शिमला/शैल। प्रदेश में कोरोना के मामले हर रोज़ बढ़ते जा रहे हैं। इन्ही बढ़ते मामलों के कारण जयराम सरकार ने राज्य की जनता से यह पूछा था कि लाकडाऊन फिर से लगाया जाये या नहीं। इस पर जनता की राय एक तरफा नही रही थी। इसलिये सरकार ने पूरे प्रदेश में एक साथ लाकडाऊन लगाने का विचार छोड़ दिया था। जहां जहां मामले ज्यादा बढ़ेगे वहीं पर यह कदम उठाने का फैसला लिया गया था। लेकिन इसी के साथ कोरोना के लिये जारी दिशा निर्देशों की अनुपालना को और कड़ा करते हुए इसकी अवहेलना पर जुर्माना और सज़ा तक का प्रावधान कर दिया था। कोरोना निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करने और अवहेलना करने वालों के खिलाफ कारवाई का अधिकार तथा जिम्मेदारी भी प्रशासन को ही दी गयी थी।
लेकिन आज स्थिति यह हो गयी है कि जैसे जैसे प्रदेश में इसके मामले बढ़ते जा रहे हैं उसी अनुपात में इसकी अवहेलना के किस्से भी बढ़ रहे हैं। इसमें भी रोचक यह हो रहा है कि निर्देशों की अवहेलना सत्तापक्ष की ओर से हो रही है। मुख्यमन्त्री के अपने ऊपर यह आरोप लग रहे हैं। सबसे पहले यह आरोप प्रदेश के महाधिवक्ता कार्यालय के खिलाफ लगा। 27 जुलाई को भाजपा प्रवक्ता अधिवक्ता तेजेन्द्र कुमार, अतिरिक्त महाधिवक्ता नन्दलाल और इनके दो साथीयों ज्ञान चन्द ठेकेदार तथा ड्राईवर देवेन्द्र कुमार के खिलाफ कांग्रेस के लीगल सैल के संयोजक अधिवक्ता देवेन भट्ट, चन्द्र मोहन, कांग्रेस सचिव वेद प्रकाश ठाकुर व पवन चौहान ने शिमला के थाना सदर में शिकायत दर्ज करवायी। लेकिन इस शिकायत पर कोई कारवाई नही हुई। यहां तक कि महाधिवक्ता कार्यालय के सारे कर्मचारी और अधिकारी संगरोध नही हुए। अब ऊर्जा मन्त्री और उनसे संवद्ध लोगों के कोरोना पाजिटिव पाये जाने पर सिरमौर मेें पूर्व मन्त्री गंगू राम मुसाफिर ने इसको लेकर प्रशासन के पास शिकायत दर्ज करवाई है। अब मुख्यमन्त्री के कांगड़ा प्रवास के दौरान कई स्थानों पर कोरोना निर्देशों की अवहेलना की शिकायतें कांगड़ा के कांग्रेस नेताओं ने प्रशासन से की हैं।
इस समय स्थिति यह है कि राजनीति के लोग मुख्यमन्त्री से लेकर विधायकों तक जनता सेे संपर्क किये बिना रह नहीं सकते। लेकिन जब भी जनता में जायेंगे तो वहां पर कोरोना के दिशा निर्देशों की पूरी तरह अनुपालना कर पाना संभव हो नहीं सकता है। यह सत्तापक्ष और विपक्ष सभी के नेताओं पर एक समान लागू होता है। इसी कारण से कांग्रेस नेताओं ने जब धरना-प्रदर्शन आयोजित किया तो उनके खिलाफ निर्देशों की अवहेलना के आरोप लगे। अब मुख्यमन्त्री और उनके मन्त्रीयों के खिलाफ यह आरोप लग रहे हैं। प्रशासन किसी के भी खिलाफ कोई कारवाई करने का साहस नही कर पा रहा है। प्रशासन का जोर आम आदमी पर ही चलता है और उसके खिलाफ मामले दर्ज भी हुए हैं। इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह बन गयी है कि आम आदमी तो इन निर्देशों के कारण आज अनलाक तीन में बन्दिशों में चल रहा है