शिमला/शैल। भोरंज उप -चुनाव में सात अप्रैल को वोट डाले जायेंगे और सात अप्रैल को ही तय समय के मुताबिक बजट सत्र समाप्त होगा। प्रदेश विधानसभा के चुनाव इसी वर्ष होने हैं। भोरंज उपचुनाव के बाद ही नगर निगम शिमला के चुनाव होने हैं। शिमला नगर निगम के चुनावों को प्रदेश का सांकेतिक माना जाता रहा है क्योंकि प्रायःनिगम के चुनाव विधानसभा के चुनावी वर्ष में ही आते रहे हैं लेकिन इस बार चुनावी वर्ष में ही यह उपचुनाव आ गया है। अभी संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में चार राज्यों में भाजपा की सरकारें बन गयी हैं लेकिन हिमाचल के साथ लगते बड़े राज्य पंजाब में कांग्रेस को भी यूपी जैसी ही सफलता मिली है। ऐसे में जहां भाजपा यूपी और उत्तराखण्ड को अपनी बड़ी चुनावी सफलता के रूप में इस उपचुनाव में प्रचारित-प्रसारित करके भुनाने का प्रयास करेगी वहीं पर कांग्रेस पंजाब की सफलता से इसकी काट करेगी। यह उपचुनाव कांग्रेस और भाजपा के प्रदेश में राजनीतिक भविष्य का एक बड़ा संकेतक बन जायेगा यह तय है। कांग्रेस और वीरभद्र के लिये यह उपचुनाव ज्यादा राजनीतिक अर्थ रखता है।
कांग्रेस ने इस चुनाव के राजनीतिक अर्थों को समझते हुए ही इसमें पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेन्द्र सिंह को चुनाव प्रचार के लिये आमन्त्रित किया है। स्मरणीय है कि वर्ष 2003 के चुनावों के दौरान भी अमरेन्द्र सिंह ने इसी हमीरपुर से धूमल पर हमला बोलते हुये आय से अधिक संपति के आरोप लगाये थे । यह आरोप आज भी कांग्रेस के उप महाधिवक्ता विनय शर्मा की शिकायत के रूप में वीरभद्र की विजिलैन्स के पास जांच के लिये लंबित चल रह हैं। वीरभद्र की विजिलैन्स इन आरोपों पर पंजाब सरकार के सहयोग के लिये बादल शासन के समय से ही पत्र लिखती आ रही है। अब पंजाब में कांग्रेस की सरकार भी आ गयी है और उसके मुखिया अमरेन्द्र सिंह वीरभद्र सिंह के निकट रिश्तेदार भी बन गये हैं। विजिलैन्स ने अमरेन्द्र की सरकार आने के बाद भी धूमल के संद्धर्भ में पत्र लिखा है। ऐसे में बहुत संभव है कि अमरेन्द्र इस बार भी हमीरपुर आकर धूमल के खिलाफ कोई बड़ा हमला बोल जाये। इस समय प्रदेश कांग्रेस के अन्दर इसके सहयोगी सदस्य बलवरी वर्मा के भाजपा में जा मिलने से राजनीतिक वातावरण में हलचल शुरू हो गयी है। विद्रोह की अटकलें चर्चा में हैं। ऐसे में इस बन रहे राजनीतिक माहौल को शांत और नियन्त्रण में रखने के लिये कांग्रेस और वीरभद्र के पास इस उपचुनाव में जीत हासिल करने के अलावा और कोई विकल्प नही है। यदि ऐसा नही हो पाया तो कांग्रेस को विखरने में देर नही लगेगी।
