शिमला/शैल। प्रदेश में हुए नौ विधानसभा उपचुनावों में छः पर जीत दर्ज करके कांग्रेस जिस तरह से नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर पर आक्रामक हुई है उससे प्रदेश के राजनीतिक गलियारों में अलग तरह की चर्चाएं चल पड़ी हैं। कांग्रेस का हर नेता यह तंज कस रहा है की जय राम अब सरकार गिरने की तारीखों की भविष्यवाणी नहीं कर रहे हैं। यह उपदेश दिया जा रहा है कि उन्हें सरकार को रचनात्मक सहयोग देना चाहिए। कांग्रेस यह नॉरेटिव उस समय प्रसारित कर रही है जब सरकार के वित्तीय संकट को लेकर हर दिन स्थितियां गंभीर होती जा रही है। मुख्यमंत्री और लोक निर्माण मंत्री दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और भूतल परिवहन मंत्री से मिलकर विभिन्न मुद्दों में प्रदेश को वित्तीय सहायता देने की गुहार लगा चुके हैं। इस गुहार पर केंद्र से क्या मिलता है इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। यदि केंद्र से कोई अतिरिक्त सहायता नहीं मिल पाती है तो सरकार को अपने कर्मचारियों को वेतन और पैन्शन का नियमित भुगतान कर पाना कठिन हो जाएगा। इस वित्तीय संकट के लिए पूर्व सरकार को दोषी ठहराया जा रहा है। लेकिन यह दोष सिद्धांत के रूप से आगे नहीं बढ़ पा रहा है क्योंकि यह सरकार पूर्व सरकार के ऐसे कार्यों को चिन्हित नहीं कर पार्यी है जिन्हें अनावश्यक कर्ज लेकर पूरा किया गया हो और वास्तव में उनकी व्यवहारिक आवश्यकता ही नहीं थी।
एक ओर केंद्र से सहायता की गुहार लगाई जा रही है तो दूसरी और धनबल के सहारे ऑपरेशन लोटस चलाकर सुक्खू सरकार को गिराने के प्रयासों का आरोप लगाया जा रहा है। ऑपरेशन लोटस की जांच को जिस तेजी के साथ आगे बढ़ाया जा रहा है उसके दस्तावेजी प्रमाण यदि सुक्खू सरकार सही में खोज लायी और अदालती परीक्षा में प्रमाणित कर पायी तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा और केंद्र सरकार की ऐसी फजियत होगी कि उसके नुकसान की भरपाई कर पाना भाजपा के लिए संभव नहीं रह जाएगा। इस परिप्रेक्ष में यदि वर्तमान राजनीतिक स्थितियों का निष्पक्ष आकलन किया जाये तो कुछ इस तरह के प्रश्न उभरते हैं। पहला प्रश्न आता है कि जब प्रदेश की वित्तीय स्थिति ठीक नहीं है तो यह सरकार अपने खर्चों पर अंकुश क्यों नहीं लगा पा रही है? इस समय मुख्य संसदीय सचिवों की व्यवहारिक रूप से आवश्यकता ही कहां है। इसी के साथ इतने सलाहकारों और ओएसडी की आवश्यकता कैसे है। इस समय हिमाचल भवन दिल्ली में आधा दर्जन से अधिक ऐसे लोग बिठा दिए गए हैं जिनकी वहां आवश्यकता ही नहीं है। सरकार जब तक अपने खर्चों पर अंकुश नहीं लगाएगी तब तक उसकी जन विश्वसनीयता नहीं बन पाएगी। कुशल राजनीतिक प्रबंधन से अर्जित की गई चुनावी सफलता विश्वसनीयता का पर्याय नहीं बन पाती है। यह एक स्थापित सच है। इसलिए उपचुनावों की जीत से वास्तविक समस्याएं हल नहीं हो जाती हैं।