और अवहेलना करने पर जेल और जुर्माना दोनों झेल रहा है। लेकिन राजनेता चाहे वह किसी भी पक्ष के क्यों न हो इन निर्देशों की खुले आम अवहेलना भी कर रहे हैं और उनके खिलाफ कारवाई भी कोई नहीं हो रही है। इस परिदृश्य में आज यह आवश्यक हो गया है कि कोरोना को लेकर सारा आकलन नये सिरे से किया जाये। आम आदमी में जो इसको लेकर डर बैठा दिया गया है उसे दूर करने का प्रयास किया जाये। क्योंकि कोरोना को लेकर अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी एकदम यूटर्न ले लिया है और उसको लेकर कोई भी उसका खण्डन नहीं कर पाया है।
26 लाख की जमीन 90 लाख में क्यों ली जा रही थी
जब 2020 में सर्किल रेट 26 लाख है तो 2016 में तो इससे भी कम रहा होगा
क्या 85 लाख की पैमेन्ट करने के बाद रजिस्ट्री के लिये चार वर्ष का इन्तजा़र करेगा कोई
यदि भाजपा को 118 की अनुमति लेने में चार वर्ष लग सकते हैं तो आम आदमी का क्या होगा। शिमला/शैल। सत्तारूढ़ प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के साथ जमीन खरीद के एक मामले में हुई धोखाधड़ी को लेकर अब पार्टी के भीतर ही सवाल उठने शुरू हो गये हैं। पार्टी के साथ धोखाधड़ी का यह मामला सोलन में घटा है और सोलन के ही कुछ कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्र लिखकर प्रदेश में खरीदी गयी सारी जमीनों के मामलों में एक उच्च स्तरीय जांच करवाने का आग्रह किया है। इन कार्यकर्ताओं ने इस बात पर हैरानी जताई है कि कैसे 85 लाख देने के बाद भी तीन वर्ष तक इस जमीन की रजिस्ट्री नही करवा पायी? स्मरणीय है कि वर्ष 2016 में पालमपुर में पार्टी की एक बैठक तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह की अध्यक्षता में हुई थी। इस बैठक में प्रदेश के सभी सत्रह संगठनात्मक जिलों में पार्टी के कार्यालय बनाने का फैसला हुआ था। कृपाल परमार की अध्यक्षता मे इस आशय की कमेटी गठित की गयी थी। इस कमेटी ने सभी जिलों में इस काम के लिये कमेटीयां गठित की थी। सोलन के लिये पवन गुप्ता की अध्यक्षता में यह कमेटी बनी थी। कमेटी ने आगे कुछ कार्यकर्ताओं को जमीन तलाश करने के काम पर लगा दिया जिसमें पार्षद मनीष भी शामिल थे। इन लोगों ने मौजा समलेच में एक भूमि चिन्हित की और खरीद का इकरारनामा जमीन के मालिक दीनानाथ के साथ 7-10-2016 को हस्ताक्षरित हो गया। एक बीघा जमीन 90 लाख में खरीद ली गयी और इकरारनामा साईन करते समय 35 लाख की पैमेन्ट बाकायदा आरटीजीएस के माध्यम से कर दी गयी। खरीद का इकरारनामा पार्टी के कैशियर कपिल देव सूद और दीनानाथ के मध्य हुआ और मनीष कुमार इसमें बतौर गवाह शामिल हुए 7-10-2016 को 35 लाख देकर खरीद का अनुबन्ध होता है और 50 लाख 30-3-2017 तक देने का वायदा होता है। शेष 5 लाख रजिस्ट्री के समय देना तय हुआ। इस अनुबन्ध के तहत 50 लाख 29-3-2017 को आरटीजीएस के माध्यम से कर दिया जाता है।
