शिमला/शैल। राजधानी शिमला के उपनगर भराड़ी के दुधली गांव क्षेत्र से देवीधार जाने वाली सड़क के किनारे करीब एक दशक पहले से बने आठ भवनों के मालिकों को लोक निर्माण विभाग के डिविजन न. 1 शिमला के कनिष्ठ अभियन्ता ने 15 दिन के भीतर अपने भवन तोड़ने के नोटिस जारी किये हैं। प्रदेश उच्च न्यायालय के महाधिवक्ता श्रवण डोगरा सहित उर्मिला ठाकुर, राजकुमार, सीमा सूद, रविन्द्र ठाकुर, राजेश चौहान, हीरा सिंह वर्मा और मोहन सिंह के खिलाफ आरोप है कि इन लोगों ने रोड़ साईड़ Control Width के तीन मीटर दायरे के भीतर मकान बनाकर एक्ट की उल्लंघना की है। स्मरणीय है कि प्रदेश उच्च न्यायलय ने एक समय यह निर्देश जारी किये थे कि इलेजियम/देवीधार सड़क की चौड़ाई वाहन चलाने योग्य होनी है। उच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर कितना और क्या अमल हुआ है इसकी जानकारी एक आरटीआई के माध्यम से एक डॉ. बन्टा ने 11.5.18 को मांगी थी। इस आर टीआई के परिणाम स्वरूप अब एक साल बाद यह नोटिस भेजने की कारवाई की गयी है।
इन नोटिसों से जो सवाल खड़े हुए हैं वह महत्वपूर्ण हैं और पूरे तन्त्र की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाते हैं। स्मरणीय है कि यह मकान और यह सड़क उच्च न्यायालय के निर्देशों से बहुत पहले बने हैं और तभी रोडसाईड एक्ट का उल्लंघना हो चुकी थी। एक्ट में तो पहले दिन से ही यह मौजूद है कि कन्ट्रोल width के 3 मीटर के दायरे के भीतर बिना अनुमति के निर्माण नहीं हो सकता। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब यह निर्माण शुरू हुए थे तब लोक निर्माण विभाग का संवांच्छित प्रशासन कहां था। उसने उस समय इन निर्माणों का संज्ञान लेकर तब ऐसा ही नोटिस भेजने की कारवाई क्यों नहीं की। फिर भराडी क्षेत्र टीसीपी और नगर निगम शिमला दोनों के दायरे में आता है। इसलिये स्वभाविक है कि इन भवनों के नक्शे भी संबद्ध अथारिटी से पास करवाये ही गये होंगे। यदि यह भवन नक्शा पास करवा कर बनाये गये हैं तो उस समय नक्शा पास करने से पहले इस एक्ट की अनुपालना सुनिश्चित क्यों नहीं की।
यदि भवन निर्माण के समय लोकनिर्माण विभाग और टी सी पी या नगर निगम शिमला ने इस ओर ध्यान नही दिया है तो क्या आज भवन मालिकों के मकान गिराने से पहले संबद्ध विभागों के कर्मचारियों/ अधिकारियों के खिलाफ कारवाई नही की जानी चाहिये। क्योंकि यह नोटिस देने से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि इसमें एक्ट की उल्लंघना तो हुई ही है। हो सकता है कि प्रदेश के अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही उल्लंघनाएं हुई हों और आज भी हो रही हों। आज जब भराड़ी क्षेत्र में इन मकानों को गिराने की कारवाई होगी तो क्या वहां भी एक और कसौली कांड घटने की सम्भावना नही बन जाती है।
शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर और उनकी टीम प्रदेश में औद्योगिक निवेश जुटाने के लिये पिछले कुछ अरसे से अपने देश से लेकर विदेशों तक यात्राएं करके प्रयास कर रहे हैं। उनके इन प्रयासों से करीब 80,000 करोड़ के एमओयू साईन होने की जानकारी विभिन्न सरकारी विज्ञप्तियों के माध्यम से जनता में आयी है। जो एमओयू साईन हुए हैं उनसे अभी ज्यादा खुश होने की भी बात नही है क्योंकि इनमें निवेशकों की ओर से इतना ही भरोसा है कि वह यहां निवेश करने को ईच्छुक हैं और सरकार की ओर से यह आश्वासन है कि वह निवेशकों को इसमें पूरा सहयोग करेगी। इस भरोसे और आश्वासन को अमली शक्ल लेने में कितना समय लगेगा यह कहना संभव नही है। निवेश को लेकर शंकायें केन्द्र का बजट आने के बाद ज्यादा उभरी हैं क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर ही निवेशकां का करीब छः लाख करोड़ डूब गया है। स्वभाविक है कि जब देश में ही निवेशक नही आयेगा तो प्रदेश में कैसे आयेगा।
इस परिप्रेक्ष में यह आकलन करना आवश्यक हो जाता है कि प्रदेश में चल रहे उद्योगों की वर्तमान में स्थिति क्या है क्योंकि इससे पहले रहे दोनां मुख्यमन्त्रीयों प्रेम कुमार धूमल और वीरभद्र सिंह के काल में भी ऐसे प्रयास हुए हैं और इन्ही प्रयासो के बाद दोनां सरकारों पर ‘‘ हिमाचल ऑन सेल’’ के आरोप भी लगे है। पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से हर मुख्यमन्त्री के बजट भाषण में प्रदेश में सैटलाईट टाऊन बनाने की घोषणाएं दर्ज हैं लेकिन व्यवहार में अब तक कुछ नही हो पाया है। इसलिये यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या जिस तरह के औद्योगिक विकास की परिकल्पना लेकर हम चले हुए हैं क्या वह प्रदेश के लिये व्यवहारिक भी है या नही। क्योंकि प्रदेश को विद्युत राज्य बनाते-बनाते आज यह परियोजनाएं एक संकट का कारक बनती नजर आ रही है विभिन्न अध्ययन रिपोर्टों से यह सामने आ चुका है। अब तक के औद्योगिक विकास से प्रदेश को क्या हासिल हुआ है उसमें कर राजस्व और गैर कर राजस्व में तो कोई बड़ा योगदान नही रहा है लेकिन इससे जीडीपी का आंकड़ा बढ़ने से कर्ज लेने की सीमा बढ़ती चली गयी और आज प्रदेश 52000 करोड़ के कर्ज में डूबा हुआ है और रोजगार कार्यालयों में दर्ज बेरोजगारों की संस्था भी दस लाख के करीब हो चुकी है। इसी परिदृश्य में यदि पिछले एक दशक के आंकड़ो पर नजर डाले तो सरकार के ही आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 2009-10 में कुल 36315 उद्योग ईकाईयां प्रदेश में पंजीकृत थी जिनमें मध्यम और बड़ी ईकाईयों की संख्या 428 थी। इनमें 8936.57 करोड़ का निवेश था तथा 2.35 लाख लोगों को रोजगार हासिल था। 2018-19 में आज ईकाईयों की संख्या 49058 हो गयी है जिनमें 140 बड़ी और 522 मध्यम हैं लेकिन इनमें निवेश कितना है और इसमें कितने लोगां को रोजगार मिला है इसको लेकर आर्थिक सर्वेक्षण में कोई जिक्र नही है। 31-12-2014 तक 40,429 ईकाईयां पंजीकृत थी और इनमें 18307.95 करोड़ का निवेश था तथा 2,84599 लोगों को रोजगार हासिल था।
