शिमला/शैल। क्या विधानसभा अध्यक्ष राजनीतिक दल की बैठक में भाग ले सकता है यह सवाल प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। क्योंकि पिछले दिनों मण्डी में हुई भाजपा की बैठक में विधानसभा अध्यक्ष राजीव बिन्दल शामिल हुए थे। भाजपा की यह बैठक अगामी लोकसभा चुनावों को लेकर रणनीति तय करने को लेकर हुई थी। इस बैठक में भाग लेने वालों को बैठक में अपने मोबाईल फोन तक नही ले जाने दिये गये थे और इसी से इसकी अहमियत का पता चल जाता है। ऐसे में इस बैठक में भाग लेने वाला व्यक्ति कैसे और कितना निष्पक्ष हो सकता है यह सवाल उठना स्वभाविक है। डा. राजीव बिन्दल इस प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष हैं। यह ठीक है कि विधानसभा में भाजपा का बहुमत है और इसीलिये उसकी सरकार है। इसी बहुमत के आधार पर विधानसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनो पदों पर भाजपा का कब्जा है। लेकिन जब कोई विधायक अध्यक्ष चुन लिया जाता है तब उसे दलीय स्थिति से ऊपर का व्यक्ति माना जाता है। सदन में वह सभी दलों का एक बराबर संरक्षक माना जाता है।
संसदीय लोकतन्त्र में प्रथा है कि जब कोई सदन का अध्यक्ष बन जाता है तब वह उस पार्टी में जिसका वह सदस्य होता है उसके विधायक दल की बैठक में भाग नहीं लेता है। यह रिवायत है कि सदन का अध्यक्ष अपने दल की राजनीतिक बैठकों में भी भाग नहीं लेता है। केन्द्र से लेकर राज्यों तक सभी इस प्रथा की अनुपालना करते आये हैं। हिमाचल में भी आज से पहले किसी भी विधानसभा अध्यक्ष ने इस तरह से अपने दल की बैठकों में भाग नही लिया है। जिस तरह से राजीव बिन्दल कर रहे हैं। चर्चा है कि अभी सात अप्रैल को सोलन अदालत में उनके केस की पेशी थी। इस पेशी में वह अदालत में हाजिर रहे क्योंकि पिछली पेशी में वह नही आये थे। तब उनके वकील ने उन्हे पेशी से छूट दिये जाने कीे अदालत से गुहार लगायी थी क्योंकि वह अब विधानसभा अध्यक्ष बन गये हैं। लेकिन अदालत ने वकील के आग्रह को यह कहकर ठुकरा दिया कि वह तो इस मामले में मुख्य आरोपी हैं उन्हे पेशी से छूट नही दी जा सकती है। इसलियेे वह पेशी पर अदालत में हाजिर रहे।
लेकिन जब पेशी खत्म हुई उसके बाद पार्टी के एक कार्यक्रम में शामिल हो गये। उस समय भी उनके शामिल होने पर पार्टी के ही कुछ लोगों ने सवाल खड़ा किया था। अब भाजपा की मण्डी में हुई बैठक में शामिल होने को लेकर तो कई राजनीतिक लोगों ने सवाल उठाये हैं। विधानसभा में भी विपक्ष को उनसेे यह शिकायत रही है कि भाजपा के बदले कांग्रेस को कम समय दे रहे हैं। अब पार्टीे की कोर बैठक में शामिल होना सार्वजनिक रूप से बाहर आ चुका है और इससे उनकी अध्यक्षीय निष्पक्षता पर स्वभाविक रूप से ही सवाल उठेंगे। इस पर अभी तक भाजपा की ओर सेे कोई प्रतिक्रिया नही आयी है और न ही स्वयं बिन्दल की ओर से कोई ब्यान आया है। जबकि इस आचरण के सार्वजनिक रूप से बाहर आ जाने के बाद अगले सदन में इसे चर्चा का विषय बन जाने की संभावना से भी इन्कार नही किया जा सकता है। क्योंकि बजट सत्र के दौरान विपक्ष की ओर से अध्यक्ष पर यदा-कदा पक्षपात का आरोप लगता रहा है। भले ही उस समय इस आरोप को राजनीतिक मानते हुए अधिमान न दिया गया हो लेकिन अब बिन्दल के पार्टी की इन बैठकों में भाग लेने से स्थिति बदल गयी है और उनकी निष्पक्षता पूरी तरह सवालों के घेरे में आ खड़ी हुई है।