यह 50 लाख देने के बाद धारा 118 के तहत जमीन खरीद की अनुमति लेने के लिये हिमाचल सरकार को आवेदन कर दिया जाता है। लेकिन धारा 118 के तहत जीमन खरीद की अनुमति 2020 तक भी नही ली जाती है या नही मिलती है और इसी बीच 17-2-2020 को इस जमीन का मालिक इसे एक श्रीमति पारूल संगल को 26 लाख में बेच देता है और 17-2-2020 को ही इसकी रजिस्ट्री भी हो जाताी है। यह जानकारी मिलने के बाद पार्टी के जिला सोलन के अध्यक्ष आशुतोष वैद्य 16-7-2020 को इस संबंध में पुलिस अधीक्षक सोलन को इसकी लिखित शिकायत सौंपते हैं। इस शिकायत की प्रति मुख्य सचिव, गृह और डीजीपी को भी सौंपी जाती हैं। इस शिकायत के बाद पुलिस जांच शुरू कर देती है और जमीन के मालिक दीनानाथ को गिरफ्तार कर लेती है। मनीष कुमार सर्वोच्च न्यायालय से अग्रिम जमानत लेने मंें सफल हो जाता है और फिर प्रैस के समाने आकर यह दावा करता है कि इस धोखाधड़ी मे उसकी कोई भूमिका नही है। मनीष के मुताबिक उसने तो पार्टी कार्यकर्ता होने के नाते अनुबन्ध पर हस्ताक्षर किये हैं और वह जांच में पूरा सहयोग देने को तैयार है। इसी के साथ शिकायतकर्ता आशुतोष वैद्य ने दीनानाथ की जमानत याचिका रद्द करने के लिये भी सोलन के कोर्ट न0 एक में याचिका दायर कर दी है। अभी इस मामले की जांच चल रही है और पारूल संगल को उसके 26 लाख देकर उससे जमीन वापिस ले ली गयी है।
इस प्रकरण में जो प्रमुख सवाल उभरकर सामने आते हैं उन पर अभी तक कोई ध्यान नही दिया जा रहा है। भाजप के साथ इस जमीन का सौदा 7-10-2016 को नोटबंदी से कुछ पहले 90 लाख में किया जाता है और उसी दिन 35 लाख का भुगतान आरटीजीएस के माध्यम से ओबीसी बैंक शिमला किया जाता है। इसके बाद 29-3-2017 को नोटबंदी के बाद जब आम आदमी को बैंकों से नये नोटों में इनता पैसा मिलने में कठिनाई आ रही थी तब फिर इसी ओबीसी बैंक से 50 लाख रूपया आरटीजीएस के माध्यम से अदा किया जाता है। इस तरह मार्च 2017 में 85 लाख खर्च करने बाद भी चार वर्ष तक रजिस्ट्री न करवाने की सोच सकता है ऐसा तभी संभव हो सकता है जब जमीन के मालिक पर पूरा विश्वास हो। दूसरा सवाल आता है कि ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि भाजपा को ही चार वर्ष में धारा 118 के तहत जमीन खरीद की अनुमति न मिल पाये। जबकि जनवरी 2018 से तो भाजपा की ही सरकार प्रदेश में है। यदि भाजपा को ही यह अनुमति लेने में तीन वर्ष लग जायेंगे तो औरों का क्या हाल होगा? इसके बाद सबसे गंभीर प्रश्न तो यह है कि जब पारूल संगल के नाम 17-2-2020 को इस जमीन की 26 लाख में रजिस्ट्री हुई तब राजस्व विभाग के दस्तावेज के मुताबिक इस जमीन का सर्किल रेट 2609119 रूपये दर्ज और इसकी रजिस्ट्री 26.20 लाख में हुई। यदि 2020 में इसका सर्किल रेट 26 लाख है तो निश्चित रूप से 2016 में इससे अधिक नही नही था। कम तो हो सकता है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि 26 लाख की जमीन भाजपा 90 लाख में क्यों ले रही थी? क्या आज इसकी रजिस्ट्री भाजपा 90 लाख में करवायेगी?
