शिमला/शैल। राजधानी शिमला के माल रोड़ से सटे मुख्य बाजार लोअर बाज़ार में जूतों की मुरम्मत एवम् सेल की छोटी सी दुकान में छोटा सा कारोबार करके अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करने वाला व्यक्ति सामाजिक उत्पीड़न का शिकार बन जाये तथा उसे अपने जानमाल की सुरक्षा की गुहार एक पत्र लिखकर प्रदेश के मुख्य न्यायधीश से करने की नौबत आ जाये तो यह पूरी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर जाता है। मुख्य न्यायधीश के नाम लिखे पत्र में भाटिया ने जिक्र किया है कि उसके एक पड़ोसी विक्रम सिंह ने 20-07-2018 को उस पर और उसकी पत्नी पर जानलेवा हमला किया तथा सार्वजनिक रूप से जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करके उसे प्रताड़ित किया। इस घटना की पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई गयी पुलिस ने मामला दर्ज करके छानबीन के बाद अदालत में चालान दायर कर दिया और अब यह मामला सैशन जज की अदालत में लंबित चल रहा है।
इस मामले के लंबित होने के बावजूद इसी विक्रम सिंह ने अब फिर 17-5-2019 को रात 7ः30 बजे फिर से हमला किया और जाति सूचक शब्द चमार चमार सार्वजनिक रूप से बाजार में पुकार पुकार कर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार बनाया। इस घटना की भी पुलिस में शिकायत की गयी पुलिस ने फिर से मामला दर्ज किया लेकिन आरोपी अग्रिम जमानत लेने में सफल हो गया। भाटिया ने वाकायदा इस घटना की विडियो रिकार्डिंग तक कर रखी है और मुख्य न्यायधीश को भेजे पत्र में इसकी जानाकरी दी है। अग्रिम जमानत मिल जाने से विक्रम के हौंसले और बुलन्द हो गये हैं। पत्र के मुताबिक वह बराबर जान से मारने की धमकीयां दे रहा है और इसके लिये सज़ा तक भुगतने को तैयार है।
मुख्य न्यायधीश को लिखे पत्र से भाटिया का डर स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है क्योंकि आरोपी अग्रिम जमानत पाने में सफल हो गया है। जबकि कानून की जानकारी रखने वालों के मुताबिक ऐसे अपराधों में अग्रिम जमानत का प्रावधान नही है। इस मामले से यह सवाल उठता है कि क्या ऐसी घटनाओं से एक सुनियोजित तरीके से जातिय सौहार्द को बिगाड़ने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि भाटिया के इस मामले से पहले भी दलित उत्पीड़न के कई मामले सामने आ चुके हैं। जिन्दान मामला बड़ी चर्चा का विषय रह चुका है। शिमला के ही ढली उपनगर में भी एक परिवार को ऐसे ही उत्पीड़न का शिकार बनाये जाने का मामला सुर्खियों में रह चुका है। इन सारे मामलों में प्रशासन की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में यह स्वभाविक है कि जब समाज के एक वर्ग को इस तरह से प्रताड़ना और उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता रहेगा तो यह वर्ग अन्त में अपनी आत्म रक्षा के लिये क्या करेगा? क्या हम उसे प्रतिहिंसा की ओर धकलेने का एक सुनियोजित प्रयास नही कर रहे हैं? आज उच्च न्यायालय से लेकर नीचे प्रशासन तक सबको ऐसे मामलों पर कारगर अंकुश लगाने के उपाय करने होंगे। अन्यथा स्थिति गंभीर होती जायेगी।



शिमला/शैल। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर जर्मनी, नीदरलैण्ड के बाद दुबई गये हैं। मुख्यमन्त्री इन यात्राओं के माध्यम से विदेशों से प्रदेश में पूंजी निवेश लाने का प्रयास कर रहे हैं। इन विदेश यात्राओं के साथ ही देश के विभिन्न भागों में भी निवेशकों को आमन्त्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। मुख्यमन्त्री के यह प्रयास कितने सफल होते हैं प्रदेश में कितना निवेश आता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। निवेश लाने के ऐसे ही प्रयास पूर्व मुख्यमन्त्रीयों के कार्यकाल में भी हुए हैं। लेकिन इन प्रयासों से प्रदेश की आर्थिक स्थिति में सुधार आने