प्रदेश में स्थापित उद्योगों के माध्यम से अब तक तीन लाख से कम लोगों को रोजगार हासिल हो पाया है इसमें भी रोजगार पाने वाले सभी हिमाचली नही है। लेकिन सरकार की ओर से 40 औद्योगिक बस्तियों और 15 एस्टेट्स के विकास पर करोड़ो रूपया खर्च किया गया है। पंडोगा में 88.05 और कन्दरोड़ी में 95.77 करोड़ आधारभूत ढ़ाचा विकसित करने में खर्च किया गया है। उद्योगों के लिये 781701 बीघा का भूमि बैंक तैयार करने के अतिरिक्त दमोटा में 515 बीघा वन भूमि ली गई है इसके अतिरिक्त विभिन्न समयों पर उद्योगां को जो सुविधा पैकेजों के माध्यम से दी गयी है यदि उसका पूरा विवरण खंगाला जाये तो उस रकम का जो ब्याज बनता है वह उद्योगों से मिलने वाले राजस्व से शायद दो गुणा से भी अधिक होगा।
आज प्रदेश में एनजीटी के आदेश के बाद निर्माण कार्यों पर लगभग रोक जैसी स्थिति बनी हुई है। प्रदेश सरकार को अभी तक सर्वोच्च न्यायालय से कोई राहत नही मिल पायी है और राहत की संभावना भी नही के बराबर है क्योंकि पूरा प्रदेश अधिकांश में सिस्मक जोन पांच में आता है। अधिकांश परियोजनाएं इसी जोन में स्थित हैं इसलिये यहां और स्थापनाओं से पर्यावरण के लिये और संकट बढ़ जायेगा। पर्यावरण के असन्तुलन के खतरे को सामने रखते हुये यह संभव नही लगता है कि अढ़ाई मंजिला से अधिक के निर्माण की अनुमति मिल पायेगी। एनजीटी का आदेश इसी सचिवालय के बड़े बाबूओं की कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित है और आज वही बाबू बाहर से निवेशक लाने के प्रयासों में लगे हैं। टीसीपी एक्ट पूरे प्रदेश में लागू है और उसी के कारण एनजीटी का आदेश भी सभी जगह लागू है। सरकार टीसीपी एक्ट में संशोधन करने की बात कर रही है लेकिन क्या इससे पहले रैगुलर प्लान नही लाना होगा। 1979 से अन्तरिम प्लान के सहारे ही काम चलाया जा रहा था और उसमें भी एक दर्जन से अधिक संशोधन किये गये है। सरकार की इन्ही विसंगतियों के कारण यह मामला एनजीटी और सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा है। ऐसे में जब तक सरकार इन विसंगतियों को दूर नही कर लेती है तब तक कोई भी निवेशक यहां निवेश का जोखिम नही ले पायेगा। क्योंकि अढ़ाई मंजिल का आदेश उसके सामने आ जायेगा। अवैध निर्माणों को लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक कड़ा संज्ञान लेकर दोषीयों के खिलाफ सख्त कारवाई करने के निर्देश दे चुके हैं। गौरतलब यह है कि ऐसे सभी मामलां में संवद्ध प्रशासन ने नियमों कानूनो की जानबुझ कर अनदेखी की है और इस अनदेखी का नुकसान पूरे प्रदेश को झेलना पड़ रहा है। आज ठीक यही स्थिति इस प्रस्तावित औद्योगिक विकास में फिर घटती दिख रही है। क्योंकि इसमें सुधार अधिनियम की धारा 118 से लेकर टीसीपी एक्ट और एनजीटी के फैसले जैसे कई गंभीर मुद्दों पर खुली चर्चा की आवश्यकता है।
शिमला/शैल। क्या अवैध पार्किंग के लिये गाड़ीयों के चालान काटने से शहरों की ट्रैफिक समस्या हल हो जायेगी? यह सवाल राजधानी के उपनगर खलीनी में पथ परिवहन निगम की स्कूल बस के दुर्घटनाग्रस्त होने तथा उसमें दो छात्राओं और ड्राईवर समेत तीन लोंगो की मौत पर उभरे जनाक्रोश तथा उसकी भेंट चढ़ी दर्जनों गाड़ियों की तोड़फोड़ के बाद उभरा है। गाड़ीयों की तोड़फोड़ इसलिये हुई क्योंकि यह गाड़ियां उसी सड़क पर पार्क थी जिस पर यह बस दुर्घटनाग्रस्त हुई है। इस दुर्घटना के बाद पुलिस ने हजारों गाड़ीयों के चालान काट डाले हैं। बसों की ओवर लोडिंग के