Friday, 19 December 2025
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अवैध कब्जाधारकों की फिर मांगी उच्च न्यायालय ने सूचना

वर्ष 2002 में अवैध कब्जे नियमित करने के लिये आये थे 167339 शपथ पत्र
शिमला/शैल। प्रदेश उच्च न्यायालय ने सौ बीघा से अधिक के अवैध कब्जाधारियों के खिलाफ कारवाई करने के लिये एक एसआईटी का गठन किया था। इस एसआईटी ने अपनी स्टेट्स रिपोर्ट अदालत में सौंपते हुए यह जानकारी दी है कि उसने अब तक 1634 बीघा भूमि से करीब 33 हजार पेड़ काट दिये हंै। इस स्टेट्स रिपोर्ट का संज्ञान लेने के बाद अदालत ने सरकार को अतिरिक्त शपथ पत्र दायर करके और अवैध कब्जाधारियों की सूची अदालत में सौंपने के निर्देश दिये है। इससे पूर्व भी उच्च न्यायालय के अन्य मामले में अवैध कब्जा धारकों के खिलाफ मनीलाॅंड्रिंग के तहत कारवाई करने के आदेश दे चुका है। लेकिन सरकार ने अवैध कब्जों को हटाने के लिये अब तक अपनी ओर से कोई कारवाई नही की है। कारवाई तो प्रदेश उच्च न्यायालय की सख्ती और इस संबंध में एसआईटी बनाये जाने के बाद शुरू हुई है। आज भी कांग्रेस और भाजपा की ओर से संगठन स्तर पर कोई आवाज नही आई है। बल्कि पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार, वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल आज तक अवैध कब्जांे के प्रकरण पर खामोश बैठे हैं। वीरभद्र के कार्यकाल में तो कांग्रेस विधायकों ने अवैध कब्जों को नियमित करने के लिये वाकायदा पत्र लिखा था। ऐसे पत्र लिखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे जनप्रतिनिधि इनअ अवैधताओं के खिलाफ कभी कोई कारवाई नही चाहेंगे।
लेकिन इस प्रकरण में प्रशासन की भूमिका भी सन्देह के घेरे में ही है। क्योंकि उच्च न्यायालय सरकार से अवैध कब्जाधारकों की सूची मांग रहा है जो कि ठीक से नही दी जा रही है। इस संद्धर्भ में यह स्मरणीय है कि प्रदेश सरकार ने वर्ष 2002 में अवैध कब्जों को नियमित करने के लिये विधानसभा से एक नीति पारित करवाई थी। इस नीति के तहत अवैध कब्जाधारकों से सरकार ने वाकायदा शपथ पत्र के साथ अपना अवैध कब्जा घोषित करके उसे नियमित किये जाने का आवेदन मांगा था। उस समय सरकार की इस नीति के तहत 1,67,339 आवदेन सरकार के पास आये थे। इन आवदेनों से यह स्पष्ट हो गया था कि इतने अवैध कब्जाधारक प्रदेश में हैं। यहआवेदन सरकार के पास वाकायदा शपथ पत्रा के साथ आये थे। जब इतनी बड़ी संख्या में अवैध कब्जाधारक सामने आये तब सरकार की इस नीति को ही उच्च न्यायालय में CWP No 1028of 2012 और CWP No 1645 of 2002  के माध्यम से चुनौती दे दी गयी। इस पर अदालत ने नोटिस करते हुए यह कहा कि Reply to the application may be filed with in a period of four weeks.

In the facts and circumstances on record it is ordered that the proceedings for regularization of the encroachments on Government lands may go on, but Patta will not be issued under the impugned rules till further orders. 

