शिमला/शैल। आईएनएक्स मीडिया प्रकरण में चिदम्बरम के साथ सह अभियुक्त बने वित्त मन्त्रालय के सभी छः अधिकारियों को अन्ततः इस मामले में जमानत लेनी पड़ी है। इन लोगों को अभी अदालत से अन्तरिम जमानत ही मिली है। अभी यह रैगुलर होना शेष है। इस मामले में हिमाचल सरकार के प्रधान सचिव प्रबोध सक्सेना भी एक सह अभियुक्त हैं क्योंकि वह उस समय वित्त मन्त्रालय में विदेशी निवेश संवर्द्धन बोर्ड के निदेशक थे। इस प्रकरण में सीबीआई और ईडी दोनों ने मामले दर्ज किये हुए हैं। सीबीआई प्रकरण में चिदम्बरम को जमानत मिल चुकी है और इसका चालान भी ट्रायल कोर्ट में दायर हो चुका है। सीबीआई प्रकरण में इन अधिकारियों को जमानत लेने की आवश्यकता नही पड़ी है।
लेकिन चिदम्बरम सीबीआई के बाद ईडी की हिरासत में चल रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय में उनकी जमानत याचिका पर फैसला रिजर्व चल रहा है। चिदम्बरम की जमानत का विरोध सीबीआई और ईडी सबसे अधिक इस पर कर रहे हैं कि वह बाहर निकलकर गवाहों और साक्ष्यों को प्रभावित कर सकते हैं। चिदम्बरम प्रकरण में सहअभियुक्त बने इन अधिकारियों की भूमिका सरकार और सीबीआई तथा ईडी दोनो के लिये महत्वपूर्ण है। अभी तक इन अधिकारियों की ओर से यह नही आया है कि इनके ऊपर कभी चिदम्बरम का दवाब रहा है। अब ईडी प्रकरण में भी यह माना जा रहा है कि चिदम्बरम को जमानत मिल सकती है। इस परिदृश्य मे अब इन अधिकारियों को इस स्टेज पर जमानत की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या इनकी जमानत का ईडी और सीबीआई विरोध करेगी? यदि इन्हें रैगुलर जमानत नही मिलती है तो क्या इनकी गिरफ्तारी होगी? यह सारे सवाल एकदम खडे़ हो गये हैं।
ऐसे में प्रदेश सरकार के लिये एक बड़ा सवाल यह हो जायेगा कि अब अन्तरिम जमानत मिलने के बाद सक्सेना सीधे ओडीआई के दायरे मे आ जाते है। ऐसे अधिकारियों को महत्वपूर्ण संवेदनशील विभागों की जिम्मेदारी नही दी जानी चाहिये ऐसे निर्देश प्रदेश उच्च न्यायालय दे चुका है। इस परिदृश्य में यह चर्चाएं चलना शुरू हो गयी हैं कि क्या सरकार सक्सेना से ऊर्जा विभाग ले लेगी? क्योंकि इसमें अब कई निवेशक आयेंगे और उससे यह संवदेनशील विभाग हो जाता है।
शिमला/शैल। पिछले वर्ष ग्रेट खली के रेसलिंग शो के लिये सरकारी तन्त्र द्वारा पैसा जुटाने के प्रयासों के लिये फजीहत झेल चुकी जयराम सरकार की अफसरशाही ने इस बार स्पोर्ट एवम् एण्टी ड्रग ऐसोसियेशन (साडा) द्वारा आयोजित किये गये क्रिकेट मैच के लिये पैसा जुटाने का जिस तरह से प्रयास किया है उससे सरकार की परिपक्वता पर फिर से सवाल उठने शुरू हो गये हैं। खली प्रकरण में यह सरकार के संज्ञान में ला दिया गया था कि रेसलिंग शो सरकार की खेलों की अधिकारिक सूची में नही आता है इसलिये सरकार के नियमों के मुताबिक इस शो के लिये सरकारी धन उपलब्ध नही करवाया जा सकता है। लेकिन इस संज्ञान के बावजूद यह मामला मन्त्रीमण्डल में लाया गया। मन्त्रीमण्डल में इस पर कोई फैसला नही हो पाया और तब यह पैसा जुटाने की जिम्मेदारी मुख्य सचिव और मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव ने ली थी और अन्त में इसमें काफी किरकरी हुई थी।
