शिमला/शैल। प्रदेश के प्राईवेट स्कूल बच्चों और अभिभावकों के उत्पीड़न का केन्द्र बनते जा रहे हैं यह कड़वा सच इन स्कूलों द्वारा बढ़ाई जा रही फीसों से सामने आ चुका है। फीसों के साथ ही स्कूल की वर्दी, जूते और किताबें आदि भी इन स्कूलों द्वारा चिन्हित दुकानों से ही लेना अनिवार्य कर दिया गया है। स्कूलों की इस मनमानी के खिलाफ कई बार अभिभावक रोष प्रकट कर चुके हैं। इन दिनों छात्र- अभिभावक मंच इस मुद्दे पर आन्दोलन पर उत्तर आया है। शिक्षा निदेशालय पर धरना प्रदर्शन हो चुका है। यह आन्दोलन जारी है और इसी आन्दोलन के प्रभाव स्वरूप शिक्षा निदेशालय ने 19 मार्च को एक कार्यालय निर्देश जारी किया है। इस निर्देश में कहा गया है कि प्रदेश में निजि शिक्षण संस्थान (विनियम) अधिनियम 1997 और शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 लागू है। प्रत्येक स्कूल को इनकी अनुपालना सुनिश्चित करने के निर्देश दिये गये हैं। चार बिन्दुओं पर अनुपालना के निर्देश जारी हुए हैं।
यह निर्देश 18 मार्च को जारी किये गये हैं विनियमन अधिनियम 1997 में बन गया था लेकिन इस अधिनियम के तहत संचालन के नियम छः वर्ष बाद 2003 में बने। इन नियमों के तहत स्कूलों को निर्देश अब 2019 में जारी हो रहे हैं। इसी से सरकार की ईमानदारी और गंभीरता का पहला परिचय मिल जाता है। स्मरणीय है कि प्रदेश उच्च न्यायालय में 2014 में दो याचिकाएं दायर हुई थी इन पर 27 अप्रैल 2016 को फैसला आया है। इस फैसले में कहा गया है कि
a It is shocking that the private institutions have been raising their assets after illegally collecting funds like building fund, development fund, infrastructure fund etc. It is high time these practices are stopped forthwith and there is a crack down on all these institutions. Every education institution is accountable and no one, therefore, is above the law. It is not to suggest that the private education institutions are not entitled to their due share of autonomy as well as profit, but then it is out of this profit that the private education institutions, including schools are required to create their own assets and other infrastructure. They cannot under the garb of building fund etc. illegally generate funds for their “business expansion” and create “business empires”.
a That apart, it is the responsibility of the institution imparting education to set up proper infrastructure for the students and, therefore, the fee charged towards building fund is both unfair as well as unethical.
a In these given circumstances, the Chief Secretary to Government
of Himachal Pradesh is directed to constitute a committee which shall carry out inspection of all the private education institutions at all levels i.e. schools, colleges, coaching centres, extension centres, (called by whatever name), universities etc. throughout the State of Himachal Pradesh and submit report regarding compliance of the H.P. Private Educational Institutions (Regulation) Act, 1997 within three months. Special emphasis and care shall be taken to indicate in the report as to whether the private institutions have the requisite infrastructure, parents teacher associations, qualified staff, whether these institutions are maintaining the accounts in terms of Rule 6 and are regularly submitting all the information in the forms prescribed under the Rules and are further charging the ‘fee’ as approved by the Govt.
The Committee shall further report regarding violations being carried out by the educational institutions with respect to the guidelines issued by the UGC from time to time as have otherwise been taken note of in this judgment and shall be free to report violation of any Act, Rule, statutory provisions, guidelines etc., irrespective of the fact that the same have been issued by the Central or the State Governments.
a In the meanwhile, the respondent-State is directed to ensure that no private education institution is allowed to charge fee towards building fund, infrastructure fund, development fund etc.
a In addition to this, the Principal Secretary (Education) is directed to issue mandatory orders to all educational institutions, whether private or government owned, to display the following detailed information on the notice board which shall be placed at the entrance of the campus and on their websites:-
i) Faculty and staff alongwith their qualifications and job experience (profile).
ii) Details of Infrastructure.
iii) Affiliation alongwith certificate (s) of affiliation.
iv) Details of Internship andplacement.
v) Fees with complete breakup and details.
vi) Extra curricular activities with complete details.
vii) PTA-with address and telephone numbers of its members.
viii) Transport facilities with details.
ix) Age of the institute and its achievements (if any).
x) Availability of scholarships with complete details.
xi) List of alumni (s) alongwith complete addresses and telephone numbers.
The aforesaid information shall also be displayed on the website of all private educational institutions and in case any educational institution is currently not having its own website, the same shall be created within one month and immediately thereafter the aforesaid information would be displayed on the website.
