularised by the State Legislature. Although no time limit for rgularisation of excess expenditure is done after the prescribed under the Article , the regularization of excess expenditure is done after the completion of discussions on the Appropriation Accounts by the public Accounts Committee (PAC) However, the excess expenditure amounting to Rs.6,364.57 crore (Appendix 2.2) for the years 2011-12 to 2015-16 was yet to be regularized as of September 2017. The excess expenditure of Rs. 3,037.61 crore (Appendix 2.3) incurred in five grants and three appropriations during the years 2016-17 also requires regularisation.
कैग की इन टिप्पणीयों से सरकार के बजट प्रबन्धन पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं यह स्पष्ट हो जाता है। सरकार हर माह कर्ज ले रही है लेकिन यह कर्ज खर्च कहां किया जा रहा है इसकी जानकारी प्रदेश की जनता को नहीं दी जा रही है। यदि प्रदेश की वित्तीय स्थिति पिछली सरकारों के कार्यों और नीतियों के कारण बिगड़ी है तो उसके लिये यह सरकार इस संबंध में एक श्वेतपत्र जारी करके प्रदेश की जनता को विश्वास में ले सकती थी। लेकिन सरकार ने ऐसा नही किया है जिसका सीधा सा अर्थ है कि वर्तमान स्थितियों के लिये यही सरकार जिम्मेदार है। ऐसे में इस लगातार लिये जा रहे कर्ज से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कहीं सरकार विकास के नाम पर अपने ही राजनीतिक दल के ऐजैंड़ा को पूरा करने के लिये प्रदेश पर यह कर्ज का भार तो नहीं बढ़ा रही है। यह आशंका इसलिये उभरती है कि जब इस कर्ज की स्थिति को लेकर चिन्ता जताते हुए एक जनहित याचिका प्रदेश उच्च न्यायालय में आयी तब इस याचिका पर सरकार का यह कहना कि आम आदमी को यह जानने का हक नही है कि सरकार कहां और कैसे खर्च कर रही है। आज चुनाव के परिदृश्य में यह और भी आवश्यक हो जाता है कि न्यायालय राजनीतिक दलों के वायदों का संज्ञान लेकर उनसे यह पूछे कि इन वायदों को पूरा करने के लिये संसाधन कहां से आयेंगे? क्या इनके लिये कर्ज लिया जायेगा? आज यह समय की मांग है कि वायदों के प्रालोभनों से जनता को बचाया जाये और यह अब न्यायापालिका के लिये ही संभव रह गया है। प्रदेश उच्च न्यायालय में इस संदर्भ जो याचिका आयी है उस पर आगे जून में सुनवाई होगी। इसलिये यह उम्मीद की जा रही है कि उच्च न्यायालय जनहित में प्रदेश की इस आर्थिक स्थिति का समुचित संज्ञान लेते हुए प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में फंसने से बचाने के लिये सरकार को कुछ ठोस निर्देश देगा।
शिमला/शैल। प्रदेश में जनवरी 2018 तक पिछले तीन वर्षों में कितने कर्मचारियों/अधिकारियों को सेवा विस्तार दिया गया है यह सवाल इस बार बजट में 18 फरवरी को रमेश धवाला ने पूछा था। इसके जवाब में सरकार ने कहा है कि सूचना एकत्रित की जा रही है। यह सवाल वीरभद्र सरकार के कार्यकाल को लेकर था और इस सरकार पर भाजपा का यह आरोप रहता था कि इसे रिटायर्ड और टायर्ड लोग चला रहे हैं। लेकिन आज यह सूचना सरकार के पास उपलब्ध न होने से यही उभरता है कि या तो भाजपा का यह आरोप ही गलत था या फिर यह सरकार भी उसी नक्शे कदम पर चल रही है। इसी तरह मोहन लाल ब्राक्टा, मुकेश अग्निहोत्री और विक्रमादित्य सिंह का सवाल आऊट सोर्स कर्मचारियों को लेकर था। सरकार से पूछा गया था कि सरकारी विभागों/उपक्रमों में कितने कर्मचारी आऊट सोर्स पर काम कर रहे हैं। इन पर कितना खर्च हो रहा है कौन सी कंपनीयों के माध्यम से इन्हें रखा गया है। इन्हें पक्का करने की कोई नीति है या नहीं। सरकार ने एक वर्ष में आऊट सोर्स पर कितने कर्मचारी रखे हैं इस सवाल के जवाब में भी सरकार ने यह कहा कि सूचना एकत्रित की जा रही है। स्मरणीय है कि वीरभद्र सरकार के कार्यकाल में आऊट सोर्स कर्मचारियों ने आन्दोलन तक किया था उनकी मांग थी कि उन्हें पक्का करने की योजना बनायी जाये। 35000 कर्मचारी आऊट सोर्स पर रखे होने का आंकड़ा आया था। जयराम सरकार ने इन कर्मचारियों को हटाया नही हैं बल्कि बिजली बोर्ड में जो नया ठेका दिया जा रहा था उसमें फिर से टैंडर बुलाने का फैसला लिया गया है। जब तक नये टैण्डर पर फैसला नही हो जाता है तब तक पुरानी ही कंपनी को विस्तार दिया गया है।