इस समय भाजपा के अन्दर जिस तरह से सचेतकों को मन्त्री का दर्जा दिये जाने की कवायद से विधायकों के सम्भावित राजनीतिक रोष साधने का प्रयास किया जा रहा है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी के अन्दर ‘‘सबकुछ ठीक ही है’’ की स्थिति नहीं है। यह भी सब जानते है कि बिन्दल विधानसभा अध्यक्ष बनने के लिये ज्यादा उत्साहित नहीं थे क्योंकि उनकी पहली प्राथमिकता मन्त्री बनना थी। मन्त्री न बन पाने की टीस विधानसभा में भी कई बार अपरोक्षतः मुखरित होकर सामने आती रही है। उपर से पुराना केस अभी तक लम्बित चल रहा है इसमें माना जा रहा है कि वर्ष के अन्त तक फैसले की घडी आ जायेगी। बहुत लोगों को यह आशंका है कि कहीं इसमें भी कांग्रेस की आशा कुमारी जैसी ही स्थिति न खड़ी हो जाये क्योंकि धूमल शासन में इस मामले को चलाने की अनुमति नहीं दी गयी थी लेकिन बाद में अदालत में यह अनुमति न दिया जाना किसी काम नहीं आ सका था। इसी कारण से यह मामला अब तक चलता आ रहा है और फैसले के कगार पर पहुंचने वाला है।
शिमला/शैल।मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर की सरकार ने अपने पहले ही बजट सत्र के अन्तिम दिन सचेतक को मन्त्री का दर्जा और उसी के समकक्ष वेतन भत्ते और सुविधायें देने का विधेयक पारित किया है। राज्यपाल की स्वीकृति के बाद यह विधेयक लागू हो जायेगा और इसके बाद भाजपा के दो विधायकों को मन्त्री का दर्जा मिल जायेगा जिन्हें जयराम मुख्य सचेतक और उपमुख्य सचेतक नियुक्त करेंगे। मुख्य सचेतक को पूरे मन्त्री और उपमुख्य सचेतक को राज्य मन्त्राी का दर्जा प्राप्त हो जायेगा। हिमाचल प्रदेश में ऐसा पहली बार हुआ हैं कांग्रेस और माकपा ने इसका सदन में विरोध भी किया। कांग्रेस ने तो इसमें संशोधन भी रखा था जिसे वापिस ले लिया गया। भाजपा के पास सदन में अपना बहुमत है इसलिये इस विधेयक का पारित होना स्वभाविक था। इस विधेयक के लागू होने के बाद जिन विधायकों को मुख्य और उप मुख्य सचेतक नियुक्त किया जायेगा वह ‘‘लाभ के पद’’ के दायर में आयेंगे या नही यह तो अन्ततः उच्च न्यायालय से ही स्पष्ट हो पायेगा जब यह मामला अदालत मे पंहुचेगा।
सदन में संसदीय कार्यमन्त्री सुरेश भारद्वाज ने केवल यही तर्क दिया कि देश के कई अन्य राज्यों में भी ऐसी व्यवस्था है इसलियेहिमाचल में भी इसे ला दिया गया। संसद में 1998 में मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के नेता और उनके द्वारा नियुक्त किये गये सचेतकों को क्या सुविधायें दी जानी चाहिये इस आश्य का बिल आया था। 1999 में यह पारित हुआ तथा 2000 से लाग हो गया है। इसमें कुछ संशोधन भी हुए है। लेकिन इस विधेयक या इसके तहत बने और पारित हुए नियमो में इन्हे मन्त्री के बराबर का दर्जा नही दिया गया है। भारत में सचेतक की प्रथा ब्रिटिश शासन से ली गयी है। इसमें सचेतक को इस तरह परिभाषित किया गया है Every major political party appoints a whip who is responsible for the party's discipline and behaviour on the floor of the house. Usually, he /she directs theparty members to stick to the party's stand on certain issuesand directs them to vote as per the directions of the senior party members . इससे स्पष्ट हो जाता है कि सचेतकों का काम अपनी-अपनी पार्टी के विधायक दलों के प्रति ही है। दल बदल निरोधक कानून बन जाने के बाद सचेतक के निर्र्देशों का उल्लंघन करने पर संबधित सदस्य के खिलाफ दल बदल कानून के तहत कारवाई की जा सकती है यदि दल चाहे तो। दल की ईच्छा के बिना यह कारवाई नही हो सकती है। इससे और भी स्पष्ट हो जाता है कि सचेतक की सारी भूमिका अपने दल तक ही सीमित हैं इसमें यह भी अनिवार्य नही है कि मान्यता प्राप्त दल को सदन के अन्दर सचेतक नियुक्त करना ही होगा वरना उसके खिलाफ कोई कारवाई हो सकती है। इस तरह सचेतक विधायक दलों का अन्दरूनी मामला है इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या कोई राजनीतिक दल चाहे वह सत्तारूढ़ ही क्यों न हो सरकार के पैसे से अपनी पार्टी का काम करवा सकता हैं। क्योंकि सचेतक विधानसभा या सरकार का अधिकारी नही है। सचेतक पद का सजृन सरकार या विधासभा नही करती है। क्योंकि किसी पद का सजृन करना और किसी व्यक्ति को कोई मान सम्मान देना दो अलग- अलग स्थितियां है।
