Friday, 19 September 2025
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75 करोड़ का ऋण हुआ 1700 करोड़, रिकवरी संकट में

शिमला/बलदेव शर्मा
प्रदेश वित्त निगम लगभग डूब चुका है। एक अरसे से निगम नई ईकाईयों को फाईनैन्स नहीं कर कर पा रहा है। धर्मशाला आदि कई स्थानों पर इसके कार्यालय व्यवहारिक रूप से बन्द हो चुके हैं। वैसे तो प्रदेश के लगभग सभी निगम और बोर्ड घाटे में चल रहे हैं केवल खाद्य एवम् आपूर्ति निगम को छोड़कर। लेकिन प्रदेश के वित निगम का बदहाल होना अपने में कुछ अलग ही सवाल खडे करता है। क्योंकि इसके प्रबन्धन में दूसरे निगमों/बार्डो से भारी अन्तर है। इस निगम के प्रबन्धन बोर्ड में कोई गैर सरकारी सदस्य नही होता है और प्रदेश के मुख्य सचिव ही इसका अध्यक्ष होता है। मुख्य सचिव के साथ सरकार के अन्य वरिष्ठ अधिकारी इसके प्रबन्धकीय बोर्ड के सदस्य होते हैं। यह व्यवस्था इसलिये है ताकि किसी को ऋण देने और उसकी वसूली करने में कोई राजनीतिक दबाव आड़े न आये और सारा काम नियमों कानूनो के मुताबिक हो। वित्त निगम का एक ही काम उद्योग ईकाईयों को ऋण देना और उसकी वसूली करना है। इसकी स्थापना राज्य वित्त निगम अधिनियम 1951 के तहत हुई है और इस अधिनियम की धाराओं 29,30,31 और 32 में ही यह सक्ष्म प्रावधान है कि किसी भी ऋण की वसूली के लिये सीपीसी का सहारा न लेना पडे़।
वित्त निगम के आन्तरिक रैगुलेटर सिडवी इसके निरीक्षण और संचालन की व्यवस्था के लिये प्रदेश के वित्त विभाग के पास इसके प्री आडिट की जिम्मेदारी है। अधिनियम में रखी गयी इस व्यवस्था का अर्थ है कि इसके हर लेन-देन को अमली शक्ल लेने से पहले प्री आडिट से होकर गुजरना आवश्यक है। वित्त विभाग को आन्तरिक आडिट की जिम्मेदारी का अर्थ है कि ऋण आदि की किसी भी अदायगी से पूर्व यह सुनिश्चित करना कि इसमें वांच्छित सारी आवश्यक औपचारिकतांए पूरी की ली गयी हैं। किसी भी ऋण के दिये जाने से पूर्व सुनिश्चित किया जाता है कि इसकी वापसी कैसे होगी। इसके लिये ऋण लेने वाले की अचल संपति आदि के सारे दस्तावेज धरोहर के रूप में रखे जाते हैै और इनका संबधित राजस्व अधिकारी के रिकार्ड में इन्दराज करवाया जाता है ताकि निगम की अनुमति के बिना इसे बेचा न जा सके। धरोहर रखी गयी संपति की कीमत दिये गये ऋण से कम नहीं होनी चाहिये। यदि इस व्यवस्था की अनुपालना सुनिश्चित रही होती तो प्रदेश के वित्त निगम के डूबने की नौवत कभी न आती।
आज वित्त निगम की कुल रिकवरी का आंकडा 1700 करोड़ तक पंहुच गया है। इस 1700 करोड़ की रिकवरी का मूलधन केवल 75 करोड़ है। लेकिन इस 75 करोड़ के मूलधन की वसूली के लिये धरोहर रूप में रखी गयी संपति की कीमत 25 करोड़ भी नही है। स्वााभाविक है कि जब 25 करोड़ की धरोहर के एवज़ में 75 करोड़ का ऋण दे दिया जायेगा तो वह 1700 करोड़ तक  पहुंच  ही जायेगा। इस समय डीआरटी चण्डीगढ़ के पास रिकवरी के लिये दायर हुए केसों में निगम ने 119 लाख के तो स्टांप पेपर आदि ही लगा रखे हैं लेकिन रिकवरी केवल 60 लाख है जबकि चण्डीगढ़ में इन मामलों की पैरवी करने के लिये नियमित रूप से दो कर्मचारियों की तैनाती की है और उन्हें एक गाडी भी दी गयी हैै। इसके अतिरिक्त इन मामलों में वकीलों को जो फीस दी गयी वह भी करोड़ो में है। रिकवरी के मामले सीपीसी के प्रावधानों के तहत दायर किये गये। जब डीआरटी की स्थापना हुई और इसका कार्यालय चण्डीगढ़ में भी स्थापित हुआ तब एचपीएफसी ने भी इसका रूख कर लिया ऋणधनों की बसुली के लिये लैण्ड रैवन्यू एक्ट के तहत प्रावधान है इसके लिये 1983 में HP Public Money ( Recovery of Dues) Act 1973 में संशोधन किया गया था। यही नहीं 1985 में लैण्ड रैवन्यू एक्ट के तहत रिकवरी सुनिश्चित करने के लिये सारी वित्तिय निगमों को अधिकृत करने के लिये वित्त निगम अधिनियम 1951 की धारा 32 में 32Gजोड़ा गया था । लेकिन इस प्रावधान के तहत वांच्छित नियम बनाने में 18 वर्ष का समय लगा दिया गया। 2003 में यह नियम बनाये गये। यह नियम बनने के बाद इनके तहत कितनी कारवाई हुई यह देखने का भी किसी ने कष्ट नही किया। 1994 से 2009 के बीच निगम के अधिनियम की 31 के तहत दायर हुए 80 मामलों में एक्ट के तहत अधिकृत वैधानिक आदेश तक हासिल करने का प्रयास नही किया गया है। कई मामलों में तो धरोहर के रूप में रखी संपति को बेच लिया गया है क्योंकि संबधित राजस्व रिकार्ड में इन्दराज ही नही थे।
वित्त निगम की इस जमीनी हकीकत से यह सवाल उभरते हैं कि जब निगम के अधिनियम की धाराओं 29,30,31 और 32 ऋण वसूली की प्रक्रिया और प्रावधान स्पष्ट परिभाषित हैं तो फिर उनको नजर अन्दाज करके सीपीसी की प्रक्रिया और प्रावधानों को लम्बा सहारा क्यों लिया गया? जब ऋण वसूली के लिये लैण्ड रैवन्यू एक्ट का प्रावधान सारी वित्तिय निगमों को उपलब्ध है तो इसके तहत कारवाई क्यों नही की जा रही? वित्त निगम के प्रबन्धन की जो कार्यशैली रही है उससे यह भी सवाल उभरता है कि क्या निगम के अधिनियम के प्रति इसका प्रबन्धन सही में अनभिज्ञ रहा है या फिर जानबूझ कर राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिये यह नजर अन्दाजी की गयी है। आज प्रबन्धन की इस कार्यशैली के कारण निगम का 1700 करोड़ रूपया डूब रहा है। क्या इसके लिये किसी की जिम्मेदारी तय की जा सकेगी। वित्त निगम की यह वस्तुस्थिति इसके अध्यक्ष मुख्य सचिव के संज्ञान में है लेकिन वह इस दिशा में कोई कदम नहीं उठा पा रहे हैं। इससे यह संकेत उभरता है कि उनपर भारी दबाव चल रहा है क्योंकि बहुत सारे मामले ऐसे हैं जो प्रदेश के बडे़ राजनेताओं या उनके संबधियों से ताल्लुक रखते हैं।

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