शिमला/शैल। प्रदेश लोक सेवा आयोग में भी विभिन्न भर्तियों के प्रश्न पत्र लीक हो रहे हैं और बिक भी रहे हैं। यह आरोप मुख्यमंत्री को भेजे एक शिकायत पत्र में तीन लोग गौरव चौहान, रणेश और दीप्ति नेगी ने लगाये हैं। दो पन्नों के पत्र में इन आरोपों के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। आयोग के अध्यक्ष ने इन आरोपों को जांच से पहले ही सिरे से खारिज़ कर दिया है। यह शिकायत प्रदेश के मुख्यमंत्री को भेजी गयी है। इस नाते इस शिकायत की जांच करवानी है या नहीं इसका फैसला मुख्यमंत्री और सरकार को करना है और सरकार के किसी फैसले से पहले आयोग द्वारा इनको खारिज़ कर देना कुछ अटपटा सा लगता है। इस पत्र को पढ़ने से ही यह समझ आ जाता है कि इस शिकायत के पीछे ऐसे लोग हैं जो आयोग की कार्यशैली को अन्दर तक जानते हैं। इसलिये इन आरोपों को सोर्स सूचना मानते हुये इनकी जांच करवाकर आयोग की निष्पक्षता पर उठते सवालों का जवाब दिया जा सकता है। इस पत्र पर नेता प्रतिपक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री और उनकी भाजपा की ओर से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं आयी है जबकि पावर कॉरपोरेशन को लेकर पिछले दिनों आये बेनामी पत्र पर इन लोगों ने सीबीआई जांच की मांग की थी। यह बेनामी पत्र प्रधानमंत्री को संबोधित किया गया था और वहां से यह ईडी तक पहुंच चुका है। जब पीएमओ एक बेनामी पत्र का संज्ञान ले सकता है तो उसी गणित से इस तीन लोगों के पत्र पर कार्यवाही क्यों नहीं?
हिमाचल लोक सेवा आयोग द्वारा एक समय भर्ती किये गये एक्साईज़ इंस्पैक्टरों का मामला भी प्रदेश उच्च न्यायालय पहुंच चुका है। इसके बाद इसी आयोग में अध्यक्ष और सचिव में प्रश्नपत्र चेस्ट की चाबी का विवाद उठ चुका है और तुरन्त प्रभाव से सचिव को हटा दिया गया था। इस शिकायत पत्र में आरोप लगाया गया है कि पिछले दो वर्षों से ऐसा हो रहा है। स्मरणीय है कि इसी दौरान यह आयोग 48 दिनों तक बिना अध्यक्ष के केवल एक सदस्य के सहारे रह चुका है। चर्चा है कि सरकार आयोग पर दबाव बनाना चाहती थी। क्या इस दौरान लिये गये फैसलों पर सरकार का दबाव नहीं रहा होगा। आयोग द्वारा ली गयी परीक्षाओं और साक्षात्कारों का परिणाम एक समय एक तय अवधि के दौरान निकाल दिया जाता था। लेकिन उसके बाद परिणाम निकालने में एक वर्ष से भी अधिक का समय लगता रहा है। क्या परिणाम निकालने में इतना समय लग जाना अपने में ही सन्देहों को जन्म नहीं देगा। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि जिस आयोग को प्रदेश की शीर्ष प्रशासनिक सेवाओं के लिये भर्ती करने की जिम्मेदारी दी गयी है उसके आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की अपनी नियुक्तियों को लेकर ही कोई तय प्रक्रिया नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने साहिल सबलोक मामले में सरकारों को ऐसी प्रक्रिया तय करने के निर्देश दिये हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी राज्य सरकार को इन नियुक्तियों के बारे में एक प्रक्रिया निर्धारित करने के निर्देश दिये हैं जिन पर न तो पूर्व सरकार ने कोई कदम उठाया है और न ही व्यवस्था परिवर्तन करने का दम भरने वाली इस सरकार ने सात माह में कोई कदम उठाया है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि सरकार अदालत के निर्देशों की अनुपालना क्यों नही कर रही है? क्या इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि सरकार आयोग पर अपना दबाव बनाये रखने के लिये इन निर्देशों की अनुपालन नहीं करना चाहती है।