स्वास्थ्य विभाग में अब नर्सों की भर्ती भी आऊट सोर्स के माध्यम से की जा रही है। इससे पहले स्वास्थ्य विभाग में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन में 1061 स्टेट एडस कन्ट्रोल सोसायटी में 173, आर के एस में 94, और ईएसआई सोसायटी में 6 लोगों को रखा गया है। स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत इन सोसायटीयों के माध्यम से काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने का नियमों में कोई प्रावधान नही है। सोसायटीयों के माध्यम से रखे गये कर्मचारियों को कभी भी नियमित नहीं किया जा सकेगा। कल को यह लोग भी सरकार के खिलाफ आन्दोलन करने वालों में शामिल हो जायेंगे यह तय है।
इसी तरह शिक्षा विभाग की स्थिति तो और भी दयनीय है। इस समय प्रदेश स्कूल प्रबन्धन कमेटीयों के माध्यम से 2700 अध्यापक काम कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त पैट, पीटीए, पीटीए-जी आईए और गवर्नमैन्ट कान्ट्रैक्ट पर सहायक प्रोफैसर 819, पीजीटी 2121, टीजीटी 2941 डीपीई 190, सी एण्ड वी 3757 और जेबीटी 1207 काम कर रहे हैं। लेकिन इन 11035 लोगों का भविष्य क्या होगा? क्या यह नियमित हो पायेंगे? इसको लेकर सन्देह बना हुआ है। इस संद्धर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में 2017 में तीन याचिकाएं दायर हुई थी जो अब तक लंबित चल रही है। इन 11035 लोगों के अतिरिक्त प्रदेश में 27000 लोग एसएमसी के माध्यम से काम कर रहे हैं। इस तरह करीब 14000 लोगों का भविष्य अकेले शिक्षा विभाग में ही अनिश्चिता में चल रहा है। क्योंकि इन्हें नियमित करने का नियुक्ति एवम् पदोन्नत्ति नियमों में कोई प्रावधान है ही नहीं। और न ही राज्य सरकार यह प्रावधन करने में सक्षम है।
इस परिदृश्य में यह सवाल पैदा होता है कि जब इन्हें अध्यापकों की स्कूलों में आवश्यकता है तो फिर इन्हें नियमित प्रक्रिया के तहत ही क्यों नही भरा जा रहा है। क्या इस तरह से भर्ती करने में मैरिट और आरक्षण आदि के रोस्टर को नजरअन्दाज करने में आसानी होती है। इसलिये ऐसी प्रक्रिया का सहारा लिया जा रहा है। प्रदेश में पीटीए के तहत शिक्षकों की भर्ती करने की योजना 2006 में बनाई गयी थी। इस योजना के तहत पी टीए को ग्रान्ट-इन-ऐड का प्रावधान किया गया था। 29-9-2006 को अधिसूचित हुई इस योजना के तहत हुई भर्तीयांे पर 28 जनवरी 2008 को एक जांच बिठाई गयी थी। इस पर 7-3-2008 को 16 पन्नों की एक जांच रिपोर्ट सरकार को सौंपी गयी थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रान्ट- इन-ऐड नियमों में इन बिन्दुओं पर कुछ नहीं कहा गया है।
1. The GIA Rules specify the maximum amount of grant-in-aid admissible for each post filled but do not lay down any specific emoluments to be paid to the appointees.
2. Period of employment : GIA Rules are silent on the subject. It may please be clarified if there are any other instructions in this regard. The actual process followed by PTAs in this matter may be elucidated.
3. Terms and conditions of employment by PTA: GIA Rules are silent on the subject.
4. Selection process: GIA Rules are silent on the process to be followed by PTAs.
5. Administrative and financial arrangements by PTAs for the scheme: GiA Rules are silent on the subject.
6. There is nothing in the GiA Rules about the leave admissible to the PTA appointees.
GiA Rules are silent on the social security of the PTA appointees. There is nothing about PF contributions and /or insurance for them.
There is nothing on evaluation and appraisal of the work and conduct of the PTA appointees except that the PTA appointees will work under overall supervision of the head of the institution. The GiA Rules are silent on the role of PTAs after the selection.
There is no right to appeal in the GiA Rules and there is no mechanism to addresss the grievances of PTA appointees.
