शिमला/शैल। सुक्खू सरकार द्वारा नियुक्त किये गये मुख्य संसदीय सचिव अपने पदों से त्यागपत्र देंगे यह सवाल इन दिनों प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में विशेष चर्चा का विषय बना हुआ है। क्योंकि इस मामले की अगली सुनवाई उच्च न्यायालय में 19 जून को तय हुई है। इसमें कोई लंबी तारीख न मिलने से यह चर्चा उठी है। स्मरणीय है कि जब संविधान संशोधन के बाद राज्यों के मंत्रीमण्डल से मंत्रियों की अधिकतम सीमा तय कर दी गयी थी तब कई राज्यों ने राजनीतिक संतुलन के उद्देश्य से मुख्य संसदीय सचिव/संसदीय सचिव नियुक्त करने के अधिनियम पारित किये थे और राज्य मंत्री/उप मंत्री के समकक्ष रखा था। इसी के साथ कुछ राजनीतिक नियुक्तियों को लाभ के पदों के दायरे से बाहर कर दिया था। हिमाचल में यह दोनों अधिनियम पारित हुये और कुछ विधायकों को मुख्य संसदीय सचिव/संसदीय सचिव नियुक्त किया गया था। कुछ लोग निगमों/बोर्डों में भी समायोजित हुये थे।
लेकिन जब ऐसे नियुक्त हुये मुख्य संसदीय सचिवों/संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी तब उन्हें उच्च न्यायालय ने गैर सवैधानिक करार देकर तुरंत प्रभाव से हटाये जाने के आदेश कर दिये थे। अदालत के आदेशों के अनुपालन में यह लोग तुरन्त पदों से हट गये थे। उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद राज्य सरकार ने पहले तो एस.एल.पी. दायर करके सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती दी। दूसरी ओर नये सिरे से अधिनियम लाये इस अधिनियम को प्रदेश उच्च न्यायालय में फिर चुनौती मिल गयी। जो अब आयी याचिकाओं में प्रमुख रूप से संलग्न हो गयी है। लेकिन जो सुप्रीम कोर्ट में एस.एल.पी. दायर हुई थी वह 2017 में असम के मामले के साथ सलग्न हो गयी। असम के मामले में जुलाई 2017 में फैसला आ गया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि राज्य की विधानसभा को इस आश्य का कानून बनाने का अधिकार ही नही है। असम के इस फैसले के साथ ही हिमाचल की एस.एल.पी. सलंगन रही है। इसलिये कानून के जानकारों के मुताबिक हिमाचल को लेकर भी यह फैसला आ चुका है। जुलाई 2017 में यह फैसला आ जाने के कारण जयराम सरकार ने ऐसी नियुक्तियां नहीं की थी।
लेकिन अब सुक्खू सरकार ने तो मंत्रिमण्डल विस्तार से पहले ही मुख्य संसदीय सचिवों को शपथ दिला दी थी। अब इन नियुक्तियों को उच्च न्यायालय में चुनौती मिल चुकी है। माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के परिपेक्ष में हिमाचल के एक्ट को वैध ठहराना संभव नहीं होगा। यह आशंका भी जताई जा रही है कि यदि असम के 2017 के फैसले के परिपेक्ष में हिमाचल की एस.एल.पी. की सलग्नता का संज्ञान लेते हुये फैसला आता है तो उसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे और विधायकी पर भी आचं आ सकती है। इन लोगों को मिले लाभों को भी सरकारी धन का दुरुपयोग करार दिया जा सकता है। ऐसे में अदालत की अनुकंपा के मकसद से यह लोग फैसले से पहले ही पदों से त्यागपत्र दे सकते हैं।
पूर्व विधायक जवाहर ठाकुर ने खोला मोर्चा
शिमला/शैल। कर्नाटक चुनाव में भाजपा को मिली चुनावी हार का ठीकरा जे.पी.नड्डा द्वारा गलत टिकट आवंटन पर फोड़ा जाने लगा है। इस हार के लिये सही में नड्डा कितने जिम्मेदार हैं और प्रधानमंत्री मोदी की नीतियां कितनी जिम्मेदार हैं यह खुलासा कभी सामने आयेगा या नही यह कहना कठिन है। लेकिन हिमाचल में भाजपा की हार के लिये बहुत हद तक जिम्मेदार माना जा रहा है। क्योंकि जब भी प्रदेश की जयराम सरकार पर सवाल उठे तो उन्हें नड्डा हर बार नजरअन्दाज करते चले गये। इस नजरअन्दाजी से नड्डा और जयराम के राजनीतिक रिश्तों की गहराई और गहरी होती चली गयी। लेकिन अब जिस तर्ज में जयराम के गृह जिला मंडी से जवाहर ठाकुर ने प्रदेश में हार का ठीकरा जयराम के सिर फोड़ना शुरू किया है उसे जयराम के माध्यम से नड्डा के खिलाफ आक्रोश का सामने आना माना जा रहा है। जयराम के गृह जिला से एक पूर्व पार्टी विधायक का उनके खिलाफ मुखर होना बहुत सारे संकेत दे जाता है।