इस फैसले के परिदृश्य में यह सवाल उठता है कि सरकार ने इस फैसले को गंभीरता से क्यों नहीं लिया? क्योंकि स्कूलों की यह लूट यथावत जारी है। प्राईमरी के बच्चों तक से छःछः हज़ार वसूले जा रहे हैं और इसमें सरकार के इन निर्देशों के बाद इन फीसों के जो हैड स्लिप में पहले दर्शाये जाते थे उन्हें हटा दिया गया है। सारा पैसा इकट्ठा बिना हैड दिखाये लिया जा रहा है। उच्च न्यायालय ने प्रदेश के मुख्यसचिव और शिक्षा सचिव को निर्देश दिये थे और रिपोर्ट मांगी थी जो आज तक नहीं बनी है। क्योंकि सरकार के अपने स्कूलों की स्थिति भी ठीक नहीं है। सरकार के दावे के मुताबिक प्रदेश 3391 स्कूलों में नर्सरी और केजी की कक्षायें शुरू कर दी गयी हैं और इनमें 23800 बच्चों ने दाखिला भी ले लिया है। विधानसभा में आये एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने माना है कि इन कक्षाओं के लिये अलग से अध्यापकों के कोई पद सृजित नहीं किये गये हैं। इस दौरान केवल 578 टीजीटी 123 भाषा अध्यापक, 79 कला अध्यापक, 234 शास्त्री नियुक्त किये गये हैं। इससे अन्दाजा लगाया जा सकता जा सकता है कि इन 3391 स्कूलों की स्थिति क्या होगी। इसी तरह योग शिक्षकों की स्थिति है। योग शिक्षा शुरू कर दी गयी है और अध्यापक हैं नही। जब सरकारी स्कूलों की स्थिति यह होगी तो विवश होकर लोगों को प्राईवेट स्कूलों का रूख करना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन स्कूलों की लूट को अपरोक्ष में सरकार का समर्थन भी हासिल है।
शिमला/शैल। मोदी सरकार की आयुष्मान भारत एक बहुत बड़ी योजना है इसमें गरीब लोगों को पांच लाख रूपये तक का ईलाज मुफ्त करवाने का प्रावधान किया गया है। इस योजना से दस करोड़ लोगों को लाभ पंहुचाने का लक्ष्य रखा गया है। सरकार ऐसी ही योजनाओं के सहारे सत्ता में वापसी का सपना देख रही है। लेकिन शीशे के वातानुकूलित दफ्तरों में बैठकर बनाई गयी इन योजनाओं की जमीनी हकीकत क्या है इसका पता अस्पतालों में जाकर लगता है। अभी दो दिन पहले शैल के प्रतिनिधि को प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल आईजीएमसी में जाने का संयोग हुआ। वहां जब एक अधिकारी के पास बैठे थे तब एक रोगी का तामीरदार इस अधिकारी के पास आ पहुंचा। तामीरदार बहुत घबराया हुआ था। उसकी दयनीय हालत देखकर अधिकारी ने उसके घबराने का कारण पूछा। तब इस व्यक्ति ने बताया कि उसका एक आदमी इसी अस्पताल के आर्थो विभाग में दाखिल है। उसका आयुष्मान का कार्ड बना हुआ है। उसका आपरेशन होना है। लेकिन डाक्टर कह रहे हैं कि इस कार्ड पर उसका आप्रेशन तो हो जायेगा परन्तु जो सामान रोगी डलेगा वह घटिया होगा क्योंकि ऐसे कार्ड वालों के लिये जो सामान खरीदा जाता है वह घटिया होता है। ऐसे में वह फैसला कर लें कि उन्होंने अच्छा सामान डलवाना है कि घटिया। अच्छे सामान के लिये पैसे लगेंगे। डाक्टर की इस राय के बाद वह व्यक्ति इस अधिकारी को मिलने आया था। शायद वह अधिकारी को जानता था। रोगी चम्बा से आया था वह डाक्टर की लिखित में शिकायत करने से डर रहा था क्योंकि उसका मरीज वहां दाखिल था। अधिकारी बिना लिखित शिकायत के कुछ नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप व्यक्ति निराश-हताश होकर लौट गया। जब डाक्टर यह कहेगा कि मुफ्त ईलाज योजना में घटिया सामान लगेगा तब कौन आदमी यह कह पायेगा कि घटिया सामान ही लगा दो। वह अच्छे सामान के लिये अपना कुछ बेचने और कर्ज लेने की विवशता में आ जायेगा। मुफ्त ईलाज योजना के दावों को गरीबों के साथ भद्दा मज़ाक करार देगा।
आयुष्मान योजना गरीबों के लिये बनाई गयी है लेकिन इस योजना के तहत ईलाज करवाने के लिये गरीब आदमी को अपने साथ कम से कम दो तामीरदार साथ लाने होंगे क्योंकि इसके तहत अस्पताल से मुफ्त दवाई लेने के लिये भी कम से कम आधे घण्टे का समय लगेगा क्योंकि प्रक्रिया बहुत लम्बी और पेचीद है। इस प्रक्रिया से घबराकर आम आदमी इस योजना को गाली देने और फिर बाजार से मंहगी दवाई लेने के लिये विवश हो जायेगा।