ऐसे में सवाल उठता है कि जयराम सरकार को इतने बड़ेे बहुमत के वाबजूद इस तरह का आचरण क्यों करना पड़ा है। भाजपा पर तो संघ का अनुशासन है जिसके चलते कोई भी विधायक पार्टी की लाईन से बाहर जाने की सोच ही नही सकता। शान्ता कुमार और शत्रुघन सिन्हा जैसे कम ही लोग हैं जो पार्टी की कुछ नीतियों के खिलाफ सार्वजनिक रूप से अपनी प्रतिक्रियांए दे रहे है। इन लोगों का राजनीतिक कद जयराम के विधायकों से कहीं बड़ा है। इस स्थिति के होते भी जयराम को यह कदम उस समय उठाना पड़ा जबकि वह इसी सदन में अबतक संसदीय सचिव न बनायेे जाने को लेकर अपनी पीठ थपथपा रहे थे। बल्कि जयराम तो निगमो/बोर्डों में राजनीतिक ताजपोशियों को सार्वजनिक रूप से संसाधनों का दुरूपयोग करार दे चुके है। वीरभद्र द्वारा पांच दर्जन से अधिक लोगों को ऐसी ताजपोशीयां देने के लिये बराबर कोसते रहे है। इस परिदृश्य में यही सामने आता है कि जयराम एक बहुत बड़े राजनीतिक दवाब में चल रहे है। क्योंकि सचेतकों को मन्त्री का दर्जा देने से एक ऐसी प्रथा की शुरूआत हो जायेगी जिसका प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर प्रतिकुल प्रभाव ही पड़ेगा। आज कांग्रेस को संख्या बल के आधार पर मान्यता प्राप्त विपक्ष का दर्जा नही मिल पाया है। लेकिन आने वाले समय में जब मान्यता प्राप्त विपक्ष होगा तब उसके नेता, मुख्य सचेतक और उपमुख्य सचेतक को भी इस एक्ट के तहत मन्त्री का दर्जा हासिल हो जायेगा। इस तरह सरकार के इस फैसले से कर्ज के चक्रव्यूह में फंसे प्रदेश को इस स्थिति से निकालने का प्रयास करने की वजाये उसमें और धकेलने का काम किया जा रहा है। सचेतक की भूमिका पार्टी के दायरे से बाहर नही है यह इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि राज्यसभा सदस्यों और महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिये व्हीप जारी नही किया जा सकता है जबकि इस चुनाव में केवल विधायक और सांसद ही भाग लेते है।
केन्द्र में नहीं है सचेतकों को मन्त्री का दर्जा, यह है केन्द्र का अधिनियम
THE LEADERS AND CHIEF WHIPS OF RECOGNISED PARTIES ANDGROUPS IN PARLIAMENT (FACILITIES) ACT, 1998 (No. 5 of 1999)
(As amended by Act No. 18 of 2000) [7th January, 1999]
An Act to provide for facilities to Leaders and Chief Whips of recognised parties and groups in Parliament. Be it enacted by Parliament in the Forty-ninth Year of the Republic of India as follows:—
1. Short title and commencement. — (1) This Act may be called the Leaders and Chief Whips of Recognised Parties and Groups in Parliament (Facilities) Act, 1998. (2) ) It shall be deemed to have come into force on the 5th day of February, 1999’’.
2. In this Act, unless the context otherwise requires,—
(a) ‘‘recognised group” means,— (i) in relation to the Council of States, every party which has a strength of not less than fifteen members and not more than twenty-four members in the Council;
(ii) in relation to the House of the People, every party which has a strength of not less than thirty members and not more than fifty-four members in the House.