जो जमीन 90 लाख रूपये में ली जा रही है स्वभाविक है कि उसके ऊपर किये जाने वाले निर्माण पर भी तीन -चार करोड़ तो खर्च किया ही जायेगा। भाजपा प्रदेश के सभी सत्रह संगठनात्मक जिलों में अपने कार्यालयों का निर्माण करने जा रही है और इस तरह यह पूरा प्रोजेक्ट सौ करोड़ के करीब का अवश्य रहा होगा। यदि सभी जगहों पर 26 लाख की जमीन 90 लाख में ली जा रही होगी तो यह अपने में कितना बड़ा सवाल हो सकता है यह प्रकरण तो सोलन की ज़मीन के पुनः बिकने से सामने आ गया और इस पर जिलाध्यक्ष ने पुलिस में शिकायत कर दी। यदि ऐसा न होता तो इसकी रजिस्ट्री भी 26 लाख के सर्किल रेट पर ही न होती और बाकी का पैसा कहीं और बंट जाता। ऐसी सारी संभावनाओं को सामने रखकर ही इस बारे में राष्ट्रीय अध्यक्ष को पत्रा लिख कर पूरे प्रदेश की खरीद पर जांच करवाने का आग्रह किया गया है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार में 2019 के लोकसभा चुनावों के परिदृश्य में मन्त्री परिषद में दो पद खाली हुए थे। किश्न कपूर को कांगड़ा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने के लिये मन्त्री पद से त्याग पत्र देना पड़ा था। अनिल शर्मा के बेटे को कांग्रेस ने मण्डी लोकसभा क्षेत्र से कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया था और इसके कारण भाजपा ने नैतिक आधार पर उनका त्यागपत्र ले लिया था। इसके बाद स्वास्थ्य मन्त्री विपिन परमार को स्वास्थ्य विभाग में उभरे पत्र बम के परिणाम स्वरूप मन्त्री से विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया और यह पद भी खाली हो गया। इस तरह खाली हुए तीनों मन्त्री पदों को भरने का प्रयास लम्बे समय से किया जा रहा था। बल्कि कोरोना के कारण जिस हद तक सरकार को अपने खर्चो पर रोक लगाने के लिये वाकायदा वित्त विभाग से इस आश्य का पत्र सभी विभागों को जारी करवाना पड़ा था उसके परिदृश्य में यह माना जाने लगा कि शायद जब तक कोरोना संकट चल रहा है तब तक नये मन्त्रीयों के खर्च का बोझ सरकार के खजाने पर नही डाला जायेगा। लेकिन राजनीतिक जटिलताओं के कारण महामारी भी इस विस्तार को रोक नही पायी है। ऐसे में जब कोरोना संकट के बावजूद भी यह विस्तार हो ही गया है तो इसका आकलन भी राजनीति के ही मानकों पर किया जाना आवश्यक हो जाता है।
इस नाते सबसे पहला प्रश्न आता है कि क्या प्रदेश के सारे जिलों और वर्गों को बराबर का हिस्सा मिल पाया है। कांगड़ा प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है वहां से पन्द्रह विधायक आते हैं। उसके बाद मण्डी दस सीटों के साथ दूसरे और शिमला आठ के साथ तीसरे स्थान पर आता है। बिलासपुर और कुल्लु से चार-चार और किन्नौर तथा लाहौल-स्पिति से एक एक सीट है। चम्बा, ऊन्ना, हमीरपुर, सोलन और सिरमौर से पांच-पांच सीटे हैं। जातीय गणित में ब्राहमण और राजपूत लगभग बराबरी पर हैं। इनके बाद एस सी एस टी और ओबीसी आतें हैं। इसके बाद अन्य छोटे वर्ग आते हैं। इस गणित में कांगड़ा से तीन मन्त्री हैं मण्डी से मुख्यमन्त्री सहित दो, शिमला, सोलन, सिरमौर, ऊना, बिलासपुर, कुल्लु और लाहौल स्थिति से एक एक मन्त्री हैं। जातीय गणित में ‘राजपूत वर्ग’ से छः ब्राहमण दो, ओबीसी दो, एससी एक और बनिया एक हैं । जिलों में हमीरपुर को मन्त्रीमण्डल में कोई स्थान नही मिला है। इसलिये यह नही कहा जा सकता कि जातीय और ़क्षेत्रीय सन्तुलन के मानक पर यह मन्त्रीमण्डल सही उतरता हो। इसी के साथ यह भी है कि विभागों के बंटवारे में भी राजपूत वर्ग को अन्यों की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण विभाग दिये गये हैं। आने वाले दिनों में यह चर्चाएं उठंेगी ही यह तय है।
