Friday, 19 September 2025
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पुरानी भर्तियों में भी धांधली होने की आशंका के चलते अधीनस्थ सेवा चयन आयोग का कामकाज निलंबित

पिछला कुछ समय कैसे परिभाषित होगा?
क्या एसआईटी के गठन से यह दो अलग-अलग मामले नहीं बन जाते
क्या पिछले कुछ समय की जांच रिपोर्टें पन्द्रह दिन में संभव हो पायेगी?
 
शिमला/शैल। हमीरपुर स्थित अधीनस्थ कर्मचारी सेवा चयन आयोग द्वारा 25 दिसंबर को आयोजित की जाने वाली जेओऐ-आईटी परीक्षा का पेपर लीक होने का मामला सामने आने के बाद इस आयोग के कामकाज को ही अगले आदेशों तक सुक्खू सरकार ने निलंबित कर दिया है। पेपर लीक मामले में आयी शिकायत पर विजिलैन्स ने कारवाई करते हुए मामले के दोषियों को गिरफ्तार कर लिया है। इस गिरफ्तारी में आयोग की एक महिला अधीक्षक को भी गिरफ्तार किया गया है। उसके आवास से इस पेपर लीक के कुछ साक्ष्य मिलने के साथ ही आयोग द्वारा निकट भविष्य में आयोजित की जाने वाली दो अन्य परीक्षाओं के भी पेपर मिलने से पूरे आयोग के कामकाज को ही निलंबित करने की स्थितियां पैदा हुई है। क्योंकि यह एक सामान्य समझ की बात है कि इस तरह के पेपर लीक मामले को अन्जाम देने की औकात अकेले एक अधीक्षक और उनके बेटे की ही नहीं हो सकती। इसमें निश्चित तौर पर कुछ और प्रभावी लोगों की भूमिका होने से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके तथ्य जांच से ही सामने आयेंगे और इसके लिये एक गयारह सदस्यों की जांच टीम गठित कर दी गयी है। अभी पुलिस भर्ती पेपर लीक मामले की जांच चल ही रही है और ऐसे में इस आयोग में भी ऐसा मामला घट जाना इस ओर निश्चित संकेत देता है कि प्रदेश में इस तरह का कोई गिरोह एक सुनियोजित ढंग से ऑपरेट कर रहा है। यह भी एक स्थापित सत्य है कि इस तरह का अपराध एक निश्चित संरक्षण के बिना ज्यादा देर तक नहीं चल सकता। इस तरह के अपराध और अपराधियों का पर्दाफाश करना एक बड़ी चुनौती है। इसलिए जहां सरकार के इस कदम की सराहना हो रही है वहीं पर इसमें अपनायी गयी प्रक्रिया को लेकर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
पेपर लीक होने की शिकायत जैसे ही विजिलैन्स के पास आयी उसने तुरन्त कारवाई करते हुए आरोपियों को पकड़ लिया। पेपर लीक का मामला था और नई सरकार में घट रहा था इसलिए इस पर चर्चा होना और खबरें बनना स्वभाविक था। ऐसे मामलों की जानकारी तुरन्त मुख्यमंत्री को दी जाती है और होने वाली परीक्षा स्थगित कर दी जाती है। इस प्रकरण में यह सब हुआ जांच एजैन्सियां अपने काम में लग गयी। जांच में एजैन्सी मामले के हर पक्ष तक जायेगी और जांच के दौरान उसे सारे निर्देश भी समय-समय पर दिये जाते रहेंगे। यह हर जांच की एक सामान्य प्रक्रिया रहती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या इसके लिये पूरे आयोग का कामकाज निलंबित किया जाना आवश्यक था। क्योंकि आयोग में भर्तियों की प्रक्रिया चलती ही रहती है। इसी के लिये इसका गठन किया गया है। आयोग का यह निलंबन कितने समय तक रहेगा इसका निश्चित जवाब किसी के पास नहीं है। क्योंकि निलंबन के आदेश में यह कहा गया है कि यहां पर पिछले कुछ समय से धांधलीयां होने की आशंका है। यह पिछला कुछ समय परिभाषित नहीं है। यह सुविधा अनुसार कम ज्यादा किया जा सकता है और यह कम ज्यादा करना ही आने वाले समय में राजनीतिक चर्चाओं को जन्म देगा।
आयोग के कामकाज को निलंबित किये बिना भी अधिकारियों कर्मचारियों को इधर-उधर किया जा सकता था। उनके खिलाफ कारवाई करने के सारे विकल्प सरकार के पास उपलब्ध थे। नये अधिकारी लगाकर कामकाज चलाया जा सकता था। अब पिछला कुछ समय कहकर जांच का दायरा कुछ भी बढ़ाया जा सकता है। क्योंकि अब यह दो मामले बन गये हैं। एक मामला आई ओ तो वर्तमान पेपर लीक की जांच करेगा। जबकि एसआईटी पिछले कुछ समय के मामलों की जांच करेगी। क्या यह जांच पन्द्रह दिन में संभव हो पायेगी। ऐसा माना जा रहा है कि इस मामले को उलझाने और आगे चलकर राजनीतिक रंग देने की अधिकारियों ने पूरी बिसात बिछा दी है।