(b) “recognised party” means,— (i) in relation to the Council of States, every party which has a strength of not less than twenty-five members in the Council; (ii) in relation to the House of the People, every party which has a strength of not less than fifty-five members in the House.
*3. Facilities to the Leaders and Chief Whips of recognised groups and parties.—Subject to any rules made in this behalf by the Central Government, each leader, deputy leader and each Chief Whip of a recognised group and a recognised party shall be entitled to telephone and secretarial facilities: Provided that such facilities shall not be provided to such leader, deputy leader or Chief Whip, as the case may be, who— (i) holds an office of Minister as defined in section 2 of the Salaries and Allowances of Ministers Act, 1952; or (ii) holds an office of the Leader of the Opposition as defined in section 2 of the Salary and Allowances of Leaders of Opposition in Parliament Act, 1977; or (iii) is entitled to similar telephone and secretarial facilities by virtue of holding any office of, or representation in, a Parliamentary Committee or other Committee, Council, Board, Commission or other body set up by the Government; or (iv) is entitled to similar telephone and secretarial facilities provided to him in any other capacity by the Government or a local authority or Corporation owned or controlled by the Government or any local authority.
4.Power to make rules.—(1) The Central Government may, by notification in the Official Gazette, make rules for carrying out the provisions of this Act.
(2) Every rule made under sub-section (1) shall be laid, as soon as may be after it is made, before each House of Parliament, while it is in session, for a total period of thirty days which may be comprised in one session or in two or more successive sessions, and if, before the expiry of the session immediately following the session or the successive sessions aforesaid, both Houses agree in making any modification in the rule or both Houses agree that the rule should not be mmade, the rule shall thereafter have effect only in such modified form or be of no effect, as the case may be; so, however, that any such modification or annulment shall be without prejudice to the validity of anything previously done under that rule.
5. Amendment of section 3 of Act 10 of 1959.—In the Parliament (Prevention of Disqualification) Act, 1959, in section 3,— (i) after clause (ab), the following clause shall be inserted, namely:— “(ac) the office of 3 [each leader and deputy leader] of a recognised party and a recognised group in either House of Parliament.” (ii) after Explanation 2, the following Explanation shall be inserted, namely:— Explanation 3. — In clause (ac), the expressions “recognised party” and “recognised group” shall have the meanings assigned to them in Leaders and Chief Whips of Recognised Parties and Groups in Parliament (Facilities) Act, 1998.