इस बार कुछ लोगों ने स्पोर्ट एवम् एण्टीड्रग ऐसोसियेशन साडा के नाम से एक एनजीओ का गठन कर लिया। मुख्यमन्त्री को इसका मुख्य संरक्षक बना दिया। एनजीओ बनाने के बाद एक क्रिकेट मैच का आयोजन कर दिया। इस आयोजन में खिलाड़ियों को स्पोर्ट ड्रैस और प्ले किट देनी थी और इसके लिये पैसा चाहिये था। यह पैसा इकट्ठा करने के लिये प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की सेवाएं ली गयी। बोर्ड के सदस्य सचिव ने इसके लिये एक पत्र जारी कर दिया। नियमों के अनुसार किसी भी एनजीओ को इस तरह का आर्थिक सहयोग लेने का पात्र होने के लिये कम से कम तीन वर्ष का समय लग जाता है। समय की पात्रता के बाद भी कोई भी विभाग या उपक्रम अपने स्तर पर तो सहयोग दे सकता है लेकिन अन्य को इसके लिये निर्देश नही दे सकता। इस तरह का निर्देश देना गंभीर अपराध माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ऐसे ही एक मामले में सज़ा दे चुका है उसमें तो रैडक्रास के लिये योगदान लिया गया था।
इस प्रकरण से यह सवाल उभरता है कि क्या मुख्यमन्त्री को अपना नाम इस तरह प्रयोग किये जाने की अनुमति दी जानी चाहिये? जिन लोगों ने एनजीओ का गठन किया क्या उन्हें इससे जुड़े नियमों/कानूनों की जानकारी नही होनी चाहिये थी? क्या मुख्यमन्त्री के कार्यालय को इस तरह की गतिविधियों पर नजर नही रखनी चाहिये? क्योंकि यह स्वभाविक है कि इस तरह के निर्देश जारी करते हुए पत्र लिखना किन्हीं बड़े आदेशों से ही संभव हुआ होगा। इन दिनों वैसे ही भ्रष्टाचार के आरोपों वाले वायरल पत्र एक बड़ा मुद्दा बने हुए हैं। ऐसे में किसी सरकारी उपक्रम द्वारा किसी एनजीओ के पक्ष में इस तरह का पत्र लिखना जिसमें राजनेता और पत्रकार पदाधिकारियों में शामिल हों एक बड़ा विवाद बन जाता है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार को दिसम्बर में दो वर्ष पूरे होने जा रहे हैं इस अवसर पर एक आयोजन भी आयोजित किया जा रहा है। इस नाते अब तक के कार्यकाल का एक अवलोकन आवश्यक हो जाता है। राजनीतिक तौर पर सत्ता में आने के बाद इस सरकार का पहला टैस्ट लोकसभा चुनाव हुए और उनमें चारों सीटें जीत कर सफलता हासिल कर ली। लेकिन इन्हीं लोकसभा चुनावों के कारण पांच माह बाद ही हुए दोनो विधानसभा उपचुनावों में एक जगह 13000 तो दूसरी जगह 11000 मतदाता सरकार का साथ छोड़ गये। लोकसभा चुनावों के परिणामस्वरूप ही दो मन्त्री पद खाली हुए लेकिन छः माह में भी इन पदों को भरा नही जा सका। यही नहीं नगर निगम शिमला में पार्षदों के जो स्थान मनोनयन से भरे जाने थे वह अबतक भरे नही जा सके। बहुत सारे निगमो/बोर्डों में भी कई ताजपोशीयां अभी तक नही हो पायी है। राजनीतिक संद्धर्भों में लंबित होते जा रहे इन फैसलों से सीधे यही संकेत उभरता है कि इसमें सरकार और संगठन के भीतर कई तरह के दबाव और प्रति दबाव चले हुए हैं। अभी संगठन के चुनाव चल रहे हैं और प्रदेश के लिये नया अध्यक्ष चुना जाना है। भाजपा में संगठन के चुनावों में वोट से चयन के स्थान पर मनोनयन ही होता है यह अब तक की स्थापित परंपरा है। इस बार भी ऐसा ही होगा यह स्वभाविक है। इसलिये प्रदेश अध्यक्ष के लिये किसका मनोनयन होता है उससे स्पष्ट हो जायेगा कि आने वाली राजनीतिक तस्वीर का रूख क्या होने जा रहा है।