शिमला/शैल। लगातार तीन चुनाव हार चुकी प्रदेश भाजपा क्या अपना राजनीतिक आधार बनाये रखने के लिये धर्म का सहारा लेने का प्रयास कर रही है? यह सवाल चम्बा के सलूणी में घटे मनोहर हत्याकाण्ड पर सामने आयी भाजपा की प्रतिक्रियाओं से उभरा है। इस हत्याकांड की हर एक ने निन्दा की है। क्योंकि इससे ज्यादा घिनौना और मानवता को शर्मसार करने वाला और कुछ हो ही नहीं सकता। यह काण्ड जैसे ही सामने आया पुलिस बिना कोई समय खोये इसकी जांच में जुट गयी और संदिग्धों को तुरन्त प्रभाव से पकड़ लिया गया। लेकिन जैसे ही यह सामने आया कि कथित दोषी मुस्लिम है तो इस पर तुरन्त प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया। नेता प्रतिपक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता में यह खुलासा रखा कि इस परिवार ने दो हजार के 97 लाख के नोट बदलवाये है और इनके खाते में दो करोड़ जमा है। इसने सौ बीघा सरकारी जमीन पर कब्जा कर रखा है। परिवार के पास बकरियां हैं और प्रतिवर्ष दो सौ बेचता है। निश्चित है कि जयराम ठाकुर को जो सूचना दी गयी उसी को पुख्ता मानकर उन्होंने यह ब्यान दे दिया। इस ब्यान से यह संदेश गया है कि यह सब कुछ इस परिवार ने कांग्रेस की सरकार बनने के बाद कर लिया और प्रशासन बेखबर बैठा रहा। जयराम ठाकुर के इस ब्यान के बाद राजस्व विभाग भी हरकत में आया जमीन की पैमाइश की गयी और तीन बीघा पर कब्जा पाया गया। लेकिन दो हजार के नोट बदलवाने और दो करोड़ खाते में जमा होने कोे लेकर कुछ भी सामने नहीं आया और न ही इस आश्य का फिर से कोई ब्यान आया।
इस ब्यान के परिदृश्य में भाजपा नेता पूरे उत्तेजित वातावरण में यदि पीड़ित परिवार को मिलने दिये जाते तो उसके बाद किस तरह की कानून और व्यवस्था की स्थिति बन जाती इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस परिदृश्य यह जांच एनआईए को सौंपे जाने से न चाहते हुये भी आने वाले दिनों में प्रदेश में हिन्दू-मुस्लिम समस्या खड़ी हो जाती। जिस तरह के आरोप लगाये गये हैं उनकी आंच तो पूर्व के जयराम शासन तक भी चली जाती। यह सवाल उठता कि उस समय इस परिवार की गतिविधियों पर नजर क्यों नहीं रखी गयी। क्योंकि सौ बकरियों का मालिक होकर दो सौ तो उस समय भी बेचता होगा। सौ बीघा पर अवैध कब्जा तो तब से चल रहा होगा। कुल मिलाकर इस हत्याकाण्ड पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं भाजपा नेतृत्व की आयी है उसे यही आभास होता है कि भाजपा राजनीति के लिये किसी भी हद तक जा सकती है। इस परिवर्तन में कानून और व्यवस्था को लेकर भाजपा द्वारा राज्यपाल को सौंपा गया ज्ञापन भी सरकार से ज्यादा भाजपा के अपने ऊपर सवाल उठाता है। क्योंकि चालीस से अधिक हत्याओं और 150 बलात्कार का जो आंकड़ा उछालकर प्रदेश की कानून व्यवस्था पर जो सवाल उठाया गया है वह भाजपा