Friday, 19 September 2025
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पांच माह में ओक ओवर से सचिवालय नही पहुंचा मांग पत्र

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर को पूर्व कर्मचारी नेता ओम प्रकाश गोयल ने उनके सरकारी आवास ओक ओवर में 18 फरवरी को एक करीब 190 पेज का प्रतिवेदन सौंपा था। इस प्रतिवेदन में गोयल ने उस सबका देस्तावेजी प्रमाणों के साथ खुलासा किया था जो उनके साथ पर्यटन विकास निगम में पेश आया था जब उन्होने निगम में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई थी। इस भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का ईनाम उन्हे नौकरी से बर्खास्तगी के रूप में मिला जबकि हर सरकार भ्रष्टाचार कतई सहन नही किया के दावे करती आयी है। यही नही भाजपा ने जब 6.3.2007 को महामहिम राज्यपाल को तत्कालीन वीरभद्र सरकार के खिलाफ आरोप पत्र सौंपा था तब जयराम ठाकुर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे। इस आरोप पत्र में वीरभद्र सरकार पर एक आरोप कर्मचारियों के उत्पीडन का था और इस उत्पीड़न में वाकायदा ओम प्रकाश गोयल का नाम शामिल था। आरोप पत्र प्रेम कुमार धूमल और जयराम ठाकुर के हस्ताक्षरों से सौंपा गया था। लेकिन जब धूमल सरकार सत्ता में आयी तो तब गोयल को इन्साफ नही मिल पाया। इसके बाद वीरभद्र सरकार सत्ता में आयी। इस सरकार ने गोयल के आरोपों की जांच के लिये पर्यटन निगम के एक निदेशक धर्माणी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया। धर्माणी कमेटी ने गोयल के लगाये आरोपों को एकदम सही पाया और न्याय दिये जाने की संस्तुति की। लेकिन इतना होने के बावजूद वीरभद्र काल में गोयल को न्याय नही मिल पाया।

अब जब जयराम की सरकार आयी तब 18 फरवरी को गोयल ने मुख्यमन्त्री आवास ओक ओवर में फिर मुख्यमंत्री को न्याय की गुहार लगाते हुए एक प्रतिवेदन सौंपा। मुख्यमन्त्री जयराम ने उन्हे पूरा आश्वासन दिया कि उनको इन्साफ मिलेगा। गोयल ने मुख्यमन्त्री के साथ ही इस प्रतिवेदन की प्रतियां महामहिम राज्यपाल, शिमला के विधायक एवम् शिक्षा मन्त्री सुरेश भारद्वाज और प्रदेश के मुख्य सचिव को भी सौंपी। इसके बाद जब 8.3.2018 को आरटीआई के तहत गोयल ने अपने इस प्रतिवेदन पर अब तक हुई कारवाई के बारे में जानकारी मांगी तब विशेष सचिव पर्यटन के कार्यालय से उन्हे जवाब मिला कि उनके प्रतिवेदन को लेकर राज्यपाल, शिक्षा मन्त्री और मुख्य सचिव के कार्यालयों से तो पत्र प्राप्त हुए हैं लेकिन मुख्यमन्त्री कार्यालय से कोई पत्र नही मिला है। इस पर गोयल ने मुख्यमन्त्री कार्यालय से भी जानकारी मांगी और वहां से भी जवाब आया कि मुख्यमन्त्री कार्यालय में उनका कोई पत्र प्राप्त ही नही हुआ है।
आरटीआई में मिली इस सूचना के बाद फिर गोयल ने मुख्यमन्त्री के आवास पर दस्तक दी। इस बार बड़ी प्र्रतीक्षा के बाद मुख्यमन्त्री को मिल पाये। लेकिन मिलने पर इसका कोई जवाब नही मिल पाया कि उनके प्रतिवेदन का हुआ क्या है। इस बार भी उन्हे केवल आश्वासन ही मिला है कि वह उनकी फाइल मंगवायेंगे। इस सबसे यह सवाल उठता है कि जब मुख्यमन्त्री के आवास पर दिया गया प्रतिवेदन ही पांच माह में आवास से कार्यालय तक न पहुंच पाये और न ही संवद्ध विभाग में पहुंचे तो क्या इससे मुख्यमन्त्री के अपने ही सचिवालय की कार्यप्रणाली पर आम आदमी का भरोसा बन पायेगा। प्रतिवेदन में की गयी मांग से सहमत होना या न होना प्रतिवेदन का आकलन करने वाले का अपना अधिकार है लेकिन उस प्रतिवेदन पर हुई कारवाई की जानकारी तो प्रतिवेदन देने वाले को मिलनी चाहिये यह उसका अधिकार है। यदि प्रतिवेदन से असहमत हो तो असहमति के आधार जानने का भी प्रतिवेदन देने वाले को अधिकार है लेकिन जब प्रतिवेदन मुख्यमन्त्री के यहां से कहीं पहुंचे ही नही तो फिर सारी कार्यशैली की नीयत और नीति पर सवाल उठने स्वभाविक हैं। क्योंकि इस प्रतिवेदन में कई बड़े अधिकारियों और नेताओं को लेकर गंभीर आरोप हैं और इससे यही संदेश जाता है कि बड़ो के भ्रष्टाचार पर केवल जनता में भाषण ही दिया जा सकता है उस पर कारवाई नही। ऐसे मे जिन बड़े लोगों से संपर्क करके समर्थन मांगा जा रहा है उन सबके लिये यह एक बड़ा आईना है जिसमें वह सरकार की सही छवि का दर्शन और फिर आकलन कर सकते हैं। क्योंकि ऐसे और कई मामले आने वाले दिनों में सामने आयेंगे। 