संस्थानों के डिनोटिफाई करने पर गरमायी प्रदेश की राजनीति

कांग्रेस और भाजपा आये आमने-सामने
शीर्ष प्रशासन बना दर्शक
जयराम ठाकुर मुद्दे को भुनाकर बने नेता प्रतिपक्ष
नये संस्थानों से प्रदेश पर पड़ा तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त भार

शिमला/शैल।  निवर्तमान जयराम सरकार ने चुनावी वर्ष के अंतिम छः माह में प्रदेश में नौ सौ से ज्यादा विभिन्न संस्थान खोलने की घोषणाएं करके सरकारी खजाने पर तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त भार डाला था। जयराम सरकार जब यह कर रही थी तो कांग्रेस सहित कुछ लोग सरकार के इन फैसलों पर नजर भी रख रहे थे। क्योंकि यह फैसले सरकार के कार्यकाल के अन्तिम छः माह में उस समय लिये जा रहे थे जब प्रदेश के पास कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई साधन इन्हें पूरा करने के लिये नहीं बचा था। जबकि प्रदेश का कर्ज भार पहले ही 75,000 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका था। यही नहीं केन्द्र सरकार इससे पहले ही राजस्व घाटा अनुदान और जीएसटी प्रतिपूर्ति बन्द कर चुकी थी। अटल ग्रामीण सड़क योजना बन्द हो चुकी है। इनसे ही प्रदेश को करीब तीन हजार करोड़ का नुकसान हो चुका है। इस परिदृश्य में प्रदेश पर और तीन हजार करोड़ का बोझ डालना हर समझदार के सामने एक बड़ा सवाल बनता जा रहा था। क्योंकि जो शीर्ष प्रशासन प्रदेश की वित्तीय स्थिति से अवगत था वह इस सब पर मौन चल रहा था। सरकार की इन गतिविधियों से यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा था कि जो सरकार अन्तिम छः माह में यह सब कुछ कर रही है उसने इससे पहले कुछ नहीं किया और अब चुनाव जीतने के लिये एक हथियार के रूप में घोषणाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। यदि चुनावी परिणाम न भी मिले तो आने वाली कांग्रेस के लिये यह सब एक बड़ा फन्दा साबित होंगे। दूसरी ओर जब कांग्रेस इस सब पर नजर रख रही थी तब उसने चुनाव प्रचार के दौरान ही यह ऐलान कर दिया था कि वह इन फैसलों की समीक्षा करके इन्हें डिनोटिफाई करेगी। सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने अपने वायदे पर अमल करते हुये फैसलों की समीक्षा करके इन्हें डिनोटिफाई करना शुरू कर दिया है। संयोगवश इसी दौरान भाजपा की यह चर्चाएं सामने आना शुरू हो गयी कि नेता प्रतिपक्ष के लिए जयराम की जगह सतपाल सत्ती और विपिन परमार के नाम चलने शुरू हो गये हैं। जयराम ठाकुर ने इस स्थिति का संज्ञान लेते हुये सुक्खू सरकार के खिलाफ फैसले पर मोर्चा खोल दिया है। पूरे प्रदेश में प्रदर्शनों का दौर शुरू हो गया जो जसवां प्रागपुर में शालीनता और सभ्यता की सारी सीमायें लांघ गया। जयराम ने सुक्खू सरकार के फैसलों को उच्च न्यायालय तक में चुनौती देने की घोषणा तक कर दी। जयराम अदालत जाते हैं या नहीं यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन यह सब करने से जयराम नेता प्रतिपक्ष अवश्य चुन लिये गये। अब इन फैसलों को लेकर किसका पक्ष कितना सही है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा कि वित्तीय और प्रशासनिक अनुमतियां कितने फैसलों में रही हैं। लेकिन प्रशासनिक सूत्रों के मुताबिक 25% फैसलों में सारी आवश्यक औपचारिकताएं पूरी हैं। प्रशासन के इसी फीडबैक के सहारे जयराम ने सुक्खू को चुनौती देने का साहस किया है। क्योंकि जिस प्रशासन के सहयोग से जयराम ने यह फैसले लिये थे उसकी रिपोर्ट पर ही सुक्खू उन्हें डिनोटिफाई करने के फैसले ले रहे हैं।
इन फैसलों के संद्धर्भ में शीर्ष प्रशासन से यह सवाल बनता है कि जब इन घोषणाओं के लिये बजट का प्रावधान ही नहीं था तो इन घोषणाओं को फील्ड में घोषित करने के लिये जो आयोजन किये गये उनके लिये धन का प्रावधान कहां से किया गया। क्योंकि इन आयोजनों पर ही कई करोड़ों का खर्च हुआ है। धन के इस प्रबन्धन की जानकारी प्रदेश के वित्त विभाग से आनी चाहिये थी। इसके लिये प्रदेश के मुख्य सचिव और वित्त सचिव को पत्रकार वार्ता के माध्यम से स्थिति स्पष्ट करनी चाहिये थी। लेकिन इसका जवाब कांग्रेस विधायकों सर्वश्री हर्षवर्धन चौहान, रोहित ठाकुर और अनिरुद्ध सिंह की ओर से दिया गया। शायद इसीलिये यह सवाल भी उछला कि जब संस्थान खोलने का फैसला पूरे मंत्रिमंडल द्वारा लिया गया है तो इन्हें डिनोटिफाई करने के लिये पूरे मंत्रिमंडल की आवश्यकता क्यों नहीं? यदि मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री ही मंत्रिमंडल बन जाते हैं तो फिर दूसरों के फैसलों में देरी क्यों की जा रही है। विश्लेषकों का मानना है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रशासन के माध्यम से सुक्खू सरकार को उलझाने का प्रयास कर रहे हैं।