[6. Validation of rules and certain actions.— The Leaders and Chief Whips of Recognised Parties and Groups in Parliament (Telephone and Secretarial Facilities) Rules, 1999 published in the Gazette of India, Extraordinary, dated the 5th February 1999 with the notification of the Government of India in the Ministry of Parliamentary Affairs No. G.S.R. 66(E), dated the 4th February, 1999 (hereinafter referred to as the said Rules) shall be deemed to have and to have always had effect on and from the 5th day of February, 1999 as if the amendments made by section 2 had been in force at all material times and accordingly any action taken or anything done or purported to have been taken or done under the said Rules during the period commencing on and from the 5th day of February, 1999 and ending with the day on which the Leaders and Chief Whips of Recognised Parties and Groups in Parliament (Facilities) Amendment Act, 2000 receives the assent of the President shall be deemed to be, and to always have been for all purposes, as validity and effectively taken or done as if the said Rules had been in force at all material times.
बीवरेज कारपोरेशन मामला अभी तकनहीं पहुंचा विजिलैन्स में
अंडरग्राऊंड डस्टबिन जांच फाईल भी लटक गयी पीलिया के दोषियों के खिलाफ नहीं मिली मामला चलाने
की अनुमति
अवैध निर्मार्णो के दोषियों को राहत के लिये कानून में ही
बदलाव का फैसला क्यों
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने सत्ता संभालने के बाद धर्मशाला में हुई मन्त्रिमण्डल की पहली ही बैठक में बीवरेज कारपोरेशन को पहली अप्रैल से बन्द करने और इसमें हुए घपले की जांच करने का फैसला लिया था। क्योंकि बीवरेज कारपोरेशन में पचास करोड़ का घपला होने का आरोप भाजपा बतौर विपक्ष लगाती आयी है। धर्मशाला में लगे भूमिगत कूड़ादानों के मसले में भी भाजपा अपने आरोप पत्र में करोड़ो का घपला होने का आरोप लगा चुकी है। प्रदेश में हुए अवैध निर्माणों का कड़ा संज्ञान लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय इनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश दे चुका है। जिन होटलो में अवैध निर्माण हुए हैं उनके खिलाफ कारवाई के पहले चरण में इनकी बिजली पानी काटने के आदेश हो चुके हैं। एनजीटी ने कसौली के प्रकरण में नियन्त्रण बोर्ड और टीसीपी के कुछ कर्मचारियो को चिन्हित करके उन्हें नामज़द करते हुए उनके खिलाफ कारवाई करने के लिये मुख्य सचिव को आदेश दिये थे। शिमला में जब पीलिया के कारण मौतें होने लगी थी तब उच्च न्यायालय के निर्देश पर इस संद्धर्भ में संवद्ध ठेकेदार और अन्य जिम्मेदार कर्मचारियों/ अधिकारियों के खिलाफ मामला दर्ज करके जांच किये जाने के आदेश हुए थे। यह जाचं पूरी होने के बाद कुछ अधिकारियों को इसके लिये जिम्मेदार पाया गया है। इनके खिलाफ मामला अदालत में चलना है। अदालत में चालान दायर करने के लिये संवद्ध कर्मचारियों/अधिकारियों के खिलाफ मामला दायर करने की सरकार से अनुमति चाहिये।