की बजाये कर्ज का चक्रव्यूह ही ज्यादा बढ़ता गया है। आज प्रदेश 52000 करोड़ के बड़े कर्जभार के नीचे है। इस कर्ज का निवेश कब कहां और कैसे किया गया इससे प्रदेश की आय में कितनी बढ़ौत्तरी सुनिश्चित हुई है इसका कभी भी किसी भी मुख्यमन्त्री ने विधानसभा के अन्दर या बाहर कभी कोई खुलासा नही रखा है। जयराम ठाकुर ने भी अपने पहले बजट भाषण में यह आंकड़ा तो रखा कि वीरभद्र सिंह ने पांच वर्षों में 18,787 करोड़ का कर्ज लिया लेकिन यह नही बताया कि यह कर्ज कहां खर्च हुआ। इस इतने भारी भरकम कर्ज से राजस्व के लिये स्थायी अदारे क्या खड़े किये गये यह कोई जानकारी प्रदेश की जनता के पास नही है। शायद प्रदेश की अफसरशाही नही चाहती है कि यह सच्च कभी सामने आये। मुख्यमन्त्री जयराम ने अपने पहले बजट भाषण में प्रदेश की वित्तिय स्थिति को लेकर जो गंभीर टिप्पणी की हुई है यदि उसी की गहराई से जांच की होती तो शायद स्थिति में कुछ बदलाव आ जाता। प्रदेश में उद्योगों की सहायता के लिये जो निगम/बोर्ड स्थापित किये गये हैं निवेश लाने के प्रयास करने से पहले उन अदारों की हकीकत का आकलन करके कुछ सख्त कदम उठाये जाने चाहिये थे लेकिन ऐसा नही हुआ है।
किसी भी उद्योग की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि उसके लिये वहीं पर कच्चा माल उपलब्ध है तैयार माल की खपत के लिये कितना उपभोक्ता उपलब्ध है और उसकी क्रय शक्ति कितनी है। इन बुनियादी संसाधनों के बाद श्रम, पूंजी और ऊर्जा की उपलब्धता उद्योग के लिये दूसरा बड़ा फैक्टर होता है। लेकिन शायद प्रदेश में इन महत्वपूर्ण पक्षों का आज तक कोई विस्तृत अध्ययन ही नही किया गया हैं केवल भूमि की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये भू-राजस्व अधिनियम की धारा 118 के नियमों में संशोधन करने तथा उद्योगों को विभिन्न करो में रियायतें/छूट देने के अतिरिक्त और कुछ सोचा ही नही गया है। इसलिये प्रदेश के कर और गैर कर राजस्व में कोई बड़ी बढ़ौत्तरी नही हो पायी है। हिमाचल में 21000 मैगावाट की जल वि़द्युत उत्पादन की क्षमता चिन्हित करने के बाद प्रदेश को विद्युत राज्य के रूप में प्रचारित और प्रसारित करके उद्योगों को यहां आने के लिये आकर्षित एवं आमन्त्रित किया गया। विद्युत के क्षेत्र में ही 500 से अधिक छोटी बड़ी परियोजनाएं चिन्हित की गयी है। अकेले ऊर्जा क्षेत्र में कैग के मुताबिक सारे सार्वजनिक क्षेत्र के निवेश का 85% हिस्सा इसमें निवेशित किया गया है। बहुत सारी परियोजनाएं प्रदेश में उत्पादन दे रही है। लेकिन बजट दस्तावेजों के मुताबिक विद्युत उत्पादन से मिलने वाला राजस्व लगातार कम होता जा रहा है। यह राजस्व कम होने का अर्थ है कि ऊर्चा क्षेत्र को लेकर सरकार की नीति और आकलन दोनों में भारी कमी है।
नीति और आकलन की इस कमी के सबसे बड़े उदाहरण प्रदेश उच्च न्यायालय की कुछ टिप्पणीयां है। उच्च न्यायालय ने जे पी ऐसोसियेटस द्वारा बघेरी में थर्मल प्लांट स्थापित करने को लेकर दो जनहित याचिकायें CWP of 2009 तथा CWP 586 of 2010 आयी थी। जेपी के खिलाफ उच्च न्यायालय की ग्रीन पीठ ने 100 करोड़ का जुर्माना लगाया था। इसमें संबद्ध अधिकारियों की भूमिका को जांचने और उनके खिलाफ कारवाई करने के लिये एडीजीपी पुलिस के सी सडयाल की अध्यक्षता में एक एसआईटी का गठन किया था। इस एसआईटी की रिपोर्ट अदालत में आ चुकी है लेकिन यह रिपोर्ट क्या है और इस पर क्या कारवाई हुई यह कभी सामने नही आया है। जबकि उसी दौरान जब यह प्रकरण मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह के सामने आया तब उन्होंने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए फाईल पर यह दर्ज किया कि "1. It is a serious matter. Particularly NOC for thermal Power which is on negative list and against power policy of the State.