दूसरी ओर भाजपा के पास यूपी और उत्तराखण्ड की अभूतपूर्व जीत का जन वातावरण है। इस जन भावना को हिमाचल में भी जमीन पर उतारने के लिये भाजपा को जमीन पर काम करने की आवश्कता है यह सन्देश देने का प्रयास करना होगा कि कांग्रेस का आम कार्यकर्ता भाजपा की इस जीत के बाद हताश और निराश हो चुका है और कांग्रेस छोड़कर भाजपा का दामन थामना चाहता है। विधायक बलवीर वर्मा और पूर्व प्रवक्ता दीपक शर्मा का भाजपा में शामिल होना इसी दिशा की रणनीति है लेकिन हिमाचल के संद्धर्भ में इस जीत के बाद यह भी चर्चा छिड़ गयी है कि भाजपा में अगला मुख्यमन्त्री कौन होगा? पूर्व मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल के साथ ही केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा का नाम भी बराबर चर्चा में आ गया है। नड्डा के प्रदेश दौरों में भाजपा नेताओं का जो वर्ग उनके साथ ज्यादा खड़ा दिख रहा है वह कभी विरोधीयों के रूप में देखा जाता रहा है। इस तरह भाजपा के अन्दर अभी से ही धड़े बन्दी चचिर्त होने लग पड़ी है। कांग्रेस इस धड़ेबन्दी को यह कहकर हवा दे रही हैं कि धूमल अब अलग-थलग पड़ते जा रहे हंै। जबकि भाजपा में धूमल का जनाधार नड्डा से कहीं ज्यादा है। इसी के साथ भाजपा का एक वर्ग धूमल-नड्डा के अतिरिक्त यह भी प्रचारित करने लग पड़ा है कि अगला मुख्यमन्त्री कोई तीसरा ही होगा और इस कड़ी में संघ नेता अजय जम्बाल का नाम भी उछाल दिया गया है। भाजपा की यह उभरती और प्रचारित होती गुटबंदी भाजपा के लिये नुकसान देह हो सकती है। इस प्रचारित होती गुटबंदी को भी विराम देने के लिये इस उपचुनाव में भाजपा को इसे प्रमाणित करना आवश्यक होगा।
इस समय इस उपचुनाव में दोनों पार्टियों के विद्रोही चुनाव मैदान बने हुए हैं। यह संकेत और स्थिति दोनों पार्टियों के लिये चेतावनी है ऐसे में इस उपचुनाव में कांग्रेस और भाजपा दोनों की प्रतिष्ठा दांव पर है। भाजपा को इसमें जीत का अन्तर बढ़ाने की चुनौती है क्योंकि यह सीट दो दशकों से अधिक समय से भाजपा के पास चली आ रही है। भाजपा का इस समय प्रदेश की राजनीतिक में कोई विकल्प नही है यह संदेश इस जीत का अन्तर बढ़ाने से ही जायेगा। दूसरी ओर वीरभद्र को सातंवी बार मुख्यमन्त्री बनाने के दावे को पूरा करने के लिये यह उपचुनाव जीतना आवश्यक है। ऐसे में अपने-अपने दावों को पूरा करने के लिये वीरभद्र और धूमल दोनों को इस चुनाव प्रचार में व्यक्तिगत तौर पर उतरना होगा। लेकिन बजट सत्र के चलते दोनों नेताओं को सत्र छोड़कर प्रचार में जाना संभव नहीं होगा। ऐसे में माना जा रहा है कि चुनाव प्रचार के लिये समय देने की गरज से सत्र का समय कम करने का फैसला ले सकते हैं।
शिमला/शैल। धर्मशाला प्रदेश की दूसरी राजधानी बनेगी या धर्मशाला को केवल दूसरी राजधानी होने का दर्जा दिया जायेगा यह विधानसभा में उठी बहस में भी साफ नही हो पाया है। क्योंकि मन्त्रीमण्डल ने इस आशय का जो फैसला लिया है उसके प्रतिसदन के पटल तक नहीं पंहुच पायी है। मन्त्रीमण्डल के समक्ष रखे गये प्रस्ताव की Statement of objection मेें क्या कहा है यह भी अभी तक सामने नही आ पाया है। किसी शहर को राजधानी घोषित करने की एक तय