 

 






































 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

क्या लोकसेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति पारदर्शी हो पायेगी-भाजपा के आरोपों से उठा सवाल

शिमला/शैल। लोक सेवा आयोग एक संवैधानिक संस्थान है। यह संस्थान सर्वोच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिये अधिकारियों का चयन करती हैं। अखिल भारतीय सेवाओं के लिये संघ लोक सेवा आयोग यह जिम्मेदारी निभाता है। राज्यों में राज्य लोक सेवा आयोग इसको अंजाम देते है। प्रदेश लोक सेवा आयोग राज्य की शीर्ष प्रशासनिक सेवा एचएएस, एचपीएस आदि के साथ अधीनस्थ न्यायिक सेवा के अधिकारियों का चयन भी करता है। इन संस्थानों की अहमियत का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इनके सदस्यों की नियुक्ति तो राज्यपाल करता है किन्तु इनको निकालने का अधिकार राष्ट्रपति को ही है। उसके लिये भी यह प्रक्रिया है कि यदि किसी सदस्य को लेकर कोई शिकायत राज्यपाल के पास आती है तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति को भेजेंगे और राष्ट्रपति उसकी जांच सर्वोच्च न्यायालय से करवायेंगे। यदि सर्वोच न्यायालय उस शिकायत को सही पाये तभी राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय की रिपोर्ट पर निष्कासन के आदेश कर सकते हैं अन्यथा नहीं। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जिसके निष्कासन के लिये इतनी ठोस प्रक्रिया का प्रावधान किया गया है उसकी नियुक्ति के लिये क्या प्रक्रिया है। संविधान में यह मुख्यमन्त्री और राज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है। इसमें मुख्यमन्त्री अपनेे विवेक पर किसी की नियुक्ति की संस्तुति करता है और राज्यपाल उसको स्वीकार करके नियुक्ति को अंजाम दे देता है। लेकिन जब देश के कई राज्य में लोक सेवा आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों की निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने लगे तथा कई जगह अध्यक्ष और सदस्यों की गिरफ्तारी तक हो गयी। हमारे पड़ोसी राज्य पंजाब और हरियाणा में ही गिरफ्तारी की नौबत घट चुकी है। हिमाचल में ही एक समय लोकसेवा आयोग द्वारा की गयी टैक्स इन्सपैक्टरों की भर्ती पर उठा विवाद उच्च न्यायालय तक पहुंच गया था। फिर एक बार एक अध्यक्ष द्वारा सचिव के बिना ही प्रश्न पत्र चैस्ट को खोलने का प्रयास किया गया था तब अध्यक्ष ने अपने राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल करके उसी दिन सचिव का तबादला करवाकर इस कांड को दबाया था। अभी कुछ समय पहले भी आयोग के सीक्रेसी कक्ष की विडियोग्राफी करवाये जाने के प्रयास की शिकायत आयोग में चर्चा का विषय रही है। वीरभद्र के शासनकाल में हुई एक नियुक्ति को तो प्रदेश उच्च न्यायालय मे चुनौती दी गयी है। यह याचिका अभी तक लंबित है। इस नियुक्ति को भाजपा ने चुनावों के दौरान बड़ा मुद्दा बनाया था। लेकिन अब भाजपा की सरकार बनने के बाद इस सरकार ने भी एक और नियुक्ति कर दी। बल्कि दो नये पद सृजित किये गये इसके लिये। नियुक्ति के लिये जो प्रक्रिया वीरभद्र सरकार ने अपनाई थी वही प्रक्रिया जयराम सरकार ने अपनाई है। इस तरह दोनो सरकारें एक ही पायदान पर खड़ी हो गयी हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक दल केवल जनता को मुर्ख बनाने के लिये ही एक दूसरे पर आरोप लगातें हैं और मौका मिलने पर उसी राह पर दो कदम आगे निकलने का प्रयास करते हैं। लोक सेवा आयोगों और अधीनस्थ सेवा चयन बोर्डों की इस स्थिति को देखते हुए ही पिछले दिनो सर्वोच्च न्यायालय ने इन संस्थानों को निर्देश दिये हैं कि इनके द्वारा ली जा रही हर परीक्षा और साक्षात्कार सीसीटीवी कैमरों की निगरानी में हों। इस निर्देश पर अभी हिमाचल सरकार, लोक आयोग और हमीरपुर स्थित अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड ने कोई कदम नही उठाये हैं।