इस याचिका पर कोई फैसला नही आया है। लेकिन सरकार की इस नीति पर अदालत ने कभी स्वीकृति की मोहर भी नही लगायी है। जिन लोगों के सरकार के पास आवेदन आ गये थे वह तो आज भी सरकार के संज्ञान में है। इन 1,67,339 आवेदनों की जब पड़ताल हुई थी तब उसमें 80,000 अवैध कब्जे वनभूमि पर चिन्हित हुए थे। यह सारी जानकारी सरकार के रिकार्ड में आज भी उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त 1990 के शासनकाल में शान्ता कुमार एक नीति ‘‘वन लगाओ रोज़ी कमाओ’’ लाये थे। इस नीति के तहत सरकार की वनभूमि पर पेड़ उनकी देखभाल करने वाले को उन पेड़ो के अनुपात में लाभ मिलने का प्रावधान रखा गया था। ताकि लाभ की उम्मीद में पेड़ लगाने वाला उनका उचित रख-रखाव करेगा। इस नीति के तहत भी सैंकड़ों लोगों ने पेड़ लगाये थे और एक प्रकार से उस भूमि के अपने को मालिक ही मानते थे। इस योजना के तहत वन उगाने वालों की जानकारी भी वन विभाग के पास है। इस तरह अवैध कब्जाधारकों की अधिकृत जानकारी सरकारी रिकार्ड में मौजूद है लेकिन इस सबके बावजूद उच्च न्यायालय को अवैध कब्जाधारकों की जानकारी उपलब्ध नही करवाई जा रही है। जिन अधिकारियों की आॅंखों केे सामने यह सब हुआ हैं उसकी जानकारी भी सरकार के रिकार्ड में मौजूद है। कौन कब कहां तैनात रहा है उसकी जानकारी भी रिकार्ड में उपलब्ध रहती है। यह सारी जानकारियां रिकार्ड में उपलब्ध होने के बावजूद अदालत को उपलब्ध नही करवाई जा रही है। इसमें सरकार और प्रषासन की नीयत पर सवाल उठने स्वभाविक है।

वीरभद्र, फारखा और श्रीधर के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया जाये-पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव दीपक सानन ने की मांग