इस समय जो अध्यक्ष बनेगा उसका 2022 के विधानसभा चुनावों में बड़ा दखल रहेगा यह स्वभाविक है। पार्टी में बहुत सारे फैसले आरएसएस के निर्देशों से होते हैं यह भी सर्वविदित ही है। यह संघ का ही निर्देश था कि अब पचास से कम आयु के कार्यकर्ताओं को ही आगे बढ़ाया जायेगा हमीरपुर की बैठक में यह स्पष्ट रूप से सामने आ गया था। विधानसभा उपचुनावों के उम्मीदवारों का चयन भी इसी पैमाने पर किया गया था।
इस मानदण्ड के अनुसार अगला अध्यक्ष भी इसी आयु वर्ग के आसपास का होगा लेकिन इस समय जिस तरह से वायरल पत्रों के माध्यम से कथित भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए उद्योग मन्त्री विक्रम सिंह और स्वास्थ्य मन्त्री विपिन परमार पर निशाना साधा जा रहा है उससे मुख्यमन्त्री की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं इनके अतिरिक्त परिवहन मन्त्री गोविन्द ठाकुर की पत्नी के चण्डीगढ़ में गाड़ी से अढ़ाई लाख चोरी होने का मामला घटा है उससे समस्या और गंभीर हो गयी है। इसी तरह सोलन में भी एक बड़े नेता की गाड़ी से पुलिस ने पिछले दिनों चिट्टा पकड़ा। इस पर केस बना जिसमें आगे चलकर रिकार्ड से गाड़ी तो बदल दी गयी परन्तु ड्राइवर के खिलाफ केस बना दिया गया। फिर उसी दौरान इसी नेता की खदान में मजदूरों के दबने का हादसा हो गया। इस हादसे पर कोई बड़ी कारवाई तो प्रशासन ने नहीं की लेकिन नेता के विरोधीयों ने यह सबकुछ हाईकमान तक पहुंचा दिया है। इस तरह जयराम सरकार कुछ अपने ही लोगों के खिलाफ उठ रही इस तरह की अंगुलियों से परेशान हो गयी है। संयोगवश विवादों में आने वाले यह सारे नेता मुख्यमन्त्री के विश्वस्त माने जाते हैं। प्रशासन ऐसे मामलों में कितनी समझदारी से काम ले रहा है यह पिछले वर्ष खली प्रकरण और इस बार एनजीओ साड़ा की कारगुजारी से सामने आ चुका है। इस तरह राजनीतिक फलक पर घटे इस सबका एक ही संदेश जाता है कि गवर्नेन्स के नाम पर सरकार कमजोर ही चल रही है।
प्रशासनिक स्तर पर भी स्थिति यह है कि अब तक के कार्यकाल में जितना प्रशासनिक फेरबदल हुआ है उससे अधिकारियों में यह भावना बन ही नही पायी कि वह इस पदभार पर लम्बे समय तक बने रहेंगे और इस नाते उन्हें परिणाम देने की नीयत और नीति से काम करना होगा। शीर्ष प्रशासन में कुछ लोगों के पास बहुत ही ज्यादा काम है तो कुछ लोग लगभग खाली बैठने जैसी स्थिति में चल रहे हैं। अब फिर प्रशासनिक फेरबदल चर्चाओं में है और इस बार मुख्यमन्त्री कार्यालय में भी पूरा ढांचा बदलने के कयास लगाये जा रहे हैं। मुख्यमन्त्री कार्यालय से जब से प्रैस सलाहकार को हटाया गया है तब से