Friday, 19 September 2025
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क्या कांग्रेस भी राजधर्म भूल रही है

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश में भी प्रतिदिन कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं। हिमाचल सरकार ने इस बढ़ौत्तरी के कारण बाहर से प्रदेश में आने वालों पर रोक लगा दी थी। लेकिन केन्द्र सरकार ने राज्य सरकार के फैसले को खारिज करते हुए प्रदेश की सीमाएं बाहरी राज्यों के लिये खोल दी है। यह फैसला कोरोना की हकीकत को समझने में कारगर भूमिका निभायेगा यह तय है। सत्तारूढ़ भाजपा का संगठन और सरकार दोनों ही इस पर सवाल उठाने का जोखिम नही ले सकते हैं। फ्रन्टलाईन मीडिया में सवाल पूछने का दम नही है भले ही कोरोना से प्रदेशभर में उसका भारी नुकसान हुआ हो क्योंकि अधिकांश के शिमला से बाहर स्थित कार्यालय बन्द हो गये हैं। सरकार की वित्तिय स्थिति कहां खड़ी है और उसका प्रदेश की सेहत पर कितना असर पड़ेगा इसका अन्दाजा वित्त विभाग द्वारा जारी हुए पत्रा से लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार के सारे दावों की पोल सीबीआई 28-8-2019 को निदेशक उच्च शिक्षा के नाम लिखा पत्र खोल देता है। इस पत्र के बाद स्वास्थ्य विभाग में हुए घपले पर प्रदेश के ही विजिलैन्स द्वारा की गयी कारवाई इस दिशा में एक और प्रमाण बन जाती है।
लोकतन्त्र में सरकार से सवाल पूछना एक स्वस्थ पंरम्परा मानी जाती है क्योंकि यह हर नागरिक का अधिकार है। लेकिन वर्तमान में इस अधिकार के प्रयोग का क्या अर्थ है इसका अन्दाजा शिमला में पूर्व सीपीएस नीरज भारती और कुमारसेन में दिल्ली के पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ दर्ज हुए देशद्रोह के मामले से लगाया जा सकता है। इन दोनांे मामलों में जमानतें मिल चुकी हैं। अब इनमें यह देखना दिलचस्प होगा कि कैसे इनमें लगाये गये देशद्रोह के आरोपों को पुलिस अपनी जांच में पुख्ता कर पाती है। यह सारे मामले सीधे व्यापक जनहित से जुड़े हुए है क्योंकि इनका असर परोक्ष/ अपरोक्ष में हर आदमी पर पड़ रहा है। भाजपा सत्ता पक्ष होने के नाते यह सवाल उठाने का नैतिक बल खो चुका है।
ऐसे में आम आदमी से जुड़े इन मुद्दों को उठाने और इन पर जवाब देने के लिये सरकार को बाध्य करने की जिम्मेदारी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस पर आती है। फिर आज की तारीख में किसी भी सरकार के खिलाफ इससे बड़े जन मुद्दे क्या हो सकते हैं। लेकिन प्रदेश कांग्रेस इस समय इन मुद्दों को भूलाकर जिस तरह से आपस में ही एक दूसरे के खिलाफ स्कोर सैटल करने में  उलझ रहे हैं उससे लगता है कि वह भी अपना राजधर्म भूल गयी है। राजधर्म सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की एक बराबर जिम्मेदारी होती है। जनता दोनों पर बराबर नज़रे बनाये हुए हैं। वह देख रही है कि कौन जनता की कीमत पर राजधर्म की जगह मित्र धर्म निभा रहा है। मीडिया और शीर्ष न्यायपालिका दोनों की ओर से जन विश्वास को गहरा आघात पहुंचा है। यदि विपक्ष भी उसी पंक्ति में जा खड़ा होता है तो यह अराजकता को खुला न्योता होगा यह तय है।

 

सरकार से सवाल पूछा तो बनेगा देशद्रोह का मुकद्दमा नीरज भारती की गिरफ्तारी से उठी चर्चा

शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस के नेता पूर्व विधायक और मुख्य सचिव नीरज भारती को सीआईडी ने देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया है। भारती के खिलाफ शिमला के एक अधिवक्ता नरेन्द्र गुलेरिया ने शिकायत दी थी। गुलेरिया ने 20 जून को शिकायत देकर यह आरोप लगाया था कि पिछले 24 घन्टों में भारती ने सोशल मीडिया पर जो पोस्ट डाले थे उनसे देशद्रोह परिलक्षित होता है। इस पर भारती के खिलाफ अपराध दण्डसंहिता की धाराओं 124A ,153A, 504 और 505 के तहत एफआईआर दर्ज की गयी। एफआईआर दर्ज होने के बाद उन्हे 24 जून को जांच में शामिल होने का नोटिस दिया गया। जब नोटिस की अनुपालना करते हुए वह जांच में शामिल हुए तो उसके दूसरे दिन गिरफ्तार  करके सोमवार तक पुलिस रिमांड हासिल कर लिया गया है। 

       लोकतन्त्र में

भारती की गिरफ्तारी  से राजनीतिक क्षेत्रों में एक बहस खड़ी हो गयी है। कांग्रेस इस गिरफ्तारी  को राजनीतिक प्रतिशोध करार दे रही है तो भाजपा इसे जायज़ ठहरा रही है। कांग्रेस ने राज्यपाल को भी इस आश्य का एक ज्ञापन सौंपकर भारती की रिहाई की मांग की है। भारती ओबीसी वर्ग से आते हैं और प्रदेश के सबसे बड़े ज़िले कांगड़ा से ताल्लुक रखते हैं। कांगड़ा का हर छोटा बड़ा कांग्रेस नेता भारती के साथ खड़ा हो गया है। इससे यह स्पष्ट हो गया है कि कांग्रेस को भारती की गिरफ्तारी से एक बड़ा मुद्दा हाथ लग गया है और आने वाले दिनों में सरकार के लिये यह एक बड़ी परेशानी का कारण बनेगा। क्योंकि भाजपा में जिस तरह से पिछले दिनों ओबीसी से ताल्लुक रखने वाले ज्वालामुखी के विधायक रमेश धवाला को विधायक दल की बैठक में घटे घटनाक्रम के लिये खेद प्रकट करने के कगार तक धकेल दिया गया था उस पर ओबीसी वर्ग ने जिस तर्ज पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है उससे कांगड़ा का संभावित ध्रुवीकरण स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। लेकिन इस गिरफ्तारी  का प्रभाव कांगड़ा से बाहर पूरे प्रदेश पर भी होगा और राष्ट्रीय स्तर पर भी। यह ऐ बड़ा सवाल रहेगा। क्योंकि आने वाले समय में बहुत सारे मुद्दों पर बहुत लोगों के मतभेद सत्ता से सामने आयेंगे यह पूछा जायेगा कि क्या सत्ता से मतभेद राष्ट्रद्रोह होता है।
इस परिदृश्य में अपराध दण्डसंहिता की धारा 124Aको समझना आवश्यक हो जाता है क्योंकि इसमें सुनवाई का अधिकार क्षेत्र केवल सत्र न्यायालय से शुरू होता है और आसानी से ज़मानत मिलना भी कठिन हो जाता है। धारा 124A में कहा गया है कि Whoever by worlds, either spoken or written on by sings, or by visible represention, or otherwise brigns or attempts to bring into hatred or contempt , or excites or attemps to excite disaffection towards, the Government established by law in india, shall be punished with imprisonment which may extend to three years, to which fine may be added , or with fine.