शिमला/शैल। प्रदेश में भू-सुधार अधिनियम की धारा 118 का किस तरह से दुरूपयोग हो रहा है और इसको स्वयं सरकार कैसे बढ़ावा दे रही है इसका खुलासा सरकार में ही अतिरिक्त मुख्य सचिव रहे दीपक सानन द्वारा भेजी शिकायत से हो जाता है। दीपक सानन ने अपनी शिकायत में 2013 से 2017 के बीच घटे तीन मामलों का खुलासा करते हुए मन्त्रीमण्डल के सदस्यों जो बैठक में उपस्थित थे, प्रधान सचिव राजस्व, मुख्यमन्त्री के प्रधान सचिव, मुख्य सचिव वीसी फारखा तथा तत्कालीन मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत आपराधिक मामला दर्ज करके तुरन्त कारवाई करने की मांग की है। दीपक सानन ने अपनी शिकयत में स्पष्ट कहा है कि यदि सरकार कारवाई नही करेगी तो वह स्वयं इस मामले में जनहित याचिका दायर करेंगे।
शिकायत के मुताबिक सरकार ने बड़ोग के होटल कोरिन, शिमला के तेनजिन अस्पताल और चम्बा के लैण्डलीज़ मामलों में सारे नियमों/कानूनों को अंगूठा दिखाते हुए भारी भ्रष्टाचार किया है। होटल कोरिन को लेकर खुलासा किया है कि पीपी कोरिन और रेणु कोरिन ने 1979/ 1981 में बड़ोग में होटल निर्माण के लिये ज़मीन खरीदने की अनुमति धारा 118 के तहत मांगी थी। यह अनुमति की प्रार्थना 1990 तक अनुतरित रही और इसी बीच कोरिन ने वहां होटल का निर्माण कर लिया। जब धारा 118 के तहत अनुमति मिले बिना ही होटल निर्माण का मामला सामने आया तो डीसी सोलन ने इसका संज्ञान लेकर कारवाई शुरू कर दी। इस पर कोरिन ने 1993 में सब जज सोलन की अदालत में याचिका दायर कर दी। लेकिन इसमें सरकार को पार्टी नही बनाया। अदालत ने कोरिन के हक में फैसला दे दिया। जब सरकार को इसकी जानकारी मिली तो सरकार ने सीनियर सब जज के पास अपील दायर कर दी। इस पर सरकार के हक में फैसला हो गया। इसके बाद कोरिन ने जिला जज से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक दरवाजे खटखटाये लेकिन कहीं सफलता नही मिली।
इसी बीच 2004 में कोरिन ने फिर सरकार से इस खरीद की अनुमति दिये जाने का अनुरोध किया जबकि उस समय प्रदेश उच्च न्यायालय में यह मामला लंबित था और मई 2005 में इनके खिलाफ फैसला आ गया। इस तरह 2004 के अनुरोध पर भी सरकार ने कोई अनुमति नही दी और कोरिन पुनः उच्च न्यायालय चले गये और अदालत ने मई 2007 में सरकार को निर्देश दिये कि वह अपने फैसले से कोरिन को अवगत कराये। सरकार ने इस फैसले की अनुपालना करने की बजाये (क्योंकि डीसी सोलन इस ज़मीन को सरकार में वेस्ट कर चुके थे) एक और अनुरोध पर कारवाई करते हुए मन्त्रीमण्डल ने 10.8.2007 को कोरिन को पिछली तारीख से ही दो लाख के जुर्माने के साथ अनुमति दे दी। जब सरकार के इस फैसले पर डीसी सोलन को अनुपालना के लिये कहा गया तो उन्होने सरकार को जबाव दिया कि यह कानून सम्मत नही हैं 2008 में विधि विभाग ने भी यहां तक कह दिया कि मन्त्रीमण्डल का 2007 का फैसला असंवैधानिक है इस पर मन्त्रीमण्डल ने 2.12.2011 को इस पर पुनःविचार किया और 2007 के फैसले को रद्द कर दिया।
इसके बाद 2013 में पुनः एक नया प्रतिवेदन कोरिन से लिया गया और राजस्व विभाग ने नये सिरे से केस तैयार किया तथा मन्त्रीमण्डल ने 4.9.2013 को इस पर अपनी मोहर लगा दी। इस फैसले की भी जब डीसी सेालन को जानकारी दी गयी तो वह पुनः सरकार के संज्ञान में लाये कि इस ज़मीन को धारा 118 के प्रावधानों के तहत बहुत पहले ही सरकार में लेकर इसका राजस्व ईन्दराज हो चुका है। डीसी की जानकरी के बाद प्रधान सचिव राजस्व ने अपने ही स्तर पर राजस्व ईन्दराज को रिव्यू करने के आदेश कर दिये जबकि वह इसके लिये अधिकृत ही नही था। इस तरह इस पूरे मामले से यह स्पष्ट हो जाता है कि सारे नियमो/ कानूनों को नज़रअन्दाज करके कोरिन को लाभ पहुंचाया गया है। जबकि वह सर्वोच्च न्यायालय तक से राहत पाने में असफल रहा है।
इसी तरह शिमला के कुसुम्पटी स्थित तेनजिन अस्पताल का मामला है इसमें तेनजिन कंपनी ने 7.6.2002 को 471.55 वर्ग मीटर ज़मीन में कंपनी का  दफ्तर और एक आवासीय काॅलोनी बनाने के लिये खरीद की अनुमति मांगी। लेकिन कंपनी ने  दफ्तर और कालोनी बनाने की बजाये अनुमति के बिना ही अस्पताल का निर्माण कर लिया। इसका संज्ञान लेते हुए डीसी शिमला ने धारा 118 के प्रावधानों के तहत कारवाई करते हुए इस ज़मीन को 16.1.2012 को सरकार में वैस्ट कर दिया। इस पर कंपनी ने भूउपयोग बदलने की अनुमति दिये जाने का अनुरोध कर दिया। इस अनुरोध पर निदेशक हैल्थ सेफ्टी एवम् नियमन ने अनिवार्यता प्रमाण पत्र जारी कर दिया लेकिन राजस्व विभाग ने इस पर प्रधान सचिव राजस्व ने अपने ही विभाग की टिप्पणी को नज़रअन्दाज करके मामला मन्त्रीमण्डल की बैठक में विचार के लिये लगा दिया। मन्त्रीमण्डल ने प्रधान सचिव के प्रस्ताव पर अपनी मोहर लगाकर पिछली तारीख से अनुमति प्रदान कर दी। यह भूउपयोग बदलने की अनुमति दिया जाना एकदम धारा 118 को एक तरह से अप्रभावी बनाने का प्रयास है।
ऐसे ही चम्बा के डलहौजी में मन्त्रीमण्डल ने स्टांप डयूटी में 3% की छूट देकर कुछ लोगों की लीज़ को नियमित करने का फैसला 17.7.2017 को कर दिया है। इसके वित्तिय और कानूनी पक्षों पर वित्त विभाग और विधि विभाग की राय लिये बिना ही यह फैसला ले लिया गया है। इसमें रूल्ज़ आॅफ विजनैस के प्रावधानों की अनदेख करके कुछ लोगों को लाभ पहुंचाया गया है। इस तरह पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव में इन मामलों की शिकायत करके पूूरे प्रशासन और सरकार को एक ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई की उसकी नीयत और नीति दोनों की परीक्षा होगी।
                                               यह है दीपक सानन का पत्र









