2. This officer may be suspended with immediate effect and chargesheeted.
3. File also shows that the Electricity Board was also involved in issuing NOC for Thermal Power stations, the Board very well knew that Thermal Power is against the Power Policy and also it had no powers to decide allocation of thermal Power stations J.P. Associates (25 MW) for plant at Bagheri; Mahabir Spinning Ltd. (8.5 MW), M/s. Deepak Spinners Baddi (5 MW), and Tanu Alloys Una 6 MW. All officers for this may be identified within one week and case put up.
4. All the permissions and NOC's granted for setting up of Thermal Power Stations for above Companies and any other may be withdrawn forthwith. लेकिन इस पर आगे चलकर व्यवहारिक रूप से क्या कारवाई हुई कोई नही जानता।
इसी तर्ज पर इन जलविद्युत परियोनाओं को लेकर डीजीपी आई वी नेगी ने एक पत्रा राज्यपाल को लिखा था। उन्होंने इन परियोजनाओं के निर्माताओं द्वारा पर्यावरण नियमों के साथ खिलवाड़ करने को लेकर गंभीर चिन्ता व्यक्त की थी। यह प्रसंग भी प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंचा था और अदालत ने इसके लिये अतिरिक्त मुख्य सचिव वन अभय शुक्ला की अध्यक्षता में कमेटी गठित की थी। क्योंकि उस समय उच्च न्यायालय के सामने यह तथ्य आ गया था कि चम्बा से भरमौर तक रावी नदी पर बन रही चार परियोजनाओं में यह नदी अपने मूल बहाव से 65 किलो मीटर तक लोप हो जायेगी। चम्बा से भरमौर की कुल दूरी ही 70 किलोमीटर है और इसमें यह नदी केवल पांच किलोमीटर ही मूल बहाव में रहेगी। इस संबंध में शुक्ला कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि This Committee is strongly of the view that the govt's present practice of indiscriminately allotting hydel projects all over the state without any consideration to their impact on the larger environment-which mere EIAs and EMPs can not address- is short-sighted, unplanned and could result in serious depletion of the state's natural resources in the long run. This is not, however, an issue of altitude alone as vulnerable areas in dire need of protection exist at even lower altitudes. Protection has to be provided, for example, to dense forests (which, according to successive reports of the Forest Survey of India itself, have been declining in HP year after year), protected wild-life areas, critical catchments of river systems, critical wild-life habitats outside Protected Areas, permanent glaciers, alpine pastures and so on by declaring them as eco-sensitive zones under the Environment Protection Act. Only this would ensure that these vulnerable but vital natural buffers remain inviolate. Currently no area in the state- not even National Parks and Sanctuaries- are exempt from hydel exploitation, but this has to change, and change fast given the speed at which the hydel tentacles are crawling up the valleys and side valleys of the state. This requires the setting up of an interdisciplinary body of experts which the MOEF- which accords the final clearances-should also be associated. However, pending that, there are some recommendations which this Committee would like to make which need to be adopted.