यह सारे मामलें हैं जिन पर बतौर विपक्ष भाजपा बहुत ही आक्रामक रहती थी लेकिन आज सत्ता में आने के बाद इन मामलों पर कोई कारवाई अभी तक आगे नही बढ़ पायी है। जिन अधिकारियों/कर्मचारियों की लापरवाही से प्रदेश में पीलिया फैला और तीस मौतें तक हो गयी थी उन लोगों के खिलाफ सरकार ने अदालत में मामला चलाने की अनुमति तक नही दी है। यह विभाग में किस स्तर पर हुआ है इस पर कोई कुछ कहने को तैयार नही है और प्रदेश के मुख्य सचिव की जानकरी के बिना ही यह अनुमति रोक दी गयी है। वीबरेज कारपोरेशन में यदि भाजपा के अपने आरोप पत्र के मुताबिक घपला हुआ है तो निश्चित रूप से यह घपला कारपोरेशन के एमडी और चेयरमेन की जानकारी के बिना नही हो सकता। यह दोनों ही पद वरिष्ठ अधिकारियों के पास ही रहे हैं। क्योंकि आबकारी और कराधान विभाग का आयुक्त ही इसका निदेशक था और विभाग का सचिव ही इसका अध्यक्षथा। यह दोनों ही वरिष्ठ आईएएस अधिकारी हैं और आज की सरकार में भी इनकी खास जगह है। चर्चा है कि इसलिये यह मामला आज तक विजिलैन्स को नही भेजा गया है। इसमें अब किसी आईएएस अधिकारी से ही जांच करवाने की योजना बनाई जा रही है जबकि मुख्यमन्त्री इस प्रकरण में एफआईआर दर्ज हो जाने का दावा कर चुके हैं। इसी तरह धर्मशाला के भूमिगत कूड़ादान प्रकरण में भी जांच की फाईल तैयार होने के बाद चर्चा है कि यह फाईल कहीं गुम हो गयी है। क्योंकि यह कूड़ादान खरीदनेे के लिये जब पहली कमेटीे की बैठक हुई थी उसमें इस योजना को अस्वीकार कर दिया गया था। एक सदस्य ने इसका कड़ा विरोध किया था और बैठक से उठ कर चले गये थे। लेकिन बाद में उस अधिकारी को हटा दिया गया तथा इस बैठक की कारवाई को रिकार्ड पर ही नही लाया गया। इसके वाबजूद यह पाॅयलट प्रोग्राम कैसे तैयार और कार्यन्वित हो गया यह अपने में एक रहस्य है जो कि जांच से ही सामने आना है लेकिन अब यह फाईल गायब है।
अवैध निर्माणों की जद में आये होटलों को बचाने के लिये सरकार ने एक बार फिर टीसीपी एक्ट में संशोधन करने का फैसला कर लिया है। जबकि प्रदेश उच्च न्यायालय के संज्ञान में प्रदेशभर में 3,5000 अवैध भवन निर्माण आये हैं। उच्च न्यायालय ने इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए यह कहा है कि The common man feel cheated when he finds that those making illegal and unauthorized constructions are supported by the people entrusted with the duty of preparing and executing the developmental plans.