उस स्थान पर अब तक नयी नियुक्ति नही हो पायी है और न ही प्रदेश से निकलने वाले अखबारों के लिये कोई नीति बन पायी है। आज भी अधिकारी इसी बात पर लगे हुए हैं कि कुछ चैनलों पर मुख्यमन्त्री का साक्षात्कार प्रसारित करवा दो और कुछ मीडिया घरानों से सरकार को श्रेष्ठता के आवार्ड दिला दो। जैसा पिछली सरकारों में होता था उसी तर्ज पर अब हो रहा है। वह सरकारें भी श्रेष्ठता के सैंकड़ों अवार्ड लेकर सत्ता से बाहर हो गयी थी। इस तथ्य को यह प्रशासन भी मुख्यमन्त्री को समझने नही दे रहा है। जबकि आज जनता में उसी मीडिया की विश्वसनीयता है जो दस्तावेजी प्रमाणों के साथ तथ्यों को जनता के सामने रख रहा है। आज प्रशासन का एक वर्ग जिस तरह से मुख्यमन्त्री को गुमराह करके चल रहा है उसी का परिणाम है कि अब तक नये मुख्य सचिव को लेकर स्थिति स्पष्ट नही है।
इसी तरह वित्तिय मुहाने पर हालात हर रोज गंभीर होते जा रहे है। जहां केन्द्र सरकार किसान की आय दोगुणी करने के दावे कर रही है वहीं पर इस सरकार को रसोई गैस, पैट्रोल, डीजल और दूध के दाम बढ़ाने पड़े हैं। यह दाम उस समय बढ़ाये गये हैं जब ग्लोबल इन्वैस्टर मीट में आये निवेशकों के खाने- पीने, ठहरने और आने-जाने का सारा खर्च सरकार ने उठाया है। आज जब जीडीपी का आकलन 4.5ः पर आ गया है तो स्वभाविक है कि इस परिदृश्य में कोई निवेशक क्यों निवेश करने आयेगा। हाईड्रो परियोजनाओं पर लाहौल-स्पिति में जनाक्रोश उभर आया है वहां की जनता इसका विरोध कर रही है। सिरमौर में सीमेन्ट प्लांट के विरोध मे लोेग खड़े हो गये हैं।
ऐसे में यदि दो साल के कार्यकाल के बाद भी सरकार इस तरह की अनिश्चितताओं में घिरी रहेगी तो स्वभाविक रूप से पूरे प्रशासन पर ही सवाल खड़े होंगे। माना जा रहा है कि जिस तरह से प्रशासनिक और मन्त्री परिषद स्तर पर बड़े फेरबदल की चर्चाएं चल रही है उनमें बहुत संभव है कि जो मंत्री वायरल पत्रों के हमलों में राडार पर आ गये हैं उनमें से ही किसी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का प्रयास मुख्यमन्त्री करेंगे क्योंकि यदि अब यह पत्र आने के बाद किसी मन्त्री को हटाया जाता है या उसके विभाग बदले जाते हैं तो यह अपरोक्ष में आरोपों को स्वीकारने जैसा ही होगा। इसलिये विक्रम सिंह, विपिन परमार और गोविन्द ठाकुर में से ही किसी एक का अध्यक्ष बनना तय है। इनमें जो अनुराग और नड्डा को भी स्वीकार्य होगा उसके बनने की संभावना ज्यादा होगी।
शिमला/शैल। प्रदेश के वर्तमान मुख्य सचिव डा. बाल्दी दिसम्बर में सेवानिवृत होने जा रहे हैं। सेवानिवृति के बाद डा. बाल्दी रेरा के अध्यक्ष हो सकते हैं ऐसा माना जा रहा है क्योंकि उन्होंने अभी हाऊसिंग विभाग का प्रभार छोड़ दिया है और सरकार ने रेरा के लिये आवेदन भी आमन्त्रित कर लिये हैं। डा. बाल्दी लम्बे समय तक प्रदेश के वित्त सचिव रहे हैं। केन्द्र के वित्त विभाग ने मार्च 2016 में प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर जो पत्र भेजा था वह उन्ही के कार्यकाल में आया था लेकिन