Saturday, 20 December 2025
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सरकार की सेहत के लिये घातक हो सकती है पत्र बमों पर चली जांच

                                              रवि का आक्रामक होना हुआ बाध्यता
शिमला/शैल। जयराम सरकार को सत्ता में आये अभी दो वर्ष भी नही हुए हैं लेकिन इसी अवधि में भ्रष्टाचार को लेकर अनाम पत्रों के माध्यम से जिस तरह से मुद्दे उछलने शुरू हुए हैं उससे सरकार और संगठन दोनों की कार्यशैली पर गंभीर सवालिया निशान लगने शुरू हो गये हैं इसमें कोई दो राय नही है। स्मरणीय है कि सबसे पहला पत्र मन्त्री के ओ एस डी और उन्हीं के एक सलाहकार को लेकर सामने आया था। इस पत्र के बाद उद्योगमन्त्री की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता दूसरा पत्र सामने आया और इसमें सीमेन्ट के दाम बढ़ाये जाने को लेकर आरोप लगाये गये थे। यह सही है कि इस सरकार के सत्ता में आने के बाद सीमेन्ट के दामों में बढ़ौत्तरी हुई है और इस बढ़ौत्तरी की कोई जायज वजह प्रदेश की जनता को नही बताई गयी है। उद्योग मन्त्री के बाद महिला मोर्चा की अध्यक्ष इन्दु गोस्वामी का पत्र चर्चा में आया। इस पत्र में इन्दु गोस्वामी ने सरकार और संगठन दोनों की नीयत और नीतियों पर प्रश्नचिन्ह लगाये हैं। इसके बाद पर्यटन विभाग के वरिष्ठम अधिकारी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाता पत्र सामने आता है और जब इन तमाम पत्रों पर सरकार की ओर से न तो कोई कारवाई सामने आयी तथा न ही कोई जवाब जनता में आया। तब अनाम लेखक ने पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार के नाम पत्र दाग दिया क्योंकि शान्ता कुमार भ्रष्टाचार का ‘कड़वा सच’ के एक प्रतिष्ठित लेखक हैं फिर शान्ता कुमार आज सरकार और मुख्यमन्त्री दोनों के मार्गदर्शक माने जाते हैं।
शान्ता कुमार के नाम लिखे इस पत्र में स्वास्थ्य, पर्यटन और सरकार द्वारा हर माह कर्ज लिये जाने की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है। इस पत्र के सामने आने के बाद मुख्यमन्त्री और शान्ता कुमार में पालमपुर में बैठक हुई। इस बैठक के बाद शान्ता कुमार की अपनी एक अलग प्रतिक्रिया आयी। इसमें इस पत्र का कोई जिक्र नही आया। केवल धर्मशाला के उपचुनाव को लेकर ही शान्ता ने अपनी भूमिका स्पष्ट की है। शान्ता इस पत्र को लेकर शायद इसलिये खामोश रहे हैं क्योंकि तब तक कांगड़ा केन्द्रीय सहकारी बैंक द्वारा मनाली के एक युद्ध चन्द बैंस को 65 करोड़ का ऋण दिये जाने का विवाद सामने आ चुका था। वैंस मनाली में एक पर्यटन ईकाई स्थापित कर रहे हैं जिसके लिये उन्होंने कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक से ऋण स्वीकृत करवाया और इस ऋण का भुगतान उन्हें बैंक की राजकीय महाविद्यालय ऊना में स्थित ब्रांच से करवाया गया। वैंस ने इस ऋण में से ग्यारह लाख का दान शान्ता कुमार के विवेकानन्द ट्रस्ट को चैक के माध्यम से कर दिया। संयोवश कांगड़ा बैंक के चेयरमैन राजीव भारद्वाज भी शायद इस ट्रस्ट के एक ट्रस्टी हैं। यह ऋण जब इस तरह से चर्चा में आ गया तब शान्ता ने दान का चैक वापिस कर दिया। ऋण लेकर एक व्यक्ति इस तरह से दान देने का शुभ कार्य करे ऐसा अकसर कम देखा गया है। वैसे नियमों के मुताबिक सहकारी बैंक इतना बड़ा ऋण नाबार्ड की पूर्व अनुमति के बिना नही दे सकता है और इसमें नाबार्ड की कोई सहमति नही ली गयी है। ऐसा ही एक ऋण कांगड़ा सहकारी बैंक द्वारा 3-10-2017 को भुवनेश्वरी हाईड्रो प्रा. लि. को भी दिया गया है। 