Explanation-1 The Expression " disaffection" includes disloyalty and all fellings of enmity,
Explanation-2 Comments expressing disapprobation of the measures of the Government with a view to obtain their alteration by lawful means, without exciting or attempting to excite hatred , contempt or disaffection, do not constitute an offence under this section.
Explanation-3 Comments expressing disapprobation of the administrative or other action of the Government without exciting or attempting to excite hatred, contempt or disaffection, do not constitute an offence under this section. समें चयनित सरकार के प्रति किसी भी माध्यम से असन्तुष्टि व्यक्त करना राजद्रोह श्रेणी में आता है। इसके मुताबिक चयनित सरकार के किसी भी फैसले और कृत्य पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है। इसमें मत भिन्नता के लिये कोई स्थान नही है और इस परिपेक्ष में संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के साथ इसका सीधा टकराव हो जाता है। लेकिन लोकतन्त्र में मतभिन्नता और सवाल पूछना तो आवश्यक है। इसीलिये सर्वोच्च न्यायालय ने मतभिन्नता को आवश्यक करार दिया है। आज जिस तरह का राजनीतिक और सामाजिक वातावरण बनता जा रहा है उसमें इस तरह की  गिरफ्तारीयों से बुनियादी सवालों पर जन बहस का वातावरण अपने आप खड़ा हो जायेगा यह तय है। लेकिन इसी के साथ यह भी स्पष्ट है कि मतभिन्नता के नाम पर अभद्र भाषा का प्रयोग भी नही किया जा सकता। परन्तु अभद्र भाषा के खिलाफ मानहानि का मामला दायर करने का भी पूरा अधिकार और प्रावधान है। ऐसें में मानहानि की बजाये देशद्रोह के तहत कारवाई करना निश्चित रूप से सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर प्रश्न खड़े करता है।

यहां पर भारत की उन पोस्टों पर नज़र डालना भी आवश्यक हो जाता है जिन्हे राष्ट्रद्रोह की संज्ञा दी गयी है। भारती की भाषा से अधिकांश को आपत्ति हो सकती है और होनी भी चाहिये। लेकिन जो सवाल भारती ने उठाये हैं क्या उनकी राष्ट्रद्रोह के नाम पर जांच नही होनी चाहिये। पूरा देश जानता है कि जम्मू -कश्मीर के पुलिस इन्सपैक्टर देवेन्द्र सिंह को कितने गंभीर आरोपों में  गिरफ्तार किया गया था। उसके खिलाफ जम्मू-कश्मीर पुलिस और एनआईए दोनो ही जांच कर रहे थे। लेकिन उसे अब ज़मानत मिल गयी है क्या इसके लिये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये। इस समय भारत चीन सीमा विवाद चल रहा है। देश के बीस सैनिक मारे गये हैं। संसद में इसी वर्ष मार्च में डा. अमर सिंह ने सवाल पूछा था कि भारत की कितनी ज़मीन पर चीन का कब्जा है। सरकार ने इस सवाल के जवाब में बताया है कि 38 हज़ार किलो मीटर पर चीन का कब्ज़ा है लेकिन अब जून में सरकार ने कहा है कि 43 हज़ार कि. मी. चीन के पास है। जब मार्च में यह आंकड़ा 38 हज़ार था और अब जून में 43 हज़ार हो गया है तब क्या यह नहीं पूछा जाना चाहिये कि तीन माह मे ही यह 5 हजार वर्ग कि. मी. का अन्तर क्यों और कैसे? इस मुद्दे पर रक्षा मन्त्री, विदेशमन्त्री और प्रधानमन्त्री तीनों के ही ब्यानों में भिन्नता है। क्या इस भिन्नता पर सवाल नही बनता है। भारती ने अपनी पोस्टों में जो कुछ कहा है क्या उसे बिना किसी जांच के ही अपराध मान लिया जायेगा। क्या अदालत इन पोस्टों में उठाये गये सवालों पर जांच के आदेश नही देगी।