इस पत्र के बावजूद डा. बाल्दी ने बतौर वित्त सचिव वीरभद्र को चुनावी वर्ष में कोई कठिनाई नही आने दी। हांलाकि मुख्यमन्त्री जयराम ने अपने पहले ही बजट भाषण में वीरभद्र सरकार पर अतिरिक्त कर्ज लेने का आरोप लगाया था परन्तु जयराम प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर कोई श्वेतपत्र जारी नहीं कर पाये। इसे डा. बाल्दी की ही सूझबूझ का परिणाम माना गया था। डा. बाल्दी से मिली वित्तिय विरासत को बतौर अतिरिक्त मुख्य सचिव अनिल खाची ने संभाला और अब केन्द्र से वापिस आने के बाद फिर से उन्हें वित्त विभाग की जिम्मेदारी दी गयी है। भारत सरकार के 2016 के पत्र के मुताबिक राज्य सरकार अपनी तय सीमा से कहीं अधिक ऋण ले चुकी है क्योंकि एक समय सरकार स्वयं कह चुकी है कि वह जीडीपी का 33.96% ऋण ले चुकी है।
जयराम सरकार की पिछले कुछ समय से ऋणों पर निर्भरता ज्यादा बढ़ गयी है। सरकार औद्यौगिक निवेश जुटाने के पूरे प्रयास कर रही है ताकि उसका जीडीपी बढ़ सके। ऐसे में सरकार को एक ऐसे मुख्य सचिव और वित्त सचिव की आवश्यकता होगी जो सरकार को इस संकट से सफलता पूर्वक निकाल सके। इस परिदृश्य में जब मुख्य सचिव तलाशने की स्थिति आती है तब प्रदेश के वरिष्ठ नौकरशाहों पर नजर जाना स्वभाविक हो जाता है। इस समय सचिवालय में छः अतिरिक्त मुख्य सचिव कार्यरत हैं इनसे हटकर केन्द्र में इसी स्तर के प्रदेश के सात अधिकारी तैनात हैं जिनमें से दो इसी दिसम्बर में रिटायर हो जायेंगे इनके बाद अरविंद मैहता नवम्बर 2020 में तथा बृज अग्रवाल, संजीव गुप्ता और तरूण कुमार 2021 में रिटायर हो जायेंगे। यदि इनमें से किसी को बतौर मुख्य सचिव की तलाश में जाना होगा। वैसे तो अभी ही तीसरा मुख्यसचिव आयेगा ऐसे में जो अधिकारी सरकार के दिसम्बर 2022 तक के कार्यकाल तक चल सके उसी की ही तलाश करनी ज्यादा लाभप्रद रहेगी। इस गणित में अनिल खाची और राम सुभाग सिंह दो ही अधिकारी रह जाते हैं जिनकी सेवानिवृति जून और जुलाई 2023 में होगी। इन दोनों ही अधिकारियों का भारत सरकार में काम करने का अनुभव बराबर का रहा है। खाची केन्द्र में सचिव होकर कुछ ही समय पहले यहां से गये थे लेकिन कुछ कारणों से उन्हे वापिस आने की मजबूरी हो गयी और आ गये। राम सुभागसिंह प्रदेश में अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से निभा रहे थे लेकिन कुछ लोगों को यह पसन्द नही आया और उन्हें पयर्टन में जानबूझ कर विवादित बना दिया। मुख्यमन्त्री को उनसे पर्यटन वापिस लेना पड़ा और जांच की बात करनी पड़ी। परन्तु इस जांच में ऐसा कुछ भी सामने नही आया है जिसे गलत कहा जा सके। राम सुभाग हिमाचल के रहने वाले नही है और खाची हिमाचली होने के साथ ही वरिष्ठ भी हैं। शिमला से ताल्लुक रखते हैं और राजनीतिक खेमेबाजी से दूर नियमों/कानूनो के पाबन्द माने जाते हैं। राम सुभाग ने केन्द्र में शान्ता कुमार के साथ काम किया है और एक तरह से इसका दण्ड भी भुगता है। ऐसे में खाची और रामसुभाग सिंह में से किसकी बारी आती है या अग्रवाल को ही