 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

कांग्रेस और भाजपा दोनों ही सरकारों ने दिया है अवैध कब्जाधारको को संरक्षण

                          13 लोगों का है 2542.37 बीघे पर अवैध कब्जा 

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश में हजारों की संख्या में वनभूमि पर अवैध कब्जों के मामले सरकार से लेकर अदालत के संज्ञान में आ चुके हैं। स्मरणीय है कि जब 2002 में सरकार ने अवैध कब्जों को नियमित करने की योजना बनाई थी और लोगों से कहा था कि वह अपने-अपने अवैध कब्जों की जानकारी शपथ पत्र के माध्यम से सरकार को दे दें। उस समय एक लाख से अधिक शपथ पत्र सरकार के पास आ गये थे। जब लाखों में सरकार के पास ऐसे शपथ पत्र आ गये तब इस योजना को ही प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी थी और उच्च न्यायालय ने इसका अनुमोदन नही किया। तब से सरकार के संज्ञान में यह अवैध आ चुके हैं। अदालत ने इनका कड़ा संज्ञान लेते हुए इन कब्जों को हटाने और कब्जाधारक के खिलाफ मनीलाॅंड्रिंग अधिनियम के तहत कारवाई किये जाने के निर्देश दिये थे। संवद्ध प्रशासन को यह निर्देश दिये थे कि वह ऐसे मामलों की जानकारी ईडी को दें। लेकिन उच्च न्यायालय के इन निर्देशों की अनुपालना आज तक नही हो पायी है। लेकिन सरकार में मन्त्री से लेकर मुख्यमन्त्री तक हर बड़ा इस पर आंखे मुंदे बैठा रहा। जब अदालत ने अपने आदेशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये कड़ा रूख अपनाया तब इस आन्दोलन तक छेड़ने के प्रयास हुए और सरकार ने भी अप्रत्यक्षतः आनदोलनकारियों को प्रोत्साहित ही किया।
आज जब अवैध निर्माणों पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ा रूख अपनाया और कसौली में इन आदेशों की अनुपालना में एक महिला अधिकारी की हत्या तक कर दी गयी लेकिन इस सब के बावजूद अब भी सरकारी तन्त्र अवैध कब्जों को लेकर कितना गंभीर है इसका अन्दाजा अदालत की टिप्पणीयों से लग जाता है

This court from time to time has been adversely commenting on the functioning of the officials of the respondents an even now when the respondents have chosen not to evict even one of the encroachers as aforesaid, this only reflects a half-hearted attempt, lack of courage of conviction, requisite departmental desire or determination or will of theses officials to implement the order(s) of this Court.
It is well known that in order to achieve any extraordinary result , one is required to have a strong will, firm determination, and burnings desire. All the three s master components are wholly absent, rather conspicuously lacking in these officials.