अभय शुक्ला और के सी सडयाल कमेटीयों की रिपोर्टें उच्च न्यायालय और सरकार दोनो के पास मौजूद हैं। लेकिन इन रिपोर्टों पर आज तक कहीं से कोई कारवाई सामने नही आयी है। आज आलम यह है कि बोर्ड के स्वामित्व में चलने वाली परियोजनाओं में हजारों घन्टो का शट डाऊन प्रतिवर्ष हो रहा है और इससे सरकार को प्रतिदिन करोड़ों का नुकसान हो रहा है। विजिलैन्स भी इस संद्धर्भ में आयी शिकायतों पर चुप्पी साधे बैठा है क्योंकि जांच से शीर्ष प्रशासन की करनी/कथनी सामने आयेगी। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट है कि जब तक प्रशासन में फैली इस अराजकता पर कारवाई नही की जाती है तब तक मुख्यमन्त्री के प्रयासों से कोई लाभ नही मिलेगा।
मुख्यमन्त्री के प्रयासों पर यह प्रश्नचिन्ह इसलिये लग रहे हैं क्योंकि हर उद्योग के लिये बिजली एक मूल आवश्यकता है। लेकिन हिमाचल जहां विद्युत राज्य है वहीं पर इसकी विद्युत परियोजनाओं का अपना अस्तित्व सवालों में आ खड़ा हुआ है। क्योंकि 67 परियोजनाएं गंभीर भूस्खलन के खतरे में हैं जबकि दस मैगा पावर परियोजनाएं मध्यम और उच्च भूस्खलन जोन में हैं। पिछले पांच वर्षों में इन परियोजनाओं में इस संद्धर्भ में कहां क्या घटा है वह पाठकों के सामने रखा जा रहा है ताकि आम आदमी इन खतरों के प्रति अपने तौर पर सजग हो जाये। क्योंकि प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व की नजर में यह कोई गंभीरता नही है।


शिमला/शैल। हिमाचल सरकार के वरिष्ठ अधिकारी प्रधान सचिव प्रबोध सक्सेना पूर्व केन्द्रिय वित्त मन्त्री पी चिदम्बरम प्रकरण में इन दिनों सीबीसी के राडार पर चल रहे हैं। सीबीसी ने इनके खिलाफ मुकद्दमा चलाने के लिये वित्त मन्त्रालय के आर्थिक मामलों के प्रभाग को इस संद्धर्भ में अनुमति देने का आग्रह बीते 13 मई को भेजा है। स्मरणीय है कि सक्सेना 2-4-2008 से 31-7-2010 तक आर्थिक मंत्रालय में निदेशक थे। इसी अवधि में आई एन एक्स मीडिया प्रकरण घटा जिसमें इस मीडिया को 305 करोड़ का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जुटाने में दी गयी अनुमतियों में अनियमितताएं बरती जाने का आरोप है। इस प्रकरण में 15-5-2017 को सीबीआई ने एफआईआर दर्ज की थी। इसमें आई एन एक्स मीडिया, आईएन एक्स न्यूज, पीटर मुखर्जी, इन्द्राणी मुखर्जी और कार्ति चिदम्बरम के साथ वित्तमन्त्रालय के अधिकारियों को भी नामजद किया गया था। जब इस प्रकरण में जांच आगे बढ़ी तब इसमें मंत्रालय के चार अधिकारी सिन्धुश्री खुल्लर, अनुप के पुजारी, प्रबोध सक्सेना और रविन्द्र प्रसाद को दोषी पाया गया है। सीबीसी ने आर्थिक मन्त्रालय को इनके खिलाफ मुकद्दमा चलाने की अनुमति देने को कहा है।
सीबीसी जब किसी अधिकारी की सीबीआई जांच के आधार पर उस अधिकारी के खिलाफ मुकद्दमा चलाये जाने के पर्याप्त कारण मान लेता है तब संबद्ध मन्त्रालय को उस प्रकरण में मुकद्दमा चलाने की अनुमति देने का आग्रह भेजता है। इस आग्रह पर संबद्ध मन्त्रालय अपने तौर पर इसकी संतुष्टि करता है और यदि किसी कारण से मन्त्रालय और सीबीसी की राय में अन्तर आ जाये तब उस स्थिति में मामला कार्मिक विभाग को राय के लिये भेजा जाता है। आई एन एक्स प्रकरण आर्थिक मन्त्रालय से जुड़ा है। विदेशी निवेश की अनुमति देने वाला एफआई पी बी भी इसी मन्त्रालय का हिस्सा है। जिन अधिकारियों को इसमें दोषी माना गया है वह उस दौरान वहीं तैनात थे। ऐसे में इस प्रकरण में मुकद्दमा चलाने की अनुमति देना या न देना भारत सरकार के आर्थिक मन्त्रालय और कार्मिक मन्त्रालय के बीच का ही मामला है। अनुमति देने न देने का निर्णय भी सीबीसी से ऐसा आग्रह आने के तीन माह के भीतर करना होता है।
