शिमला/बलदेव शर्मा
वीरभद्र सिंह ने शिमला ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को अपने सरकारी आवास ओकओवर में संबोधित करते हुए घोषणा की थी कि अगले चुनाव में शिमला ग्रामीण से उनके स्थान पर उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह प्रत्याशी होंगे। उन्होने कार्यकर्ताओं से अपने बेटे के लिये पूरा सक्रिय समर्थन मांगा और साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि शिमला ग्रामीण के लोगों को उनका सहयोग भी बराबर मिलता रहेगा। वीरभद्र ने शिमला ग्रामीण से अपने बेटे की उम्मीदवारी की घोषणा करके दूसरे लोगों को यह सोचने पर लगा दिया कि ऐसे में वीरभद्र स्वयं कहां से चुनाव लडेंगे। क्योंकि जब उनको सातवी बार मुख्यमन्त्री बनाने की घोषणा विद्या स्टोक्स जैसी वरिष्ठ मन्त्री कर चुकी है तो स्वाभाविक है कि वो कहीं से तो चुनाव लडेंगे ही। इसी के परिणामस्वरूप पार्टी के अन्दर उनकी घोषणा को लेकर प्रति क्रियाएं भी उभरी। लेकिन इस घोषणा के तीसरे ही दिन विक्रमादित्य का ब्यान आ गया कि उनके चुनाव क्षेत्र के बारे में हाईकमान ही फैसला लेगी। विक्रमादित्य सिंह के बाद स्वयं वीरभद्र सिंह ने यह ब्यान दे दिया कि उन्होने यह सब हल्के लहजे में कहा था और अभी इस बारे में कोई फैसला नही हुआ है।
वीरभद्र और विक्रमादित्य सिंह को जानने वालों के लिये इनका स्टैण्ड बदलना एक गंभीर राजनीतिक कदम है। क्योंकि वीरभद्र ने हर बार अपने लिये कुर्सी का प्रबन्ध हाईकमान से लड़कर ही किया है। अब विक्रमादित्य को विधानसभा में देखने के लिये वीरभद्र सिंह को उसके लिये एक सुरक्षित चुनाव क्षेत्र का प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा। फिर अपने चुनाव क्षेत्र से ज्यादा सुरक्षित स्थान और कौन सा हो सकता है। शिमला ग्रामीण में वीरभद्र सैंकड़ो करोड़ के विकास कार्यो की घोषणा पहले ही कर चुके है। महत्वपूर्ण कांग्रेस कार्यकर्ताओं/नेताओं की रोजी रोटी का भी अच्छा जुगाड़ किया जा चुका है। ऐसे में यह तय है कि विक्रमादित्य शिमला ग्रामीण से ही उम्मीदवार होंगे। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि वीरभद्र ने अपना स्टैण्ड क्यों बदला? क्या हाईकमान के स्तर पर वीरभद्र घोषणा को गंभीर से लिया गया है। क्योंकि पिछले दिनों जब राहूल गांधी धर्मशाला आये थे उस समय परिवहन मन्त्री जी एस बाली को जिस ढंग से मंच पर जगह नही दी गयी थी उसको लेकर जो तनाव उभरा था वह अब तक बरकरार है। उसके बाद ही बाली को उत्तराखण्ड में जिम्मेदारी मिली। जिसका राजनीतिक हल्कों में यह सन्देश गया था कि अब बाली वीरभद्र पर भारी पडते जा रहें है।
इसके अतिरिक्त वीरभद्र सिंह ने सुक्खु से प्रदेश अध्यक्ष छीनने के लिये सब कुछ दाव पर लगा दिया है। हर्षमहाजन और आशा कुमारी वीरभद्र सिंह की अध्यक्ष पद के लिये पहली पंसद है। इनके बाद सुधीर शर्मा है। लेकिन वीरभद्र सिंह अभी तक अपनी इस गेम में सफल नही हो पा रहे है। सूत्रों की माने तो अब जब वीरभद्र ने विक्रमादित्य की उम्मीदवारी घोषित की तो उनके विरोधियों ने इसकी जानकारी तुरन्त हाईकमान तक पहुंचा दी और हाईकमान ने इस पर अप्रसन्नता जाहिर की है। हाईकमान की अप्रसन्नता के कारण ही वीरभद्र ने अपना स्टैण्ड बदला है। माना जा रहा है कि हाईकमान ने एक परिवार से एक ही व्यक्ति को टिकट देने के फैसले पर कडाई से अमल करने का मन बना लिया है। अभी जो विधानसभा चुनाव हो रहे है उनमे भी इस सिद्धान्त पर अमल किया गया है। इस बार यदि पंजाब में कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हो जाती है और उत्तर