इस समय इसी चुनावी जीत के दौरान ईडी और आयकर एजैन्सियों ने प्रदेश में दखल दिया है। जिन कारोबारियों के यहां छापेमारी हुई है वह ईडी के बुलावे पर सूत्रों के मुताबिक अगली जांच कारवाई में शामिल नहीं हो पाये हैं। मेडिकल भेज कर अगला टाइम मांगा जा रहा है। ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि आकाओं ने भरोसा दिलाया है कि सारा प्रबंध हो जाएगा। ऐसा वहां पर सुनने को मिल रहा है। जो कुछ छापेमारी में मिलने की चर्चाएं हैं उनके अनुसार इसका आकार बहुत बड़ा है। इसमें कुछ विभागों के अधिकारियों के स्तर पर ढील बरते जाने की भी चर्चाएं हैं। ऐसे में यह तय है कि जब ईडी ने छापेमारी करके रिकार्ड कब्जे में लिया तो उसको खंगालने के बाद ईडी आगे बढ़ेगी ही। यह भी स्पष्ट है कि जिस जमीन के राजस्व अन्दराज में ताबे हकूक बर्तन-बर्तनदारान दर्ज हो और जमीन गैर मुमकिन दरिया या खड्ड हो तो ऐसी जमीन की खरीद बेच स्वतः ही सवालों के घेरे में आ जाती है। इसलिए नादौन और हमीरपुर में हुई छापेमारी के अंतिम परिणाम गंभीर होंगे। उसकी आंच राजनेताओं तक पहुंचाने की संभावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता। फिर राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग के दौरान कांग्रेस के रिश्तों की संख्या पन्द्रह तक होने की चर्चाएं मीडिया में लंबे समय से उठती आ रही है। अभी मुख्य संसदीय सचिवों के मामले का फैसला उच्च न्यायालय से आना ही है। यह फैसला घोषित होने में जितना ज्यादा समय लग रहा है इसको लेकर उठ रही चर्चाओं का आकार भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।
इस सबको एक साथ रखकर देखने से जो तस्वीर उभर रही है उसमें यह स्वभाविक होगा कि इस समय सबसे ज्यादा चिंताएं और चर्चाएं कांग्रेस के अपने अंदर दिल्ली से लेकर शिमला तक उठ रही होगी क्योंकि इसका हर तरह का पहला असर कांग्रेस पर ही होना है। यह एक ऐसी स्थिति बनती जा रही है जहां पर यदि भाजपा नेतृत्व भी बचाव में खड़ा हो जाए तो भी यह सब रुकेगा नहीं बल्कि अपनों का ध्यान बंटाने के लिए नेता प्रतिपक्ष पर तंज कसना और मंत्रिमंडल में फेरबदल की चर्चाएं चलाना एक ध्यान बंटाने की रणनीति से अधिक कुछ नहीं होगा। बल्कि यह संभव है कि कल को नेता प्रतिपक्ष और पूरा भाजपा नेतृत्व ईडी प्रकरण पर कारवाई तेज करके सिर्फ फैसले तक पहुंचाने की मांग करने लग जाये और तब सरकार के गिरने की तारीखों से स्थिति आगे निकल जाये। क्योंकि जिस मामले के दस्तावेज साक्ष्य एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध हो तो उसके परिणाम स्वतः ही गंभीर हो जाते हैं।
शिमला/शैल। लोकसभा चुनावों के साथ प्रदेश विधानसभा के लिये छः उपचुनाव हुये थे। यह उपचुनाव दो हमीरपुर दो ऊना एक कांगड़ा के धर्मशाला और एक लाहौल स्पिति में हुआ था। लोकसभा की चारों सीटें हारने के बावजूद विधानसभा की छः में से चार पर कांग्रेस की जीत हुई थी। अब एक माह के भीतर ही विधानसभा के लिये तीन उपचुनाव हुये हमीरपुर, देहरा और नालागढ़ में। इनमें देहरा और नालागढ़ में कांग्रेस तो हमीरपुर में भाजपा की जीत हुई है। देहरा में मुख्यमंत्री की पत्नी कमलेश ठाकुर कांग्रेस की उम्मीदवार थी और पूरा चुनाव सरकार बनाम होशियार सिंह हो गया था। इस चुनाव के दौरान ही प्र्रदेश सरकार में मंत्रिमण्डल की बैठक में देहरा में एस.पी. ऑफिस और लोक निर्माण विभाग का अधीक्षण अभियन्ता कार्यालय खोलने का फैसला लेकर देहरा की जनता को यह सफल सन्देश दे दिया था कि मुख्यमंत्री की पत्नी को सफल बनाकर देहरा में विकास के दरवाजे खुल जायेंगे। कमलेश ठाकुर ने भी स्पष्ट ऐलान किया कि यदि नादौन में सौ रूपये खर्च होंगे तो देहरा में एक सौ एक खर्च होंगे। इन सन्देशों का वांच्छित प्रभाव पड़ा और देहरा में शानदार जीत हासिल हुई।