चिदम्बरम प्रकरण इस समय मोदी सरकार के लिये एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है क्योंकि यदि यह मामला सफल हो जाता है तो यह तब की कांग्रेस सरकार के खिलाफ प्रमाणिक तौर पर भ्रष्टता का प्रमाण पत्र बांट पायेगी। इस 305 करोड़ के विदेशी निवेश जुटाने के मामले में कार्ति चिदम्बरम को दस लाख दिये जाने का आरोप है लेकिन इस आरोप को प्रमाणित करने में इससे जुड़े अधिकारियों को दोषी प्रमाणित करना अनिवार्य हो जाता है। इसी कारण से इसमें इन अधिकारियों को नामजद करके इन्हें दोषी माना गया है। ऐसे में यदि एक भी अधिकारी के खिलाफ मुकद्दमा चलाने की अनुमति नहीं आती है तो पूरा प्रकरण असफल हो जाता है।
इस परिदृश्य में जब प्रबोध सक्सेना का मामला हिमाचल सरकार के पास अनुमति के लिये आ गया तब इसमें सवाल उठने शुरू हो गये हैं। सक्सेना इस समय प्रदेश के वरिष्ठ अधिकारी हैं और अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त अनिल खाची के छुट्टी पर जाने के बाद वित्त विभाग का कार्यभार भी उन्ही को दिया गया है। कायदे से यह मामला प्रदेश सरकार को केन्द्र को लौटा देना चाहिये था क्योंकि इसका प्रदेश सरकार के साथ कोई संबंध ही नही रहा है। लेकिन प्रदेश सरकार ने मामला लौटाने की बजाये इसमें अपनी टिप्पणीयां की हैं। सक्सेना के खिलाफ प्रदेश में कुछ नही है। वीरभद्र सरकार में भी वह महत्वपूर्ण अधिकारी रहे हैं। चिदम्बरम, वीरभद्र के वकील भी रहे हैं और सक्सेना के ससुर भी मोती लाल बोहरा का पर्सनल डाक्टर रहे हैं। इस पृष्ठभूमि को सामने रखते हुए सक्सेना का कांग्रेस नेतृत्व के प्रति झुकाव होना स्वभाविक है और बदले में कांग्रेस का भी परोक्ष/अपरोक्ष में उनकी सहायता करना बनता है। इसी कारण से यह माना जा रहा है कि केन्द्र से अनुमति का पत्र प्रदेश को भिजवाना और प्रदेश का उस पर टिप्पणी करना एक सुनिश्चित योजना के तहत हुआ है। हो सकता है कि इसी प्रक्रिया में तीन माह का समय निकल जाये और स्वतः ही यह सब कुछ खत्म हो जाये संभवतः इसी आश्य से उन्हें वित्त का कार्यभार सौंपा गया है।
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस संगठन में बड़ी सर्जरी की जायेगी यह कहा है रजनी पाटिल ने। लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद संगठन के नेताओं से हार के कारणों की दो दिन समीक्षा करने के बाद पत्रकार वार्ता को संबोधित करते हुए। पाटिल प्रदेश कांग्रेस की प्रभारी हैं इस नाते हार के कारणों का जो भी आकलन वह हाईकमान के सामने रखेंगी उसकी एक अहमियत होगी। पाटिल के प्रभार संभालने के बाद फरवरी में प्रदेश अध्यक्ष बदला गया था। सुक्खु के स्थान पर
राठौर को लाया गया। फरवरी में इस बदलाव के बाद मई में लोकसभा के चुनाव ही हो गये। सुक्खु विधायक थे लेकिन राठौर ने अभी तक चुनाव ही नही लड़ा है। ऐसे में पहला सवाल यही उठता है कि चुनाव घोषणा से एक माह पहले अध्यक्ष को बदलना कितना सही था और इसमें पाटिल की बतौर प्रभारी कितनी सहमति थी। क्योंकि वीरभद्र प्रदेश विधानसभा के चुनावों से भी बहुत पहले से सुक्खु को हटाने की मांग करते आ रहे थे। बल्कि एक समय तो सुक्खु -वीरभद्र टकराव यहां तक पहंुच गया था कि वीरभद्र के कुछ समर्थकों ने तो वीरभद्र बिग्रेड तक का गठन कर दिया था। इस बिग्रेड का पूरा ढांचा राजनीतिक दल की तर्ज पर ही तैयार किया गया था। बिग्रेड में जब संगठन के कई सक्रिय नेताओं की भागीदारी सामने आयी और उसका अधिकारिक संज्ञान लिया गया तब बिग्रेड को तो भंग कर दिया गया लेकिन उसी दौरान बिग्रेड के प्रमुख ने सुक्खु के खिलाफ मानहानि का मामला दायर कर दिया जो शायद अबतक लंबित है। इस पृष्ठभूमि से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुक्खु -वीरभद्र टकराव की स्थिति कहां तक पहुंच चुकी थी। अब सुक्खु को हटाने के लिये वीरभद्र, मुकेश अग्निहोत्री, आशा कुमारी और आनन्द शर्मा ने जब लिखित में संयुक्त रूप से प्रस्ताव किया और राठौर की सिफारिश की तब सुक्खु को हटाया गया।