प्रदेश में भी उसकी परफारमैन्स बेहतर रहती है। तो निश्चित रूप से कांग्रेस हाईकमान को इससे ताकत मिलेगी। इससे कांग्रेस की पूरी बागडोर राहूल गांधी के नियन्त्रण में आ जायेगी। माना जा रहा है कि वीरभद्र कमजोर हाईकमान को आंखे दिखाकर अपनी ईच्छानुसार प्रदेश में अपनी सुविधा के मुताबिक फैंसले ले लेते है लेकिन इस बार राहूल गांधी के साथ भी ऐसा कर पायेंगेे इसको लेकर जो सन्देह माना जा रहा है। फिर यूपी चुनावों में राम मन्दिर को लेकर जो ब्यान दिया है वह एकदम कांग्रेस की अब तक की घोषित लाईन से एकदम विपरीत रहा है। इसी तरह का एक ब्यान वीरभद्र आरक्षण को लेकर भी दे चुके है। यह दोनोें ब्यान आरएसएस और भाजपा की लाईन के समर्थन की गन्ध देतेे है वीरभद्र जैसा वरिष्ठ नेता इन मुद्दोें पर पार्टी लाईन से हटकर क्यों स्टैण्ड ले रहा है? क्या हाईकमामन ऐसेे स्टैण्ड को स्वीकार कर पायेगी? माना जा रहा कि वीरभद्र के इन ब्यानों को भी हाईकमान ने गंभीरता से लिया है? संभवतः इसी के कारण वीरभद्र को अपना स्टैण्ड बदलना पड़ा हैै।
शिमला/बलदेव शर्मा
प्रदेश में अवैध भवन निमार्ण और सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे दो ऐसे मसले है जिन पर उच्च न्यायालय भी अपनी चिन्ता व्यक्त करते हुए इन मामलों के लिये दोषी प्रशासनिक तन्त्र के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दे चुका है। लेकिन न्यायालय का सम्मान करने की दुहाई देने वाली वीरभद्र सरकार ने इन मामलों में आये अदालती निर्देशों को अंगूठा दिखाते हुए अवैधताओं को नियमित करने का रास्ता अपना लिया है। स्मरणीय है कि शिमला और प्रदेश के अन्य भागों में हजारों की संख्या में अवैध भवन निर्माण है जबकि प्रदेश में टीसीपी एक्ट लागू है। लेकिन इस एक्ट के खिलाफ जाकर सरकार अवैध निर्माणो को नियमित करने के लिये नौ बार नियमों में ढील देकर रिटेन्शन पालिसियां ला चुकी है। हर बार लायी गयी पाॅलिसि के साथ यही कहा जाता रहा है कि यह अन्तिम बार है। लेकिन यह अन्तिम बार कभी नही आयी। इस बार तो प्रदेश उच्च न्यायालय ने इसका कडा संज्ञान लेते हुए दोषियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश जारी किये थे। लेकिन इसका सरकार पर यह असर हुआ कि निर्देशों को अंगूठा दिखाते हुए विधान सभा में टीसीपी एक्ट में ही संशोधन का प्रस्ताव लेकर आ गयी जो कि ध्वनि मत से सदन में पारित हो गया।
विधानसभा से पारित होकर यह संशोधित विधेयक राजभवन पहुंचा। राज्यपाल ने भी उच्च न्यायालय की चिन्ता को स्वीकारते हुए इसको अपनी स्वीकृति देकर राजभवन में रोक लिया लेकिन राज्यपाल को भी अन्त में राजनीतिक दबाव के आगे झुकना पड़ा। क्योंकि सबसे पहले भाजपा ने ही राजभवन पहंुच कर इस संशोधित विधेयक को स्वीकृति देने के लिये राज्यपाल पर दबाव डाला भाजपा के बाद कांग्रेस ने राजभवन में दस्तक दी और इसे स्वीकार करने का आग्रह किया। राजभवन ने वाकायदा पत्र लिखकर सरकार से पूछा कि उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार दोषी अधिकारियों के खिलाफ सरकार क्या कारवाई करने जा रही है और राजभवन के इस सवाल का मुख्यमन्त्री ने सार्वजनिक ब्यान देकर जबाव दिया कि सरकार की कारवाई करने की कोई मंशा नही है। मुख्यमन्त्री के इस ब्यान के बाद राजभवन ने इस संशोधन पर अपनी मोहर लगा दी है और अवैधता को नियमित करने का यह एक्ट लागू हो गया है।