शासन में घटे 1500 बलात्कार के आंकड़ों से पूर्व शासन से ज्यादा सवाल पूछता है। इसलिये भाजपा पर यह सवाल बराबर बना रहेगा कि उसने राजनीतिक आधार को बचाने के लिये धर्म को भी मनोहर हत्याकाण्ड के माध्यम से एक हथियार के रूप में प्रयोग करने का प्रयास किया है। जबकि हिमाचल में इस तरह की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। बल्कि इन प्रतिक्रियाओं से मणिकरण प्रकरण के दौरान आयी प्रतिक्रियाएं फिर से यह जवाब मांगती है कि उस दौरान बनाये गये मामलों की आज क्या स्थिति है।
शिमला/शैल। सुक्खू सरकार में नियुक्त मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति को चुनौती देने वाली तीन याचिकाएं प्रदेश उच्च न्यायालय में विचाराधीन है। उच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं का संज्ञान लेते हुये सभी मुख्य संसदीय सचिवों को पार्टी बनाकर नोटिस जारी किया है। लेकिन मुख्य संसदीय सचिवों को नोटिस अभी तक तामील नहीं हो पाये है। नोटिस तामील न होने के कारण अदालत को अगली पेशी देनी पड़ती है। नोटिस की तामील ही न हो पाने पर आम आदमी यह आश्वस्त होता जा रहा है कि प्रदेश में सही में प्रशासनिक अराजकता का दौर चल रहा है। क्योंकि मुख्य संसदीय सचिवों को राज्य सचिवालय में कार्यालय और स्टाफ दोनों मिले हुये हैं। यह लोग अपने इन कार्यालयों में बैठकर अपने कार्यों का निष्पादन करते हैं। अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में भी यह लोग सार्वजनिक कार्यों को बराबर अंजाम दे रहे हैं। यह लोग ऐसे नहीं हैं कि इन्हें उच्च न्यायालय के नोटिस सर्व करने में कोई व्यवहारिक कठिनाइयां आ सकती है। नोटिस तामील न हो पाना केवल प्रशासनिक अराजकता को ही प्रमाणित करता है।
मुख्य संसदीय सचिवों को लेकर जब भी उच्च न्यायालय का फैसला आयेगा उसका प्रदेश की राजनीति पर गंभीर असर पड़ेगा यह तय है। क्योंकि जब पूर्व में स्व.वीरभद्र सिंह के शासन में भी ऐसी ही नियुक्तियां हुई थी और उच्च न्यायालय में उन्हें हिमाचल प्रोटेक्शन फॉर्म के देश बंधु सूद ने चुनौती दी थी तब यह नियुक्तियां अदालत ने रद्द कर दी थी। इसके बाद उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वाेच्च न्यायालय में एसएलपी के माध्यम से चुनौती दी गई थी। इसी के साथ एक्ट में कुछ संशोधन करके नया एक्ट पारित कर लिया गया। लेकिन इस एक्ट को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी। तब सरकार ने उच्च न्यायालय में एक शपथ पत्र देकर यह कहा था कि जब तक अदालत का फैसला नहीं आ जाता है वह फिर से ऐसी नियुक्तियां नहीं करेगी। इस शपथ पत्र के बाद आवश्यक हो जाता है कि ऐसी नियुक्तियां करने से पहले उच्च न्यायालय के संज्ञान में यह लाया जाता। लेकिन ऐसा हुआ नहीं है। दूसरी जो एसएलपी सर्वाेच्च न्यायालय में दायर की गयी थी वह असम के मामले के साथ टैग हो गयी थी और उस पर जुलाई 2017 में फैसला आ गया था। इस फैसले में सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि राज्य विधानसभा को इस आश्य का अधिनियम पारित करने का अधिकार ही नहीं है।