इसके बाद यदि राजनीतिक दृष्टि से आकलन किया जाये तो यह सामने आ ही गया है कि इस विस्तार के बाद जो भाजपा विधायक दल की बैठक बुलाई गयी थी उसमें पांच विधायक रमेश धवाला, नरेन्द्र बरागटा, राजीव बिन्दल, नरेन्द्र ठाकुर और विक्रम जरयाल इस बैठक में शामिल नही हुए हैं। यह सभी लोग विधायक हैं और माना जा रहा था कि इनके अनुभव को देखते हुए इन्हें मन्त्रीमण्डल में अवश्य स्थान मिलेगा। राजीव बिन्दल, नरेन्द्र बरागटा और रमेश धवाला धमूल सरकार में मन्त्री रह चुके हैं। बिन्दल को वरिष्ठता के आधार पर ही विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया था। स्वास्थ्य विभाग की जिस खरीद को लेकर बिन्दल विवाद में आये और स्पीकर पद से त्यागपत्र देना पड़ा उसमें सरकार ने एक जांच कमेटी बिठाई थी। उस कमेटी की रिपोर्ट आ चुकी है और उसमें बिन्दल को क्लीनचिट मिल चुकी है। लेकिन इसके बावजूद उन्हें मंत्री नही बनाया जाना अपने में कई सवाल खड़े करता है। ऐसे में इन पांच विधायकों का इस बैठक में न आना एक महज संयोग न होकर भविष्य की राजनीति का एक सकेंत हैं इसी के साथ सरवीण चैधरी और मारकण्डेय के विभागों में हुए इस तरह फेरबदल पर यह लोग कितने और कब तक सहज बने रहेंगे इसका पता भी आने वाले दिनों में ही लगेगा। इस तरह राजनीतिक मानक पर भी यह विस्तार कोई ज्यादा सन्तुलित नही माना जा रहा है।
कोरोना से प्रदेश में अब तक एक दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है और संक्रमितों की संख्या भी दो हजार से पार हो गयी है। इसके मामले लगातर बढ़ते जा रहे है। इसका शिखर आना अभी बाकी है। नाहन के गोबिन्दगढ़ में इसके सामुदायिक फैलाव की स्थिति आ गयी है। राजधानी शिमला में सचिवालय तक पहुंच गया है। मुख्यमन्त्री कार्यालय बन्द करना पड़ा है। प्रदेश का हर जिला इससे प्रभावित है। इस स्थिति में प्रदेश के कुछ हिस्सों में फिर लाकडाऊन आदेशित करना पड़ा है। नये सिरे से दिशा निर्देश जारी किये गये हैं और इनका पालन न करने पर जुर्माना और जेल तक प्रावधान कर दिया गया है। प्रदेश की स्थिति तब से बिगड़नी शुरू हुई है जब से नियमों में ढील दी जाने लगी है। आज औद्यौगिक और बागवानी क्षेत्र इससे ज्यादा प्रभावित हो गये हैं। लेकिन इस स्थिति में भी कम उपस्थिति के साथ उद्योगों को आपरेट करने की अनुमति दी गयी है। बसों में 100% यात्रियों के आने जाने की अनुमति दी गई है। इससे यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि बस में 52 सवारियों के आने जाने से संक्रमण का खतरा नही है तो फिर आन्तयेष्ठी और शादी में सीमा क्यों? इस तरह जो भी निर्देश आज तक दिये जाते रहे हैं उनमें अन्तः विरोध रहा है और यह विरोध इसलिये रहा है क्योंकि कोरोना को लेकर आकलन बदलते रहे हैं। एक समय कहा गया कि यह हवा से नही फैलता और अब कहा है कि हवा से भी फैलता है। इन बदलते आकलनों ने आम आदमी को डर परोसने का काम किया है और सरकार ने भी केन्द्र से लेकर राज्यों तक इस डर को कम करने की बजाये इसे और पुख्ता करने का ही काम किया है।