सीमेन्ट उत्पादन में घाटा होना चुनाव परिणामों के बाद ही क्यों सामने आया?

हेल्सिम से 82000 करोड़ में खरीद के समय सरकार को कोई टैक्स क्यों नहीं मिला?
प्रशासन इस खरीद पर खामोश क्यों रहा?
प्रतिस्पर्धा आयोग द्वारा 2016 में लगाये गये जुर्माने की भरपाई कौन करेगा?
क्या यह तालाबन्दी सरकार को अस्थिर करने का पहला प्रयोग है?
 
शिमला/शैल। क्या अदानी समूह द्वारा अंबुजा और एसीसी सीमेन्ट कारखानों को अचानक बन्द कर देना कोई साजिश है? यह सवाल इसलिये खड़ा हो रहा है कि प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम 8 दिसम्बर को आये जिसमें भाजपा हार गयी और सता कांग्रेस को मिल गयी। इन परिणामों के बाद अदानी समूह नेे सरकार के गठन से पहले ही सीमेन्ट के रेट बढ़ा दिये। यह रेट बढ़ाये जाने पर सरकार और जनता में रोष होना स्वभाविक था क्योंकि जनता को सरकार बदलने का ईनाम इस महंगाई के रूप में मिला। जब सरकार ने यह रेट बढ़ाये जाने का कारण पूछा तो अचानक घाटा होने का कवर लेकर इस इन सीमेन्ट कारखानों को बिना किसी पूर्व सूचना के बन्द कर दिया गया। कारखाने अचानक बन्द कर दिये जाने से हजारों लोग एकदम प्रभावित हुये हैं क्योंकि जो लोग यहां पर नौकरी कर रहे थे उनकी नौकरी पर अचानक प्रश्न चिन्ह लग गया है। सीमेन्ट के उत्पादन से लेकर इसकी ढुलाई तक के काम में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हजारों लोग प्रभावित हो गये हैं। एक तरह से अराजकता का माहौल पैदा हो गया है। उत्पादन बन्द कर दिये जाने से सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में चल रहे निर्माण कार्य प्रभावित हुये हैं। सीमेन्ट की ढुलाई में लगे ट्रकों के पहिये एकदम रुक गये हैं। ट्रक यूनियनों और कंपनी प्रबन्धन में हो रही वार्ताएं हर रोज विफल हो रही है। प्रशासन एक तरह से लाचारगी का शिकार हो गया है। कंपनी प्रबन्धन सीमेन्ट उत्पादन में घाटा होने का कवर लेकर ट्रकों से भाड़ा कम करने की मांग कर रहा है तो ट्रक ऑपरेटर तेल की कीमतें बढ़ने और उसी के कारण रखरखाव के दाम बढ़ने का तर्क देकर भाड़ा कम करने में असमर्थता व्यक्त कर रहे हैं। सुक्खू सरकार जनता से रोजगार बढ़ाने के दावा करके आयी है। इस तालाबन्दी से लगे हुये रोजगार पर ही संकट खड़ा हो गया है।
यहां पर यह समझने और ध्यान देने का प्रशन है कि अदानी समूह ने इसी वर्ष अंबुजा और ए सी सी सीमेन्ट स्विट्जरलैण्ड की कंपनी होल्सिम से 82000 करोड़ में खरीदी है। इस सौदे के बाद होल्सिम के सी.ई.