प्रक्रिया है और उसके कुछ तय मानक हैं। राजधानी बनाया जाने वाला शहर उन मानकों को कितना पूरा करता है इस विस्तृत विचार करना आवश्यक होता है क्योंकि राजधानी बनाने और एक तहसील का कार्यालय खोलने में अन्तर होता है। अभी तक देश के किसी भी राज्य में एक साथ दो राजधानीयों की व्यवस्था नही है। जम्मू-कश्मीर में भी छः माह के लिये जम्मु और श्रीनगर में पूरी राजधानी रहती है। यह नही होता कि एक ही वक्त में जम्मू और श्रीनगर के लिये एक ही आदेश की दो प्रतियां बनाकर एक जम्मू के नाम से और दूसरी श्रीनगर शहर जो राजधानी के मानक तो पूरे करता हो परन्तु वह Seat of Governance के लिये उपयुक्त स्थान न हो। ऐसे में राजधानी और Seat of Governance दो अलग-अलग स्थान हो सकते हैं। इस परिप्रेक्ष में यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाने की आवश्यकता क्यों खड़ी हुुई है। क्या शिमला से प्रदेश का प्रशासन चलाना कठिन हो रहा है। इन सारे बिन्दुओं पर चर्चा के लिये एक ही मंच है। विधानसभा पटल और उसी में यह चर्चा नही हो पायी है। राजधानी केवल राजधानी होती है वह पहली और दूसरी नही होती है।
लेकिन धर्मशाला-शिमला को लेकर इस संद्धर्भ में चर्चा होने से पहले ही इसे राजनीति का रंग दे दिया गया है। धर्मशाला को दूसरी राजधानी घोषित करने के ऐलान के साथ ही पूरे मुद्दे को यह मोड दे दिया गया कि यहां से अधिकारिक तौर पर काम कब से शुरू होगा। कब इसकी अधिसूचना जारी होगी। कब सारे कार्यालय यहां स्थानान्तरित होंगें। इसके विस्तार के लिये धर्मशाला में कंहा जमीन का अधिग्रहण किया जायेगा। जैसे ही इन बिन्दुओं पर जनता में चर्चा उठी उसी अनुपात में शिमला, सोलन और सिरमौर के क्षेत्रों में इसको लेकर विरोध के स्वर मुखर हो गये। चैपाल में वाकायदा इसके खिलाफ प्रस्ताव पारित किया गया। चैपाल से मुखर हो विरोध के स्वर जब अन्य स्थानों पर फैले तो शिमला के कालीबाड़ी हाल में भी इस तरह का विरोध प्रस्ताव पारित करने की रणनीति बनी। लेकिन आयोजन को शक्ल लेने से पहले ही जिला प्रशासन के अपरोक्ष दखल से रद्द कर दिया। लेकिन जैसे ही इस उठते विरोध की भनक वीरभद्र सिंह को मिली उन्होने तुरन्त सदन में यह कह दिया कि अभी शिमला से कोई कार्यालय और कर्मचारी धर्मशाला के लिये स्थानान्तरित नहीं होंगे। लेकिन धर्मशाला को लेकर किया गया मन्त्रीमण्डल का फैसला अभी तक बरकार है। शिमला, सोलन, सिरमौर से इस फैसले को वापिस लेने की मांग उठ गयी है। यदि यह फैसला वापिस न लिया गया तो इस क्षेत्र में इसके परिणाम कांग्रेस और स्वयं वीरभद्र के लिये भारी पड़ सकते हैं क्योंकि जनरोष बढ़ता जा रहा है।
दूसरी ओर धर्मशाला को दूसरी राजधानी घोषित करके प्रदेश के सबसे बडे़ जिले को साधने का जो प्रयास किया गया था उस पर भी वीरभद्र के सदन में दिये जबाव के बाद प्रश्न चिन्ह लगने शुरू हो गये हैं। वीरभद्र के जबाव के बाद यह संदेश गया है कि धर्मशाला को दूसरी राजधानी घोषित करने की ब्यानबाजी और फैसला महज चुनावी घोषणा है। ऐसे में कांगड़ा के जो नेता धर्मशाला को राजधानी घोषित करवा कर इसे अपनी एक बड़ी राजनीतिक उपलब्धी करार देकर चुनावी सुरक्षा सुनिश्चित करने में लगे थे उनके प्रयासों पर भी पानी फिरता नजर आ रहा है। लगता है कि वीरभद्र और उनके सलाहकार धर्मशाला को लेकर रचे चक्रव्यूह को स्वयं ही भेदने में असफल हो गये हैं।