लेकिन इसी के साथ अपने ही गृह जिला के मुख्यालय हमीरपुर की सीट कांग्रेस नहीं जीत पायी। हमीरपुर भाजपा के खाते में गया। आशीष शर्मा फिर सफल हो गये। इस तरह हमीरपुर में हुये तीन उपचुनावों में से दो में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। लोकसभा में भी मुख्यमंत्री सुक्खू अपने चुनाव क्षेत्र नादौन में कांग्रेस को बढ़त नहीं दिला पाये हैं। नालागढ़ में अगर सैणी ने भाजपा से नाराज होकर निर्दलीय चुनाव न लड़ा होता तो शायद यहां भी कांग्रेस को जीत न मिल पाती। फिर इसी उपचुनाव में भाजपा के शीर्ष नेता पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने भाजपा के इस फैसले का समर्थन नहीं किया कि इन उपचुनावों में कांग्रेस के बागियों और निर्दलीय विधायकों को भाजपा में शामिल करके उनका चुनाव में प्रत्याशी बनाया जाता। इससे भाजपा देहरा में रमेश ध्वाला और रविंद्र रवि को सक्रिय रूप से चुनाव प्रचार में नहीं उतार पायी। इससे भाजपा में अनचाहे ही भीतरघात की परिस्थितियां पैदा हो गयी।
इस परिदृश्य में यह कहना ज्यादा सही नहीं होगा कि जनता ने कांग्रेस सरकार की नीतियों और नेतृत्व में विश्वास जताते हुये कांग्रेस को समर्थन दिया है। यदि ऐसा होता तो हमीरपुर में तीन में से दो सीटें भाजपा को न मिलती। इसलिये कांग्रेस और विशेष रूप से मुख्यमंत्री को आत्म चिंतन करने की आवश्यकता है। क्योंकि लोकसभा चुनावों के दौरान महिलाओं को पन्द्रह-पन्द्रह सौ देने की घोषणा की गयी उसके लिये फार्म भरवाने का काम चल पड़ा। अभी यह पन्द्रह सौ देने की योजना कब अमली रूप ले पाती है यह देखना दिलचस्प होगा। क्योंकि अभी उपचुनावों के परिणामों से पहले ही 125 यूनिट बिजली मुफ्त दिये जाने की योजना पर राईडर लगाने का फैसला मंत्रिमण्डल में ले लिया गया। यदि ऐसा फैसला इन उपचुनावों से पहले ही ले लिया जाता तो निश्चित तौर पर चुनाव परिणाम कुछ और होते। जब सरकार को 125 यूनिट बिजली मुफ्त दिये जाने के फैसले पर ही नये सिरे से समीक्षा करके संपन्न लोगों को इससे बाहर करना पड़ा है तो तय है कि तीन सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने की गारन्टी का व्यवहारिक परिणाम क्या होगा।
इस चालू वित वर्ष के पहले तीन माह में ही सरकार तीन हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है और एक वर्ष में कर्ज लेने की सीमा 6200 करोड़ हो तो यह सीमा तो पहले छः महीने में पूरी हो जायेगी तो क्या छः महीने बाद सरकार को कर्मचारियों को वेतन और पैन्शनधारी को पैन्शन दे पाना भी कठिन नहीं हो जायेगा। भाजपा पहले ही सरकार पर पच्चीस हजार करोड़ का कर्ज अब तक ले चुकने का आरोप लगा चुकी है। लेकिन इस तरह की नाजुक वित्तीय स्थिति के चलते भी सरकार अपने खर्चे कम करने का कोई प्रयास नहीं कर रही है। आम आदमी को मिल रही सुविधाओं पर राईडर लगाकर आय बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि सरकार ने