ओ. जॉन जेनिश (Jan Jenisch) ने अपने निवेशकों को संबोधित करते हुए कहा है कि यह लेनदेन टैक्स फ्री है और इस सौदे से उन्हें 6.4 अरब स्विस फ्रैंक की शुद्ध आय हुई है। होल्सिम अंबुजा और ए सी सी में किसी भी नुकसान या कर के लिये जिम्मेदार नहीं होगा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या इस सौदे में देय करों के लिये अदानी समूह जिम्मेदार होगा। अदानी की ओर से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। बल्कि राज्य सरकार भी इस पर आज तक खामोश है। प्रधानमंत्री और अदानी के रिश्ते जगजाहिर है? क्या इन रिश्तों के चलते जयराम सरकार और प्रशासन चुप रहा है। क्योंकि अंबुजा को जमीन तो सरकार ने दी है। क्या जमीन देने के साथ ही सरकार के सारे अधिकार समाप्त हो गये हैं? क्योंकि इस 82,000 करोड़ के सौदे में सरकार को टैक्स के रूप में एक पैसा तक नहीं मिला है। यही नहीं 2016 में प्रतिस्पर्धा आयोग ने अंबुजा को 1164 करोड़ और ए सी सी को 1148 करोड़ का जुर्माना लगाया था। इस जुर्माने को अपीलीय कोर्ट में चुनौती दी गयी थी और वहां से हारने के बाद अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। स्वभाविक है कि यह जुर्माना लगने के कारण इन कंपनियों द्वारा कुछ अनियमितताएं करना रहा होगा। लेकिन इस पर राज्य सरकार का चुप रहना कई सवाल खड़े करता है क्योंकि कंपनियां ऑपरेट तो हिमाचल में ही कर रही थी।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब अदानी ने 82000 करोड़ में यह खरीद की तो क्या उस समय सीमेन्ट उत्पादन से लाभ-हानि होने का उसे कोई ज्ञान नहीं हुआ होगा। अचानक चुनाव परिणाम आने के बाद ही घाटा क्यों सामने आया? अदानी समूह का आचरण सेब खरीद में भी सवालों में रहता आया है। अदानी के प्रदेश में तीन सी ए स्टोर हैं। सरकार की शर्तों के मुताबिक इन स्टोरों में 20% जगह स्थानीय बागवानों के लिये सुरक्षित रखने का नियम है। लेकिन इस नियम की अनुपालन नहीं हो रही है। इस पर भी सरकार खामोश रही है। सौर ऊर्जा में भी अदानी का एकछत्र साम्राज्य है। ऐसे में यदि अदानी जैसा समूह आज सीमेन्ट में सरकार के लिये इस तरह की परिस्थितियां पैदा कर सकता है तो आने वाले समय में अन्य क्षेत्रों में भी यह सब कुछ घट सकता है। जब अदानी ने इन सीमेन्ट उद्योगों की खरीद की और इसमें प्रदेश को कर के रूप में कुछ नहीं मिला तब प्रशासन इस पर खामोश क्यों रहा? आज भी प्रशासन अदानी के घाटे के तर्क पर खामोश क्यों है? क्योंकि जमीन का अधिग्रहण तो सरकार ने स्थापना के समय छः हजार रूपये प्रति बीघा किया है और यह कीमतें पर तो आगे कभी बढ़ी नहीं है और यही इस उद्योग का कच्चा माल है। स्थापना के समय सौंपी गई रिपोर्ट के मुताबिक तो शायद उस समय एक बैग की कीमत 35 रूपये रही है। इसलिए आज घाटे का तर्क किसी भी आधार पर मान्य नहीं बनता है। ऐसी आशंकाएं बल पकड़ रही है कि यह तालाबन्दी सरकार को अस्थिर करने का पहला प्रयोग है।