इसी तर्ज पर अब वीरभद्र सरकार अवैध जमीन कब्जों को नियमित करने के लिये उच्च न्यायालय के समक्ष एक पालिसी रखने जा रही है। स्मरणीय है कि प्रदेश में सरकारी भूमि पर लाखों की संख्या में अवैध कब्जे है। प्रदेश उच्च न्यायालय इन अवैध कब्जोें का कड़ा संज्ञान लेकर इनको हटाने के कई आदेश पारित कर चुका है। अपने आदेशों पर अमल सुनिश्चित करने के लिये उच्च न्यायालय संबद्ध शीर्ष अधिकारियों की जिम्मेदारी भी लगा चुका है। इन आदेशों पर आंशिक रूप से अमल भी हुआ है। लेकिन उच्च न्यायालय की गयी कारवाई की रफतार से संतुष्ट नही था। इस लिये अपने अन्तिम निर्देशों में उच्च न्यायालय ने राज्य प्रशासन के साथ ही भारत सरकार के प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को भी निर्देश जारी किये थे कि अवैध कब्जों के मामलों में ईडी मनीलाॅंडरिग प्रावधानों के तहत कारवाई करे। राज्य के वन विभाग को भी निर्देश दिये थे कि वह इन मामलों से जुड़ा सारा रिकार्ड तुरन्त प्रभाव से ईडी को भेजे। अदालत के इन निर्देशांे पर सचिव वन की ओर से विभाग को दो बार पत्र भेज कर यह कहा गया था कि उच्च न्यायालय के निर्देशानुसार इन मामलों से जुडे रिकार्ड को भेजा जाये। सचिव वन के पत्र के बाद विभाग ने भी इस पर अपली कारवाई डालते हुए नीचे जिला स्तर पर पत्र भेज दिया है। लेकिन इस पर व्यवहारिक रूप से क्या कारवाई हुई है। इसपर विभाग पूरी तरह खामोश है।
स्मरणीय है कि सरकारी भूमि पर अवैध कब्जों को नियमित करने के लिये वर्ष 2002 में तत्कालीन धूमल सरकार ने एक योजना बनाई थी। इस पर तत्कालीन राजस्व मन्त्री ने योजना बनाकर प्रदेश के लोगों से आग्रह किया था कि वह स्वेच्छा से शपथपत्र देकर अपने-अपनेे अवैध कब्जों की सरकार को जानकरी दे। सरकार के इस आग्रह पर करीब पौने दो लाख लोगों ने सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे स्वीकारे थे। लेकिन उसी दौरान इस योजना को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी। इस पर उच्च न्यायालय ने इन मामलों में सरकार के स्तर पर अन्तिम फैसला लेने से अदालत का फैसला आने तक रोक लगा दी। तब से यह मामला अदालत में लंबित चल रहा है। लेकिन इसी बीच अवैध कटान और अवैध कब्जों को लेकर कई और मामले अदालत के सामने आ गये। इन अदालत ने सरकार से वन भूमि और दूसरी सरकारी भूमि पर हुए अवैध कब्जो की अलग-अलग जानकारी मंागी। इस पर जो जानकरी अदालत में आयी है उसमें वन भूमि पर ही हजारों में अवैध कब्जे सामने आये है। इसके बाद दस बीघे या इससे अधिक की भूमि पर कब्जों की सूची मांगी गयी। इसमें भी हजारों की संख्या सामने आयी है। वनभूमि पर सबसे अधिक अवैध कब्जे शिमला के रोहडू में सामने आये है। प्रदेश के राजस्व की जानकारी रखने वालों के मुताबिक यहां पर अधिकांश में खाली जमीन पर वन भूमि का इन्दराज है। लगभग 90प्रतिशत खाली जमीन पर फाॅरेस्ट का इन्दराज है। इसी कारण विकास भूमि के हर कार्य के लिये केन्द्र सरकार के वन मन्त्रालय से पूर्व स्वीकृति लेने की आवश्यकता रहती है और आज सैंकडो ऐसे मामले केन्द्र के पास लंबित पडे़ है।
अदालत के निर्देशानुसार अब इन अवैध को लेकर देर-सवेर कारवाई करनी ही पड़ेगी की स्थिति बन गयी है। वन भूमि पर कोई भी फैसला लेने का अधिकार राज्य सरकार को नही और अधिकांश अवैध कब्जे वनभूमि पर है। वीरभद्र सरकार को लेकर आम आदमी में यह धारणा बन चुकी है कि यह सरकार हर अवैधता को नियमित करने के लिये हर समय तैयार रहती है। इसी धारणा के तहत राजस्व मन्त्री कौल सिंह की अध्यक्षता में अवैध कब्जों को लेकर नीति बनाने के लिये कमेटी गठित की गयी है। लेकिन अब यह मामला उच्च न्यायालय के भी संज्ञान में है और वनभूमि को लेकर केन्द्र सरकार भी बीच में आयेगी। ऐसे में क्या वीरभद्र सरकार इस अवैधता को भी नियमित करने का जोखिम उठा पायेगी?