अब उच्च न्यायालय पर लगी निगाहें

इस परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण सवाल यह खड़ा हो गया है कि तब पंजाब लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष ढांडा की नियुक्ति को लेकर एक याचिका पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय में आयी थी तब इस नियुक्ति को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। सरकार को निर्देश दिये थे कि वह अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिये एक पारदर्शी प्रक्रिया अपनाये। पंजाब सरकार उच्च न्यायालय के इस पर फैसला 25.2.2013 को आया है। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय की पीठ के दोनों जजों ने उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराया है बल्कि जब यह मामला लंबित चल रहा था तभी पंजाब सरकार ने ढांडा के स्थान पर दूसरे अध्यक्ष की नियुक्ति कर दी थी। इसलिये नयी नियुक्ति को डिस्टर्ब न करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कहा है कि शीर्ष अदालत लोक सेवा आयोगों के अध्यक्षों और सदस्यों की नियुक्तियों को लेकर समय - समय जो निर्देश और मानदण्डों को लेकर दे चुका है उनकी अनुपालना सुनिश्चित की जानी चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने हरीश ढांडा की नियुक्ति को रद्द करते हुए स्पष्ट कहा है कि These materials do not indicate that Mr. Harish Dhanda had any knowledge or experience whatsoever either in administration or in recruitment nor do these materials indicate that Mr. Harish Dhanda had the qualities to perform the duties as the Chairman of the State Public Service Commission under Article 320 of the Constitution which I have discussed in this judgment. No other information through affidavit has also been placed on record before us to show that Mr. Harish Dhanda has the positive qualities to perform the duties of the office of the Chairman of the State Pubic Service Commission under Article 320 of the Constitution. योग्यता के इस मानदण्ड पर क्या प्रदेश लोक सेवा आयोग के नव नियुक्त सदस्य जिनकी नियुक्ति को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी पूरे उतरते हैं? इस सवाल पर जनता की निगाहें प्रदेश उच्च न्यायालय पर लगी है। सदस्यों और अध्यक्ष की योग्यता को लेकर यह कहा है कि “It is absolutely essential that the best and finest talent should be drawn in the administration and administrative services must be composed of men who are honest, upright and independent and who are not swayed by the political winds blowing in the country. The selection of candidates for the administrative services must therefore be made strictly on merits, keeping in view various factors which go to make up a strong, efficient and people oriented administrator. This can be achieved only if the Chairman and members of the Public Service Commission are eminent men possessing a high degree of calibre, competence and integrity, who would inspire confidence in the public mind about the objectivity and impartiality of the selections to be made by them.” In regard to the second requirement, it was said: “We would therefore like to strongly impress upon every State Government to take care to see that its Public Service Commission is manned by competent, honest and independent persons of outstanding ability and high reputation who command the confidence of the people and who would not allow themselves to be deflected by any extraneous considerations from discharging their duty of making selections strictly on merit.” In In R/O Dr Ram Ashray Yadav, Chairman, Bihar Public Service Commission, (2000) 4 SCC 309 this Court considered the functional requirements of the Public Service Commission and what is expected of its members and held: “Keeping in line with the high expectations of their office and need to observe absolute integrity and impartiality in the exercise of their powers