12.45 करोड़ के इस ऋण पर भी नाबार्ड की अनुमति को लेकर सवाल उठे हैं। वैसे तो कांगड़ा बैंक ने 1-4-2017 से 31-3-2018 तक एक दर्जन से अधिक एक कराड़े से अधिक के ऋण गैर सहकारी सभाओं को दे रखे हैं। इनमे से कितने मामलों में नाबार्ड की अनुमति है इसको लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है और अनुमति न होना अपने में एक आपराधिक मामला बन जाता है। वैसे कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक के 560.60 करोड़ के एनपीए में से कितने की रिकवरी बैंक का नया प्रबन्धन कर पाया है इसको लेकर भी अभी तक अधिकारिक रूप से कुछ भी सामने नही आ पाया है। लेकिन प्रदेश के सारे सहकारी बैंको के 938 करोड़ के एनपीए के प्रति सरकार की ओर से भी कोई गंभीर कारवाई अब तक सामने नही आ पायी है।
कांगड़ा केन्द्रिय बैंक के चेयरमैन राजीव भारद्वाज, शान्ता कुमार के एक विश्वस्त हैं। बैंक की इस तरह की कार्यप्रणाली सामने आने के बाद स्वभाविक है कि शान्ता कुमार जैसे व्यक्ति को ऐसे पत्रों पर प्रतिक्रिया देना सहज नहीं रह जाता है। ऐसे में इस पत्र पर मुख्यमन्त्री और स्वास्थ्य मन्त्री की ही प्रतिक्रियाएं आना स्वभाविक हैं। स्वास्थ्य मन्त्री ने पत्र में लगाये गये आरोपों को नकारते हुए इस छवि को खराब करने का प्रयास करार दिया है। मुख्यमन्त्री ने भी आरोपों को खारिज करते हुए आरोप लगाने वालों को भ्रष्टाचार के सबूत देने की चुनौती दी है।
सरकार ने इस अनाम पत्र के वायरल होने के बाद इसके लेखक तक पहंुचने के लिये इस मामले में एक एफ आई आर दर्ज करवाई है। यह एफ आई आर दर्ज होने के बाद शुरू हुई जांच में पुलिस ने कांगड़ा के ही वरिष्ठ भाजपा नेता पांच बार विधायक रहे पूर्व मन्त्री रविन्द्र रवि से पूछताछ की है और उनका मोबाईल फोन जब्त किया है। रवि ने इस पूछताछ को साजिश करार दिया है। रवि धूमल खेमे से जोड़कर देखे जाते हैं और धूमल का नाम धर्मशाला उपचुनाव के लिये ज्वालामुखी और नगरोटा मण्डलों की ओर से चर्चा में आ चुका है हालांकि धूमल ने इस चर्चा पर कोई प्रतिक्रिया नही दी है लेकिन राजनीतिक हल्कों में इस पत्र विवाद और इसमें रवि से पूछताछ किये जाने को धूमल से जोड़कर देखा जा रहा है। स्मरणीय है कि जंजैहली प्रकरण में भी ऐसे ही धूमल का नाम चर्चा में आ गया था जिस पर धूमल को यह कहने की नौबत आ गयी थी कि सरकार चाहे तो सीआईडी से जांच करवा ले। लेकिन अब धूमल के निकटस्थ रवि से पूछताछ करके प्रदेश में यह संदेश देने का तो प्रयास किया ही गया है कि धूमल खेमा सरकार को अस्थिर करना चाहता है। फिर यह सब उपचुनावों की पूर्व संध्या पर सामने आया है। इस पत्र विवाद से हटकर भी कांगड़ा की भाजपा राजनीति में धवाला और पवन राणा का विवाद तथा इन्दु गोस्वामी का पत्र और महिला मोर्चा की अध्यक्षता से त्यागपत्र देना ऐसे प्रसंग है जो निश्चित रूप से पार्टीे की छवि पर गंभीर सवाल उठाते हैं। ऐसे ही राजनीतिक वातावरण में कांगड़ा केन्द्रिय सहकारी बैंक के ऋण प्रकरण का सामने आना पार्टी के लिये और भी कठिनाई पैदा करता है।