जहां एक ओर डर परोसा जा रहा था वहीं पर दूसरी ओर वीआईपी लोग कोरोना के दिशा निर्देशों की खुलेआम धज्जीयां उड़ा रहे थे। हिमाचल में ही भाजपा ने गायत्री महायज्ञ का आयोजन किया। कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह के घर जन्मदिन के उपलक्ष्य में भोज का आयोजन हुआ। कांग्रेस ने सचिवालय के बाहर प्रदर्शन किया। धर्मशाला में विधायक ने अपने जन्म दिन पर पार्टी की और मन्दिर में पूजा की। स्थानीय एसडीएम भी विधायक के साथ थे यह आरोप कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा ने लगाया है। अब रोहडू में बाॅलीबाल टूर्नामैन्ट का आयोजन हो गया। स्वाभिमान पार्टी के अध्यक्ष डा.के.एल शर्मा ने इस पर कारवाई की मांग की है। इन सारे आयोजनों में निर्देशों का खुला उल्लघंन हुआ है। कांग्रेस ने भाजपा पर और भाजपा ने कांग्रेस पर खुलकर आरोप लगाये हैं लेकिन प्रशासन ने कारवाई किसी के खिलाफ नही की है। इस तरह पक्ष, विपक्ष और प्रशासन तीनों मिलकर आम आदमी को डराने का काम कर रहे हैं। जबकि यदि आंकड़ों के परिप्रेक्ष में देखे तो हिमाचल में 2015 में 41462, 2016 में 35819 और 2017 में 39114 मौतें हुई हैं यह आंकड़े भारत सरकार के गृह मन्त्रालय के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा जारी रिपोर्ट में दर्ज है। इस दौरान स्वाईन फलू भी था जो प्रदेश में फरवरी 2020 तक रहा है लेकिन तब कोई लाॅकडाऊन नही रहा। इन आंकड़ों के मुकाबले आज कोरोना के आंकड़े कहां ठहरते हैं इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सरकार का कोरोना को लेकर न तो आकलन सही रहा है और न ही नीति। इस समय परोसे गये डर के कारण स्थिति इस मुकाम पर पहुंच गयी है कि यदि कोरोना है तो फिर से पूर्ण लाकडाऊन की आवश्यकता है और यदि नही है तो किसी भी पाबन्दी की जरूरत नही है। लेकिन बीच की स्थिति नही चलेगी की एक जगह तो लाकडाऊन है और दूसरी जगह छूट है। निर्देश हैं तो सबको उनका कड़ाई से पालन करना होगा अन्यथा निर्देश जारी करने का कोई औचित्य नही है। आवश्यकता है आम आदमी को भयमुक्त करने की और सरकार वही काम नही कर रही है। आज प्रदेश सरकार ने आम आदमी से पूछा है कि लाकडाऊन किया जाना चाहिये या नही जबकि 24 मार्च को आम आदमी से पूछना दूर उसे संभलने के लिये पर्याप्त समय तक नही दिया गया जो कि महामारी अधिनियम के तहत आवश्यक था। इसलिये आज जो असमंजस की स्थिति बन गई है उसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार की है। क्योंकि लाकडाऊन घोषित करने से पहले पूराने रिकार्ड को देखा तक नही गया है। यदि पुराने उपलब्ध आंकड़ो को सामने रखकर फैसला लिया जाता तो शायद लाॅकडाऊन करने की शीघ्रता न की जाती।
शिमला/शैल। प्रदेश के शिक्षण संस्थान 24 मार्च को लाकडाऊन की घोषणा होने से पहले ही बन्द कर दिये गये थे। तब से अब तक बन्द चल रहे हैं और कब खुलेंगे इस पर शायद शिक्षा मन्त्रा भी निश्चित रूप से कुछ कहने की स्थिति में नही हैं क्योकि कोरोना के मामले हर दिन बढ़ते चले जा रहे हैं। इन मामलों के बढ़ने से छात्रों के अभिभावक भी अभी बच्चों को स्कूल भेजने का जोखिम लेने को तैयार नही हैं। कोरोना के कारण आम आदमी के आय के स्त्रोतों पर विराम लग गया है। बल्कि अभिभावक स्कूलों द्वारा कोरोना काल की फीस आदि न लेने की गुहार लगा रहे हैं। छात्र अभिभावक मंच इसको लेकर शिक्षा निदेशालय पर कई बार धरना प्रदर्शन कर चुका है। सरकार भी इस मांग पर पूरी सहमति जताते हुए इस आशय के आदेश शिक्षण संस्थानों को जारी कर चुकी है। यह दूसरी बात है कि इन संस्थानों ने सरकार के आदेशो/निर्देशों की पूरी पालना नहीं की है। लेकिन इस वस्तुस्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी की वित्तिय स्थिति इस संकट के काल में पूरी तरह चरमरा गयी है।