शिमला/बलदेव शर्मा
प्रदेश भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनावों के लिये पचास प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य घोषित किया है। लेकिन इस लक्ष्य की सफलता को लेकर अभी से प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गये हैं। क्योंकि जब वीरभद्र सरकार के चार वर्ष पूरे होने पर राज्यपाल को सरकार के खिलाफ आरोप पत्र सौंपा गया था उस समय कुछ कार्यकर्ताओं ने जो नारे प्रेम कुमार धूमल के पक्ष में लगाये थे उन पर प्रदेश अध्यक्ष को यह कहकर विराम लगवाना पडा कि इस अवसर पर व्यक्ति केन्द्रित नारे नही लगेंगे। अध्यक्ष के निर्देश पर यह नारे बाजी रूक तो गयी लेकिन कार्यकर्ताओं ने इस टोकने का बुरा मनाया। आरोप पत्र कार्यक्रम के कुछ दिनों बाद बद्दी में प्रदेश कार्य समिति की बैठक हुई। इस बैठक में रखे गये राजनीतिक प्रस्ताव में यह कहा गया कि जो आरोप पत्रा राजयपाल को सौंपा गया है उसे प्रदेश के हर घर तक ले जाया जायेगा। 2012 के विधान सभा चुनावों में पार्टी को सफलता क्यों नही मिल पायी थी इसका जिक्र भी इस बैठक में आया। कार्य समिति की इस बैठक में केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा दिल्ली में व्यस्त होने के कारण शामिल नही हो सके थे। कार्यसमिति की बैठक के बाद पत्रकारों को ब्रीफ करने के लिये केवल प्रेम कुमार धूमल ही उपलब्ध रहे और इसमें सत्ती और शान्ता की गैर मौजूदगी को लेकर कार्यकर्ताओं में भी दबी जुबान में चर्चा रही है। इस कार्य समिति की बैठक के कुछ अरसे बाद यह खबर छप गयी कि अभी पांच राज्यों के चनावों के बाद नड्डा को प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष भी बना दिया जायेगा। इस समाचार में यह सन्देश देने का भी प्रयास किया गया है कि नड्डा प्रदेश के अगले मुख्यमन्त्री होंगे। पार्टी में आगे चलकर क्या घटता है इसका खुलासा तो आने वाला समय ही करेगा। लेकिन इस समय भाजपा को ही कांग्रेस के विकल्प के रूप में प्रदेश में देखा जा रहा है। क्योंकि और कोई दल सामने है ही नही। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों के लिये भाजपा की गतिविधियों पर ही बारीक नजर रखना स्वाभाविक है।
भाजपा को कांग्रेस नही बल्कि वीरभद्र से सत्ता छीननी है। वीरभद्र भाजपा में केवल धूमल और उनके परिवार को ही उठते-बैठते कोसते हैं। अपने खिलाफ चल रहे सीबीआई ईडी और आयकर मामलों के पीछे धूमल परिवार का ही हाथ मानते है। धूमल के अतिरिक्त शान्ता और नड्डा की तो वीरभद्र कभी-कभी तारीफ भी कर देते हैं। वीरभद्र का राजनीतिक व्यवहार इसका प्रमाण है कि वह केवल धूमल से ही आंतकित और आशंकित रहते हैं और यही धूमल की राजनीतिक ताकत बन जाता है। लेकिन कांग्रेस के मुकाबले भाजपा का हाईकमान बहुत ताकतवर है वहां वीरभद्र की तरह आंख दिखाकर हाईकमान को चुप नही करवाया जा सकता। इस परिदृष्य में राजनीतिक वस्तुस्थिति का आकलन करते हुए जो सवाल उभरतेे है वह