ऐसे परिदृश्य में रवि और धूमल को अपनी स्थिति साफ करने के लिये खुलकर सामने आने के अतिरिक्त और कोई विकल्प शेष नहीं रह जाता है। क्योंकि पिछले दिनों जब पर्यटन के कुछ होटलों को लीज पर देने का प्रकरण सामने आया था तब मुख्यमन्त्री ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए न केवल विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव को ही बदला बल्कि इसमें जांच के भी आदेश दिये थे। लेकिन जांच करने वाले मुख्य सचिव भी दिल्ली जा चुके हैं परन्तु अभी तक रिपोर्ट सामने नही आयी है। ऐसी ही कांगड़ा बैंक की हो रही है। ऋण लेने वाला उसी ट्रस्ट को दान दे रहा है जिसमें बैंक का चेयरमैन ट्रस्टी है। यह एक तरह से वक्कामुल्ला चन्द्र शेखर और वीरभद्र जैसा मामला बन जाता है। ऐसे मामले पर भी सरकार का खामोश रहना सवाल खड़े करता है। उपचुनावों में ऐसी चीजों का नकारात्मक असर होना स्वभाविक है इससे जीत के अन्तर पर तो निश्चित रूप से असर पड़ेगा। पत्र विवाद से इसकी जिम्मेदारी धूमल खेमे पर आ जाती है। यदि धूमल खेमा बैंक प्रकरण पर सवाल खड़े कर देता है तो स्थिति एकदम उल्ट जाती है। राजनीतिक पंडितो के अनुसार जिस ढंग से पत्र विवाद पर जांच शुरू की गयी है उससे किसी एक खेमे को तो नुकसान उठाना ही पड़ेगा।

क्या टीसीपी का प्रस्तावित संशोधन संभावित निवेशकों के दबाव का परिणाम है

शिमला/शैल।  प्रदेश सरकार की टीसीपी के तहत प्लानिंग और साडा क्षेत्रों में शामिल किये गये ग्रामीण क्षेत्रों को टीसीपी से बाहर करने पर विचार कर रही है। इसके लिये आईपीएच मंत्री महेन्द्र सिंह की अध्यक्षता में मन्त्रीयों की एक उप समीति बनाई गयी है। कहा गया है कि इस उप समिति के पास ग्रामीण क्षेत्रों से इस आशय के 120 प्रस्ताव आये हैं। पिछले दिनों प्रदेश सचिवालय में हुई इस उप समिति की बैठक में फैसला लिया गया कि ऐसे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की समस्याओं के लिये जन सुनवाई की जायेगी। यह जन सुनवायी शिमला मे सुरेश भारद्वाज, कुल्लु -मनाली में गोविन्द ठाकुर और मण्डी में स्वयं महेन्द्र सिंह ठाकुर करेंगे। शिमला में हुई उप समिति की बैठक में इन मन्त्रीयों के अतिरिक्त विधायक सुखविन्दर सिंह सुक्खु, विधायक अनिरूद्ध सिंह और सचिव टीसीपीसी पालरासू और कुछ अन्य अधिकारी भी शामिल रहे हैं। इस बैठक में शिमला को लेकर यह सुझाव आया है कि यहां भवनों की ऊंचाई 21 मीटर तय कर दी जानी चाहिये। शिमला, मण्डी और कुल्लु, मनाली के अतिरिक्त प्रदेश में और कहां पर इस उप समिति की बैठकें होंगी तथा और कहां-कहां से प्रस्ताव आये हैं यह अभी सामने नही आया है।
स्मरणीय है कि प्रदेश के कई हिस्सों में हुए अवैध निर्माणों का मामला प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक सुर्खीयों में रहे हैं। अदालत के आदेश पर ऐसे निर्माणों के बिजली पानी तक काटे गये हैं। सर्वोच्च न्यायालय से ही एक मामला शुरू में एनजीटी में गया था और उसके बाद ही एनजीटी ऐसे मामलो पर गंभीर हुआ। कसौली का मामला एनजीटी के आदेशों का ही परिणाम है। कुल्लु में मन्त्री महेन्द्र सिंह ने एनजीटी के आदेशों पर अपने होटल का अवैध निर्माण स्वयं गिराया है। योगेन्द्र सेन की याचिका पर दिये गये फैसले में एनजीटी ने अढ़ाई मंजिल तक ही निर्माण सीमा इसलिये तय की है क्योंकि शिमला ही नही हिमाचल प्रदेश का 80% भाग संवदेनशील भूकंप जोन में आता है। आपदा प्रबन्धन के तहत सरकार द्वारा किये गये अपने अध्ययन की रिपोर्ट में यह