Friday, 19 September 2025
Blue Red Green

ShareThis for Joomla!

क्या अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये?

शिमला/शैल। यह सवाल प्रदेश न्यायालय के एक आदेश के बाद चर्चा में लाया है। आरटीआई एक्टिविस्टर देवाशीश भट्टाचार्य के खिलाफ प्रदेश लोक सेवा आयोग की सदस्य डा. रचना गुप्ता ने उच्च न्यायालय में एक मानाहनि का मामला दायर किया है जो कि अभी तक लंबित चल रहा है। इस मामले की अगली सुनवाई 26 दिसम्बर को होनी है। पिछली सुनवाई 17 दिसम्बर को थी। इस दिन रचना गुप्ता ने अदालत से आग्रह किया कि भट्टाचार्य पर उनके खिलाफ, उनके पति और परिवार के सदस्यों के खिलाफ सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर किसी भी तरह की कोई पोस्ट न डाले या लिखें/छापे। अदालत ने उनके इस आग्रह को मानते हुए यह आदेश पारित किया है This court , after going through the record and hearing learned counsel for the parties, finds that at this moment if the posts are not put/published, the respondent will not suffer any irreparable loss, but on the other hand if they are put/ posted /published, the applicant will suffer irreparable loss. At this stage, taking into consideration the irreparable loss and balance of convenience and other material which has come on record it is ordered that till the next date of hearing respondent will not publish/post anything with respect to the applicant or her family members.
डा. रचना गुप्ता ने भट्टाचार्य के खिलाफ मानहानि का मामला दायर किया हुआ है और यह उनका अधिकार है। यदि कोई किसी के लिखने /बोलने से आहत होता है तो उसके खिलाफ सिविल /आपराधिक मानहानि का मामला दायर किया जा सकता है। ऐसे मामले का फैसला अदालत को करना है कि संद्धर्भित लेख/वक्तव्य से मानहानि होती है या नहीं। आरटीआई आज एक बड़ा हथियार बनकर सामने आया है। देश के प्रधान न्यायाधीश का  कार्यालय भी अब आरटीआई के दायरे में ला दिया गया है। इसके माध्यम से कोई भी सरकारी दस्तावेज हासिल किया जा सकता है। आरटीआई के माध्यम से प्राप्त सूचना को किसी भी मंच के माध्यम से जन संज्ञान में लाया जा सकता है। क्या ऐसे किसी भी सरकारी दस्तावेज के जन संज्ञान में आने से संबंधित व्यक्ति की मानहानि हो सकती है? यह सवाल कई दिनों से जन चर्चा में चला हुआ है। इसको लेकर यह सवाल उठ रहा है कि ऐसे सरकारी दस्तावेजों को सोशल मीडिया, प्रिन्ट मीडिया या इलैक्ट्रानिक मीडिया के मंचों के माध्यम से जन संज्ञान में लाने के अतिरक्ति आरटीआई कार्यकर्ता के पास और क्या विकल्प रह जाता है? क्योंकि यह स्थिति तो तभी आती है जब प्रशासन तय नियमों  की अवेहलना करता है। ऐसे में यदि किसी एक्टिविस्ट के खिलाफ प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है तो क्या अपरोक्ष में यह जनता को सूचना से वंचित रखना नही हो जायेगा।

 अब जब भट्टाचार्य के खिलाफ प्रतिबन्ध लगा दिया गया है तब इसी दौरान उसके पास आरटीआई दस्तावेजों पर आधारित एक सूचना आयी है। इसमें बद्दी के एक उद्योग को नियमों की अनदेखी करके प्रदूषण से संबंधित एनओसी देने का आरोप है। इसको लेकर प्रदूषण बोर्ड के सदस्य सचिव को शिकायत भेजी गयी है। लेकिन संयोगवश बद्दी क्षेत्र में रचना गुप्ता के पति ही एक बड़े अधिकारी के रूप में नियुक्त हैं। यह शिकायत भट्टाचार्य ने ही भेजी है। क्या इस शिकायत को प्रतिबन्ध का उल्लंघन माना जायेगा? यह सारे सवाल उच्च न्यायालय के प्रतिबन्ध के  परिदृश्य में उभरे हैं अब इस पर निगाहें लगी हैं कि उच्च न्यायालय आगे चलकर क्या रूख अपनाता है।





















