यह हैं विवादित पोस्ट


क्या मरीजों को घटिया दवाईयां दी जा रही है कैग रिपोर्ट से उठा सवाल

कोरोना काल में भी डाक्टरों के 370 पद खाली

दो वर्षो में 128 करोड़ की दवा खरीद भी सवालों में

शिमला/शैल। जयराम सरकार का स्वास्थ्य विभाग उस समय से विवादों और चर्चाओं का केन्द्र चला आ रहा है जब से विभाग की कारगुज़ारीयों को लेकर शान्ता कुमार के नाम लिखा गया एक गुमनाम पत्र सोशल मीडिया में वायरल होकर सामने आया था। इस गुमनाम पत्र से चलकर हालात विभाग के निदेशक की गिरफतारी तक पहुंच गये। क्योंकि इस बार एक आडियो वायरल हुआ सरकार को इसका संज्ञान लेकर विजिलैन्स में केस दर्ज करवाना पड़ा। केस दर्ज होने के बाद निदेशक की गिरफतारी  हुई। निदेशक की ज़मानत के बाद आडियो संवाद के दूसरे पात्र पृथ्वी सिंह की गिरफतारी हुई। पृथ्वी सिंह की जमानत की सुनवाई के दौरान ही निदेशक की पत्नी ने अग्रिम जमानत की याचिका डाल दी। उसका आरोप था कि विभाग उसे भी गिरफतार कर सकता है। इस याचिका पर अदालत ने विजिलैन्स को निर्देश दिये हैं कि ऐसी किसी भी संभावना में इस महिला को पूर्व नोटिस दिया जाना होगा। पृथ्वी सिंह को राजीव बिन्दल का निकटस्थ प्रचारित किया गया और इस प्रचार के कारण बिन्दल को पार्टी अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा। लेकिन यह सब होने के बाद यह मामला चर्चा से बाहर हो गया है। ऐसे माना जा रहा है कि इसी कारवाई से शायद विभाग पाक साफ हो गया है।
लेकिन विभाग के अन्दर की जानकारी रखने वालों के मुताबिक इस कोरोना काल में भी विभिन्न स्तरों पर डाक्टरों के 370 पद खाली हैं। इन खाली पदों से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि इस कोरोना संकट में सरकार को लोगों के स्वास्थ्य की कितनी चिन्ता है जबकि इस समय कोरोना ही राष्ट्रीय स्तर पर प्राथमिकता है। कोरोना के मरीज का ईलाज करने के लिये सात डाक्टरों की एक टीम गठित करने का मानक तय है। लेकिन राजधानी में ही कोविड अस्पताल नामज़द किये गये। दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल में इसके लिये केवल चार डाक्टरों की ही टीम नामजद है। ऐसा इसलिये है कि सरकार डाक्टरों की भर्ती ही नहीं कर पा रही है। यही नहीं स्वास्थ्य के क्षेत्र में गुणवत्ता के साथ भी किस कदर समझौता किया जा रहा है इसका खुलासा 31 मार्च 2018 को आयी कैग रिपोर्ट से हो जाता है। इसमें कहा गया है कि  The system of quality control was practically non-existent as drug samples were not being taken at the time of supply, and drugs were being issued without  testing or waiting for test reports, resulting  in  distribution of substandard drugs.आम आदमी के स्वास्थ्य के साथ इससे बड़ा खिलवाड़ और कुछ नही हो सकता है। कैग की यह रिपोर्ट विधानसभा पटल पर भी रखी जा चुकी है लेकिन सरकार की ओर से इस पर आज तक कोई कारवाई नहीं की गयी है।
विभाग में भ्रष्टाचार किस कदर व्याप्त है इसका भी कैग ने कड़ा संज्ञान लिया है। कैग की रिपोर्ट में 2015 से लेकर 2018 तक विभाग की कारगुज़ारी की समीक्षा की गयी है। विभाग में दवाईयों और अन्य सामग्री तथा उपकरणों की खरीद नीति पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि

Assessment of demand for procurement of drugs & consumables and their distribution was neither scientific nor systematic, leading to instances of non-procurement, delay in procurement and non-availability of drugs; and non-issuing, short- issuing, excess issuing of drugs to health institutions. Drugs were purchased irregularly and without requirement resulting in their expiry. Ineffective quality control resulted in distribution of substandard drugs to patients. Procurement of machinery & equipment was not systematic in the absence of any inventory management system leading to cases of non-procurement and procurement without requirement, which resulted in items remaining unutilised/ idle and non-functional. Items were also found to be lying unutilised owing to non-posting of technical staff.