जयराम फिर बुला लेते हैं इस पर सबकी निगाहें लगी हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश में कांग्रेस की पूरी राज्य ईकाई भंग कर दी गयी है। यह ईकाई भंग किये जाने की सूचना में कहा गया है कि ऐसा प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर की अनुशंसा पर किया गया है। लेकिन संगठन के भीतर ही कुछ लोगों का यह मानना है कि आने वाले दिनो में अध्यक्ष को भी बदल दिया जायेगा। कुलदीप राठौर बदल दिये जाते हैं या नही यह तो आने वाले दिनो में ही पता चलेगा। लेकिन यह सवाल तो चर्चा में आ ही गया है कि आखिर ईकाई भंग करने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी। कुलदीप से पहले सुक्खु अध्यक्ष थे और उनका कार्यकाल काफी लम्बा भी हो गया था इसलिये उनका हटना तो तय ही था। यह माना जा रहा था कि संगठन के जो चुनाव लंबित कर दिये गये थे अब लोकसभा चुनावों के बाद वह पूरे होने थे और उसमें नया अध्यक्ष आना था। लेकिन इस प्रक्रिया के पूरा होने से पहले ही सुक्खु को हटा दिया गया जबकि लोकसभा चुनाव सिर पर थे। राजनीतिक पंडितो का मानना है कि उस समय सुक्खु को हटाना कोई सही राजनीतिक फैसला नही था।
सुक्खु के समय वीरभद्र सिंह मुख्यमन्त्री थे दिसम्बर 2012 में
वीरभद्र ने सत्ता संभाली थी। उस समय मुख्यमंत्री के चयन पर कांग्रेस विधायक दल आधा आधा दो हिस्सों में बंट गया था और इसका असर यह हुआ था कि मन्त्रीमण्डल के गठन के साथ ही दूसरे नेताओं की ताजपोषीयों का दौर भी शुरू हो गया। इन ताजपोशीयों में पार्टी के ‘‘एक व्यक्ति एक पद’’ के सिद्धान्त पर वीरभद्र का संगठन के साथ टकराव हो गया था। इस टकराव के कारण हाईकमान ने और ताजपोषीयां करने पर रोक लगा दी थी। वीरभद्र के संगठन के साथ टकराव का एक परिणाम यह हुआ कि वीरभद्र ने संगठन में विभिन्न स्तरों पर की गयी नियुक्तियों को आधारहीन लोगों का जमावड़ा करार दे दिया। इसी टकराव का परिणाम था कि वीरभद्र ने पैंतालीस विधानसभा क्षेत्रों में ऐसे लोगों को ताजपोषीयां दे दी जिनका विधायक या विधायक का अधिकारिक रूप से चुनाव लड़ा था। इस तरह पैंतालीस चुनाव क्षेत्रों में समानान्तर सत्ता केन्द्र स्थापित हो गये। यही सत्ता केन्द्र चुनावों में पार्टी पर भारी पड़े। इन्ही सत्ता केन्द्रों ने वीरभद्र ब्रिगेड खड़ा किया और जब ब्रिगेड के अध्यक्ष ने पार्टी अध्यक्ष सुक्खु के खिलाफ कुल्लु की अदालत में मानहानि का मामला तक दायर कर दिया। ब्रिगेड में शामिल कुछ प्रमुख लोगों को नोटिस जारी हुए तब यह ब्रिगेड भंग कर दिया गया तब अन्त में इस सबका परिणाम यह हुआ कि वीरभद्र सिंह ने सुक्खु को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटवाने को एक तरह से अपना ऐजैण्डा ही बना लिया। जब विधानसभा के चुनाव हुए और पार्टीे सत्ता से बाहर हो गयी तब फिर अध्यक्ष पर इसकी जिम्मेदारी डालने का प्रयास किया गया। इस पर जब सुक्खु ने यह जवाब दिया कि चुनाव टिकटों का अधिकांश आवंटन वीरभद्र की सिफारिश पर हुआ है तब वीरभद्र- सुक्खु विवाद