हिमाचल में भाजपा को स्थापित करने में शान्ता कुमार और प्रेम कुमार धूमल के योगदान को नकार पाना संभव नहीं है। दोनों दो-दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। शान्ता तो परिस्थिति वश दोनों बार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये। परन्तु धूमल ने न केवल कार्यकाल ही पूरे किये बल्कि पहले कार्यकाल में तो गठबन्धन की सरकार चलाई। लेकिन जयराम की सरकार बनने पर शान्ता धूमल दोनों को ही मार्गदर्शक मण्डल में डाल कर उससे बाहर निकलकर मार्ग दर्शक बनने ही नहीं दिया गया। जयराम सरकार के तो शुरू में ही हालत यहां तक पहुंच गये कि धूमल को यहां तक कहना पड़ गया कि सरकार चाहे तो उनकी सीआईडी जांच करवा ले। मानव भारती विश्वविद्यालय प्रकरण में तो हालात और भी नाजुक दौर में जा पहुंचे थे। राजनीतिक पंडित जानते हैं कि जयराम यह सब नड्डा के सक्रिय सहयोग से ही कर पाये हैं। इसी सबके कारण पार्टी विधानसभा के चुनाव हारी है।
इस परिपेक्ष में अब अगले लोकसभा चुनावों के लिये अभी से विसात बिछना शुरू हो गयी है। क्योंकि पूर्व भाजपा विधायक के इस आरोप को झुठलाया नहीं जा सकता कि जयराम के नेतृत्व में पार्टी तीन चुनाव हार गयी है। ऐसे में यदि कर्नाटक चुनाव की हार का कोई भी नजला नड्डा पर गिरता है तो उसके कारण प्रदेश में जयराम के नेतृत्व के लिये भी संकट आ जायेगा। ऐसी स्थिति में लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा में कई नये समीकरणों के आकार लेने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता।
शिमला/शैल। नगर निगम के छोटा शिमला वार्ड के पार्षद सुरेन्द्र चौहान महापौर और टूटी कण्डी वार्ड की पार्षद ऊमा कौशल उप महापौर चयनित हुए हैं। शिमला नगर निगम की सत्ता पर कांग्रेस दस वर्ष बाद काबिज हुई है। पिछले एक वर्ष से निगम पर प्रशासक की सत्ता थी। निगम के 34 वार्डों में से 24 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की और इसमें 14 वार्डों से महिला पार्षद जीत आयी। इसलिये महिलाओं के बहुत के आगे मेयर और डिप्टी मेयर का चयन सर्वसम्मति से हो पाना कठिन लग रहा था। लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षा सांसद श्रीमती प्रतिभा वीरभद्र सिंह और मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह सुक्खू के प्रयासों से यह चयन निर्विरोध हो गया। इस चयन में युवा और वरियता दोनों को अधिमान देते हुए कांग्रेस नेतृत्व संभावित टकराव को टालने में सफल हो गया है। कांग्रेस इस तरह पहली चुनावी परीक्षा में सफल हो गयी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि निगम का शासन-प्रशासन किस तरह शिमला की जनता की उम्मीदों पर पूरा उतर पाता है।
शिमला में सबसे बड़ी समस्या भवन निर्माण है। सरकार पिछले चार दशकों से भी अधिक समय से शहर को एक स्थाई प्लान नहीं दे पायी। इस प्लान के अभाव में ही प्रभावशाली लोग समय-समय पर निर्माण नियमों की अवहेलना करते आये हैं और इन अवहेलनाओं को नजरअन्दाज करके सरकारों को नौ बार रिटैन्शन पॉलिसीयां लानी पड़ी है। लेकिन अब हालात नवम्बर 2016 में आये एनजीटी के फैसले से इस कदर उलझ गये हैं की अवैधताएं अब भी जारी हैं। वोट की राजनीति के चलते सरकारें आंखें बन्द करके चल रही हैं। बल्कि इन अवैधताओं को और प्रोत्साहन दे रही है। इसी प्रोत्साहन के परिणाम स्वरूप 2016 के फैसले के बाद भी हजारों अवैध निर्माण होने की सूचनाएं अदालत तक पहुंच चुकी हैं। अदालत सरकार द्वारा बनाये गये प्लान को रिजैक्ट कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने एनजीटी के फैसले को चुनौती दे रखी है। लेकिन शीर्ष अदालत ने इस पर कोई स्टे नहीं दिया है। अभी तीन मई को शीर्ष अदालत ने स्पष्ट कहा है कि पहले प्लान पर आये एतराजों का निपटारा करके प्लान को नोटिफाई करें। इसके बाद भी यदि कोई एतराज आता है तो उच्च न्यायालय उस पर विचार करे। लेकिन इसके चलते एनजीटी के फैसले की आवहेलना कोई नहीं करेगा। एक ओर यह अदालती स्थिति है लेकिन