सरकार ने 1999 में ही जैनरिक औषधीयां खरीदने का फैसला ले लिया था और निदेशक स्वास्थ्य ने अक्तूबर 2016 में इस संबंध में फिर से निर्देश भी जारी किये थे। लेकिन इन निर्देशों को नज़रअन्दाज करते हुए सीएमओ मण्डी ने 2016 से 2018 के बीच 1.75 करोड़ की गैर जैनरिक दवाईयां लोकल सप्लायरों से खरीद लीं। जिनमें से 30.14 लाख की दवाईयां मार्च 2018 तक उपयोग में ही नही लायी गयी और 1.33 लाख की दवाई तो एक्सपायर भी कर गयी। रोगी कल्याण समितियों के माध्यम से वर्ष में अधिक से अधिक पचास हज़ार की ही खरीद की जा सकती है लेकिन चम्बा, कुल्लु और धर्मशाला में 2015 से 2018 बीच 5.27 करोड़ की नाॅन जैनरिक दवाई खरीद ली गयी। क्योंकि इसमें 10% से लेकर 83% तक कमीशन का मामला था। विभाग मे दवा खरीद को लेकर सरकार ने कई बार खरीद नीति में बदलाव किया है। इस बदलाव के कारण विभाग में भ्रष्टाचार के साथ ही मरीज़ो को सबस्टैण्र्ड दवाईयां तक दे दी गयी। इन नीतियों में बार-बार हुए बदलाव को लेकर विभाग में क्या कुछ घटा है इसका विस्तृत ब्योरा कैग रिपोर्ट में दर्ज है। यह सब कांग्रेस के शासनकाल में घटा है लेकिन इसमें हैरान करने वाला सच तो यह है कि जयराम सरकार ने भी इस सबको आंख बन्द करके जारी रखा। इसी का परिणाम है कि अब हालात गुमनाम पत्र से चलकर निदेशक की गिरफतारी तक पहुंच गये हैं। विपक्ष इसे भ्रष्टाचार का एक बड़ा मुद्दा बनाकर जनता में ले गया है। कांग्रेस के हर विधायक और दूसरे नेताओं ने इस पर पत्रकार वार्ताएं आयोजित की हैं अब इसमें जयराम सरकार के कार्यकाल में ही 1.4.2018 से 15.11.2019 के बीच हुई करीब 128 करोड़ की खरीद को लेकर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। कहा जा रहा है कि इसमें बहुत कुछ नियमों के विरूद्ध हुआ है और कुछ चिहिन्त सप्लायरों को विशेष लाभ पहुंचाया गया है क्योंकि 10% से लेकर 83% कमीशन प्रभावी रहा है।