7. PTAs accountability and procedural requirements: The GiA Rules are silent on the role, responsibility, accountability of the PTAs in relation to the teachers appointed by them.
इस जांच रिपोर्ट में आये इन बिन्दुओं पर आज तक वैसी ही स्थिति बनी हुई है। जबकि इसके तहत आज भी स्कूलों में शिक्षक भर्ती किये जा रहे हैं। इन्ही बिन्दुओं पर 2017 में सर्वोच्च न्यायालय में तीन याचिकाएं दायर हुई हैं। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब पीटीए के नियम इन बिन्दुओं पर खामोश हैं और 2006 से लेकर आज तक सरकार इसमें कोई संशोधन भी नही कर पायी है तो क्या जानबूझकर सरकार हजारों लोगों के भविष्य से खिलवाड़ कर रही है। आऊट सोर्स के माध्यम से रखे गये लोगों को नियमित करने का प्रावधान नही है। पीटीए और आर के एस आदि के तहत रखे कर्मचारी नियमित नही किये जा सकते तो फिर क्या यह योजनाएं लोगों की मजबूरी का फायदा उठाने के लिये है।
शिमला/शैल। प्रदेश की लोकसभा सीटों के लिये भाजपा के प्रत्याशी कौन होंगे अभी इसका फैसला नही हो पाया है। लेकिन इस फैसले से पहले ही मुख्यमन्त्री के अपने जिले से ही पंडित सुखराम के पौत्र और ऊर्जा मन्त्री अनिल शर्मा के बेटे आश्रय शर्मा ने मण्डी संसदीय हल्के से अपना चुनाव प्रचार अभियान भी शुरू कर दिया है। आश्रय काफी अरसे से यह दावा करते आ रहे हैं कि वही यहां से भाजपा के उम्मीदवार होंगे। जब एक सम्मेलन में प्रदेश अध्यक्ष सत्तपाल सत्ती ने यह घोषणा की थी कि मण्डी से राम स्वरूप शर्मा ही फिर से पार्टी के उम्मीदवार होंगे तब इस घोषणा पर पंडित सुखराम ने कड़ी प्रतिक्रिया जारी की थी। सुखराम की प्रतिक्रिया के बाद सत्ती ने भी अपना ब्यान बदल लिया था। लेकिन अभी तक टिकटों का फैसला हुआ नही है। ऐसे में आश्रय शर्मा के प्रचार अभियान के राजनीतिक हल्कों में कई अर्थ निकाले जा रहे हैं। क्योंकि यह संभव नही हो सकता कि उसके अभियान को बाप और दादा का आशीर्वाद हासिल न हो। पंडित सुखराम का प्रदेश की राजनीति में अपना एक अलग से विषेश स्थान है। इसलिये यह एक बड़ा सवाल हो जाता है कि यदि आश्रय को टिकट नही मिलता है तो सुखराम और अनिल का अगला कदम क्या होता है। क्योंकि पिछले दिनों यह चर्चा जोरों पर हरी है कि पंडित सुखराम कांग्रेस में वापिस जा सकते हैं। अनिल शर्मा जयराम के साथ मंत्राी होने के बावजूद भी मण्डी में अपने को बहुत सुखद महसूस नही कर रहे हैं। यह चर्चा भी कई बार मुखर हो चुकी है। फिर जयराम मण्डी का नाम बदल कर माण्डव करने की बात भी कर चुके हैं और इस नाम को बदलने का प्रस्ताव पर सुखराम और अनिल शर्मा की कतई सहमति नही है। नाम बदलने का यह प्रस्ताव भाजपा /जयराम से राजनीतिक रिश्ते अलग करने का एक आसान और तात्कालिक कारण बन सकता है।
इसी तरह हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से भी सिनेतारिका कंगना रणौत का नाम अचानक राजनीतिक हल्कों में चर्चा का विषय बन गया है। इस समय हमीरपुर ससंदीय क्षेत्र से अनुराग ठाकुर सांसद हैं। अनुराग को प्रदेश का भविष्य का नेता भी माना जा रहा है और उन्होंने अपने काम से क्रिकेट और भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनायी है। लेकिन अनुराग के इस बढ़ते कद से पार्टी के भीतर ही एक बड़ा वर्ग उनका अघोषित विरोधी बना हुआ है। बल्कि चर्चा तो यहां तक है कि इसी वर्ग की धूमल को हटवाने में बड़ी भूमिका रही है। इसी के चलते तो जयराम की सरकार बनने के बाद उठे जंजैहली प्रकरण में धमूल -जयराम के रिश्ते यहां तक पंहुच गये थे कि कुछ हल्कों में जंजैहली प्रकरण में धूमल की भूमिका होने के चर्चे चल पड़े थे। धमूल को इस चर्चा के कारण यहां तक कहना पड़ गया था कि सरकार चाहे तो उनकी भूमिका की सीआईडी से जांच करवा ले। अब इसी परिदृश्य को सामने रखकर कुछ लोगों ने कंगाना रणौत का नाम उछालकर एक नयी विसात बिच्छाई है।