लेकिन उच्च न्यायालय के कड़े संज्ञान के बाद सरकार इन अवैधतताओं के संरक्षण देने के लिये एक्ट में ही संशोधन करने पर आ गयी है। एनजीटी के आदेशों पर भी कोई कारवाई नही हो रही है क्योंकि उसमें नामज़द एक अधिकारी की सीधी पहुंच अब मुख्यमन्त्री तक हो गयी है ऐसे में इन आदेशों पर भी कारवाई करने से बचने का रास्ता खोजने का प्रयास हो रहा है। यहां तक कि उच्च न्यायालय ने मुख्य सचिव से संदिग्ध निष्ठा वाले अधिकारियों/कर्मचारियों की सूची तलब की है। लेकिन सत्रों के मुताबिक एनजीटी के आदेश में जामज़द होने के वाबजूद भी इनका नाम उस संभावित सूची में नही है।
अभी इस सरकार को आये केवल तीन माह का ही समय हुआ है लेकिन मन्त्री परिषद की पहली बैठक में किसी मामले पर जांच का फैसला लेने के बाद भी वह प्रकरण विजिलैन्स तक न पहुंचे और आईएएस अधिकारी से जांच करवाये जाने की बात चल पड़े तो इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इससे सरकार और मुख्यमन्त्री की अपनी छवि पर क्या प्रभाव पडे़गा।
शिमला/शैल। बजट सत्र के एक सप्ताह के ब्रेक के दौरान मुख्यमंत्री जयराम ऊना गये थे। वहां एक आयोजन में उन्होने भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व विधायक सत्तपाल सत्ती के साथ मंच सांझा करते हुए ऊना की जनता को विश्वास दिलाया कि भले ही सत्ती इस बार चुनाव हार गये हैं लेकिन सरकार में उचित आदर सम्मान प्राप्त रहेगा और उनके क्षेत्र के प्रति आये सुझावों को गंभीरता से लेेेेते हुए उन्हे पूरा अधिकार देगी। स्वभाविक है कि कोई भी मुख्यमन्त्री जहां भी जायेगा और उसे जो भी मिलेगा उसके विचारों, सुझावों को इसी तरह की भाषा में अधिमान देगा। फिर सत्ती तो पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं और उन्हें अधिमान देना सरकार का दायित्व भी है। लेकिन कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के इस कथन को ऊना के चुने हुए विधायक की नज़रअन्दाजी करार देकर सदन में इस विषय पर नियम 67 के तहत चर्चा का प्रस्ताव दे दिया। सदन संचालन के नियमों में यह स्पष्ट उल्लेख है कि स्थगन प्रस्ताव उसी स्थिति में लाये जायें जबकि विषय इतना आक्समिक और गंभीर हो कि उस पर किसी अन्य नियम में चर्चा संभव न हो। फिर बजट सत्र में तो स्थगन प्रस्ताव से बिल्कुल ही परहेज किया जाना चाहिये।
इस परिदृश्य में जब अध्यक्ष ने स्थगन प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तब कांग्रेस ने सदन में हंगामा, नारेबाजी करके सदन से वाक्आऊट कर दिया। कांग्रेस का आरोप था कि सरकार जनता द्वारा चुने हुए विधायकों को अधिमान नही दे रही है। कांग्रेस के इस आरोप का सिंचाई एवम् जन स्वास्थ्य मन्त्री महेन्द्र सिंह ठाकुर ने 1997 में उनके साथ घटे व्यवहार का सदन में खुलासा रखते हुए जब ब्यान दिया तो इस ब्यान से न केवल वीरभद्र शासन और स्वयं वीरभद्र की तानाशाही प्रवृति का लेखा जोखा ही सदन के रिकार्ड पर दर्ज हुआ बल्कि आगे के लिये कांग्रेस के हाथ से यह मुद्दा भी निकल गया। 1997 में महेन्द्र सिंह ठाकुर कांग्रेस के विधायक थे और सुखराम खेमे के माने जाते थे। 1993 में जब सरकार का गठन हुआ था उस समय विधायकों का बहुमत पंडित सुखराम के साथ था। लेकिन वीरभद्र ने उस समय जिस तरह से अपनेे समर्थकों से विधानसभा का घेराव करवा कर मुख्यमन्त्री की कुर्सी पर कब्जा किया था इसे पूरा प्रदेश जानता है। सुखराम अपने समर्थकों के साथ चण्डीगढ़ ही बैठे रहे और वीरभद्र मुख्यमन्त्री बन गये थे। महेन्द्र सिंह उस समय सुखराम के एक जबरदस्त समर्थक माने जाते थे और इसलिये उन्हे प्रताड़ित करने के लिये वीरभद्र ने पब्लिक के मंच पर ही जो व्यवहार किया था वह खुलासा महेन्द्र सिंह ने इस प्रकार सदन में रखा।