चालान काटे जा रहे हैं क्योंकि बंजार में हुए हादसे का एक बड़ा कारण ओवर लोडिंग था और इसमें 46 लोगों की मौत हो गयी थी। इसी तरह 2018 में नूरपुर में एक स्कूल बस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी जिसमें तीस बच्चों की मौत हो गयी थी। यह तीनो ऐक्सीडैंट गंभीर हादसे हैं और तीनो के कारण भी अलग-अलग रहे हैं। नूरपुर का मामला तो उच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है और अब शिमला के मामले को भी इसी के साथ संलग्न कर दिया गया है। बंजार मामले पर अभी कोई फाईनल जांच रिपोर्ट नही आयी है और न ही यह मामला अभी तक उच्च न्यायालय में पहुंचा है। उच्च न्यायालय में पहुंचे मामलों पर अदालत का क्या फैसला और निर्देश आते हैं तथा उस पर अमल करने में कितना समय लग जायेगा। इसका पता तो आने वाले दिनों में ही लगेगा।
लेकिन इन्ही मामलो के साथ एक और मामला राजधानी शिमला के स्कूलों का 2017 से प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंचा हुआ है। उच्च न्यायालय में एक डा. नितिन व्यास ने जनहित याचिका के माध्यम से राजधानी के स्कूलों के बच्चों को लाने ले जाने के लिये प्रयोग हो रहे नीजि वाहनों और स्कूल बसों के कारण हो रही ट्रैफिक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उच्च न्यायालय ने इस याचिका पर 14-12-18 को आयुक्त नगर निगम शिमला को पार्टी बनाते हुए शहर की इस समस्या पर रिपोर्ट तलब की थी। आयुक्त नगर निगम को रिपोर्ट में बताना था कि पार्किंग कहां-कहां कैसे बनाई जा सकती है जिससे शहर में ट्रैफिक सुचारू हो सके। इस रिपोर्ट में स्कूलों पर विशेष फोकस किया जाना था। उच्च न्यायालय के निर्देशों पर आयुक्त की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ कमेटी गठित हुई। इस कमेटी ने 18-12-2018 को शहर के चार स्कूलों का निरीक्षण किया। यह स्कूल थे सेंट एडवर्ड, जीसस एण्ड मेरी नवबहार, लोरेटो काॅन्वैन्ट ताराहाॅल और आकलैण्ड हाऊस स्कूल। इन स्कूलों को लेकर दी गयी रिपोर्ट के कुछ मुख्य सुझाव यह है।
INTERIM REPORT TO DECONGEST THE PARKING PROBLEM NEAR SCHOOLS LOCATED ON THE CIRCULAR ROAD
In Pursuance of the directions passed by the Hon’ble High court HP in CWP No. 1516/2017 titled as Nitin Vyas Versus state of HP & others, a Committee of the following Engineers has been constituted under chairmanship of Mr. Dhramender Gill, MD-Cum-CEO, SJPNL:-
1. Mr Rajiv Sharma, Sr. Architect Planner, M.C. Shimla (Member Secretary)
2. Mr. Rajesh Kashyap, Executive Engineer, SJPNL (Member)
3. Mr. Sudhir Gupta Executive Engineer (R&B) M.C. shimla (Member)
4. Mr. Narender Verma, Project Director M.C. Shimla (Member)
5. Mr. Rajesh Thakur Asstt. Engineer (M.C. Shimla (Member )
St. Edward's School
1, The capacity of Present existing parking of the School can be increased by demolishing the existing old single storey building housing the reception and using the space thus created for parking.
Jesus and Mary School at Navbahar
2. The School has three gates on the aforesaid link road but since this road is narrow and also because of the idle parking on both sides of the road, the feasibility of plying School buses is not there. Hence widening of this road at some places and strict prohibition of idle parking is required so that the school buses can approach the school and students board and deboard in the campus itself. For this two of the gates of the school and exit gates. Similarly private vehicles can also approach the school and board and deboard in the campus itself . The widening will cost about Rs. 2.00 crore approximately. Since the custodian of this road is HPPWD, the HPWD department may be directed take up the work immediately.
3. The School should have its own mini electric/ travelers buses to avoid dependency on the private taxi operators. This will reduce the number of vehicles ferrying the students.
Loreto Convent Tarahall
1. The circular road adjoining the school boundary needs to be widened hence the boundary wall needs to be shifted inside by about 2 mtr for widening of the road.
Auckland House Girls School Longwod and Chapslee School Longwood
1. A bus lay-bye needs to be created to avoid parking of the buses on the main road. This can be done by shifting the gates of both Auckland House school and Chapslee School so that buses can park in the space between both gates and not on main road. For this the reatining wall of the Chapslee School will need to be shifted.
लेकिन इस रिपोर्ट के साथ ही एक सवाल यह खड़ा हो गया है कि इन्ही सड़को के किनारे स्थित अन्य स्कूलों को लेकर कुछ नही कहा गया है। क्योंकि एडवर्ड के साथ ही इसी रोड़ पर पोर्टमोर स्कूल के बच्चे भी उतरते हैं। फिर बस स्टैण्ड के पास लालपानी और दयानंद स्कूल के बच्चों को भी परेशानी झेलनी पड़ती है। लक्कड़ बाजार के गल्र्ज स्कूल और आगे आकलैण्ड के साथ ही आर के एम वी काॅलिज के बच्चों की भी समस्या है। लेकिन स्कूलों की समस्या सुलझाने से ही पूरे शहर की समस्या नही सुलझ जाती है। क्योंकि शहर की बड़ी समस्या तो प्राईवेट गाड़ियों की पार्किंग की है। इसके लिये हर सड़क के किनारे पार्किंग स्थलों को चिन्हित करने और बनाने के साथ ही सड़क के साथ लगते हर सरकारी और प्राईवेट भवन को उसमें पार्किंग स्थल बनाने की बाध्यता जब तक नही लगायी जायेगी तब तक इस समस्या का हल निकलना संभव नही होगा। यह व्यवस्था पूरे प्रदेश में लागू करनी पड़ेगी क्योंकि हर शहर में यह समस्या खड़ी होती जा रही है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अन्ततः प्रशासनिक ट्रिब्यूनल बन्द करने का फैसला ले लिया है। लेकिन यह फैसला लेने में सरकार को डेढ़ वर्ष का समय लग गया है। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को भाजपा सत्ता में आने पर बन्द कर देगी ऐसा कोई वायदा स्पष्ट रूप से विधानसभा चुनावों के लिये जारी किये गये घोषणा पत्र में भी नही किया गया था। फिर इस डेढ़ वर्ष के समय में ट्रिब्यूनल के खाली चले आ रहे दोनों प्रशासनिक सदस्यों के पदों को भरने के लिये प्रक्रिया भी जारी रही। इसके लिये तीन बार आवेदन आमन्त्रित किये गये। अन्त में चयन पैनल ने इसके लिये नामों का चयन करके नामों की सूची प्रदेश सरकार को अगली कारवाई के लिये भी भेज दी। नामों की संस्तुति की यह फाईल कई दिनों तक मुख्यमन्त्री के कार्यालय में रही और भारत सरकार को नही भेजी गयी। यह प्रक्रिया इतने लम्बे समय तक चलाये रखने से यही संदेश जाता रहा कि सरकार ट्रिब्यूनल को बन्द करने की कोई मंशा नही रखती है। इसमें पड़े खाली पदों को प्रशासनिक अधिकारियों में से ही भरा जाना था और ऐसे ही अधिकारियों ने इसके लिये आवेदन कर रखा था। आवेदकों में कुछ सेवानिवृत और कुछ सेवारत अधिकारी थे। जिन दो अधिकारियों का अन्त में चयन हुआ था उनमें एक मुख्यमंत्री के वर्तमान प्रधानसचिव अतिरिक्त मुख्यसचिव डाॅ. बाल्दी और दूसरे पूर्व प्रधान सचिव अतिरिक्त मुख्यसचिव मनीशा नन्दा थी। यह दोनों अधिकारी मुख्यमन्त्री के विश्वस्तों में गिने जाते हैं। इन अधिकारियों को भी यह पता नही चल सका कि सरकार ट्रिब्यूनल बन्द करने जा रही है। क्योंकि यदि यह पता होता तो शायद यह लोग आवदेक ही न बनते । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ट्रिब्यूनल बन्द करने का कारण प्रशासनिक नही बल्कि राजनीतिक रहा है।
जब जयराम सरकार ने सत्ता संभाली थी तभी प्रशासनिक सदस्यों के पद खाली थे। इन खाली पदों के कारण ट्रिब्यूनल का कार्य प्रभावित होता रहा क्योंकि नियमानुसार बेंचों का गठन संभव नही हो सका। सेवारत दोनांे सदस्य न्यायिक क्षेत्र से हैं इसलिये यह दोनों जो सिंगल बैठ कर काम निपटा सकते थे इन्होने उतना ही काम किया। ऐसे में यह कहना ज्यादा तर्कसंगत नही बनता कि ट्रिब्यूनल सरकार के खिलाफ ही फैसले दे रहा था और इससे मन्त्री और दूसरे नेता खुश नही थे। बल्कि इस तरह का पक्ष लेकर अपरोक्ष में सरकार पर ही यह आक्षेप आ जाता है कि सरकार फेयर न्याय प्रक्रिया पर विश्वास न रखकर राजनीति से प्रभावित होकर चलने वाली न्याय प्रणाली चाहती थी। क्योंकि ट्रिब्यूनल बन्द करने के फैसले का सरकार का जो तर्क सामने आया है उससे यह संदेश जनता में गया है और ऐसा संदेश जाना कालान्तर में सरकार की छवि के लिये घातक ही होगा।
ट्रिब्यूनल की कार्य प्रणाली पिछले डेढ़ वर्ष से प्रभावित होती चली आ रही है क्योंकि बैंचों का गठन न होने से फैसले हो नही पाये। अब ट्रिब्यूनल से फाईलें फिर उच्च न्यायालय को जायेगी। उच्च न्यायालय में पहले ही दशकों से मामले लंबित पड़े हैं। अब ट्रिब्यूनल का काम भी उच्च न्यायालय में आने से केसों के फैसलों के लिये और समय लगेगा। अब लोगों को अपने केसों के फैसलों के लिये और लम्बा इन्तजार करना पड़ेगा। राजस्व के मामलों में भी सरकार ने एफसी अपील का काम एक समय छः अधिकारियों में बांट दिया था। सबको दो-दो जिलों का काम सौंपा गया था। लेकिन व्यवहारिक रूप से जितने दिन यह व्यवस्था लागू रही उतना समय शायद ही लोगों को फैसले मिल पाये हांे। व्यवहारिक रूप से यह फैसला गलत था और अन्त में सरकार को यह फैसला वापिस लेना पड़ा है। इसी तरह अब ट्रिब्यूनल बन्द करने के फैसले से आगे चलकर आम आदमी को व्यवहारिक रूप से कोई लाभ नही होगा। ट्रिब्यूनल की स्थापना को बहुत समय लगा है और आज जो इसकी कार्यक्षमता प्रभावित हुई है उसके लिये केवल सरकार जिम्मेदार रही है क्योंकि खाली पदों को समय पर भरा नही गया। यह स्वभाविक है कि जब पद ही नही भरे जायेंगे तो विधिवत बैंचों का गठन नही हो पायेगा और बैंच गठित न हो पाने का अर्थ है कि फैसले नही हो पाये। ऐसे में ट्रिब्यूनल को बन्द करने से आम आदमी को फैसलों के लिये लम्बे इन्तजार में डाल दिया गया है और देरी से मिला न्याय तो अन्याय के ही बराबर होता है।
शिमला/शैल। राजधानी शिमला के माल रोड़ से सटे मुख्य बाजार लोअर बाज़ार में जूतों की मुरम्मत एवम् सेल की छोटी सी दुकान में छोटा सा कारोबार करके अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करने वाला व्यक्ति सामाजिक उत्पीड़न का शिकार बन जाये तथा उसे अपने जानमाल की सुरक्षा की गुहार एक पत्र लिखकर प्रदेश के मुख्य न्यायधीश से करने की नौबत आ जाये तो यह पूरी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े कर जाता है। मुख्य न्यायधीश के नाम लिखे पत्र में भाटिया ने जिक्र किया है कि उसके एक पड़ोसी विक्रम सिंह ने 20-07-2018 को उस पर और उसकी पत्नी पर जानलेवा हमला किया तथा सार्वजनिक रूप से जाति सूचक शब्दों का प्रयोग करके उसे प्रताड़ित किया। इस घटना की पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई गयी पुलिस ने मामला दर्ज करके छानबीन के बाद अदालत में चालान दायर कर दिया और अब यह मामला सैशन जज की अदालत में लंबित चल रहा है।
इस मामले के लंबित होने के बावजूद इसी विक्रम सिंह ने अब फिर 17-5-2019 को रात 7ः30 बजे फिर से हमला किया और जाति सूचक शब्द चमार चमार सार्वजनिक रूप से बाजार में पुकार पुकार कर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार बनाया। इस घटना की भी पुलिस में शिकायत की गयी पुलिस ने फिर से मामला दर्ज किया लेकिन आरोपी अग्रिम जमानत लेने में सफल हो गया। भाटिया ने वाकायदा इस घटना की विडियो रिकार्डिंग तक कर रखी है और मुख्य न्यायधीश को भेजे पत्र में इसकी जानाकरी दी है। अग्रिम जमानत मिल जाने से विक्रम के हौंसले और बुलन्द हो गये हैं। पत्र के मुताबिक वह बराबर जान से मारने की धमकीयां दे रहा है और इसके लिये सज़ा तक भुगतने को तैयार है।
मुख्य न्यायधीश को लिखे पत्र से भाटिया का डर स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है क्योंकि आरोपी अग्रिम जमानत पाने में सफल हो गया है। जबकि कानून की जानकारी रखने वालों के मुताबिक ऐसे अपराधों में अग्रिम जमानत का प्रावधान नही है। इस मामले से यह सवाल उठता है कि क्या ऐसी घटनाओं से एक सुनियोजित तरीके से जातिय सौहार्द को बिगाड़ने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि भाटिया के इस मामले से पहले भी दलित उत्पीड़न के कई मामले सामने आ चुके हैं। जिन्दान मामला बड़ी चर्चा का विषय रह चुका है। शिमला के ही ढली उपनगर में भी एक परिवार को ऐसे ही उत्पीड़न का शिकार बनाये जाने का मामला सुर्खियों में रह चुका है। इन सारे मामलों में प्रशासन की भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में यह स्वभाविक है कि जब समाज के एक वर्ग को इस तरह से प्रताड़ना और उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता रहेगा तो यह वर्ग अन्त में अपनी आत्म रक्षा के लिये क्या करेगा? क्या हम उसे प्रतिहिंसा की ओर धकलेने का एक सुनियोजित प्रयास नही कर रहे हैं? आज उच्च न्यायालय से लेकर नीचे प्रशासन तक सबको ऐसे मामलों पर कारगर अंकुश लगाने के उपाय करने होंगे। अन्यथा स्थिति गंभीर होती जायेगी।