यही नही वन विभाग अवैध कब्जों को हटवाने की बजाये राजस्व विभाग से Demarcation लेने की नीति पर चल पड़ा। जबकि सरकार के महाधिवक्ता ने उच्च न्यायालय को यह भरोसा दिलाया था और आग्रह किया था कि इसमें एसआईटी गठित करने के आदेश पारित न करें क्योंकि प्रशासन दो सप्ताह मे स्वयं यह कार्य पूरा कर लेगा। अदालत ने इस पर एसआईटी गठित नही की थी लेकिन दो सप्ताह के बाद जब दोबारा मामला सुनवाई के लिये लिया तब तक एक भी मामले में विभाग ने कोई कारवाई नही की थी। बल्कि यह सामने आया कि जिलाधीश शिमला इसमें तीन माह का और समय मांग रहे थे और वित्तायुक्त अपील ने 1987 का एक मामला जिलाधीश शिमला को भेजा। जिसे दस दिन में निपटाने के आदेश के उच्च न्यायालय को देने पड़े। क्योंकि अदालत के सामने यह भी आया कि शायद इस मामले की फाईल ही गायब हैं वन विभाग के डिमारकेशन लेने के प्रयास पर उच्च न्यायालय ने कड़ी निन्दा करते हुए यह कहा We further notice that the Forest Department has filed applications for demarcation before the appropriate authorities,  including the Deputy Commissioner, Shimla. We fail to understand that as to why such process stands adopted by the Forest Department, for if the encroachment is on the forest land, then where is the question of the same being got demarcated prior to the ejectment of  encroachers.  if at all, any one has to move for demarcation. It has to be the encroacher claiming title over the land in question and not the Forest Department.
सरकारी तन्त्र की इस स्थिति को देखने के बाद अन्ततः उच्च न्यायालय को इसमें एसआईटी का गठन करना पड़ा है और सौ बीघे से अधिक के कब्जों के मामले इस एसआईटी को सौंपे गये हैं। इन मामलों को देखने से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि इतने बड़े स्तर पर इन्हे कैसे अन्जाम दिया गया। क्योंकि सौ बीघे से अधिक जो 13 मामले एसआईटी को सौंपे गये हैं उनमें दो मामले एक ही गांव के ऐसे हैं जिनमें 345.54 और 318.96 बीघे पर अवैध कब्जे किये गये। तीन मामलों में 292.38, 279.09 और 239.22 बीघे पर अतिक्रमण हुआ है। शेष आठ मामलों में 199.35 से लेकर 110.3 बीघे तक अतिक्रमण है। जहां लैण्ड सीलिंग की सीमा से भी अधिक का अतिक्रमण तन्त्र की मिली भगत के बिना नही हो सकता। लेकिन साथ ही यह सवाल उठता है कि राजनीतिक नेतृत्व क्या कर रहा था? यह अतिक्रमण पिछले बीस वर्षों से अधिक समय का है। जिसका सीधा सा अर्थ है कि यह सबकुछ राजनीतिक नेतृत्व के आशीर्वाद के बिना नही घट सकता। जबकि वीरभद्र तो सत्ता में आये ही फारैस्ट माफिया के खिलाफ लड़ाई लड़ने के वायदे के साथ थे। लेकिन आज वनभूमि पर सबसे अधिक अवैध कब्जे प्रदेश में रोहडू में ही सामने आये हैं। परन्तु इन बीस वर्षों में वीरभद्र के साथ ही भाजपा भी बराबर में सत्ता में भागीदार रही है और उसने भी इन अवैध कब्जाधारकों को संरक्षण देने में कोई कमी नही रखी है इस परिदृष्य में आज यह आवश्यक हो जाता है कि जिन अधिकारियों के कार्यकाल में यह अवैध कब्जे हुए हैं और फिर जो इन्हे लगातार संरक्षण देते आये हैं उन्हे चिन्हित करके जब तक उन्हे सज़ा नही दी जाती है तब तक सब रूकने वाला नही है। इन अवैध कब्जाधारकों के खिलाफ भी प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फैसले की अनुपालना सुनिश्चित की जानी चाहिये जिसमें इनके खिलाफ मनीलाॅंडिंग के तहत कारवाई किये जाने के आदेश किये गये थे। यह है तेरह मामले जो एसआईटी को सौंपे गये हैं।
                                                 ये है अवैध कब्जे