उन्होंने कहा कि 1997 में वह धर्मपुर हलके से कांग्रेस के विधायक थे। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री व वाॅकआउट कर गए वीरभद्र सिंह दिसंबर 1997 को उनके हलके में आए। सभा हुई और तब के उद्योग मंत्री रंगीला राम राव को मंच पर बोलने को बुलाया गया। वहीं पर कांगेस के नत्थाराम भी थे। उन्होंने कहा कि तब उन्होंने वीरभद्र सिंह से आग्रह किया कि वह स्थानीय विधायक हैं, उन्हें बोलने दिया जाए। वह स्थानीय समस्याओं को सरकार के समक्ष रखना चाहते हैं। इतना कहने पर वीरभद्र सिंह ने वहां खड़े एसपी को आदेश दिए किए विधायक को गिरफ्तार किया जाए। वहां सादी वर्दी में कई युवक थे। उन्होंने सोचा कि ये युवा कांग्रेस या एनएसयूआई के कार्यकर्ता हैं। लेकिन वह पुलिस के लोग थे।
उन्हें पकड़ा गया और आठ फुट ऊंचे मंच से नीचे फैंका गया। इसके बाद चारों टांगों से बकरे की तरह उठाकर जिप्सी में डाल दिया गया। दो डीएसपी पहले ही जिप्सी के पास थे। वहां पर स्कूली बच्चे व स्थानीय लोग थे। उन्हें पुलिस के लोगों ने लाते मारी। मुख्यमंत्री मंच पर बैठे रहे। वहां बीस किलोमीटर दूर थाना था। उन्हें वहां नहीं ले जाया गया जोगेंद्रनगर के थाने में ले जाया गया और जेल में बंद कर दिया। मुख्यमंत्री का अगले दिन का कार्यक्रम उन्हीं के हलके में मढ़ी में था। लोगों ने पूछा कि हमारा विधायक कहां है। उनकी छोटी बेटी जो उस समय 14 साल की थी व उनकी पत्नी को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
बिल्कुल खामोश सदन में महेंद्र सिंह ठाकुर ने कहा कि रात को 11 बजे दो डीएसपी जेल में आए व बोले कि आपकी जमानत करानी है। आपको मंडी एडीएम के समक्ष पेश करना है। उन्होंने कहा कि एसडीएम भी और मंडी का एडीएम भी एचएएस अधिकारी हैं तो यहीं जमानत करा लीजिए। करीब तीन बजे उन्हें जिप्सी में डाला और जिप्सी डेढ घंटे बाद मंडी से सुंदरनगर की ओर चल पड़ी। पूछने पर पुलिस ने बताया कि उन्हें आदेश है कि जब तक मुख्यमंत्री का प्रवास धर्मपुर का है तब तक महेंद्र सिंह को धर्मपुर से बाहर रखा जाए। उन्होंने कहा कि उन्हें पौने चार बजे गोहर थाने में बंद कर दिया। जब तक वीरभद्र सिंह धर्मपुर में रहे उन्हें अलग-अलग थानों में घुमाया जाता रहा। उन्होंने कहा कि ये वाॅकआउट करने वाले सवाल उठाते हैं कि जयराम सरकार विधायक की संस्था को कमतर कर रहे हैं। यह तो बात तक नहीं कर सकते।
उन्होंने कहा कि वह तीस सालों से विधानसभा में लगातार चुनकर आते रहे हैं। लेकिन वाइएएस परमार को छोड़कर उनका अब तक के हरेक मुख्यमंत्री के साथ वास्ता पड़ चुका है। लेकिन जितने मिलनसार व सरल अब के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर हैं इतना कोई नहीं था। उन्होंने वीरभद्र सिंह की ओर ईशारा करते हुए कहा कि जिस तरह से उन्होंने कागज टेबल पर फैंके वह उनकी उम्र के तकाजे के हिसाब से भी शोभनीय नहीं है। महेंद्र सिंह ठाकुर ने इस तरह पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को सीधे निशाने पर ले लिया।