दर्ज है कि यहां पर हल्का सा भी भूकंप का झटका आने पर 30,000 लोगों की जान जायेगी। इसी अध्ययन के बाद सचिवालय में सचिव स्तर की एक कमेटी गठित की गयी थी और पहली बार वर्ष 2000 में शिमला में सरकारी और गैर सरकारी निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। एनजीटी के 16-11-2017 के फैसले का आधार पर इसी सचिव कमेटी की सिफारिशें बनी हैं और फैसले में यह विशेष रूप से दर्ज भी है। इसी फैसले में निर्माणों को नियमित करने के लिये 5000 से 10,000 रूपये प्रति वर्ग फुट जुर्माने का प्रावधान रखा गया है। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय और एनजीटी तक में प्रदेश में अवैध निर्माणो का आंकड़ा 35000 तक आया है। लेकिन सरकार आज भी सदन में यही जानकारी दे रही है कि अवैध निर्माणों के केवल 8782 मामले ही उसके सामने आये हैं। इनमें भी नगर क्षेत्रों के 5444 तथा नगरों से बाहर के 3338 मामले ही हैं। नगर निगम शिमला में एनजीटी के फैसले के बाद केवल 14 नये और 264 संशोधित मामले स्वीकृति के लिये आये हैं। लेकिन अवैध निर्माणों को लेकर निगम मौन रहा है जबकि पिछले दिनों उच्च न्यायालय में आये एक मामले में यह संख्या 8300 कही गयी है।
इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रदेश में अवैध निर्माण एक बहुत बड़ी समस्या है। किसी भी आपदा की घड़ी में इनके कारण हजारों की संख्या में जान माल का नुकसान हो जायेगा। इसी नुकसान की आशंका निर्माणों पर रोक और उन्हे अढ़ाई मंजिल तक सीमित किया गया है। लेकिन जिस ढंग से टीसीपी में संशोधन की भूमिका ग्रामीण क्षेत्रों को प्लानिंग और साडा से बाहर करने की तैयार की जा रही है। उससे यह सवाल उठता है कि क्या संशोधन के बाद यहां पर बहुमंजिलों के निर्माण की तैयारी की जा रही है। आखिर किसके लिये इस माध्यम से यह सुविधा देने की तैयारी हो रही है। अभी शिमला के 30 किलोमीटर के दायरे में ज़मीन मांगने के 26 आवदेन आये हैं जिनमें से आठ तो सीधे आरएसएस से ही ताल्लुक रखते हैं। इसी किलो मीटर के दायरे में कुछ मंत्रीयों और अधिकारियों की भी ज़मीने हैं। मन्त्रीयों की जो उप समिति बनी है शायद उसके भी सदस्य की जमीन इस दायरे में आती है। एनजीटी के फैसले के खिलाफ सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गयी थी लेकिन शायद वहां से इसमें कोई राहत नही मिली है। फिर भवन निर्माण क्षेत्र में आने वाले संभावित निवेशकों की ओर से भी शायद यह दबाव है कि निर्माण पर लगी अढ़ाई मंजिल की शर्त को हटाया जाये। क्योंकि कोई भी भवन निर्माता अढ़ाई मंजिल का निर्माण करके इसमें लाभ नही कमा सकता। चर्चा है कि अभी पंजीकृत हुए एक गुप्ता भवन निर्माता ग्रुप ने शिमला के 30 किलो मीटर के दायरे में सौ बीघा से अधिक ज़मीन की खरीद की है लेकिन एनजीटी के मौजूदा फैसले के तहत यह निर्माण लाभकारी न हों इसी आशंका के चलते ऐसे लोगों के दबाव में आकर टीसीपी में संशोधन का रास्ता अपनाया गया है और उसमें शिमला, मण्डी तथा कुल्लु मनाली पर ही फोकस रखा गया है। इस प्रस्तावित संशोधन पर पर्यावरण प्रेमियों की क्या प्रतिक्रिया रहती है यह आने वाले दिनों में सामने आयेगा।

                                       यह हैं 26 आवेदक

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 



सहायक दवा नियंत्रक सरीन प्रकरण में सरकार की नीयत पर उठे सवाल