शिमला/जे पी भारद्वाज
अभी हुए चुनावों में भाजपा चार राज्यों में सरकार बनाने में सफल हो गयी है। उतर प्रदेश और उतराखण्ड में अप्रत्याशित जीत हासिल हुइ है। इस जीत का कद इतना बड़ा था कि इसमे गोवा और मणीपुर की हार इन राज्यों में कांग्रेस का सबसे बडी पार्टी बनकर आना भी उसे बहुमत न मिलना करार दिया गया। यह जीत इतनी बड़ी है कि इसमें अभी किसी तर्क के सुने जाने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा है। स्वभाविक है कि इस जीत का असर अभी काफी समय तक रहेगा और खासकर उन राज्यों में जहां इसी वर्ष चुनाव होने हैं। उत्तराखण्ड और यूपी में चुनावों से पहले लगभग सभी दलों में तोड़ फोड़ हुई है। दूसरे दलों से कई नेता भाजपा में गये और वहां टिकट पाने में सफल भी हो गये तथा अब मन्त्री भी बन गये हैं। हिमाचल में भी इसी वर्ष चुनाव होने हैं और यूपी तथा उत्तराखण्ड की तर्ज पर यहां भी राजनीतिक तोड़-फोड़ पाले बदलने का दौर शुरू हो रहा है।
चैपाल के निर्दलीय विधायक बलवीर वर्मा जीतने के बाद वीरभद्र सिंह के साथ जा खडे़ हुए थे और कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन गये थे। बलवीर वर्मा की तरह अन्य निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस के साथ खडे हो गये थे और कांग्रेस की सहयोगी सदस्यता ले ली थी। यह सहयोगी सदस्यता लेने पर भाजपा के सुरेश भारद्वाज ने इनके खिलाफ विधानसभा स्पीकर के पास एक याचिका भी दायर कर रखी है जो कि अभी तक लंबित है। इस याचिका में इन्हें अयोग्य घोषित करने की मांग की गयी है। लेकिन आज बलवीर वर्मा भाजपा के साथ खड़े हो गये हैं और उनके भाजपा सदस्य बनने की विधिवत घोषणा कभी भी सभंव है। वर्मा की तर्ज पर अन्य निर्दलीय विधायकों के भी भाजपा में शामिल होने की संभावनाएं चर्चा में हैं।अभी जब केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा शिमला थेे उस समय बलवीर वर्मा और राजन सुशांत का वहां होना इसी दिशा के संकेत हैं। यह भी स्वभाविक है कि विधानसभा चुनावों से पहले भाजपा को प्रदेश के हर उस मुखर स्वर को जो आज कांग्रेस के साथ नही है, अपने साथ मिलाकर यह संदेश देना होगा कि प्रदेश में भाजपा के लिये कहीं से भी कोई चुनौती नही है। भाजपा के जो लोग नाराज होकर आम आदमी पार्टी में जा बैठे थे उन्हे भाजपा में वापिस लाना एक ऐजैन्डा होगा। इस समय जो राजनीकि माहौल खड़ा हुआ है उसमें यह सब अभी आसानी से हो भी जायेगा।
लेकिन जैसे ही बलवीर वर्मा के भाजपा में शामिल होने की चर्चा बाहर आयी उसी के साथ चैपाल के भाजपा कार्यकर्ताओं में रोष भी मुखर हो गया है। कार्यकर्ता बलवीर वर्मा को आगे उम्मीदवार न बनाये जाने की मांग लेकर होईकमान के पास दस्तक देने का मन बना चुके हैं। कार्यकर्ताओं की ऐसी नाराजगी और भी कई स्थानों पर आने वाले दिनों में देखने को मिल सकती है। भाजपा में जहां राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक स्थितियां काफी सुखद हो गयी हैं वहीं पर हिमाचल में उसका मुकाबला वीरभद्र जैसे व्यक्ति से है। वीरभद्र आज फिर कांग्रेस में प्रदेश के एकछत्र नेता बन गये हैं भाजपा की जीत ने उनका रास्ता बहुत सीधा कर दिया है कांग्रेस के अन्दर उन्हे कोई चुनौती नहीं रह गयी है। जबकि भाजपा नेतृत्व के प्रश्न पर स्पष्ट नही हो पा रही है। धूमल, नड्डा अभी से दो अलग -अलग सशक्त खेमे बनकर सामने हैं। फिर जिस ढंग से यूपी और उतराखण्ड में संघ की पृष्ठभूमि के लोगों को नेतृत्व सौंपा गया है उससे यहां भी कयास लगने शुरू हो गये हैं कि यहां भी कोई संघ की पृष्ठभूमि का व्यक्ति ही नेता होगा। धूमल और नड्डा दोनों ही संघ की हाईलाईन से बाहर के नेता हैं। बल्कि इस कडी में अजय जमवाल का नाम सेाशल मीडिया में वायरल भी हो गया है। ऐसे में पाले बदलने का जो दौर शुरू हुआ है उससे अपने कार्यकर्ताओं की नाराजगी कभी भारी भी पड़ सकती है। क्योंकि ऐसी लहर के दौरान ही सामान्य कार्यकर्ता को उभरने का अवसर मिलता है।
शिमला/शैल। हमीरपुर की भोरंज विधानसभा का उपचुनाव 9 अप्रैल के लिये घोषित हो गया है। प्रदेश विधानसभा के चुनाव भी इसी वर्ष के अन्त तक होने हैं। राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं ने वीरभद्र को सातंवी बार मुख्यमन्त्री बनाने की घोषणा और दावा कर रखा है।
दूसरी ओर भाजपा ने देश को कांग्रेस मुक्त बनाने का लक्ष्य घोषित कर रखा है। इस समय भाजपा ने जिस तरह उत्तराखण्ड और यूपी में सत्ता हासिल की है उससे वह इस लक्ष्य की ओर बढ़ती भी नजर आ रही है। भले ही इन राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों का एक बड़ा सन्देश यह भी है कि सभी जगह सत्तारूढ़ सरकारें हारी हैं और उत्तराखण्ड तथा गोवा में तो मुख्यमन्त्री भी हारे हैं लेकिन सत्तारूढ सरकारों की हार से यूपी और उतराखण्ड में मिला
प्रचण्ड बहुमत एक बड़ा सन्देश बन गया है। हालांकि पंजाब में कांग्रेस को भी वैसा ही प्रचण्ड बहुमत मिला है। इस परिदृश्य में होने जा रहे भोरंज विधानसभा के उपचुनाव की राजनीतिक महता प्रदेश के सद्धर्भ में बडी हो जाती है।
पूर्व शिक्षा मन्त्री स्व0 ईश्वर दास धीमान के निधन से खाली हुई सीट पर एक लम्बे अरसे से भाजपा का कब्जा चला आ रहा है। इसमें हमीरपुर से ही प्रेम कुमार धूमल के दो बार मुख्यमन्त्री होने का योगदान भी रहा है। इसमें कोई दो राय नही हो सकती। लेकिन इस बार वीरभद्र और धूमल दोनों के लिये ही राजनीतिक हालात में बहुत बदलाव आ चुका है। वीरभद्र राजनीतिक सफर के आखिरी पडाव पर हैं लेकिन परिवार में उनकी इस विरासत को संभालने वाला अभी कोई स्थापित नही हो पाया है। पत्नी प्रतिभा सिंह दो बार सांसद रहने के बावजूद भी इस गणित में सफल नहीे हो पायी है। अब बेटे विक्रमादित्य सिंह को विधानसभा में देखना उनकी ईच्छा और आवश्यकता दोनों बन चुकी है। इसे पूरा करने के लिये सातंवी बार मुख्यमन्त्री बनने की घोषणा और दावा करना भी उनकी राजनीतिक आवश्यकता है। इस दिशा में जिस तरह से उन्होनें संगठन और सरकार में मन्त्रीयों से इस आश्य के समय-समय पर ब्यान दिलवाये है वह उनकी रणनीतिक सफलता मानी जा सकती है। लेकिन आने वाले चुनाव के मुद्दे क्या होंगे? यह एक बडा सवाल है विकास के नाम पर जितनी घोषनाएं की गयी है उनकी जमीनी हकीकत क्या है? प्रदेश के संसाधन क्या रहे है? चुनावी वायदों को पूरा करने के लिये कितना कर्ज लिया गया है? आज प्रदेश पर जितना कुल कर्जभार हो चुका है उसकी भरपायी के लिये कितना कर्ज भविष्य में साधन कहां से आयेंगे? यदि यह कड़ेऔर कडवे सवाल चुनावी मुद्दे बन गये तो स्थिति सभी के लिये कठिन हो जायेगी। ऐसे में विकास के नाम पर चुनाव लड़ना काफी जोखिम भरा हो सकता है।
इन गंभीर मुद्दों के साथ ही भ्रष्टाचार एक ऐसा मुद्दा हो जाता है जो कि सब पर भारी पड़ जाता है। वीरभद्र के इस कार्यकाल में भ्रष्टाचार को लेकर भाजपा तीन आरोप पत्र सौंप चुकी है।अन्तिम आरोप पत्र में सरकार के मन्त्रीयों से हटकर विभिन्न निगमों-बोर्डो राज्य के सहकारी बैंकों और प्रदेश के विश्वविद्यायलों के साथ -साथ कुछ विधायकों तक का जिक्र इस आरोप पत्र में है। राज्यपाल के अभिभाषण पर हुई चर्चा में भी आरोप पत्र का जिक्र आ चुका है। भ्रष्टाचार इसलिये सबसे बड़ा मुद्दा बन जाता है। क्योंकि जनता यह सहन नही करती कि लिये किये जाने वाले विकास के नाम पर विकास केवल भ्रष्टाचार किया जाये।इस परिपेक्ष में भाजपा के आरोपपत्र कांग्रेस और वीरभद्र पर भारी पड सकते हैं। यदि उन्हें चर्चा में ला दिया गया तो। फिर वीरभद्र स्वंय सीबीआई और ईडी जांच का सामना कर रहे है। इस भ्रष्टाचार के संद्धर्भ में वीरभद्र ने धूमल को घेरने के जितने भी प्रयास किये हैं उनमें सफलता की बजाये केवल फजीहत का ही सामना करना पड़ा है।
वीरभद्र ने इन सारे संभावित सवालों से ध्यान बांटने के लिये ही धर्मशाला को दूसरी राजधानी बनाये जाने की घोषणा की है। मन्त्रीमण्डल से भी इस पर मोहर लगवा ली है। इसी के साथ बेरोजगारी भत्ता देने की भी घोषणा कर दी गयी है। अपने गिर्द बने मामलों के लिये वीरभद्र इसे धूमल-अनुराग और जेटली का षडयंत्र करार देते आ रहे हैं। जनता में वह हर संभव मंच से यह कहना नही भूलते है कि एक ही मामले की जांच के लिये केन्द्र सरकार ने उनके खिलाफ तीन-तीन एजैन्सीयां लगा रखी है और यह सच भी है अभी तक वीरभद्र के अपने खिलाफ केन्द्र की कोई भी एजैन्सी बड़ा कुछ नही कर पायी है। अदालत में भी फैसला काफी अरसे से लंबित चला आ रहा है। ऐसे में धूमल और वीरभद्र भोरंज के उपचुनाव में किस तरह के मुद्दों को उछालते है या फिर इसे मोदी लहर के नाम पर छोड़ देते है इस संद्धर्भ में यह उपचुनाव दोनों नेताओं की प्रतिष्ठा और परीक्षा का सवाल बन जायेगा यह तय है।