इस तरह से वीरभद्र के दवाब में चुनाव से पहले अध्यक्ष को बदल दिया गया। नये अध्यक्ष ने फिर से कार्यकारिणी का गठन किया और राज्य से लेकर ब्लाॅक स्तर तक इतनी लम्बी लाईने पदाधिकारियों की लगा दी कि यदि यह पदाधिकारी ही अपना-अपना बूथ संभाल लेते तो भी शायद इतनी फजीहत न होती। इसका सीधा सा अर्थ है कि जो नये पदाधिकारी बनाये गये थे उनमें से कुछ तो नये अध्यक्ष की अपनी पसन्द के रहे होंगे तो कुछ उन नेताओं की पसन्द के रहे होंगे जिन्होंने नये अध्यक्ष की सिफारिश की होगी। इस तरह आज जब संगठन में सर्जरी की बात की जा रही है तब क्या सबसे पहले इस पूरी कार्यकारिणी को भंग करके एक तदर्थ कमेटी का गठन करके ब्लाॅक से लेकर राज्य स्तर तक संगठन के चुनाव करवाना ज्यादा बेहतर होगा।
इसी के साथ एक अहम सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर कांग्रेस वर्तमान स्थिति तक पहुंची ही कैसे। इसके लिये यदि आपातकाल के बाद से लेकर अबतक प्रदेश में जो कुछ घटा है उस पर नजर दौड़ाई जाये तो स्थितियां बहुत साफ हो जाती हैं। 1980 में जब प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार टूटी थी तब यहां पर विधानसभा के चुनाव न होकर बड़े पैमाने पर दलबदल से कांग्रेस की सरकार बनी थी। उस समय वीरभद्र सिंह ने इस तरह से सरकार बनाये जाने का विरोध किया था। 1980 में शुरू किया गया वीरभद्र का यह विरोध 1983 में रंग लाया जब उन्होंने राष्ट्रपति चुनावों से पहले फाॅरैस्ट माफिया को लेकर एक खुला पत्र लिखा था। इस पत्र के कारण तब ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र को मुख्यमन्त्री बनाया गया। तब से लेकर अब तक कांग्रेस में मुख्यमन्त्री के लिये किसी दूसरे नेता का नाम नही आ पाया है जबकि इसी अवधि में भाजपा में जयराम तीसरे मुख्यमन्त्री सामने आ गये हैं। 1993 में जब पंडित सुखराम सशक्त दावेदार के रूप में उभरे थे तब वीरभद्र के पक्ष -विपक्ष के समर्थकों ने विधानसभा का उग्र घेराव करके प्रदेश प्रभारी शिन्दे को वीरभद्र के नाम की संस्तुति करनी पड़ी थी। 1993 के इस घटनाक्रम को राजनीतिक विश्लेष्कों ने राजनीतिक ब्लैकमेल की संज्ञा दी थी। 1980 से लेकर अबतक का प्रदेश कांग्रेस का यह इतिहास रहा है कि जब भी कोई पायेदार नेता कांग्रेस का अध्यक्ष बना है वीरभद्र का उसी से विरोध रहा है। संभवतः इसी कारण से प्रदेश में एक बार भी कांग्रेस सरकार रिपीट नही कर सकी है। बल्कि हर चुनाव के बाद कांग्रेस में भीतरघात के आरोप लगे और इनका ज्यादा रूख वीरभद्र की ओर ही रहा है।
स्वच्छ प्रशासन के नाम पर भी स्थिति यह रही है कि जिस फारैस्ट माफिया के खिलाफ आवाज़ उठाकर वीरभद्र मुख्यमन्त्री बने थे उनके शासनकाल में यह अपराध सबसे अधिक बढ़े और वनभूमि पर अवैध कब्जे भी सबसे अधिक उन्ही के चुनावक्षेत्र रोहडू में सबसे अधिक रहे हैं यह सब प्रदेश उच्च न्यायालय के माध्यम से सामने आया है। स्वच्छ प्रशासन पर ऐसी ही टिप्पणी सर्वोच्च न्यायालय के राजकुमार राजेन्द्र सिंह बनाम एसजेवीएनएल मामले में 24 सितम्बर 2018 को आये फैसले में भी सामने आयी है। यह सब शायद इसलिये हुआ है कि वीरभद्र के साये तले कोई दूसरा नेता कांग्रेस में उभर ही नही पाया। वैसे कुछ लोगों का मानना तो यह है कि वीरभद्र की नीति यह रही है कि मैं नही तो फिर मेरा परिवार अन्यथा कोई नहीं। बहुत संभव है कि यही स्थिति कई अन्य राज्यों में भी हो। इसलिये आज जहां कांग्रेस खड़ी वहां सबसे पहले उसे अपने घर में ऐसे लोगों को चिन्हित करके उन्हे बाहर का रास्ता दिखाना होगा। आज ऐसे लोगों की खोज़ करनी होगी जो सत्ता से टकराने का साहस रखते हों। क्योंकि अब कांग्रेस की सत्ता में वापसी संघर्ष से ही संभव हो पायेगी।