जब एक तामीरदार ने आईजीएमसी के ही अधिकारी के सामने आर्थाे के डाक्टर के खिलाफ इतना गंभीर आरोप लगाया और अधिकारी लिखित शिकायत के अभाव में कुछ नहीं कर पाया तब शैल ने इस आरोप की अपने स्तर पर पड़ताल करने पर पाया कि चम्बा से आया यह बीमार मूलतः न्यूरो विभाग में आना चाहिये था लेकिन इसे आर्थो में दाखिल कर लिया गया। जबकि आर्थो के मुकाबले न्यूरो में इसके लिये बड़ी टीम है डाक्टरों की। हमारी पड़ताल में यह भी सामने आया कि ऐसा पहले भी कई रोगीयों के साथ हो चुका है। इसकी शिकायतें मुख्यमंत्री, स्वास्थ्य मन्त्री और स्वास्थ्य सचिव तक पहुंची हुई हैं लेकिन कहीं से भी किसी ने इसकी जांच करवाने का काम नही किया है। आर्थो के डाक्टर पर लगे आरोपों पर अपरोक्ष में एक अन्य डाक्टर ने सफाई देते हुए यह आरोप लगा दिया कि अस्पताल में दवाईयों और अन्य उपकरणों के लिये खरीद की जाती है तब इसके लिये एक डाक्टरों की कमेटी गठित की जाती है। यह कमेटी इस पर जोर देती है कि सबसे सस्ती दवाई/ उपकरण खरीदे जायें। इस सस्ती खरीद में गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता है। इसी कारण से ईलाज करने वाला डाक्टर मरीज को असलियत से परिचित करवा देता है। यदि यह आरोप भी सही है तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। आज मुफ्त ईलाज के नाम पर गरीब आदमी को जिस तरह की परेशानीयां झेलनी पड़ रही है उसका पहला असर तो सरकार की छवि और नीयत पर पड़ रहा है। यह आरोप लग रहा है कि ऐसी योजनाओं के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा है। क्योंकि हर आयुष्मान कार्ड धारक के दो टैस्ट तो अस्पताल स्थित प्राईवेट लैब एसआरएल से करवा ही दिये जाते हैं।
प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल में एक बिस्तर पर दो-दो मरीज रखने की नौबत आ चुकी है। इससे सरकार के सारे दावों की पोल खुल जाती है। आईजीएमसी का एक सबसे बड़ा कमज़ोर पक्ष यह है कि शायद एक दशक से भी अधिक समय से इसका परफारमैन्स आडिट ही हुआ है। माना जा रहा है कि यदि यहां का परफारमैन्स आडिट हर विभाग का करवाया जाता है तो इसमें कई चैंकाने वाले खुलासे सामने आयेंगे। मोदी की आयुष्मान योजना को डाक्टर जिस ढंग से ठेंगा दिखा रहे हैं इसके परिणाम भयानक होंगे यह तय है।
शिमला/शैल। विधानसभा के बजट सत्र में 5 फरवरी को भाजपा विधायक रमेश धवाला का एक प्रश्न सदन में आया था। धवाला ने सरकार से यह जानकारी मांगी थी कि (क) प्रदेश लोक सेवा आयोग में वर्तमान में श्रेणीवार कौन-कौन सदस्य हैं। उनकी शैक्षणिक योग्यता एंव प्रशासनिक क्षमता क्या है और (ख) सरकार क्या सदस्यों के चयन के लिये समाज के विभिन्न वर्गो के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखती है और चयन हेतु क्या मापदण्ड निर्धारित किये गये हैं ‘‘ यह प्रश्न सदन में चर्चा में नही आ पाया था। लेकिन इसके सदन में रखे लिखित जवाब में बताया गया कि इस समय अध्यक्ष समेत पांच सदस्य कार्यरत है। इनकी शैक्षणिक योग्यताएं और अनुभव का भी पूरा विवरण दिया गया है। लेकिन यह नही बताया गया है कि इस समय सदस्य का एक पद खाली है। क्योंकि जब जयराम सरकार ने सत्ता संभाली थी तब सदस्यों के दो नये पद सृजित किये गये थे जिनमें से एक पर तो डा. रचना गुप्ता की नियुक्ति हो गयी थी और दूसरा अभी तक खाली चला आ रहा है।