क्या सरकार और शिक्षा मन्त्री प्राईवेट स्कूलों के दवाब में है

शिमला/शैल।  क्या सरकार और शिक्षा मन्त्री प्राईवेट स्कूलों के दवाब में आ चुके हैं? यह सवाल पिछले कुछ अरसे से चर्चा में चल रहा है। यह चर्चा इसलिये खड़ी हुई है क्योंकि इन प्राईवेट स्कूलों मेे पढ़ने वाले करीब साढ़े पांच लाख छात्र और उनके आठ लाख अभिभावक प्राईवेट स्कूलों के प्रबन्धन पर यह आरोप लगाते आ रहे हैं कि इन स्कूलों ने फीस के नाम पर लूट मचा रखी है। छात्र अभिभावक मंच इस संबंध में कई ज्ञापन भी सरकार को सौंप चुका है। इन ज्ञापनों का संज्ञान लेते हुए सरकार ने 18 मार्च 2019 और अब 27 मई 2020 को इस संबंध में आदेश भी जारी किये हैं लेकिन शिक्षा विभाग का प्रशासन इन आदेशों की अनुपालना नहीं करवा पाया है। बल्कि अभी जब कोेरोना के कारण प्रदेश के सारे स्कूल मार्च के दूसरे सप्ताह से बन्द चल रहे हैं तब इन स्कूलों के प्रबन्धन ने अभिभावकों को इस दौरान की सारी फीस जमा करवाने के नोटिस भेज दिये। जब कफ्र्यू के कारण सारी गतिविधियां बन्द हो गयी थी तब यह भारी भरकम फीसें एक मुश्त भर पाना कठिन हो गया। अभिभावक मंच ने इसके खिलाफ प्रोटैस्ट किया। मामला सरकार तक पहुंचा और सरकार ने आदेश जारी कर दिये लेकिन इन पर अमल नहीं हो पाया।
अभिभावक मंच का आरोप है कि इन स्कूलों ने इस वर्ष से फीस में 8% से लेकर 20% तक बढ़ौतरी कर दी है। सर्दीयों में बन्द होने वाले स्कूलों का सत्र मार्च से शुरू हुआ है और गर्मीयों में बन्द होने वाले स्कूलों का सत्रा अप्रैल से शुरू हुआ है। सारे स्कूल मार्च से ही बन्द चल रहे हैं और कब खुल पायेंगे यह तय नही है क्योंकि कोरोना के मामले हर रोज़ बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में अभिभावकों की यह मांग सही है कि इस दौरान की फीस न ली जाये। प्राईवेट स्कूलों के लिये भी 1997 से नियामक अधिनियम लागू है। इसी के साथ आरटीआई शिक्षा का अधिकार अधिनियम भी राष्ट्रीय स्तर पर लागू है दोनों अधिनियमों में प्राईवेट स्कूलों की मनमानी को रोकने के लिये काफी कड़े प्रावधान रखे गये है। लेकिन व्यवहार यह सारे प्रावधान सरकारी फाईलें से बाहर निकल कर जमीन पर नही आ पाये हैं। इसमें सबसे चौंकाने वाला सच तो यह है कि स्कूलों की लूट के खिलाफ प्रदेश उच्च न्यायालय में 2014 में दो याचिकाएं दायर हुई थी। इन पर 27अप्रैल 2016 को फैसला आया था। उच्च न्यायालय ने प्राईवेट स्कूलों की धांधली का कड़ा संज्ञान लेते हुए मुख्य सचिव को निर्देश दिये थे कि वह इस संबंध में एक जांच कमेटी का गठन करें। कमेटी विस्तृत जांच के बाद तीन माह में अपनी रिपोर्ट सौंपनी थी। यह जांच किन बिन्दुओं पर होगी यह भी उच्च न्यायालय ने चिहिन्त कर दिये थे। लेकिन हैरानी इस बात की है कि अप्रैल 2016 में उच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित कमेटी का शायद आज तक गठन ही नही हो पाया है क्योंकि इस कमेटी की कोई रिपोर्ट आज तक सामने आयी ही नही है।
आज यह स्कूल हज़ारों के हिसाब से हर बच्चे से प्रतिमाह फीस ले रहे हैं। इन स्कूलों में साढ़े पांच लाख बच्चे पढ़ रहे हैं। इस गणित से हज़ारों करोड़ का व्यापार शिक्षा के नाम पर प्रदेश में हो रहा है। फीसों के अतिरिक्त स्कूल की बर्दी, जूते, किताबों आदि का व्यापार भी यह संस्थान अपरोक्ष में कर रहे हैं। क्योंकि इनका यह सामान इन्ही की चिन्हित दुकानों से मिलता है। इस तरह हजा़रों करोड़ का कारोबार करने वालों पर प्रशासन हाथ डालने से डरता है और सरकार जब वोट के गणित से तेरह लाख लोगों की नाराज़गी को देखती है तो आदेश जारी करके अपनी जिम्मेदारी पूरी हो गयी मान लेती है अन्यथा उच्च न्यायालय ने तो अपने आदेशों में स्पष्ट कहा है कि   It is shocking that the private institutions have been raising their assets  after illegally collecting funds like building fund,  development fund, infrastructure fund etc. It is high time these practices are stopped forthwith and there is a crack down on all these institutions. Every education institution is accountable and no one, therefore, is above the law. It is not to suggest that the private education institutions are not entitled to their due share of autonomy as well as profit, but then it is out of this profit that the private education institutions, including schools are required to   create their own assets and other infrastructure. They cannot under the garb of building fund etc. illegally generate funds for their “business expansion” and    create “business empires”.