शिक्षा विभाग में भ्रष्टाचार का ईनाम पदोन्नति

शिमला/शैल। शिमला के राजकीय महाविद्यालय संजौली में 2016 में यह मामला ध्यान में आया था कि इस काॅलिज में करोड़ों रूपये का गवन हुआ है। यह आरोप लगा था कि इस काॅलिज में छः सात वर्षों से कोई कैश बुक ही नही लिखी गयी है जबकि खर्च नियमित रूप से हो रहा था। जब कोई  कैश बुक ही नही लिखी जा रही थी तब यह कहना कठिन था कि कितना खर्च जायज़ हो रहा है और कितना नाजायज़। किस मद में धन का कितना  प्रावधान है और कितना नही। कुल मिलाकर काॅलिज में पूरी तरह वित्तिय अराजकता वातावरण चल रहा था। जब यह स्थिति  सार्वजनिक रूप से सामने आयी तब काॅलिज के तत्कालीन प्रिंसिपल ने 28.3.2016 को एक पत्र लिखकर शिक्षा निदेशालय को इस वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। शिक्षा निदेशालय ने प्रिंसिपल का पत्र मिलने के बाद इस मामले की जांच विभाग में कार्यरत संयुक्त नियन्त्रक वित्त एवम् लेखा को सौंपी। 

 संयुक्त नियन्त्रक ने 6.4.2016 को काॅलिज का दौरा किया और 7.4.2016 को कैशियर को निलम्बित कर दिया। नियन्त्रक की जांच में 1.4.2016 से 31.3.2016 तक 6 वर्षो में 79,06,359 रूपये का गबन पाया गया। 29.6.2016 को इसकी रिपोर्ट सरकार को सौंपी गयी। 3 अगस्त 2016 को विजिलैन्स में इसकी एफआईआर दर्ज करके दोषीयों के खिलाफ कारवाई करने केे निर्देश दिये गये और 20.8.2016 को इसमें आईपीसी  की  धारा 420, 467, 468, 417, 120-B तथा भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम की धारा  13 (1) (C)  r/w 13 (2) दर्ज की गयी। कैशियर के खिलाफ 1.9.2016 को चार्जशीट भी सौंप दी गयी। काॅलिज में इस दौरान जो बरसर तैनात थे उनके खिलाफ भी पत्र संख्या EDN.A-Kha(6)-1 /06-Loose -11 दिनांक 15.3.2017 के तहत कारवाई किये जाने के निर्देश दिय गये। 

 जिन वर्षों में काॅलिज में यह 80 लाख रूपये  का गवन सामने आया है उस दौरान तीन प्रिंसिपल यहां तैनात रहे हैं। उनमें से एक के कार्यकाल में 50 लाख दूसरे के 24 लाख और तीसरे के 6 लाख का गवन नियन्त्रक की रिपोर्ट और विजिलैन्स की जांच में सामने आया है। एक प्रिंसिपल के खिलाफ तो चार्जशीट भी जारी की गयी थी जो कि बाद में वापिस ले ली गयी। लेकिन अन्य दो के खिलाफ कोई चार्जशीट तक नही दी गयी। बल्कि जिसके कार्यकाल में 24 लाख का घपला रिकार्ड पर आया है उसे इस सरकार में पदोन्नत करके विभाग का निदेशक बना दिया गया है। 