and duties, the Chairman and members of the Public Service Commission are required to be selected on the basis of their merit, ability and suitability and they in turn are expected to be models themselves in their functioning. The character and conduct of the Chairman and members of the Commission, like Caesar's wife, must therefore be above board. They occupy a unique place and position and utmost objectivity in the performance of their duties and integrity and detachment are essential requirements expected from the Chairman and members of the Public Service Commissions.” इस समय जिस व्यक्ति को मुख्यमन्त्री चाहता है उसी को अध्यक्ष या सदस्य लगा दिया जाता है। मुख्यमन्त्रीयों के इस अधिकार पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि “The Public Service Commissions which have been given the status of constitutional authorities and which are supposed to be totally independent and impartial while discharging their function in terms of Article 320 have become victims of spoils system. “In the beginning, people with the distinction in different fields of administration and social life were appointed as Chairman and members of the Public Service Commissions but with the passage of time appointment to these high offices became personal prerogatives of the political head of the Government and men with questionable background have been appointed to these coveted positions. Such appointees have, instead of making selections for appointment to higher echelons of services on merit, indulged in exhibition of faithfulness to their mentors totally unmindful of their constitutional responsibility.” The question of the Chief Minister or the State Government having “confidence” (in the sense in which the word is used with reference to the Chief Secretary or the Director General of Police or any important statutory post) in the Chairperson of a State Public Service Commission simply does not arise, nor does the issue of compatibility. Chairperson of a Public Service Commission does not function at the pleasure of the Chief Minister or the State Government. He or she has a fixed tenure of six years or till the age of sixty two years, whichever is earlier. Security of tenure is provided through a mechanism in our Constitution. The Chairperson of a State Public Service Commission, even though appointed by the Governor, may be removed only by the President on the ground of misbehaviour after an inquiry by this Court, or on other specified grounds of insolvency, or being engaged in any other paid employment or being unfit to continue in office by reason of infirmity of mind or body. There is no question of the Chairperson of a Public Service Commission being shifted out if his views are not in sync with the views of the Chief Minister or the State Government. इस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिये बहुत विस्तार से दिशा निर्देश दे रखे हैं। यह निर्देश एक दशक पहले आ चुके हैं। पजांब के संद्धर्भ में फैसला 25.2.2013 को आया है। इस फैसले के बाद राज्य सरकार को इन निर्देशों पर अमल करते हुए एक पारदर्शी प्रक्रिया तैयार कर लेनी चाहिये थी। लेकिन राजनीतिक स्वार्थो और दबावों के चलते आज तक ऐसा नही हो पाया है। अब जब एक मामला प्रदेश उच्च न्यायालय में पहुंच ही गया है और इन नियुक्तियों पर राजनीतिक दलों ने ही अंगुली उठाई है तब आम आदमी की उम्मीद केवल प्रदेश उच्च न्यायालय पर ही टिकती है कि वहीं से सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के संद्धर्भ में प्रदेश की शीर्ष अदालत राज्य सरकार को आईना दिखाये। क्योंकि प्रदेश चिटटों पर भर्तीयों से लेकर अब सामने आये 9000 अनट्रेंड अध्यापकों तक के मामले झेल चुका है। इसलिये यह आवश्यक है कि प्रदेश के भविष्य को सामने रखते हुए उच्च न्यायालय ही इसमें एक बड़ी भूमिका निभाये।