शिमला/शैल। स्वास्थ्य विभाग ने बद्दी में तैनात सहायक दवा नियंत्रक निशांत  सरीन के आवास -कार्यालय और अन्य ठिकानों पर 23 अगस्त को विजिलैन्स ने छापेमारी की थी। इस छापेमारी के दौरान कई संपत्तियों बैंक खातों और फार्मा कंपनीयों के पैसों से मंहगे होटलों में ठहरने तथा हवाई यात्राएं करने के सबूत मिलने का दावा किया गया था। सरीन की एक सहयोगी डा. कोमल की पंचकूला स्थित फार्मा कंपनी पर भी इसी संबंध में छापेमारी की गयी थी। इस छापेमारी के दौरान सरीन और उनकी सहयोगी डा. कोमल विजिलैन्स टीम के साथ नही थे जिसका अर्थ है कि शायद उन्हें इस संभावित छापेमारी की भनक पहले ही लग गयी थी इसी कारण से वह इन ठिकानों पर हाथ नही लगे। इस छापेमारी के बाद विजिलैन्स ने दोनों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत मामला दर्ज करके इन्हें सोलन कार्यालय में जांच में शामिल होने का नोटिस जारी कर दिया था।
लेकिन विजिलैन्स के नोटिस के बावजूद यह लोग जांच में शामिल नही हुए। बल्कि सोलन की अदालत मे अग्रिम जमानत के लिये याचिका दायर कर दी। इस याचिका के दौरान भी सरीन अदालत मे नही आये। यह याचिका भी खारिज हो गयी है। सरीन को जमानत नही मिली है। जमानत न मिलने के बावजूद भी विजिलैन्स ने उन्हें अभी तक गिरफ्रतार नही किया है न ही सरीन अब तक जांच में शामिल हुए हैं। वह बद्दी में अपने कार्यालय में भी नही आ रहे हैं। माना जा रहा है कि वह भूमिगत हो गये हैं और जमानत के लिये प्रदेश उच्च न्यायालय में प्रयास करेंगे। अग्रिम जमानत के लिये प्रयास करना उनका कानूनी अधिकार है लेकिन इस अधिकार से विजिलैन्स की कारवाई नही रूक जाती है। जब सरीन को सोलन की अदालत से जमानत नही मिली है तब कायदे से विजिलैन्स को उनकी गिरफ्रतारी के प्रयास तेज कर देने चाहिये थे। लेकिन ऐसा कुछ सामने नही आया है।
सरीन एक सरकारी कर्मचारी हैं जिनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला दर्ज है और विजिलैन्स छापेमारी कर चुकी है और वह उन्हें नही मिले हैं। वह अपने कार्यालय में भी नही आ रहे हैं क्या उन्होंने विभाग से कोई छुट्टी ले रखी है। यदि ऐसी कोई छुट्टी है तो क्या वह यह मामला दर्ज होने के बाद रद्द नहीं हो जानी चाहिये थी? यदि वह बिना किसी छुट्टी के अपने कार्यालय से गायब है तो क्या उसके खिलाफ एक और आपराधिक मामला नही बन जाता है? क्योंकि कोई भी सरकारी कर्मचारी बिना सूचना के गायब नही रह सकता। लेकिन विभाग की ओर से इस तरह की कोई कारवाई अबतक अमल में नहीं लायी गयी है। स्मरणीय है कि बहुत पहले बिलासपुर में भी सरीन के खिलाफ ऐसा ही एक मामला बना था उस समय भी राजनीतिक दबाव होने की चर्चाएं उठी थी। अब भी माना जा रहा है कि शायद राजनीतिक दबाव फिर हावि हो गया है जिसने सरकार और विजिलैन्स दोनों के हाथ बांध रखे हैं।

कर्ज के आंकड़ों पर जयराम को मुकेश की खुली चुनौती

शिमला/शैल। मानसून सत्र के अन्तिम दिन विधानसभा में विधायक रमेश धवाला और जगत सिंह नेगी तथा राजेन्द्र राणा का प्रश्न था कि गत तीन वर्षों में दिनांक 31-7- 2019 तक प्रदेश सरकार ने विश्व बैंक, एशियन विकास बैंक तथा अन्य ऐजैन्सीयों से कितना ऋण लिया है (क) किन योजनाओं हेतु कितनी राशी ऋण के रूप में स्वीकृत हुई है। (ख) स्वीकृत ऋण में से कितनी धन राशी कहां और किस योजना पर खर्च हुई ब्योरा दें। इस प्रश्न के उत्तर मे सदन में रखी गयी जानकारी के मुताबिक 2017-18 में कुल ऋण 5200.13 करोड़ लिया गया जिसमें से 3099.68 करोड़ वापिस कर दिया है। 2018-19 में 4932.03 करोड़ लिया और 3177.41 करोड़ वापिस किया गया तथा 2019-20 में (31-7-2019) में 1197.69 करोड़ लिया और 240.42 करोड़ वापिस किया। इसके  मुताबिक तीन वर्षों में 11329.85 करोड़ का ऋण लिया गया जिसमें से 6517.51 करोड़ वापिस करने के बाद 4812.34 करोड़ का ऋण शेष बचा है।
ऐसा ही एक सवाल बजट सत्र के दौरान भी मुकेश अग्निहोत्री और रामलाल ठाकुर ने पूछा था। इसके जवाब में बताया गया था कि 3451 करोड़ का कर्ज लिया गया है जिसमें से 3000 करोड़ खुले बाजार से लिया गया। इसमें से कुछ कर्ज वापिस करने के बाद 1838.75 करोड़ का ऋण शेष बचा है। इन दोनों सूचनाओं को इकट्ठा रखने के बाद 6600 करोड़ से अधिक का ऋण इस सरकार के अब तक के कार्यालय में लिये गये ऋण में से अभी वापिस दिया जाना बाकी है। लेकिन मुख्यमन्त्री ने सदन में आये इन आंकड़ो को नज़रअन्दाज़ करते हुए यह जानकारी दी कि उनकी सरकार ने केवल 2711 करोड़ का ऋण लिया है। मुख्यमन्त्री के इस दावे को नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने सदन में खुली चुनौती देते हुए आरोप लगाया है कि मुख्यमन्त्री सदन को गुमराह कर रहे हैं। सरकार द्वारा स्वयं सदन में रखे इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि मुकेश अग्निहोत्री की चुनौती बिना आधार के नही है।
मुख्यमन्त्री के ब्यान और इन आंकड़ों के बाद यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या मुख्यमन्त्री सही में सदन से कुछ छुपा रहे हैं या अफसरशाही ने जानबूझ कर मुख्यमन्त्री को इन आंकड़ों को नज़रअन्दाज़ करके कुछ और ही तस्वीर उनको दिखा दी है। मुख्यमन्त्री ने सदन में माना है कि प्रदेश की वित्तिय स्थिति  ठीक नही है और इसके लिये उन्होंने कांग्रेस के पिछले कार्यालय में 18000 करोड़ से कुछ अधिक का ऋण लेने को जिम्मेदार ठहराया है।
लेकिन यह जिम्मेदार ठहराने के बाद यह सरकार राजस्व बढ़ाने के लिये क्या कदम उठा रही है इसका कोई खुलासा अभी तक सामने नही आया है। बल्कि सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि क्या कर्ज की ही सही स्थिति को सरकार समझ पायी है या नही। क्योंकि बजट में जो पूंजीगत प्राप्तियां दिखायी जाती हैं वह वास्तव में कर्ज ही होती हैं और बजट दस्तावेजों में उसे पूरी स्पष्टता के साथ कर्ज ही दिखाया गया होता है। परन्तु जब कर्ज पर सदन में सवाल पूछा जाता है और उसका उत्तर दिया जाता है तो इस ऋण का कोई जिक्र ही नही उठाया जाता है। क्योंकि यह ऋण अधिकांश में उस पैसे में से लिया जाता है जो आम आदमी की स्माल सेविंग्ज और कर्मचारियों की भविष्य निधि या और किसी तरीके से सरकार के पास जमा होता है लेकिन सरकार उसकी मालिक नही होती। यह कर्ज वापिस किया जाता है। 2018 -19 में 7730.20 करोड़ और 2019-20 में 8330.75 करोड़ का ऐसा ऋण लिया जायेगा। बाजार और अन्य ऐजैन्सीयों से लिया जा रहा है ऋण इस कर्ज से अलग होता है। पूंजीगत प्राप्तियों के रूप में लिया जाने वाला ऋण सिद्धान्त रूप में भविष्य के लिये संसाधन खड़े करने के लिये लिया जाता है जिनसे आगे आने वाले समय में सरकारी कोष में निश्चित और नियमित आय हो सके। आज प्रदेश में कर्जभार 50,000 करोड़ से पार हो गया है लेकिन इस कर्ज से कौन से संसाधन खड़े किये गये और उनसे कितनी आय हो रही है इसको लेकर आजतक कोई खुलासा जनता के सामने नही रखा गया है। इस परिदृश्य में यदि प्रदेश की पूरी वित्तिय स्थिति का सरकारी दस्तावेजों के आईने में ही आकलन किया जाये तो कोई भी सरकार जनता के सामने सही स्थिति नही रख रही है।