 इसमें सबसे रोचक तो यह है कि जब मामला उजागर हुआ था तब शिमला के विधायक सुरेश भारद्वाज थे। भारद्वाज ने इस संबंध में 27.3.2017 को विधानसभा में सरकार से प्रश्न पूछा था सरकार को बुरी तरह कठघरे में खड़ा कर दिया था। आज भारद्वाज फिर शिमला के विधायक हैं और साथ ही प्रदेश के शिक्षा मन्त्री भी हैं। उन्ही के विभाग में वह प्रिंसिपल आज निदेशक है जिसके खिलाफ उन्होने ही विधानसभा में यह सवाल उठाया था। काॅलिज की कार्यप्रणाली की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि काॅलिज में प्रशासनिक सर्वेसर्वा प्रिंसिपल ही होता है और जो प्रिंसिपल  काॅलिज  में 24 लाख के घपले को न पकड़ पाया हो वह इतने बड़े विभाग को कैसे संभालेगा। फिर इस मामले में विजिलैन्स ने किसी भी प्रिंसिपल को अभी तक कोई क्लीनचिट नही दी है। ऐसे में इस प्रिंसिपल को विभाग का निदेशक लगाने में क्या शिक्षा मन्त्री की भी सुनी गयी है? यह सवाल चर्चा में चल पड़ा है। क्योंकि इससे पहले कांग्रेस शासन में जो स्कूल वर्दी कांड हुआ था उसे उठाने वालों में सुरेश भारद्वाज प्रमुख थे। इस वर्दी खरीद मामले के सदन में उठने के बाद सरकार ने उस सप्लायर की  करीब 16 करोड़ धरोधर राशी जब्त करने के आदेश कर दिये थे। इन आदेशों पर यह सप्लायर आरबिट्रेशन में चला गया था और उसके पक्ष में फैसला हो गया था। उसे 16% ब्याज सहित भुगतान करने के आदेश हो गये थे। लेकिन इस मामलें में नागरिक आपूर्ति निगम की ओर से कोताही हुई थी। सरकार ने इस कोताही की जांच किये जाने के आदेश किये थे। सुरेश भारद्वाज ने भी बतौर शिक्षा मन्त्री इस जांच की फाईल पर अनुशंसा की थी। क्योंकि इसमें किसी की जिम्मेदारी तय किया जाना आवश्यक था। लेकिन शिक्षा मन्त्री के निर्देशों को भी नज़रअन्दाज करके यह जांच नही की गयी और इस सप्लायर को करीब 16 करोड़ की अदायगी कर दी गयी है।

शिक्षा विभाग की इन कारगुजारीयों को देखने के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या सब कुछ शिक्षा मन्त्री को नज़रअन्दाज करके हो रहा है या वह इन मामलों पर खामोश रहने को विवश हो गये हैं। क्योंकि विभागाध्यक्ष  की नियुक्ति मुख्यमन्त्री की संस्तुति के बिना  नही होती है। 