क्या अपरोक्ष में प्राईवेट स्कूलों के लिये वातावरण बनाया जा रहा है

शिमला/शैल। प्रदेश के कई स्कूलों में अध्यापकों और आधारभूत ढांचों की कमी है तो कई स्कूलों में छात्रों की इतनी कमी हो गयी है कि वहां पर सरकार अध्यापकों की नियुक्ति कर पाने में असमर्थता महसूस कर रही है। मण्डी के डोघरी में स्थित स्कूल में अध्यापकों की कमी को लेकर यहां के छात्रों को एक जनहित याचिका के माध्यम से यह स्थिति प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने रखनी पड़ी है।  उच्च न्यायालय ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए इन रिक्त पदों को भरने और 1-1-2020 को सभी विषयों मे होने वाले रिक्त स्थानों उनको भरने की प्रक्रिया में शुरू किये गये कदमों की जानकारी अदालत के सामने रखने के निर्देश दिये। इसी के साथ शारीरिक शिक्षा के अध्यापकों और स्कूलों के युक्तिकरण पर भी जानकारी मांगी। प्रधान सचिव शिक्षा ने इस संबंध में उच्च न्यायालय में यह जानकारी रखते हुए अपने शपथपत्र में कहा है कि विभाग के पास विभिन्न विषयों के अध्यापकों के 3636 पद रिक्त होंगे। इन पदों को भरने के लिये वित्त विभाग से आवश्यक स्वीकृति लेकर अगली प्रक्रिया शुरू कर दी है। मन्त्रीमण्डल ने भी इन पदों को भरने की स्वीकृति दे दी है।
 लेकिन इस पर जब उच्च न्यायालय ने युक्तिकरण को लेकर पूछा तो महाधिवक्ता ने बताया कि कई स्कूलों में छात्रों की संख्या इतनी कम है कि वहां सरकार के लिये अध्यापकों की नियुक्ति कर पाना संभव नही है। इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए अदालत ने कहा कि तब तो अनचाहे ही कई स्कूल अपने आप ही बन्द हो जायेंगे। क्योंकि जब स्कूलों में अध्यापक और आधारभूत ढांचा ही उपलब्ध नही होगा तो बच्चे कहां से और क्यों आयेंगे। अदालत ने कहा है कि During the course of hearing, the Principal Secretary(Education) to the Government of H.P. filed an affidavit stating that steps have been taken for finalization of R&P Rules of Lecturer(School New) and DPE and necessary steps to fill up the vacant posts of these categories will be initiated immediately. He also stated that as on 31.12.2019, 693 posts of JBT, 590 posts of Language Teacher, 1049 posts of Shastri, 684 of TGT(Arts), 359 posts of TGT(Non-medical) and 261 posts of TGT(Medical) are lying vacant, for which the concurrence of Finance Department has been obtained and the approval of Cabinet is required, after which steps for selection shall be taken immediately.
During the course of hearing, Advocate General pointed out that in some of the Government schools, the attendance of the students is very thin and it is not suitable for the Government to appoint teachers/lecturers or to run such Government Schools.
The Court showed its displeasure over the slow selection process of teachers by the Department of Education and submissions of Advocate General that some of the Government schools are at the verge of closure due to thin attendance of the students.
The Court observed that until and unless the Government creates and runs the schools in good atmosphere and provide adequate infrastructure for the students to attend schools, it cannot be expected that students will get admitted to the Government Schools. The Court further observed that the slowness on the part of the Government results in gradual migration of the students to private schools and if this continues for long, time would come that the Government though unintentionally would close down the Government schools, which will become an alarming situation. The Court also observed that the poorer section and agricultural laborers cannot be expected to send their children to private schools due to huge incurring of expenditure and it shall be the duty of the Government to provide education to this lower strata of society. The Court said that though Artilce 21-A of the Constitution provides free and compulsory education to all children in the age group of six to fourteen, but the same seems to be defeated. महाधिवक्ता के तर्क से यह सवाल खड़ा हो जाता है कि जब यह स्कूल खोले गये थे तब क्या इनमें आवश्यक पदों के सृजन के लिये वित्त विभाग से स्वीकृति नही ली गयी थी? क्योंकि वित्त विभाग की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई भी संस्थान नहीं खोला जाता है। जब उस समय सरकार के पास वित्तिय संसाधन उपलब्ध थे तो आज वह साधन कहां चले गये? क्या आज शिक्षा सरकार की प्राथमिकता नही रह गयी है? क्या सरकार अपरोक्ष में प्राईवेट स्कूलों के लिये वातावरण तैयार कर रही है।