यही नही मण्डी संसदीय क्षेत्र से कुल्लु से पूर्व मंत्री और सांसद रहे महेश्वर सिहं को लेकर भी यह चर्चाएं चल रही हैं कि वह भाजपा का दामन छोड़कर कभी भी कांग्रेस का हाथ थाम सकते हैं। महेश्वर सिंह कुल्लु से विधानसभा का चुनाव हारने के बाद मण्डी से इस बार लोकसभा का उम्मीदवार होने की आसा में थे। लेकिन यहां से जब मुख्यमन्त्री की पत्नी डा. साधना ठाकुर का नाम भी संभावित उम्मीदवार के रूप में अखबारों की खबरों तक पहुंच गया तब मण्डी का सारा राजनीतिक गणित ही बदल गया है। यह एक सार्वजनिक सच है कि यदि विधानसभा चुनावों से पहले महेश्वर सिंह और पंडित सुखराम परिवार ने राजनीतिक पासा बदल न की होती तो शायद भाजपा अकेले सत्ता तक न पंहुच पाती। लेकिन आज यह दोनों अपने को भाजपा में हशिये पर धकेल दिया महसूस कर रहे हैं। ऐसे में बहुत संभव है कि राजनीति में अपने को फिर स्थापित करने के लिये पासा बदल की राजनीति का सहारा ले लें। यही स्थिति हमीरपुर से भाजपा पूर्व सांसद रहे सुरेश चन्देल की रही है। पार्टी ने उन्हे "Cash for Question" में चुनावी राजनीति से बाहर कर दिया। लेकिन "Cash on camera" में आरोप तय होने के बावजूद शिमला के सांसद वीरन्द्र कश्यप को लेकर पार्टी का आचरण सुरेश चन्देल से भिन्न है। एक ही जैसे आरोप पर दो अलग-अलग नेताओं के साथ अलग -अलग आचरण होने से पार्टी की अपनी ही नीयत और नीति पर सवाल उठने स्वभाविक है। ऐसे में इस संभावना से इन्कार नही किया जा सकता कि अब सुरेश चन्देल भी पार्टी को अपनी अहमियत का अहसास कराने के लिये कोई पासा बदल के खेल पर अलम कर जायें। क्योंकि यह कतई नही माना जा सकता कि आश्रय शर्मा के प्रचार अभियान के पीछे कोई बड़ी रणनीति नही है। इस परिदृश्य में यदि आने वाले लोकसभा चुनाव का एक पूर्व आकलन किया जाये तो यह स्पष्ट झलकता है कि भाजपा के अन्दर बढ़े स्तर पर एक बड़ी खेमेबाजी चल रही है क्योंकि अभी सम्पन्न हुए बजट सत्र में जिस तरह से भाजपा के कुछ अपने ही विधायकों की अपनी ही सरकार के प्रति आक्रमकता देखने को मिली है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के अन्दर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। सरकार वित्तिय संकट में चल रही है इसका खुलासा उस वक्त सार्वजनिक रूप से सामने आ गया जब प्रधानमन्त्री की योजना के नाम पर किसानों को दिये गये दो-दो हज़ार रूपये बैकों ने किसानों को भुगतान करने से मना कर दिया। ऐसा बैकों ने क्यों कर दिया इसका कोई संतोषजनक जवाब भी सामने नहीं आया है। इस आशय की खबरें तक छप गयी लेकिन सरकार की तरफ से इनका किसी तरह का कोई खण्डन सामने नहीं आया इसी के साथ यह चर्चा भी सामने आयी है कि इस बार सेवानिवृत कर्मचारियों को पैंशन का भुगतान भी समय पर नहीं हो पाया है। जहां सरकार की एक ओर इस तरह की वित्तिय स्थिति हो वहीं पर सरकार द्वारा बड़ी लगर्ज़ी गाड़ियां खरीदा जाना सरकार की नियत और नीति पर सवाल उठेगा ही।
अभी इसी के साथ सरकार द्वारा कर्मचारी भर्तीयों को लेकर अपनायी जा रही आउटसोर्स नीति पर भी गंभीर सवाल बजट सत्र में देखने को मिले हैं। यह सही है कि सरकार ने हर गंभीर सवाल को ‘‘सूचना एकत्रित की जा रही है’’ कहकर टालने का प्रयास किया है लेकिन यह माना जा रहा है कि यह सारे सवाल चुनावों के वक्त सरकार से जवाब मांगेंगे और यही सरकार के लिये सबसे बड़ा संकट होगा।