दीपक सानन को दिया गया स्टडी लीव लाभ सवालों में

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने 26 फरवरी 2018 को पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव दीपक सानन की 24.10.2016 से 24.1.2017 तक की छुट्टी को स्टडी लीव के रूप में स्वीकृति प्रदान कर दी है। दीपक सानन 31.1.2017 को सेवानिवृत हो गये थे। सरकार ने दीपक सानन की इस तीन माह की छुट्टी को स्टडी लीव के तौर पर इसलिये स्वीकृति दी है क्योंकि इस छुट्टी के कारण उनके अर्जित अवकाश के 300 दिन पूरे नही हो रहे थे। यदि किसी अधिकारी /कर्मचारी के खाते में सेवानिवृति के मौके पर 300 दिन का अर्जित अवकाश जमा हो तो उसे इस अवकाश के बदले में इस जमा हुए पीरियड का लीव इनकैशमेन्ट के रूप में पूरा वेतन मिल जाता है। यदि यह अवधि कम हो जाये तो उतना पैसा कम हो जाता है। इस नाते दीपक सानन को सरकार की इस मेहरबानी से करीब सात लाख से कुछ अधिक का लाभ पहुंचा है। सरकार के इस फैसले से यह सवाल उठना शुरू हो गया है कि क्या सरकार इसी तर्ज पर यह लाभ अन्य ऐसे अधिकारियों /कर्मचारियो को भी देगी जिनकी लीव इनकैशमेन्ट के लिये वांच्छित 300 दिन की अवधि पूरी नही होती हो। क्योंकि सानन को यह लाभ आईएएस स्टडी के नियमों में छूट देकर दिया गया है। यहां यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि क्या राज्य सरकार अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा के स्टडी नियमों में छूट देने के लिये अपने तौर पर सक्षम थी भी या नही है।
यह सवाल इयलिये उठ रहे हैं क्योंकि सानन 31 जनवरी 2017 को रिटायर हो गये और इसके मुताबिक वह 24 जवनरी तक स्टडी लीव पर थे। उनकी स्टडी लीव 24.10.2016 से 24.1.2017 तक करीब तीन महीने रहती है। उन्होने सरकार के मुताबिक एनसीएईआर न्यू दिल्ली में यह स्टडी की है। स्टडी लीव नियमों के मुताबिक किसी संस्थान में स्टडी ज्वाईन करने से पहले यह छुट्टी ली जाती है। सरकार के खर्च पर स्टडी करने के बाद उस स्टडी की रिपोर्ट सरकार को सौंपनी होती हैं क्योंकि सरकार अपने खर्चे पर तभी स्टडी पर भेजती है। यदि उस स्टडी से सरकार को भविष्य में किसी नीति निर्धारण में लाभ पहुंचना हो। सानन के केस में तो यह भी सवाल खड़ा होता है कि सानन ने तो 31.1.17 को सेवानिवृत हो जाना था और वह हो भी गये। ऐसे में उनकी स्टडी से सरकार को कोई सीधा लाभ नही पहुंचना था। नियमों के मुताबिक जिस व्यक्ति ने स्टडी के बाद एक वर्ष के भीतर ही सेवानिवृत हो जाना हो उसे सरकार अपने खर्च पर पढ़ने क्यों भेजे। फिर सानन तो स्टडी पूरी करने के ठीक एक सप्ताह बाद ही सेवानिवृत हो गये हैं। फिर जिस संस्थान से उन्होनें स्टडी की है वहां का कोई प्रमाणित एवम् स्थापित शोध पत्र भी उन्होंने सरकार को नही सौंपा है।
स्मरणीय है कि जिस दौरान वह उस स्टडी लीव पर हैं उस दौरान वह कैट में विनित चौधरी के साथ सह याचिकाकर्ता भी थे जिसमें इन्हे नजरअन्दाज करके वीसी फारखा को मुख्य सचिव बनाये जाने के सरकार के फैसले को चुनौती दी गयी थी। यहां यह भी गौरतलब है कि सानन एपपीसीए प्रकरण में अदालत में दायर चालान में अभियुक्त नामजद है। जयराम सरकार ने उनके खिलाफ मुकद्दमें की अनुमति देने से इन्कार कर दिया है जबकि इस मामले में कोई पुनः जांच करके कोई नये तथ्य नही आये हैं। जिनके आधार पर सरकार मुकद्दमें की अनुमति देने के अपने अधिकार का प्रयोग करती है। इस मामले में यह प्रकरण सर्वोच न्यायालय में लंबित चल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय इस मामले को वापिस लेने की अनुमति सरकार को देता है या नही इस पर सबकी नज़रें लगी हुई हैं। अभी सरकार ने सानन को हिपा के लिये नव गठित सलाहकार बोर्ड में भी बतौर सदस्य नियुक्ति दी है। इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार सानन को हर कीमत पर लाभ देना चाहती है चाहे उसे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर आईएएस स्टडी लीव नियमों मे ढील ही क्यों न देनी पड़े। मुख्यमन्त्री कार्मिक, वित्त और गृह सभी विभागों के मन्त्री भी हैं जिसका सीधा सा अर्थ है कि यह सारे फैसले उनकी अनुमति के साथ हो रहे हैं। सूत्रों की माने तो स्टडी लीव का लाभ देने के लिये सरकार ने विधि विभाग की राय लेना भी ठीक नही समझा है और एक व्यक्ति को नियमों के विरूद्ध जाकर अनुचित लाभ और सरकारी कोष को हानि पहुंचाने का काम किया है।

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