हाईड्रो सैक्टर में जो राहतें सरकारी कंपनीयों को दी गयी है क्या वह प्राईवेट निवेशकों को भी मिलेंगी

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने प्रदेश में निवेश जुटाने के लिये 27 विद्युत परियोजनाओं के लिये निजि क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र की कंपनियों के साथ अनुबन्ध साईन किये हैं। निजि क्षेत्र में जिन परियोजनाओं को हस्ताक्षरित करके उन्हें जमीन भी लीज पर दे दी गयी है उनमें चम्बा में पांच, शिमला में दो, कुल्लु एक, मण्डी एक, किन्नौर एक और कांगड़ा में छः परियोजनायें हैं। इन सभी परियोजनाओं को जमीन की लीज 40 वर्षों के लिये दी गई है। जबकि सरकारी उपक्रमों एनटीपीसी, एस जे वी एन एल और एन एच पी सी को जमीन कुछ को 70 वर्षों के लिये तो कुछ को आजीवन दे दी गयी है।
विद्युत परियोजनाओं से प्रदेश सरकार को अपफ्रन्ट प्रिमियम प्रति मैगावाट के हिसाब से मिलता था। इसकी दर दस लाख प्रति मैगावाट से लेकर 40 लाख तक रही है। इसी के साथ 12% फ्री पाॅवर भी बतौर रायल्टी मिलती थी जो कुछ समय बाद 18% और फिर 30% हो जाती थी। प्रदेश मे लगने वाली योजनाओं के लिये यह शर्त है कि योजना की प्रकिया का पहला कदम उत्पादित बिजली को खरीदेगा कौन यह सुनिश्चित करना होता है। प्रदेश में खरीद की यह जिम्मेदारी राज्य विद्युत बोर्ड के पास है। बिजली बोर्ड यह बिजली खरीद कर आगे बेचता है। लेकिन परियोजनाओं से तो खरीद का मूल्य उसकी स्थापना से पहले ही तय हो जाता है और अन्त तक वही चलता है। लेकिन बिजली बोर्ड को पिछले काफी अरसे से अपनी बिजली बेचने में कठिनाई आ रही है। क्योंकि अब लगभग हर राज्य बिजली उत्पादन में लग गया है। इससे स्टेज यहां तक आ पहुंची है कि प्रदेश में उत्पादन लागत 4.50 रूपये यूनिट  आ रही है वहीं पर उसकी बेचने की कीमत 2.40 रूपये मिल रही है। सी ए जी ने अपनी  रिपोर्ट में इसका गंभीर संज्ञान लिया है। इससे स्थिति यह पैदा हो गयी थी कि पिछले पांच वर्षों में हिमाचल में हाइड्रो सैक्टर में कोई निवेश नही आया।
निवेशक न आने का परिणाम ही रहा है कि जंगी थोपन पवारी परियोजना आज तक सिरे नही चढ़ पायी। ब्रेकल की असफलता के बाद कोई भी दूसरा निवेशक इसमें आगे नही आ पाया। बल्कि अदानी और अंबानी जैसे बड़े घराने भी इसमें साहस नही दिखा पाये। इसमें ब्रेकल के नाम पर एक समय अदानी ने जो 280 करोड़ निवेशित किये थे उसे वह अभी तक उच्च न्यायालय के दखल के बाद भी वापिस नही मिल पाये हैं। हाईड्रो क्षेत्र में आयी इस स्थिति से निपटने के लिये अब जयराम सरकार ने इस नीति मे ही कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किये हैं। सरकारी क्षेत्र की कंपनीयों के साथ इसी बदली नीति के तहत एमओयू साईन हुये हैं। लेकिन सरकारी कंपनीयों को जो राहतं दी गई है क्या वही सब कुछ नीजि क्षेत्र में भी उपलब्ध हो पायेगा या नही। इसको लेकर स्थिति सपष्ट नही है और इसका प्राईवेट सैक्टर पर क्या प्रभाव पड़ता है और वह निवेश में कितना आगे आ पाता है यह अब चर्चा का विषय बन गया है।