That apart, it is the responsibility of the institution imparting education to set up proper infrastructure for the students and, therefore, the fee charged towards building fund is both unfair as well as unethical.
In these given circumstances, the Chief Secretary to Government of Himachal Pradesh is directed to constitute a committee which shall carry out inspection of all the private education institutions at  all levels i.e. schools, colleges, coaching centres, extension  centres, (called by whatever name), universities etc. throughout the State of Himachal Pradesh and submit report regarding compliance of the H.P. Private Educational Institutions (Regulation) Act, 1997 within three months. Special emphasis and care shall be taken to indicate in the report as to whether the     private institutions have  the requisite infrastructure, parents teacher associations, qualified staff, whether these institutions are maintaining the accounts in terms of Rule 6 and are regularly submitting all the information in the forms prescribed under the Rules and are further charging the ‘fee’ as approved by the Govt.
The Committee shall further report regarding violations being carried out by the educational institutions with respect to the guidelines issued by the UGC from time to time as have otherwise been taken note of in this judgment and shall be free to report violation of any Act, Rule, statutory provisions, guidelines etc., irrespective of the fact that the same have been issued by the Central or the State Governments.
In the meanwhile,  the respondent-State is directed to ensure that  no private education institution is allowed to charge fee towards building fund, infrastructure fund, development fund etc.
 In addition to this, the Principal Secretary (Education)  is directed to issue mandatory orders to all educational institutions, whether private or government owned, to display the following detailed information on the notice board which shall be placed at the entrance of the campus and on their websites:-
i) Faculty and staff alongwith their qualifications and job experience (profile).
ii) Details of Infrastructure.
iii) Affiliation alongwith certificate (s) of affiliation.
iv) Details of Internship andplacement.
v) Fees with complete breakup and details.
vi) Extra curricular activities with complete details.
vii) PTA-with address and telephone numbers of its members.
viii) Transport facilities with details.
ix) Age of the institute and its achievements (if any).
x) Availability of scholarships with complete details.
xi) List of alumni (s) alongwith complete addresses and telephone numbers.
The aforesaid information shall also be displayed on the website of all private educational institutions and in case any educational institution is currently not having its own website, the same shall be created within one month and immediately thereafter the aforesaid information would be displayed on the website.


किसान सम्मान निधि का सच

बंगाणा/शैल। केन्द्र सरकार किसानों को 6000 रूपये प्रति वर्ष किसान सम्मान निधि के रूप में दे रही है। जयराम सरकार ने भी दावा किया है कि उसने प्रदेश के हर किसान को यह सम्मान निधि उसके खाते में पहुंचा दी है। प्रशासन ने इसके आंकड़े भी सरकार को उपलब्ध करवा रखे है। लेकिन इन दावों और आंकड़ो का सच ग्रामीण विकास मन्त्री के अपने निर्वाचन क्षेत्र कुटलैहड़ के मुख्यालय से लगती पंचायत के सचिव के इस पत्र से सामने आ जाता है। इसके मुताबिक इन किसानों को आज तक किसान सम्मान निधि की एक भी किश्त नही मिली है।
 कुछ पंचायतों से तो यह भी शिकायतें है कि पहले तो यह राशी उनके खातों में आ गयी। लेकिन जब किसान इसे लेने गये तो उन्हे यह पैसा नही मिला और कहा गया कि यह पैसा वापिस ले लिया गया है। इस आश्य की शिकायतंे भी की गयी हैं जिन पर कोई सुनवाई नही हुई।

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