थोड़े समय के लिये शांत हुआ। लेकिन अन्दर खाते सुक्खु को हटवाने की यह मुहिम जारी रही। जब सुक्खु को हटवाने के लिये आनन्द शर्मा, वीरभद्र, आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री में सहमति बन गयी तब इन सबकी लिखित सहमति पर सुक्खु को हटाया गया और कुलदीप राठौर को लाया गया। कुलदीप राठौर के जिम्मेदारी संभालने के बाद पार्टी के पुराने पदाधिकारियों को हटाने और उनके स्थान पर नयी नियुक्तियां करने की बजाये राठौर नै कार्यकारिणी का आकार ही दोगुने से भी अधिक कर दिया। उपाध्यक्षों, महासचिवों और सचिवों की संख्या ही इतनी बढ़ा दी कि एक तरह से इन पदों की गरिमा ही बनी नहीं रह सकी। राठौर ने यह बढ़ौत्तरी अपने तौर पर ही कर दी या जिन नेताओं ने राठौर को अध्यक्ष बनवाया था उनके कहने पर यह सब किया गया इसको लेकर आज तक सार्वजनिक रूप से कुछ भी स्पष्ट नही हो पाया है। पार्टी के पदाधिकारियों की यह बढ़ौत्तरी उस समय की गयी जब लोकसभा के चुनाव सिर पर आ गये थे। राठौर जब इस जम्बो कार्यकारिणी को संभालने में लगे थे तभी लोस चुनावों के संभावित उम्मीदवारों को लेकर वीरभद्र जैसे वरिष्ठ नेता ही हर तरह के हल्के ब्यान दागने लग गये थे। इस सबके बावजूद भी जब भाजपा के पूर्व सांसद सुरेश चन्देल कांग्रेस में शामिल हुए और पंडित सुखराम ने भी घर वापसी कर ली तब प्रदेश कांग्रेस का सारा नेतृत्व एक ध्वनि से इसका लाभ नही उठा सका। बल्कि आज तक इन नेताओं को उस स्तर का मान सम्मान नही मिल पाया है जिसके यह हकदार थे। जबकि वीरभद्र के खिलाफ चल रही ईडी और सीबीआई के मामलों पर भाजपा ने चुटकीयां लेना लगातार जारी रखा। कांग्रेस एक बार भी भाजपा पर आक्रामक नही हो पायी है। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस लोकसभा की चारों सीटें भारी अन्तराल से फिर हार गयी। यही नही लोकसभा चुनावो के बाद हुए दोनो विधानसभा उपचुनाव भी कांग्रेस हार गयी। जबकि पच्छाद के लिये तो राठौर ने हाईकमान को लिखित में आश्वस्त किया था कि यह सीट तो हर हालत में कांग्रेस जीत रही है। शायद राठौर के इसी लिखित आश्वासन को सुक्खु जैसे नेताओं ने अनुभवहीनता करार दिया है स्वभाविक है कि जब प्रदेश अध्यक्ष का एक उपचुनाव का आकलन ही फेल हो जाये तो राजनीति में यह एक बड़ी बात होती है क्योंकि लिखित में ऐसे आश्वासन कम ही दिये जाते हैं। अभी जयराम सरकार को दो वर्ष होने जा रहे हैं। ऐसे में यदि कांग्रेस को भाजपा से सत्ता छीननी है तो उसे अभी से आक्रामकता में आना होगा लेकिन इसके लिये आज नयी टीम चुनते हुए यह ध्यान रखना होगा कि ऐसे लोग पदाधिकारी न बन जायें जिनके अपने ही खिलाफ मामले निकल आयें। आज राठौर के पक्ष में सबसे बड़ा यही है कि उनका अपना दामन पूरी तरह साफ है। ऐसे में प्रदेश की ईकाई का नये सिरे से गठन कब तक हो जाता है और उसमें वीरभद्र - सुक्खु खेमों से ऊपर उठने का कितना प्रयास किया जाता है और कितने नये लोगों को संगठन में जोड़ा जाता है इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं।