Friday, 19 September 2025
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सरकार फिजूलखर्ची को कैसे चिन्हित और परिभाषित करेगी गारन्टियों पर फैसलों से उठी चर्चा

  • क्या वितिय कुप्रबन्धन के लिये केवल राजनीतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार रहे हैं?
  • क्या संबद्ध प्रशासन की इसमें कोई भूमिका नही है?
  • क्या मुख्य संसदीय सचिव प्रशासनिक अनिवार्यता है या राजनीतिक विवशता?
  • क्या कुप्रबंधन की भरपायी ब्यानों से ही हो जायेगी?
  • एक की राहत के लिये दूसरे को टैक्स करना कितना सही है?

शिमला/शैल। सुक्खू सरकार ने अपनी सरकार की पहली ही मन्त्रीमण्डल बैठक में प्रदेश के कर्मचारियों के लिये पुरानी पैन्शन योजना बहाल कर दी है। इससे राज्य को 1.36 लाख कर्मचारी लाभान्वित होंगे और सरकार पर इसी वर्ष इसके लिये करीब 900 करोड़ का बोझ पड़ेगा। मुख्यमन्त्री ने पत्रकार वार्ता में दावा किया है कि इसके लिये धन का प्रबन्ध सरकार की फिजूलखर्चों पर लगाम लगाकर किया जायेगा। मन्त्रीमण्डल की इसी बैठक में महिलाओं को पन्द्रह सौ रुपए प्रतिमाह देने और युवाओं को एक लाख रोजगार उपलब्ध करवाने के फैसलों पर भी मोहर लगा दी गयी है। इन फैसलों के लिए विस्तृत योजनाएं बनाने को लेकर दो मन्त्री स्तरीय कमेटियों का भी गठन कर दिया गया है और यह कमेटीयां एक माह के भीतर सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में जनता को दस गारंटियां दी थी और यह वायदा किया था कि उक्त तीनों फैसलों को मन्त्रीमण्डल की पहली ही बैठक में लागू कर दिया जायेगा। सुक्खू सरकार ने यह फैसले लेकर पार्टी के वायदों पर अमल किया है और यह पार्टी की विश्वसनीयता बढ़ाने में लाभप्रद होगा ऐसा माना जा रहा है।
अभी सरकार को सत्ता संभाले एक माह का समय हुआ है और सरकार को पूरे पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करना है। इसलिये सरकार के हर फैसले और हर वक्तव्य पर पहले दिन से नजर बनाये रखना आवश्यक होगा। क्योंकि इसका प्रभाव कार्यकाल के अन्त तक बराबर बना रहेगा। यहां यह भी उल्लेखनीय रहेगा कि उसका भाजपा जैसे विपक्ष से आमना-सामना रहेगा। मुख्यमन्त्री और उप मुख्यमन्त्री की शपथ के बाद दूसरे ही दिन सरकार ने पूर्व भाजपा सरकार के पिछले छः माह में लिये गये फैसलों पर रोक का आदेश जारी कर दिया। भाजपा इस पहले ही फैसले के खिलाफ सड़कों पर आ गयी और इसे चुनौती देते हुये प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका तक दायर हो गयी है। इसके बाद पहले ही मन्त्रीमण्डल विस्तार में छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां करके एक और वैधानिक मुद्दा सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया है। कानून की जानकारी रखने वालों के मुताबिक इन नियुक्तियों की आवश्यकता नहीं थी। इन फैसलों का प्रभाव 2024 के लोकसभा चुनावों में देखने को मिलेगा।
नयी विधानसभा का पहला सत्र धर्मशाला में विधायकों के शपथ ग्रहण समारोह से शुरू हुआ है। इस सत्र में नेता प्रतिपक्ष पूर्व मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर सदन की शपथ से पहले ही नेता प्रतिपक्ष चुने जा चुके थे और मान्यता पा चुके थे। ऐसा पहली बार हुआ है। इसी सत्र में पिछली सरकार से विरासत में करीब 75000 करोड़ का ऋण मिलने और 600 करोड़ का धन बिना अनुमतियों और प्रावधानों के खर्च किये जाने का खुलासा भी सामने आया है। पिछली सरकार पर घोर वित्तीय कुप्रबन्धन का आरोप भी लगा है। इसी सबके साथ डीजल पर तीन रूपये प्रति लीटर वैट बढ़ाये जाने का फैसला भी जनता के सामने आया और तर्क यह दिया गया कि पिछली सरकार ने विधानसभा चुनावों के मद्देनजर यह वैट घटाया था। इसलिये पिछली सरकार के छः माह के फैसलों के दायरे में आने के कारण इसे भी पलट दिया गया। इसमें सरकार यह भूल गयी कि इससे आम आदमी को राहत मिली थी। अब यह तर्क दिया गया है कि इस वैट से होने वाली आय से 1.36 लाख कर्मचारियों को ओ.पी.एस. देने का प्रयोग किया जायेगा। इससे यह भी संकेत उभरता है कि हर राहत की भरपायी जनता से परोक्ष/अपरोक्ष में की जायेगी।
उद्योग मन्त्री हर्षवर्धन चौहान के ब्यान के मुताबिक सरकार की वित्तीय स्थिति बहुत नाजुक है। दैनिक खर्चे चलाने के लिये भी पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं है। विधानसभा सत्र में भी पिछली सरकार पर भारी वितिय कुप्रबंधन का आरोप लगा है। कुप्रबन्धन के बहुत सारे खुलासे कैग रिपोर्टों में दर्ज हैं। कांग्रेस अपना आरोप ‘‘लूट की छूट’’ के नाम से चुनाव प्रचार के दौरान जारी कर चुकी है। लेकिन अभी इस लूट की ओर कोई कारवाई किये जाने का संकेत तक सामने नही आया है। ऐसे में यह सवाल उभरने स्वभाविक है कि सरकार फिजूल खर्चो को चिन्हित कैसे करेगी? गारन्टियां पूरी करने के लिये किस वर्ग को कितना टैक्स करेगी? यदि पिछली सरकार के समय में भारी वित्तीय कुप्रबन्धन हुआ है तो क्या इसके लिये अकेले राजनीतिक नेतृत्व को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? क्या इसमें संबद्ध अफसरशाही की कोई जिम्मेदारी नही है? क्या इस कुप्रबन्धन की भरपाई केवल ब्यान देने मात्र से ही हो जायेगी? यदि कैग रिपोर्ट के आधार पर स्व.बी.एस.थिंड के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हो सकता है तो उसी तर्ज पर और रिपोर्टों के आधार पर औरों के खिलाफ क्यों नही? सरकार फिजूल खर्ची रोकने की बात कर रही है। क्या मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां प्रशासनिक बाध्यता है और इस बाध्यता को पूर्व सरकार ने पूरा न करके कोई वैधानिक अपराध किया था या यह नियुक्तियां एक राजनीतिक विवशता बन गयी है? जनता में यह चर्चा का विषय बनता जा रहा है और इसके सामने फिजूलखर्ची चिन्हित और परिभाषित करना आसान नही होगा। क्योंकि जनता ने महंगाई और बेरोजगारी से पीड़ित होकर कांग्रेस को एक विकल्प के रूप में चुना है। यदि यह विकल्प भी व्यवस्था परिवर्तन के दावों के बीच पुरानी ही लकीरों को लम्बा करता रहा हम तो जनता के लिए घातक होगा और इसके परिणाम भी घातक हो होंगे?

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