क्या केन्द्र की तर्ज पर हिमाचल सरकार भी इस प्रकरण की जांच करेगी उठा सवाल
शिमला/शैल। बहुचर्चित कोल ब्लाॅक्स आंवटन प्रकरण में एक समय सर्वोच्च न्यायालय की प्रताड़ना का शिकार बनी सीबीआई ने इस मामले में संभवतः अपनी जांच पूरी कर ली है। इस आंवटन में नियमों की किस हद तक अनेदखी करके सरकारी राजस्व को कितना घाटा पहुंचाया गया और इसमें कितना भाई-भतीजावाद चला यह सब सीबीआई जांच की विषय वस्तु था। इस प्रकरण में हिमाचल का नाम भी इसलिये जुड़ गया था क्योंकि 2006 में हिमाचल सरकार ने भी बंगाल में 2400 करोड़ की लागत से एक थर्मल प्लांट लगाने की प्रक्रिया शुरू की थी। इसके लिये एक एम्टा कंपनी के साथ एमओयू साईन किया गया था। एम्टा ने आगे कोल ब्लाॅक हासिल करने के लिये जेएसडब्लयू स्टील के साथ इकरार किया। जेएस डब्लयू स्टील को कोल ब्लाक हालिस करने के लिये विभिन्न संवद्ध मन्त्रालयों को वीरभद्र सिंह ने शायद एक ही दिन छः सिफारशी पत्र लिखे थे। यह थर्मल प्लांट लगाने की प्रक्रिया प्रदेश के अधोसंरचना बोर्ड ने शुरू की थी लेकिन एमओयू साईन होने की स्टेज पर यह काम पावर कारपोरेशन को दे दिया गया था। उस समय पावर कारपोरेशन के एमडी डा. श्रीकान्त बाल्दी थे और अध्यक्ष एसएस परमार थे। सीबीआई जांच में इन दोनों अधिकारियों से भी पूछताछ हुई है और इन्हे सीबीआई ने अपने गवाहों की सूची में शामिल कर लिया है।
जेएस डब्लयू स्टील को यह आवंटन कितना सही हुआ या नही यह सीबीआई जांच में सामने आ जायेगा। लेकिन इस पूरे प्रकरण में जिस तरह का आचरण प्रदेश सरकार के अधिकारियांे का रहा है और उससे प्रदेश को करोड़ो का नुकसान हुआ है क्या उसकी अलग से प्रदेश सरकार द्वारा जांच नही करवायी जानी चाहिये यह एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
गौरतलब है कि वर्ष 2006 में हिमाचल सरकार ने भी संयुक्त क्षेत्र में सितम्बर 2006 में एक थर्मल पावर प्लांट लगाने का फैसला लिया था। इसके लिये इन्फ्रास्ट्रक्चर बोर्ड के माध्यम से निविदायें मांगी गयी। इसमें छः पार्टीयों ने आवेदन किया लेकिन प्रस्तुति पांच ने ही दी। इसमें से केवल दो को शार्ट लिस्ट किया गया और अन्त में एम्टा के साथ ज्वाइंट बैंचर हस्ताक्षरित हुआ। क्योंकि एम्टा ने पंजाब और बंगाल में थर्मल प्लांट लगाने के अनुभव का दावा किया था। इस दावे के आधार पर जनवरी -फरवरी 2007 में एम्टा के साथ एमओयू साईन हो गया और 48 महीने में इसके पूरे होने का लक्ष्य रखा गया। इसके लिये निविदायें अधेासंरचना बोर्ड के माध्यम से मांगी गयी थी लेकिन एमओयू साईन होने के समय इसमें बोर्ड की जगह पावर कारपोरेशन आ गयी थी। अब प्लांट के लिये कोल ब्लाॅक चाहिये था जो कि एम्टा के पास था नहीं। इसके लिये एम्टा ने जेएस डब्लयू स्टील को अपना पार्टनर बनाया। एम्टा और पावर कारपोरेशन में 50-50% की हिस्सेदारी तय हुई थी। ऐसे में एम्टा और जे एस डब्ल्यू स्टील के मध्य कितनी हिस्सेदारी तय हुई और उसका पावर कारपोरेशन पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसको लेकर रिकार्ड में बहुत कुछ स्पष्ट नही है। एम्टा और जेएस डब्ल्यू स्टील ने मिलकर भारत सरकार से गौरांगढ़ी में कोल ब्लाक हासिल कर लिया। इसके लिये एम्टा और जेएस डब्लयू स्टील में मई 2009 में एक और सांझेदारी साईन हुई। एम्टा और जेएस डब्ल्यू स्टील को कोल ब्लाक आंवटित करवाने के लिये वीरभद्र ने एक ही दिन में विभिन्न मन्त्रालयों को पांच सिफारिशी पत्र लिखे हैं लेकिल यह सब कुछ होने के बाद नवम्बर 2012 में कोल ब्लाक्स का आंवटन ही भारत सरकार ने रद्द कर दिया।