महत्वपूर्ण हैं। शिमला प्रदेश की राजधानी है और सरकार के हर सही/गलत कार्य की पहली जानकारी यहीं पर सुगमता से जुटायी जा सकती है जिस पर तुरन्त राजनीतिक प्रतिक्रिया की आवश्यकता रहती है। लेकिन यह पहली बार हुआ है कि शिमला में भाजपा का मुख्यालय होते हुए भी यहां पर पार्टी का कोई प्रवक्ता मौजूद नही है। वीरभद्र अपने खिलाफ चल रहे मामलों को धूमल जेटली और अनुराग का षडयंत्र करार देते आ रहे हंै लेकिन प्रदेश भाजपा एक लम्बे अरसे से इस मोर्चे पर खामोशी ओढ़कर बैठी हुई है। अभी भाजपा ने सरकार के खिलाफ एक लम्बा-चैड़ा आरोप पत्र राज्यपाल को सौंपा है। इस आरोप पत्र को घर-घर तक पहुंचाने का राजनीतिक प्रस्ताव भी पारित किया है। लेकिन व्यवहारिक रूप से आरोप पत्र सौंपने के बाद भाजपा के किसी भी नेता ने इसमें दर्ज आरोपों पर मुंह नही खोला है जबकि वीरभद्र ने आरोप पत्र को कूड़दाने में फैंकने लायक करार दिया है। भाजपा ने इससे पहले भी आरोप पत्र सौंपे हंै जिन्हे सांैपने के बाद स्वयं ही भूल गयी है। इससे अब भी यही लगता है कि इस आरोप पत्र को लेकर भी केवल एक राजनीतिक रस्म की ही अदायगी मात्र की गयी है और इसमें दर्ज आरोपों के प्रति कोई ईमानदारी और गंभीरता नही है।
भाजपा के भीतर अंगडाई लेते नये समीकरणों की गन्ध को सूंघते ही वीरभद्र ने धर्मशाला को प्रदेश की दूसरी राजधानी घोषित कर एक राजनीतिक मुद्दा बसह के लिये उछाल दिया है। भाजपा इस मुद्दे पर अभी तक कोई बड़ी प्रतिक्रिया जारी नही कर पायी है। जबकि वीरभद्र अब इसे आगे बढ़ाने में लग गये हैं। एक हजार करोड़ का कर्ज संभवतः इसी मुद्दे को सामने रखकर लिया जा रहा है। वीरभद्र दूसरी राजधानी के मुद्दे को इतना विस्तार देने का प्रयास करेगें ताकि और उठने वाले मुद्देे इसके आगे गौण हो जायें। वह 2017 का चुनाव इसी मुद्दे के गिर्द केन्द्रित करना चाहते हैं। वीरभद्र ने इस पर अपनी चाल चल दी है। भाजपा इसका कारगर जवाब देने की बजाये अगले नेतृत्व के प्रश्न पर ही ऐसे उलझने जा रही है जिससे समय रहते बाहर निकल पाना आसान नही होगा। क्योंकि नड्डा के अध्यक्ष बनाये जाने के प्रचार पर अभी तक किसी की भी कोई अधिकारिक प्रतिक्रिया या खण्डन नही आया है। नड्डा का नाम ऐसे वक्त पर प्रचारित और प्रसारित हुआ है कि यदि समय रहते यह स्थिति स्पष्ट न हो पायी तो इससे राजनीतिक नुकसान होना तय है। भाजपा के भीतर उभरती इस असमंजस्ता से पार्टी के घोषित चुनावी लक्ष्य की सफलता पर अभी से प्रश्न चिन्ह लगने स्वाभाविक हैं। क्योंकि पिछले दिनों नड्डा के स्वास्थ्य मन्त्रालय के प्रबन्धन पर भी गंभीर सवाल उठे चुके हैं। संजीव चतुर्वेदी ने जो सवाल उठाये थेे उनका अभी तक कोई जवाब नही आ पाया है इस मुद्दे की संसद तक में उठने की संभावना बन चुकी है। ऐसे में नेतृत्व के लिये नड्डा का नाम उछलने के बाद तो आवश्यक हो जाता है कि इस संद्धर्भ में जल्द-जल्द स्थिति स्पष्ट हो ।
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