ऐसे में सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले और प्रदेश सरकार के उच्च न्यायालय में अपने शपथ पत्र के बाद भी मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति मंत्रिमण्डल के विस्तार से दो घंटे पहले क्यों की गयी? क्या उस समय पार्टी में भाजपा की सेंधमारी की आशंका हो गयी थी ? या किसी अन्य मकसद के लिये हाईकमान पर दबाव बनाने के लिये यह नियुक्तियां की गयी थी? इन नियुक्तियों में सरकार के अपने ही शपथ पत्र की उल्लंघना की गयी है। उच्च न्यायालय सरकार के शपथ पत्र का संज्ञान लेते हुये इन नियुक्तियों को अवैध घोषित करने के साथ ही नियुक्त हुये मुख्य संसदीय सचिवों को अयोग्य भी ठहरा सकता है इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस मामले में दायर हुई अंतिम याचिका भाजपा विधायकों की है। लेकिन इन लोगों ने इन मुख्य संसदीय सचिवों को उच्च न्यायालय के नोटिस की तामील न हो पाने पर कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आ रही है। जबकि नोटिस की तामील प्रशासनिक मामला है। ऐसे में यह सवाल उठने लगते हैं कि कहीं भाजपा नेतृत्व इस मामले में सरकार पर कोई दबाव तो नहीं बना रहा है। शायद इस अघोषित दबाव के कारण ही भाजपा काल के प्रशासन को ही यथास्थिति चलाया जा रहा है और भ्रष्टाचार के प्रति आंख बंद कर ली गयी है।
शिमला/शैल। वित्तीय संकट से जूझती प्रदेश सरकार विभिन्न जलविद्युत परियोजनाओं में चली आर्बिट्रेशन लिटिगेशन प्रोसिडिंग में अब तक कई करोड़ों का नुकसान उठा चुकी है। प्रदेश का बिजली बोर्ड इस समय करीब दो हजार करोड़ के घाटे में चल रहा है। लेकिन प्रदेश सरकार इस सबको नजरअन्दाज करते हुये वित्तीय खुशहाली के लिये जल विद्युत परियोजनाओं पर भरोसा जता रही है उससे सरकार की नीयत और नीति दोनों को लेकर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। क्योंकि जब भी कोई जल विद्युत परियोजना विज्ञापित होती है तब उसके लिये निविदाएं आमंत्रित की जाती हैं। निविदा भेजने के लिये तय अपफ्रन्ट प्रीमियम साथ भेजना होता है। जिस भी कंपनी की निविदाये शर्तों और मानकों पर पूरी उतरती है उसे परियोजना आवंटित कर दी जाती है। इस तरह परियोजना आवंटित होने के बाद संबंधित निष्पादन कंपनी को भी यह हक हासिल रहता है कि वह आवंटित परियोजना का अपने तौर पर भी आकलन और मूल्यांकन करवा कर उसकी व्यवहारिकता के बारे में संतुष्ट हो जाये। क्योंकि उसने परियोजना के लिये करोड़ों का निवेश और उसका प्रबन्ध करना होता है। यदि इस आकलन और मूल्यांकन के बाद आवंटी को यह लगे कि परियोजना व्यवहारिक न होकर घाटे का सौदा है तो उस स्थिति में वह विद्युत बोर्ड/निविदा जारी करने वाले को भी लिखित में आग्रह कर सकता है कि उसका आवंटन रद्द कर दिया जाये। ऐसा आग्रह आने पर निविदा जारी करने वाले को भी यह हक हासिल है कि वह आवंटी को परियोजना के बारे में पूरी तरह तर्क पूर्ण तरीके से संतुष्ट करवाये और उसके बाद दोनों पक्ष आपसी सहमति से अगला फैसला लें। लेकिन निविदा जारीकर्ता को यह हक हासिल नही है कि वह आये हुए आग्रह का महीनों तक कोई संज्ञान ही न ले। जब संबद्ध अधिकारी महीनों तक ऐसे आग्रह का संज्ञान न लें तो ऐसी स्थिति आवंटी को आर्बिट्रेशन में जाने के लिये बाध्य कर देती है। बल्कि कई बार तो अधिकारी आर्बिट्रेशन प्रोसिडिंग का भी संज्ञान नहीं लेते हैं और ऐसी स्थिति ही आर्बिट्रेशन में हार का कारण बनती हैं। 30 मैगावाट का मलाणा-III और 12 मैगावाट की धांचों परियोजनाओं में ऐसा ही हुआ है और बोर्ड के खिलाफ 8,41,04,572 रुपए का अवार्ड 15% ब्याज सहित अदायगी का आदेश हो गया है।