जब भारत सरकार ने यह आवंटन नवम्बर 2012 में रद्द कर दिया तब उसके बाद दिसम्बर 2012 में ही एम्टा के निदेशक मण्डल की बैठक हुई और इस बैठक में फैसला लिया गया कि इसमें और निवेश न किया जाये। एम्टा के साथ जो एमओयू 2007 में साईन हुआ था उसके मुताबिक एम्टा को दो करोड़ की धरोहर राशी पावर कारपोरेशन में जमा करवानी थी जो कि समय पर नही हुई। जब 2012 में कोल ब्लाक का आवंटन रद्द हो गया और एम्टा के निदेशक मण्डल ने भी इसमें और निवेश न करने का फैसला ले लिया तो फिर 26 दिसम्बर 2012 को पावर कारपोरेशन ने इसमें 40 लाख का निवेश क्यो किया? यही नहीं इसके बाद 9-5-2013 को 20 लाख का और निवेश इसमें कर दिया गया। पावर कारपोरेशन के इस निवेश के बाद 26 नवम्बर 2014 को एम्टा ने फिर फैसला लिया कि जब तक विद्युत बोर्ड पावर परचेज़ का एग्रीमेंट नही करेगा तब तक इसमें निवेश नही करेंगे। अन्त में मार्च 2015 में बोर्ड ने यह एग्रीमेंट करने से मना कर दिया और इसी के साथ थर्मल प्लांट लगाने की योजना भी खत्म हो गयी।
इस पूरे प्रकरण में यह सवाल उभरते हैं कि जब निविदायें अधोसरंचना बोर्ड के नाम पर मंगवाई गयी तो फिर एमओयू के समय पावर कारपोरेशन कैसे आ गयी? जब एम्टा का चयन किया गया तब उसके अनुभव के दावों की पड़ताल क्यों नही की गयी? इसमें जेएस डब्लयू स्टील की एन्ट्री कैसे हो गयी। एम्टा से दो करोड़ क्यो नहीं लिये गये? जब एम्टा ने नवम्बर 2012 में ही इसमें कोई निवेश न करने का फैसला ले लिया था फिर दिसम्बर 2012 और मई 2013 में किसके कहने पर 60 लाख का निवेश कर दिया। एम्टा के साथ हुए एमओयू के मुताबिक यह प्लांट 2010 के अन्त तक तैयार हो जाना था। लेकिन इसके लिये जेएस डब्लयू स्टील के साथ एम्टा की हिस्सेदारी कोल ब्लाक के लिये मई 2009 मे साईन हुई? ऐसे में सवाल उठता है कि पावर कारपोरेशन का प्रबन्धन 48 माह में इस प्लांट के लग जाने के लिये समय समय पर क्या पग उठा रहा था जबकि उसके साथ एमओयू जनवरी 2007 में हो गया था। उसी दौरान पावर कारपोरेशन में एमडी डा. बाल्दी आ गय थे। यह उस समय देखा जाना चाहिये था कि एम्टा जो अनुभव के दावे कर रहा है उसकी प्रमाणिकता क्या है। एम्टा के अपने पास जब कोल ब्लाक था ही नही तोे उसे किस आधार पर चुना गया? क्योंकि जो रिकाॅर्ड अब तक सामने आया है उसके मुताबिक एम्टा के दावे भी ब्रेकल जैसे ही रहे हैं। यह करीब 2400 करोड़ का प्लांट लगना था और 2010-11 में पूरा हो जाना था। कोल ब्लाक आवंटन का विवाद 2012 में शुरू हुआ और नवम्बर 2012 में आवंटन रद्द हुए। इसलिये एम्टा जेएस डब्लयू स्टील और पावर कारपोरेशन इस विवाद का सहारा लेकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकते। प्रदेश का करोड़ो का नुकसान इसमें हो चुका है और प्रदेश सरकार को अपना काम चलाने के लिये आये दिन कर्ज लेना पड़ रहा है। ऐसे में क्या जयराम सरकार इस प्रकरण में अपने स्तर पर मामला दर्ज करके जांच शुरू करवाएगी? क्योंकि यह एक संयोग है कि जयराम के प्रधान सचिव एसीएस बाल्दी को इस मामले की पूरी जानकारी है और उनसे इसकी जांच में पूरा सहयोग विजिलैन्स को मिलेगा।