स्थिति इस मोड़ पर पहुंच गयी है कि स्कूलों ने अपनी फीस की मांग को जायज ठहराने के लिये आनलाईन पढाई करवाना शुरू कर दिया है। लेकिन इस पढ़ाई के लिये घर में कम्पयूटर या स्मार्ट फोन का होना आवश्यक हो गया है। आज बाज़ार में कोई भी स्मार्ट फोन 6000 रूपये से कम कीमत में नहीं मिल रहा है। जो बच्चे स्मार्ट फोन के बिना है वह आनलाईन पढ़ाई से वंचित रह रहे हैं। ऐसे में बच्चों को यह आनलाईन पढ़ाई करवाने के लिये अभिभावकों को यह स्मार्ट फोन खरीदना अनिवार्य हो गया है। यह फोन खरीदने के लिये कई छात्रों/अभिभावकों द्वारा बैंकों से 25, 25 हजार के कर्ज लेने के लिये सैंकड़ों मामले सामने आ चुके हैं। इसमें सबसे चैंकाने वाला सच्च तो ज्वालामुखी क्षेत्र के गुम्मर निवासी कुुलदीप कुमार को अपने चैथी और दूसरी क्लास में पढ़ने वाले बच्चों को छः हज़ार में अपनी गाय बेचने के रूप में सामने आया है। कुलदीप इतना गरीब है कि उसे 6000 रूपये जुटाने के लिये अपनी गाय बेचनी पड़ी जो इस समय उसका रोज़ी रोटी का एक मात्र सहारा था। गाय इसलिये बेचनी पडी क्योंकि उसे किसी बैंक ने ़ऋण नहीं दिया। बैंकों के इस इन्कार ने सरकार की उन सारी योजनाओं और दावों पर सवाल खड़े कर दिये हैं जो गरीबों की मद्द के लिये किये गये हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल खड़े होते है कि इस समय आनलाईन पढ़ाई के लिये बच्चों को स्मार्ट फोन खरीदना अनिवार्य होगा। लाखों बच्चे प्रदेश के स्कूलों में पढ़ रहे हैं और यह फोन खरीदने से फोन बेचने वालों को निश्चित बाज़ार उपलब्ध हो जायेगा। फोन चलाने के लिये नेटवर्क सेवा आवश्यक होगी और उसे चलाने के लिये नियमित रूप से रिचार्ज करवाना अनिवार्य होगा। यह खर्च स्थायी रूप से परिवार पर पड़ता रहेगा। जो राहत सरकार किसी परिवार को दे रही है उसे इस तरह अपरोक्ष में वापिस लेने का जुगाड़ भी कर लिया गया है। क्योंकि कल जब स्कूल खुल जायेंगे तब आनलाईन पढ़ाई का कोई औचित्य ही नही होगा। यह व्यवस्था तो तभी उपयोगी होगी यदि आने वाले समय में भी इसे ही चलाये रखना हो और कालान्तर में अध्यापकों की संख्या कम करनी हो। क्योंकि यदि आॅनलाईन पढ़ाई का प्रयोग सफल सिद्ध होता है तो निश्चित रूप से उसमें इतने अध्यापकों की आवश्यकता नही होगी। यदि ऐसी कोई मंशा नही है तो छात्रों अभिभावकों पर यह स्मार्ट फोन का हजारों का खर्चा डालना गलत होगा।
फिर आनलाईन पढ़ाई को स्थायी व्यवस्था बनाने की आशंकाओं को सरकार के स्कूलों में डिजिटल क्लास रूम बनाने के फैसले से भी बल मिला है। डिजिटल क्लास रूम पहले चरण में 440 स्कूलों में बनाये जा रहे हंै। इलैक्ट्राॅनिक्स निगम ने इसके लिये निविदायें आमन्त्रित करने का काम भी शुरू कर दिया है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि डिजिटल क्लास रूम में क्या क्या सुविधाएं उपलब्ध करवाई जायेंगी इसके बारे में अध्यापकों को विशेष जानकारी नही है। इसके लिये धन का प्रावधान केन्द्र की ओर से कितना होगा और प्रदेश की हिस्सेदारी कितनी रहेगी इसको लेकर भी शिक्षा विभाग स्पष्ट नही है।