संस्थान बंद करने के फैसलों को जयराम ठाकुर उच्च न्यायालय में देंगे चुनौती

शीर्ष प्रशासन की निष्ठाओं और ईमानदारी पर उठेंगे सवाल

शिमला/शैल। कांग्रेस ने चुनावों में वायदा किया था कि वह जयराम द्वारा पिछले छः माह में लिये गये फैसलों की समीक्षा करेगी। सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने विधायकों की एक कमेटी बनाकर इन फैसलों की समीक्षा करवाई। इस समीक्षा में विभागों से ऐसे फैसलों की सूची लेकर प्रशासनिक सचिवों और वित्त विभाग से जानकारी ली गयी जो फैसले प्रशासनिक अनुमति और बजट प्रावधानों के बिना लिये गये थे। उन्हें अन्ततः रद्द करने का फैसला लिया गया। इस सैद्धान्ति फैसले के बाद बिना प्रावधानों के खोले गये कार्यालयों/संस्थानों को बन्द करने के आदेश जारी किये गये हैं। इनमें बिजली बोर्ड और लोक निर्माण तथा शिक्षा विभाग प्रभावित हुए हैं। सुक्खू सरकार के इन फैसलों को बदले की भावना से की गई कारवाई करार देते हुए पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इन फैसलों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा की है। जयराम ठाकुर ने यह भी कहा है कि इन फैसलों के लिये सभी वांछित अनुमति ली गयी है।
जयराम ठाकुर के इस ब्यान से स्थिति रोचक हो गयी है क्योंकि सुक्खू सरकार को वित्त विभाग ने यह जानकारी दी है कि इन फैसलों की अनुपालना करने के लिये बजट ही नहीं है। जयराम ठाकुर इसमें सारी औपचारिकताएं पूरी होने का दावा कर रहे हैं और इसी आधार पर इन फैसलों को प्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती देकर बदले की भावना से की जा रही कारवाई करार देना चाहते हैं। यह अपने में ही रोचक स्थिति हो जाती है कि जो वित्त विभाग इन फैसलों को बिना बजट के लिये गये करार दे रहा है उसी के सामने जयराम सरकार ने यह फैसले लिये हैं। ऐसे में किसका दावा कितना सही है इसका सच तो अदालत में ही सामने आयेगा। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि प्रशासन राजनेताओं को कितनी सही जानकारी और राय देता है। क्योंकि जयराम शासन में बहुत सारे अधिकारियों को शीर्ष पदों पर बैठाने के लिये बहुत सारे नियमों/कानूनों को ताक पर रखा गया था। आज यदि उन अधिकारियों द्वारा दी गयी राय और जानकारी सही नहीं निकलती है तो इसके प्रभाव दूरगामी होंगे यह तय है।

बिना बजट प्रावधानों के हुये फैसलों पर लगी रोक

शिमला/शैल। चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस ने जनता से वायदा किया था कि यदि वह सत्ता में आये तो जयराम सरकार द्वारा पिछले छःमाह में लिये गये फैसलों के समीक्षा की जायेगी। यह वायदा इसलिये किया गया था कि एक ओर तो सरकार करीब हर माह भारी कर्ज लेकर अपना काम चला रही थी तो दूसरी ओर हर विधानसभा क्षेत्र में लोगों को लुभाने के लिये सैंकड़ों करोड़ों की नई घोषणाएं कर रही थी। पिछले छः माह में की गयी हर तरह की घोषणा को पूरा करने पर होने वाले कुल खर्च का यदि जोड किया जाये तो यह विधानसभा द्वारा पारित वार्षिक बजट के आंकड़े से भी ज्यादा बढ़ जायेगा। शैल ने उस दौरान भी इस पर विस्तार से चर्चा की हुई है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक था कि या तो सरकार सत्ता में वापसी के लिये जनता को जुमलों का झुनझुना थमा रही है या बिना सोचे समझे प्रदेश को कर्ज के दलदल में धकेल रही है। अब सरकार में आने पर कांग्रेस की यह आवश्यकता हो जाती है कि वह वायदे के अनुसार इन फैसलों की पड़ताल करती। इस पड़ताल के लिये मुख्यमंत्री सुक्खू ने विधायकांे की एक टीम बनाकर इन फैसलों की समीक्षा की। सबंधित विभागों और वित्त विभाग से जानकारी ली गई और यह सामने आया कि घोषणाएं बिना बजट प्रावधानों के की गयी हैं। वित्त विभाग ने स्पष्ट किया है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिये कोई बजट उपलब्ध नहीं है। वित्त विभाग की इस स्वीकारोक्ति से यह और सवाल खड़ा हो गया है कि जब वित्त विभाग के पास पैसा ही नहीं है तो फिर इन घोषणाओं के उद्घाटनों आयोजनों के लिए धन का प्रावधान कैसे और कहां से किया गया?

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