इस समय प्रदेश की शीर्ष प्रशासनिक सेवा, न्यायिक सेवा आदि से लेकर क्लर्क की भर्ती तक के लिये दो संस्थान एक प्रदेश लोक सेवा आयोग और दूसरा अधिनस्थ सेवा चयन बोर्ड कार्यरत हैं। इन दोनों संस्थानों ने पिछले तीन वर्षों में 15 जनवरी 2019 तक लोक सेवा आयेाग ने 2198 और अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड ने 7849 उम्मीदवारों का चयन किया है। इस चयन से यह आकंलन किया जा सकता है कि प्रदेश में कितने लोगों को पिछले तीन वर्षों में नियमियत रोजगार मिल पाया होगा। इसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि जब दोनों संस्थानों ने पिछले तीन वर्षों में केवल दस हजार लोगों का ही चयन किया है तो क्या ऐसे में इन दोनो संस्थानों को चलाये रखने का औचित्य क्या है। फिर इनमें सदस्यों के नये पद सृजित करना उचित है।
लोकसेवा आयोग प्रदेश की शीर्ष राजपत्रित सेवाओं के लिये उम्मीदवारों का चयन करता है। इस चयन के लिये आयोग के सदस्य भी अपने में उच्च शैक्षणिक और प्रशासनिक योग्यता एवम् अनुभव वाले लोग होने चाहिये। इन सदस्यों के चयन के लिये एक स्थापित और तय प्रक्रिया होनी चाहिये। इस संबंध में पंजाब लोक सेवा आयोग में फैसला देते हुए शीर्ष अदालत ने राज्यों को निर्देश दिये हैं कि वह इस चयन के लिये सुनिश्चित चयन प्रक्रिया और मानदण्डों की स्थापना करें। सर्वोच्च न्यायालय में यह भी उल्लेख आया है कि इन सदस्यों की योग्यता का मानदण्ड ऐसा रहना चाहिये जो प्रशासन में दस वर्ष तक वित्तायुक्त का अनुभव होना चाहिये और वित्तायुक्त होने की पात्रता रखता हो। लेकिन क्या सर्वोच्च न्यायालय के इन निर्देशों की अनुपालना हो पा रही है जबकि यह फैसला 2014 में आ चुका था। लेकिन अब जो विधानसभा में आये प्रश्न के उत्तर में सरकार ने कहा है उसके अनुसार लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के चयन के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा जाता है। इनकी नियुक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद-316 के अनुसार की जाती है, जिसमे उद्धृत प्रावधान अग्रलिखित हैंः-
लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति, यदि वह संघ आयोग या संयुक्त आयोग है तो राष्ट्रपति द्वारा और, यदि राज्य आयोग के लिए, के राज्यपाल द्वारा की जाएगी।
परन्तु प्रत्येक लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से यथाशक्य निकटतम आधे ऐसे व्यक्ति होंगे जो अपनी-अपनी नियुक्ति की तारीख पर भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन कम से कम कम दस वर्ष तक पद धारण कर चुके हैं और उक्त दस वर्ष की अवधि की संगणना (Computing) करने मे संविधान के प्रारम्भ से पहले की ऐसी अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन पद धारण किया है।
इसके अतिरिक्त संविधान के अनुच्छेद-316(3) के अनुसार कोई व्यक्ति जो लोक सेवा आयोग के सदस्य का पद धारण करता है, अपनी पदावधि की समाप्ति पर, उस पद पर पुनर्नियुक्ति का पात्र नहीं होता और भारत के संविधान के अनुच्छेद 319 के परिच्छेद (घ) के अन्तर्गत राज्य लोक सेवा आयोग का कोई भी सदस्य आयोग के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हेतु पात्र है।
सरकार के इस जवाब से यह सवाल उठता है कि क्या सरकार लोक सेवा आयोग को कोई राजनीतिक या सामाजिक संस्था बनना चाहती है जिसमें समाज के सारे वर्गों का प्रतिनिधित्व हो। सरकार के इस जवाब से आयोग की बुनियादी अवधारणा पर ही गंभीर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधित्व से आयोग के सदस्यों की अपनी निष्पक्षता पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। हिमाचल लोक सेवा आयोग को लेकर भी एक प्रकरण प्रदेश उच्च न्यायालय मे गया हुआ है लेकिन उच्च न्यायालय पिछले दो वर्षों में इस प्रकरण की सुनवाई के लिये समय नही निकाल पाया है। इससे यह संदेह उभरना स्वभाविक ही है कि कहीं उच्च न्यायालय की नजर में भी सरकार की तरह यह एक सामाजिक संस्था ही है।
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