सचेतकों को मन्त्री का दर्जा देने वाला विधेयक अभी तक नहीं पहुंचा राजभवन

शिमला/शैल। जयराम सरकार ने अपने पहले ही बजट सत्र में पार्टी के मुख्य सचेतक और उप सचेतक को कैबिनेट मन्त्री और राज्य मन्त्री का दर्जा तथा वेतन - भत्ते व अन्य सुविधायें देने का विधेयक सदन मेें लाकर उसे पारित करवा लिया था। इस विधेयक को लेकर कांग्रेस ने सदन में अपना कड़ा एतराज जताया था। कांग्रेस के साथ सीपीएम ने भी एतराज जताया था। केन्द्र मेें सचेतकों को कुछ सुविधायें अवश्य दी गयी हैं लेकिन मन्त्री का दर्जा नही दिया गया है। ऐसा विधेयक प्रदेश में पहली बार लाया गया है। माना जा रहा था कि विधायक रमेश धवाला और नरेन्द्र बरागटा को यह पद दिये जा रहे हैं। क्योंकि यह दोनों धूमल शासन में मन्त्री रह चुके हैं लेकिन किन्ही कारणों से इस बार इन्हे मन्त्री नही बनाया जा सका और इस तरह राजनीतिक समीकरणों में जो असन्तुलन आ गया था उसे सुलझाने के लिये यह राजनीतिक कदम उठाया गया था।
लेकिन जिस राजनीतिक शीघ्रता के साथ यह विधेयक लाया गया था उसको सामने रखते हुए इस विधेयक को अब तक महामहिम राज्यपाल की स्वीकृति मिलने के बाद कानून की शक्ल ले लेनी चाहिये थी। बजट सत्र पांच अप्रैल को समाप्त हुआ था और उसके बाद सचिव लाॅ के सर्टीफिकेट के साथ राज्यपाल को अनुमोदन को चला जाना चाहिये था। लेकिन अभी तक ऐसा नही हो पाया हैं यह विधेयक अभी तक राजभवन पहुंचा ही नही है। इसी कारण से अभी तक कोई भी विधायक अब तक सचेतक या उप-सचेतक नही बन पाया है।
इसी तरह सरकार इस बजट सत्र में टीसीपी एक्ट में भी एक संशोधन लेकर आयी थी। यह संशोधन भी सदन से पारित हो गया था। माना जा रहा था कि इस संशोधन को राजभवन की स्वीकृति मिलने के बाद कई अवैध निर्माणकारों को राहत मिल जायेगी। लेकिन यह संशोधित विधेयक भी अभी तक राजभवन नही पहुंच पाया है। सचिव लाॅ की ओर से इस विधेयक को भी अभी तक राज्यपाल की स्वीकृति के लिये नहीं भेजा जा सका है वैसे अभी तक बजट सत्र में जो भी विधेयक सदन से पारित हुए थे उनमें से किसी को भी सरकार की ओर से राजभवन को नही भेजा गया है। एक माह से अधिक का समय हो गया है बजट सत्र को हुए। विधेयकों को राज्यपाल की स्वीकृति के लिये भेजने में सामान्यतः एक सप्ताह का समय लगता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि इन विधेयकों को राजभवन भेजने की तत्परता क्यों नही दिखायी जा रही है। क्या सरकार इन मुद्दों पर अब गंभीर नही रह गयी है या सरकार को यह लग रहा है कि जैसे ही इन विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति मिल जाती है तब कोई भी इन्हे उच्च न्यायालय में चुनौती दे देगा। क्योंकि जब वीरभद्र शासनकाल में भी टीसीपी एक्ट में 2016 में संशोधन किया गया था तब उस संशोधन को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। ऐसे ही सचेतकों के मामले को लेकर हो रहा है। क्योंकि जब किसी विधायक को सचेतक बनाकर मन्त्री के बराबर वेतन भत्ते और अन्य सुविधायें प्रदान कर दी जायेंगी तब वह निश्चित रूप से लाभ के पद के दायरे में आ जायेगा। क्योंकि सचेतक को मन्त्री का दर्जा दिये जाने के बाद भी उन्हे मन्त्री की तरह पद और गोपनीयता की शपथ नही दिलाई जा सकती है। इस परिदृश्य में इन पक्षों को गंभीरता से देखने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि यदि इन विधेयकों को राज्यपाल की अनुमति मिल भी जाती है तो भी इनसे उस राजनीतिक उद्येश्य की पूर्ति नही हो पायेगी जिसके लिये यह विधेयक लाये गये हैं। अब इस पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं कि क्या यह विधेयक राजभवन की स्वीकृति के लिये भेजे जाते हैं या इन्हे वैसे ही ठण्डे बस्ते मे रहने दिया जाता है।

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