उच्च न्यायालय के फैसले पर तन्त्र की कुण्डली

शिमला/शैल। क्या लोकसेवा आयोग के सदस्यों को पैन्शन का अधिकार नही मिलेगा? यह सवाल प्रदेश सरकार के उस फैसले से चर्चा में आया है जब सरकार ने आयोग के सदस्यों सर्वश्री डा. मान सिंह, प्रदीप सिंह चौहान और मोहन चौहान के इस आश्य के आवेदनों को अस्वीकार कर दिया। सरकार के अस्वीकार के बाद इन लोगों ने प्रदेश उच्च न्यायालय में इस संबंध में एक याचिका दायर कर दी जिसका फैसला 16 अक्तूबर 2019 को इनके पक्ष में आ गया। लेकिन सरकार ने इस फैसले पर अमल करने की बजाये इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने का मन बनाया है।
स्मरणीय है कि लोक सेवा आयोग के संद्धर्भ में 1974 में राज्यपाल ने फैसला लिया था "11-A: The Chairman or a Member, who at the date of his appointment as such was not in the service of the Central Government or a State Government, a Local Authority, A University, a Privately Managed Recognized School or Affiliated College or any other body wholly or substantially owned or controlled by the state Government of Himachal Pradesh shall on his ceasing to hold office as Chairman or Member be paid a pension for his life @ Rs. 300/- (Rupees three hundred per month) in the case of Chairman and Rs. 250/- (Rupees two hundred and fifty per month) in the case of Member for each completed year of service as Chairman or Member, as the case may be subject to maximum of Rs. 1800/- (Rupees one thousand one eight hundred) and Rs. 1500/- (rupees one thousand five hundred) per month in the case of Member”. इस फैसले के तहत प्रदेश लोकसेवा आयोग के चेयरमैन रहे ब्रिगेडियर एल एस ठाकुर को आयोग में दी गयी सेवा के लिये पैन्शन लाभ दिया गया था। आयोग का यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय में भी एक संद्धर्भ में पहुंच चुका है और वहां भी इसे बहाल रखा गया था। इसी आधार पर इन सदस्यों ने भी इसके लिये सरकार में आवेदन किया जिसे 19-4-17 को अस्वीकार कर दिया गया और उसके बाद इन्होंने उच्च न्यायानय का दरवाजा खटखटाया। उच्च न्यायालय ने इनकी याचिका एल एस ठाकुर की तर्ज पर स्वीकार कर ली। लेकिन सरकार ने अभी तक इस पर अमल नही किया है और इसकी अपील में जाने का मन बनाया है।
स्वभाविक है कि जब सेवानिवृति के बाद अध्यक्ष नियुक्त हुए ब्रिगेडियर एल एस ठाकुर को यह पैन्शन लाभ मिल सकता तो स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद आयोग के सदस्यों को भी यह लाभ उसी तर्ज पर मिल जाना चाहिये। लेकिन सरकार इन अधिकारियों के मामले को एल एस ठाकुर के मामले से भिन्न मानती है और तीन बार अस्वीकार कर चुकी है। कार्मिक विभाग यह अस्वीकार रैगुलेशन छः के आधार पर कर रहा है लेकिन उच्च न्यायालय के 16 अक्तूबर के फैसले में रेगुलेशन छः का कोई उल्लेख ही नही है। इसलिये सरकार के इस अस्वीकार को अलग ही नजर से देखा जा रहा है। लोक सेवा आयोग में आज तक नियुक्त हुए अध्यक्ष और सदस्य अधिकांश में केन्द्र /राज्य सरकार/ सेना आदि से सेवानिवृत हुए अधिकारी ही नियुक्त हुए हैं और संयोगवश इनकी स्थिति यह रही है कि सेवानिवृति के समय यह पूरी पैन्शन के पात्र रहे हैं। इसलिये इन्हें रैगुलेशन 11। से कोई ज्यादा अन्तर नही पड़ता रहा है। वैसे भी पैन्शन की अवधारणा सामाजिक सुरक्षा की रही है और इसी अवधारणा का सरकार ने ओल्ड एज, अपंग और विधवा आदि सामाजिक पैन्शन की कई योजनाएं लागू की हैं।
1974 में लोक सेवा आयोग के सदस्यों के लिये रैगुलेशन 11। का प्रावधन भी संभवतः ऐसे सदस्यों के लिये किया गया था जो ऐसी नियुक्ति से पूर्व किसी भी तरह की ऐसी सेवा में रहे हों जिन्हें किसी भी रूप में कोई नियमित पैन्शन लाभ मिलता हो। संयोगवश आज तक प्रदेश लोक सेवा आयोग में शायद ऐसे चार-पांच लोग ही सदस्य नियुक्त हो पाये हैं जो ऐसी किसी सेवा में नही थे। इस समय भी लोकसेवा आयोग में एक ही ऐसी सदस्या हैं डा़ रचना गुप्ता। इनसे पूर्व के एस तोमर आयोग के अध्यक्ष रहे हैं वह भी किसी ऐसी सेवा से ताल्लुक नही रखते थे। चर्चा है कि इन लोगों ने पिछले दिनों सरकार को इस आश्य का कोई ज्ञापन दिया था और इनके ज्ञापन के बाद ही यह मुद्दा चर्चा और विवाद में आया है इसमें दिलचस्प तो यह है कि 1974 में जो 300 और 250 रूपये प्रतिमाह का प्रावधान किया गया था उसे आज तक रिव्यू ही नही किया गया है जबकि कर्मचारियों की पैन्शन मे मंहगाई भत्तों के अनुसार बढ़ौत्तरी होती है। पड़ोसी राज्य हरियाणा में ऐसे सदस्यों को इसी तर्ज पर पैन्शन मिलती है। इस परिदृश्य में पैन्शन के इस मुद्दे पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं।