अपने खर्चों पर लगाम न लगायी तो मित्रों के बोझ से सरकार इतनी दब जायेगी की उठना संभव हो जायेगा। इस समय ही देहरा की जीत से हमीरपुर की हार का आकार बड़ा हो गया है क्योंकि गृह जिला की हार है। इस राजनीतिक परिदृश्य में केंद्रीय जांच एजैन्सियों आयकर और ईडी का प्रदेश में आना सारी वस्तुस्थिति को और गंभीर बना देता है। ईडी का आना केंद्र सरकार का दखल माना जा रहा है। सुक्खू के मंत्रियों की प्रतिक्रियाओं से यह सन्देश गया है कि भाजपा इनके माध्यम से सरकार को अस्थिर करना चाहती है। लेकिन ईडी की कार्यशैली पर नजर रखने वाले जानते हैं कि बिना ठोस आधार के ईडी कदम नहीं रखता है। फिर यहां तो विलेज कामन लैण्ड और वह भी लैण्ड सीलिंग सीमा से अधिक खरीदने के दस्तावेजी साक्ष्य उपलब्ध है। इस तरह सारी स्थितियों का यदि एक साथ आकलन किया जाये तो लगता है कि निकट भविष्य में प्रदेश में कुछ बड़ा घटने वाला है। इसलिए अफसरशाहों की एक लम्बी कतार दिल्ली जाने के जुगाड़ में लग गयी है।
शिमला/शैल। प्रदेश में तीन उपचुनाव होने जा रहे हैं। दस जुलाई को मतदान होगा। चुनाव प्रचार अभियान चल रहा है। इन उपचुनावों के परिणामों का सरकार और विपक्ष पर कोई ऐसा संख्यात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा जिससे सरकार की स्थिरता पर कोई सवाल खड़े हो पायें। लेकिन इस सबके बावजूद यह उपचुनाव पिछले उपचुनावों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं। क्योंकि देहरा से मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी को कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया है। स्मरणीय है कि लोकसभा की चारों सीटें कांग्रेस हार गयी हैं। 68 में से 61 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस को हार मिली है। लोकसभा के साथ हुये छः विधानसभा उपचुनाव में से चार कांग्रेस जीत गयी है। लेकिन यह जीत भाजपा के आन्तरिक समीकरणों के गणित का प्रतिफल मानी जा रही है। क्योंकि मुख्यमंत्री अपने ही विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस को बढ़त नहीं दिल पाये हैं। इस परिदृश्य में मुख्यमंत्री की पत्नी का देहरा से उम्मीदवार बनाया जाना निश्चित रूप से कई सवालों को जन्म देता है। क्योंकि यदि किन्हीं कारणों से देहरा कांग्रेस हार जाती है तो निश्चित रूप से मुख्यमंत्री के नेतृत्व को लेकर ऐसे सवाल उठेंगे जिन्हें हाईकमान भी नजरअन्दाज नहीं कर पायेगी।
मुख्यमंत्री की पत्नी कमलेश ठाकुर पहली बार कोई चुनाव लड़ रही है। संगठन में भी वह ऐसा कोई बड़ा नाम नहीं रही है जिसकी कोई अपनी अलग राजनीतिक पहचान बन पायी हो। इस नाते उनकी केवल एक ही पहचान है कि वह मुख्यमंत्री की पत्नी है। इससे अलग कमलेश ठाकुर ने अपने को देहरा की बेटी होने का भी भावनात्मक अस्त्र छोड़ा है। चुनावी मंचों से वह लगातार यह बोलना नहीं भूल रही है कि ध्याण को खाली हाथ नहीं भेजते। उसी के साथ उसने यह भी ऐलान किया है कि यदि नादौन को सुक्खू सरकार सौ रूपये देती है तो वह देहरा के लिये एक सौ एक लेकर आयेगी। देहरा में ही उनका और मुख्यमंत्री का कार्यालय होगा। वह यह सब कहकर देहरा के लोगों को आश्वस्त कर रही है कि चुनावों के बाद देहरा में उनकी लगातार उपलब्धता बनी रहेगी। लोगों को अपने कार्यों के लिये मुख्यमंत्री के पास जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वह पूरी तरह इस चुनाव को भावनात्मक रंग दे रही है। होशियार सिंह के खिलाफ यह आरोप लगाया जा रहा है कि उन्होंने पन्द्रह माह के कार्यकाल में देहरा में विकास का एक भी काम नहीं किया है। कमलेश यह दावा कर रही है कि वह जीत कर देहरा में विकास की गंगा बहा देगी।