स्मरणीय है कि यह परियोजनाएं 4-5-2011 को उत्तर प्रदेश के गौतमबद्ध नगर स्थित एक बीएमडी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी को आवंटित हुई और 26-05-2011 को कंपनी ने 8.40 करोड़ का अपफ्रन्ट जमा करवा दिया। इसके बाद कंपनी ने विभिन्न सरकारी अदारां से अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करके परियोजना की डी.पी.आर. सौंपी और उसका तकनीकी और वित्तीय मूल्यांकन विशेषज्ञों द्वारा करवाया। इस आकलन में यह रिपोर्ट आयी की परियोजना की लागत 12 करोड़ प्रति मैगावाट आयेगी। लेकिन कंपनी को हस्ताक्षरित पी.आई.ए. के अनुसार केवल 2.50 से तीन रूपये प्रति यूनिट मिलने थे। इस आकलन पर जब बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों ने कंपनी को वित्तीय सहयोग देने से मना कर दिया तो 21 जनवरी 2019 को कंपनी ने यह आवंटन रद्द करने का आग्रह कर दिया। इसका कोई जवाब देने की बजाये सरकार ने 3 अक्तूबर 2019 को यह आवंटन रद्द कर दिया और अपफ्रन्ट राशि जब्त कर ली। इस पर कंपनी आर्बिट्रेशन में चली गयी। आर्बिट्रेशन की पेशी 20 जनवरी 2020 को तय हुई। लेकिन सरकार आर्बिट्रेशन की कारवाई में ही शामिल नही हुई और इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में चली गयी। उच्च न्यायालय ने 2 जून 2022 को सरकार की याचिका खारिज कर दी। इस तरह सरकार के खिलाफ 8,41,04,572 रुपए 15% ब्याज सहित अदा करने के आदेश आ गये हैं।
इस मामले को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि संबद्ध अधिकारियों के गैर जिम्मेदाराना आचरण से यह नुकसान हुआ है। इस पर भी बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सरकार में किसी ने भी इसका संज्ञान नही लिया और न ही किसी की कोई जिम्मेदारी तय हुई है। आर्बिट्रेशन के मामलों में एक अरब से अधिक का नुकसान हो चुका है जिसके लिये कोई जिम्मेदार नही ठहराया गया है। क्या यह अपने में एक बड़ा नियोजित भ्रष्टाचार नहीं है।
शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा लगातार पिछले तीन चुनाव हार चुकी है। जिसमें पहले चार उपचुनाव, फिर विधानसभा चुनाव और अन्त में नगर निगम शिमला शामिल है। लेकिन इस हार के कारणों पर आज तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया पार्टी की ओर से नहीं आयी है। जबकि राजनीतिक हल्कों में यह सवाल बराबर उठता रहा कि पार्टी को जो सफलता मण्डी में मिली है उसी अनुपात में प्रदेश के दूसरे हिस्सों में क्यों नहीं मिल पायी? क्या मण्डी के बाहर दूसरे जिलों में नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं तक में यह धारणा बन चुकी थी कि हार निश्चित है इसलिये ज्यादा सक्रियता से कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। कोई औपचारिक प्रतिक्रिया न आने से चुनाव से पहले मंत्रिमण्डल में फेरबदल कुछ मंत्रियों