दूसरी ओर नगर निगम के इन्हीं चुनावों के दौरान सरकार ने एटिक की ऊंचाई बढ़ाकर उसको रिहायश के काबिल बनाने और बन्द पड़ी बेसमैन्ट को खोलकर पार्किंग बनाने की सुविधायें की घोषणाएं कर दी। इसके लिये नियमों में संशोधन करने के ऐलान हो गये। यह खबरें छप गयी कि जल्द ही ऐसी आधिसूचनाएं जारी हो रही हैं। कानून के जानकार जानते हैं कि जब तक एनजीटी का फैसला खड़ा है तब तक उसकी आवहेलना की कोई भी अधिसूचना जारी नहीं की जा सकती। लेकिन सरकार ने चुनावों में वायदे किये हैं और भाजपा इन वायदों पर चुप्पी साधे रही है। औपचारिक तौर पर भी उसने किसी मंच पर कोई शिकायत दर्ज नहीं करवाई है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इस मामले में दोनों एक साथ हैं। लेकिन इसके कानूनी पक्ष का अब चयनित निगम और शासन प्रशासन को सामना करना पड़ेगा। क्योंकि लोग तो निगम प्रशासन के पास आयेंगे। ऐसे में निगम प्रशासन के लिये आने वाला समय कोई बहुत सुखद नहीं रहेगा।
निगम के चुनावों के दौरान ही स्थानीय विधायक शहरी जनारथा ने एक पत्रकार वार्ता में यहां तक आरोप लगाया है कि निगम में ऐसे दर्जनों काम हुए हैं जो कागजों में तो हैं परन्तु जमीन पर नजर नहीं आ रहे। विधायक की इस आशंका को एक आरटीआई से बल मिलता है जिसमें खुलासा सामने आया है कि शहर के कुछ भागों में करोड़ों से बनी पार्किंग दिखाई गयी है जो जमीन पर है ही नहीं। इस बजट सत्र में स्थानीय निकायों पर जो कैग रिपोर्ट आयी है उसमें एसजेपीएनएल का 31-03-2018 को क्लोजिंग बैलेन्स 1591.54 लाख है और 1-4-2018 को ओपनिंग बैलेन्स 575.26 लाख रह गया। एक रात में ही यह अन्तर कैसे आ गया इस पर आज तक चुप्पी चली हुई है। ऐसे कई मामले हैं जिन पर निगम के नये प्रबन्धन को संज्ञान लेकर कारवाई करने की आवश्यकता होगी। सुप्रीम कोर्ट का तीन मई का आदेश पाठकों के सामने रखा जा रहा है जिसमें वह इस पर अपनी समझ बना सकें।
यह है सुप्रीम कोर्ट का आदेश
1. We are informed that on account of directions issued by the National Green Tribunal (NGT), the final development plan which is presently at the stage of ‘draft notification’ could not be published. We are further informed by the learned Advocate General for the State of Himachal Pradesh that 97 objections have been received to the draft development plan.
2. In light of the facts and circumstances of these cases, we find that it will be appropriate, that the State Government decides the objections received to the draft development plan and after considering the same issue a final development plan.
3. We, therefore, direct the State of Himachal Pradesh to consider the objections to the draft development plan, decide them and publish the final development plan within a period of six weeks from today.
4. We further clarify that after the final development plan is published, it would not be given effect to for a period of one month from the date of its publication.
5. It is further directed that no construction should be permitted on the basis of the draft development plan.
6. Learned counsel appearing for the impleadors submits that certain constructions are being carried out without there being a sanctioned plan.
7. If any such construction is carried out without there being a sanctioned plan, indisputably, such a construction would be an unauthorized construction.
8. We, therefore, grant liberty to the applicant(s) to take recourse to the remedy available under Article 226 of the Constitution of India and bring unauthorized constructions to the notice of the High Court.
9. Needless to state that on such petitions being filed, the High Court would decide such petitions with due urgency that the issue requires.