दूसरी और होशियार सिंह ने कमलेश के भावनात्मक कार्ड की जो काट लोगों में रखी है उससे यह चुनाव निश्चित रूप से रोचक और गंभीर हो गया है। देहरा की बेटी के नैरेटिव को बदलते हुये होशियार सिंह ने तथ्य सामने रखा है उनका मायका नलसूहा में है जो की जसवां परागपुर क्षेत्र में आता है। उनका ससुराल नादौन में है इस नाते वह देहरा की बेटी नहीं बल्कि नादौन की बहु है। होशियार सिंह स्वयं देहरा से हैं। पिछले दोनों चुनाव उन्होंने देहरा का बेटा होने के नाम से जीते हैं। इसी तर्क पर वह यह सवाल रख रहे हैं कि लोग घर के बेटे को चुनते हैं या नादौन की बहू को। इसी के साथ वह यह स्वीकार कर रहे हैं कि वह पन्द्रह माह में देहरा में कोई काम नहीं करवा पाये हैं क्योंकि सुक्खू सरकार ने देहरा को एक पैसा तक आवंटित नहीं किया। जब सरकार पूरी तरह पक्षपात करके चल रही थी तो ऐेसी व्यवस्था में विधायक बने रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता था। वह सवाल कर रहे हैं कि नादौन में अपने कुछ मित्रों के दायरे से बाहर न निकल पाने के कारण ही तो लोकसभा में उनकी हार हुई है। नादौन में काम किये होते तो हार क्यों होती। इस तरह भावनात्मक पलड़े पर होशियार सिंह कमलेश पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। इसी तरह प्रदेश भाजपा के वरिष्ठतम नेता पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने कमलेश ठाकुर को इस तरह उम्मीदवार बनाया जाना परिवारवाद का सबसे बड़ा उदाहरण करार दिया है। परिवारवाद के इस आरोप का दिल्ली से लेकर शिमला तक कोई कांग्रेस नेता जवाब नहीं दे पा रहा है। फिर कमलेश के चुनावी ब्यान इस आरोप को सिद्ध कर रहे हैं।
इस चुनाव में एक गंभीर पक्ष यह सामने आया है कि कमलेश ठाकुर के चुनाव शपथ पत्र को लेकर होशियार सिंह ने एक शिकायत एसडीएम देहरा के पास दायर कर रखी है। इसमें शायद भू-संपत्तियां को लेकर कुछ गंभीर आरोप है जो आगे चलकर बड़ा कानूनी मुद्दा बन सकते हैं। वैसे कमलेश ठाकुर के शपथ पत्र के मुताबिक वह अपने पति मुख्यमंत्री ठाकुर सुक्खविन्दर सिंह सुक्खू से ज्यादा अमीर हैं। यह चर्चा चल पड़ी है कि मुख्यमंत्री की पत्नी होने के क्या लाभ होते हैं। आपदा में मुख्यमंत्री ने 51 लाख दान देकर जो मिसाल कायम की थी उसे इन शपथ पत्रों के आईने में देखा जाने लगा है। क्योंकि कमलेश के शपथ पत्र के साथ मुख्यमंत्री का शपथ पत्र भी चर्चा में आ गया है। इस तरह जो चुनावी परिदृश्य अब बनता जा रहा है उससे कमलेश की एकतरफा जीत अब प्रश्नित होती जा रही है। क्योंकि कमलेश के अधिकांश चुनाव प्रचारक शिमला से हैं जिनका देहरा में अपना वोट भी नहीं है। ऐेसा शायद इसलिये है कि मुख्यमंत्री स्वयं नादौन-हमीरपुर से ज्यादा शिमला के हैं।