उच्च न्यायालय ने मैहरा पर प्रतिबन्ध और स्टेट ब्रांच की विस्तृत जांच के दिये आदेश

शिमला/शैल। प्रदेश उच्च न्यायालय ने सीटू नेता विजेन्द्र मैहरा द्वारा नगर निगम शिमला के खिलाफ किसी भी धरना प्रदर्शन में भाग लेने पर रोक लगी दी है यह रोक लगाते हुए उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि नगर निगम के किसी भी कार्य निष्पादन में मैहरा कोई बाधा खड़ी नही करेंगे। इस प्रतिबन्ध का आधार नगर निगम के उस शपथपत्र को बनाया गया है जिसमें निगम ने यह आरोप लगाया था कि मैहरा ने 7 दिसम्बर को निगम आयुक्त के कार्यालय में आकर कामकाज में बाधा पहुंचायी और अभद्रता की। इसके लिये उच्च न्यायालय ने मैहरा को शोकाॅज नोटिस भी जारी किया है कि क्यों न उनके खिलाफ अवमानना की कारवाई की जाये। अदालत का प्रतिबन्ध विजेन्द्र मैहरा पर है सीटू पर नहीं, इसलिये उच्च न्यायालय के आदेशों के बाद यह भी धरना प्रदर्शन जारी रहेगा यह स्पष्ट है क्योंकि पूरे सीपीएम ने नगर निगम कि खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। भाजपा से पहले नगर निगम पर सीपीएम का कब्जा था इस नाते सीपीएम नेतृत्व को निगम की पूरी जानकारी है।
सीटू का आन्दोलन शहर की तहबाज़ारी समस्या को लेकर है। तहबाजारी को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने 2007 में कुछ दिशा निर्देश जारी किये थे। इन निर्देशों के बाद 2014 में स्ट्रीक वैन्डरज एक्ट बना। इस समय पूरे देश में स्थानीय निकाय इस एक्ट की अनुपालना सुनिश्चित करने में लगे हुए हैं शिमला में भी इसी एक्ट की अनुपालना किये जाने को लेकर तहबाजारी धरना प्रदर्शन करने को बाध्य हुए है और इनका नेतृत्व सीपीएम का सीटू कर रहा है। उच्च न्यायालय में दायर अपने शपथपत्र में  नगर निगम ने स्वीकारा है कि अभी तक  केवल 168 तहबाजारीयों की सूची को ही अन्तिम रूप दिया जा सका है और 1065 अभी शेष हैं। सीटू का आरोप है कि तह बाजारीयों की संख्या 599 थी जिसे बढ़ाकर 1065 कर दिया गया और इसी में घपला हुआ है। इसी संबंध में सीटू का प्रतिनिधि मण्डल 7 दिसम्बर को आयुक्त से मिलने गया था। इसी मुलाकात में अभद्रता घटी जिसको लेकर सीटू नेताओं विजेन्द्र मैहरा, बाबू राम और किशोर ढटवालिया ने 8 दिसम्बर को पुलिस अधीक्षक शिमला को आयुक्त के खिलाफ एफआईआर दर्ज किये जाने के आग्रह की लिखित शिकायत कर दी। निगम आयुक्त ने उच्च न्यायालय में लंबित चल रहे एक मामले में इस अभद्रता को लेकर शपथपत्र दायर कर दिया जिस पर मैहरा के खिलाफ यह आदेश आया है। नगर निगम ने इसी शपथपत्र में यह भी स्वीकारा है कि निगम की खलीनी स्थित पार्किंग पिछले तीन वर्षों से अवैध रूप से आपरेट हो रही है। उच्च न्यायालय ने इस अवैधता का कड़ा संज्ञान लेने हुए पूरी स्पष्टता से कहा है कि ऐसी अवैधता नगर निगम प्रशासन की मिलीभगत के बिना संभव नही हो सकता। अदालत ने इस संबध में निगम की ऐस्टेट ब्रांच के खिलाफ विस्तृत जांच करके ब्रांच के हर कर्मचारी और विशेषकर अधीक्षक की भूमिका की जांच करने के निर्देश दिये हैं। In the reply filed by the Municipal Corporation, it is not in dispute that the parking at Khalini belonging to the Municipal Corporation was being carried out unauthorisedly for the last about 3 years. Obviously, the same could not have been done without the active connivance of the officials of the Municipal Corporation, more especially, the Estate Branch. Therefore, let the Municipal Corporation conduct a thorough inquiry qua the role of each of the official/officer posted in the said Branch, more particularly, the Superintendent of Estate and submit report by 31.03.2020.  स्वभाविक है कि तीन वर्षों तक ऐसी अवैधता निगम प्रशासन की मिलीभगत के बिना संभव नही हो सकती। सबसे बड़ी हैरानी तो इस बात की है कि तीन वर्षों तक यह अवैधता न तो महापौर और न ही निगम के शीर्ष प्रशासन के संज्ञान में आयी। क्या इस  अवैधता को इन बड़ों का भी संरक्षण प्राप्त था यह अपने में एक अलग जांच का विषय हो जाता है। इसी के साथ यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि जब उच्च न्यायालय ने एस्टेट ब्रांच की जांच करने के आदेश दिये हैं तो क्या प्रशासन अपने स्तर पर भी संबधित दोषियों के खिलाफ कारवाई करेगा।
सीपीएम नेता और निगम के पूर्व महापौर ने इसी पार्किंग को लेकर प्रशासन पर बड़े भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है। एक आरोप में निगम में चौदह करोड़ का घपला होने की बात की गयी हैै। सीटू ने अपनी शिकायत में 6 दिसम्बर 2019 को हुई एफआईआर 187/19 का भी संद्धर्भ उठाया है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि जब सीपीएम द्वारा लगाये गये आरोपों का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने भी जांच के आदेश दिये हैं तो फिर सीटू के धरना प्रदर्शन को काम में बाधा पहुंचाने की संज्ञा कैसे दी जा सकती है।


Facebook



  Search