बाल्दी के मुख्य सचिव बनने के बाद कौन होगा मुख्यमन्त्री का प्रधान सचिव

शिमला/शैल। प्रदेश के मुख्य सचिव बी के अग्रवाल का केन्द्र में सचिव लोकपाल जाना तय हो गया है। अग्रवाल के केन्द्र में जाने के बाद डा. बाल्दी का मुख्य सचिव बनना भी तय माना जा रहा है। क्योंकि इस समय प्रदेश में कार्यरत अधिकारियों में बी सी फारखा के बाद वही वरिष्ठतम सेवारत अधिकारी हैं। फारखा वीरभद्र शासन में मुख्य सचिव रह चुके हैं इसलिये अभी उनकी दावेदारी नही मानी जा रही है। फिर डाक्टर बाल्दी लम्बे समय तक प्रदेश के वित्त सचिव रहे हैं और इस समय मुख्यमन्त्री को वित्तिय मामलों में उनसे अच्छी राय देने वाला कोई और नही है। इस नाते डा. बाल्दी से उपयुक्त इस समय मुख्य सचिव के लिये और कोई दूसरा नही हो सकता ऐसा माना जा रहा है। बाल्दी भी इसी वर्ष सेवा निवृत हो जायेंगे। ऐसे में इस अवधि में नये मुख्य सचिव की तलाश करने के लिये भी समय मिल जायेगा।
लेकिन इसी के साथ राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में यह चर्चा का विषय बना हुआ है कि बाल्दी की जगह मुख्यमन्त्री का अगला प्रधान सचिव कौन होगा। इस समय बाल्दी के बाद दूसरे वरिष्ठ अधिकारी अतिरिक्त मुख्य सचिव पर्यटन राम सुभाग सिंह है। लेकिन अभी जो पर्यटन ईकाईयों को लीज पर देने का मामला चर्चा में आया है उससे राम सुभाग सिंह की दावेदारी पर थोड़ा प्रश्नचिन्ह लग जाता है। राम सुभाग सिंह के बाद सचिवालय में दूसरे वरिष्ठ अधिकारी आईपी एस संजय कुण्डु उपलब्ध हैं संजय कुण्डु को सरकार केन्द्र से मुख्यमन्त्री कार्यालय में उनकी आवश्यकता होने के नाम पर ही लायी थी। लेकिन कुण्डु सचिवालय में मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव होना चाहेंगे या पुलिस में डीजीपी। वैसे इस समय भी वह मुख्यमन्त्री के अतिरिक्त प्रधान सचिव के पद पर ही तैनात है।
संजय कुण्डु के बाद इस समय प्रदेश में राम सुभाग के अतिरिक्त तीन और अतिरिक्त मुख्य सचिव तैनात हैं। इनमें से आरडी धीमान प्रदेश से भी ताल्लुक रखते हैं फिर विपक्ष ने यह खुला आरोप भी लगाया है कि सरकार को प्रदेश से बाहर के अफसर चला रहे हैं। मुख्यमन्त्री ने इस आरोप को सदन में सिरे से खारिज भी कर दिया है लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि अधिकारियों के कारण ही सरकार की कार्य प्रणाली पर सवाल भी उठ रहे हैं। माना जा रहा है कि अधिकांश अधिकारी नियमों/कानूनों को पूरी तरह समझने का प्रयास ही नहीं कर रहे हैं। हर छोटे बड़े फैसले के लिये हर मामले को मन्त्री परिषद में ले जाने की प्रथा चल पड़ी है अधिकारी अपने स्तर पर फैसला लेने से बच रहे हैं। ऐसे में सरकार के कार्यकाल तक कौन अधिकारी इस प्रधान सचिव की जिम्मेदारी को निभाने के लिये उपयुक्त होगा उसमें धीमान का नाम पहले स्थान पर चल रहा है क्योंकि उनकी सेवानिवृति भी दिसम्बर 2022 में सरकार के कार्यकाल के साथ ही होनी है।

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