की छुट्टी और कुछ के विभागों में परिवर्तन किये जाने को लेकर उठते सवाल भी अभी हाशिये पर चले गये हैं हो सकता है कि कुछ समय बाद यह सवाल फिर जवाब मांगे। क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी हिमाचल के बाद जिस तरह कर्नाटक हारी है उससे ‘‘मोदी है तो मुमकिन है’’ पर पहली बार प्रश्न चिन्ह लगा है। यह प्रश्न चिन्ह लगने के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा पहली बार अपने गृह राज्य हिमाचल आये। हिमाचल आकर नड्डा ने जिस तरह जनता और कार्यकर्ताओं की नब्ज टटोलने के उपक्रम में प्रदेश के सबसे बड़े जिले कांगड़ा में रैली का आयोजन करवाया और उसमें जिस तरह सारे प्रयासों के बावजूद सबसे कम भीड़ जुटी उससे यह प्रमाणित हो गया है कि भाजपा के प्रति लोगों की उदासीनता अभी भी बरकरार है। विधानसभा चुनाव के बाद जब पूर्व मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर प्रोटैम स्पीकर के हाथों ही विधायकों की शपथ से पहले ही नेता प्रतिपक्ष बन गये और उस समय भी भाजपा के ही कुछ हलकों में इस पर हैरत जताई गयी थी। क्योंकि कुछ दूसरे नेता भी नेता प्रतिपक्ष होने की इच्छा पाले हुये थे लेकिन उन्हें अपनी इच्छा जताने तक का मौका भी नहीं मिल पाया। इसी परिदृश्य में जब सरकार ने पूर्व सरकार के अन्तिम छः माह के फैसले बदलते हुये करीब 900 संस्थान बन्द कर दिये तब भाजपा ने इसके खिलाफ पूरे प्रदेश में धरने प्रदर्शनों का क्रम शुरू कर दिया। अन्त में इस संबंध में एक याचिका भी प्रदेश उच्च न्यायालय में डाल दी। लेकिन याचिका डालने के बाद इस मुद्दे पर शान्त होकर बैठ गयी। इसी तरह मुख्य संसदीय सचिवों को लेकर भी उच्च न्यायालय में याचिका तो डाल दी गयी है लेकिन प्रदेश की जनता को इस पर जानकारी नही दी गयी कि मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां गलत क्यों है। उस पर शान्त होकर बैठ जाना भी पार्टी के भीतर की एकजुटता पर सवाल खड़े करता है। इस समय प्रदेश वित्तीय संकट से गुजर रहा है। इस संकट के लिये सुक्खू सरकार पूर्व की जयराम की सरकार के वित्तीय कुप्रबंधन को जिम्मेदार ठहरा रही है। इसी के साथ केन्द्र सरकार पर प्रदेश की कर्ज लेने की सीमा कटौती राज्य सरकार को वित्तीय संकट में डालने का आरोप लगाया जा रहा है। वित्तीय संकट के लिये भाजपा पर लगते यह आरोप गंभीर हैं। क्योंकि प्रदेश की आम जनता को इससे नुकसान हो रहा है। लेकिन इन आरोपों का कोई तथ्य पूरक जवाब भाजपा की ओर से अभी तक नहीं आ पाया है। बल्कि पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के यह कहने से कि केन्द्र के सहयोग के बिना राज्य सरकार एक कदम नहीं चल सकती इन आरोपों की अपरोक्ष में पुष्टि हो जाती है। वित्तीय संकट का प्रभाव पूरे प्रदेश पर पड़ रहा है इसलिये बतौर जिम्मेदार विपक्ष यह भाजपा का नैतिक दायित्व बन जाता है कि वह इस पर स्थिति स्पष्ट करे। यह सही है कि राजनीतिक प्रतिद्वन्दी होने के नाते भाजपा को अपना राजनीतिक हित भी सुरक्षित रखना है। लेकिन वर्तमान परिदृश्य में यदि भाजपा अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं करती है तो उस पर जिम्मेदार विपक्ष न होने का आरोप लगना तय है।