Friday, 19 December 2025
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क्या अधिकारियों के आपसी हितों के टकराव का परिणाम है 14 करोड़ का सब्सिडी प्रकरण

शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश का बागवानी विभाग इन दिनों अचानक चर्चाओं का केन्द्र बन गया है, क्योंकि राष्ट्रीय बागवानी मिशन के तहत 2010-11 में स्थापित की गयी एंटीहेल गन खरीद को लेकर विजिलैन्स विभाग ने अब एक एफआईआर दर्ज की है। मिशन निदेशक और हेलगन स्पलाई करने वाली कंपनी ग्लोबल एवियेशन हैदराबाद के नाम यह मामला दर्ज हुआ है। जब से यह हेलगन स्थापित हुई है तभी से संबंधित क्षेत्र के बागवान इसके परिणामों से सन्तुष्ट नहीं रहे है। इस खरीद की जांच किये जाने की मांग तभी से उठती आयी है। कांग्रेस के आरोप पत्र में भी इस मामले को उठाया है लेकिन इस मामले में एफआईआर अब नगर निगम चुनावों के बाद हुई है। स्मरणीय है कि भारत सरकार ने वर्ष 2008- 09 में प्रदेश सरकार को इसके लिये 80 लाख रूपये दिये थे। इसके बाद वर्ष 2009 -10 में 2.80 लाख रूपया प्रदेश को दिया और इस तरह तीन करोड़ में से 2.89 करोड़ में ग्लोबल एवियेशन से हेलगन की खरीद हो गयी। इस पूरे प्रकरण की प्रक्रिया सचिवालय और सरकार के स्तर पर ही अंजाम में लायी गयी है। इसलिये विजिलैन्स की जांच इस सं(र्भ में तत्कालीन बागवानी मन्त्री और सचिव तक अवश्य आयेगी। इस हेलगन के आप्रेशन के लिये संभवतः रक्षा मन्त्रालय से भी अनुमति ली जानी थी जो कि शायद नही ली गयी है।
हेलगन प्रकरण अभी शान्त भी नही हुआ था कि ठियोग के बलघार में बने कोल्डस्टोर के लिये दी गयी 14 करोड़ की सब्सिडी पर सवाल उठ गये। मुख्यमन्त्री ने भी इस प्रकरण में जांच करवाये जाने की बात की है। मजे की बात यह है बागवानी विभाग के परियोजना निदेशक डा. प्रदीप संाख्यान जिन्होने यह सब्सिडी जारी की है उन्होने भी इसमें उच्च स्तरीय जांच की मांग की है। बलघार में यह कोल्डस्टोर भारत सरकार की 50ः उपदान योजना के तहत 2015-16 में स्थापति हुआ है। 28 करोड़ के निवेश का यह कोल्डस्टोर एक हिम एग्रो फ्रैश ने स्थापित किया है। केन्द्र सरकार में यह प्रौजैक्ट 20.7.2015 को स्वीकृत हुआ और फिर इसके निर्माण का कार्य शुरू हुआ। इसका निर्माण शुरू होनेे के बाद विभाग की पहली संयुक्त निरीक्षण कमेटी ने 11.7.2016 को इसका निरीक्षण किया। इस कमेटी का गठन विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण श्रीधर द्वारा किया गया था। परियोजना निदेशक, वरिष्ठ मार्किटिंग अधिकारी, फ्रूट टैक्नौलोजिस्ट, विषय विशेषज्ञ, बैंकर और कोल्डस्टोर स्थापित करने वाली कंपनी के प्रतिनिधि इस निरीक्षण कमेटी के सदस्य थे। इस कमेटी की रिपोर्ट के बाद कंपनी को तब तक हुए काम और निवेश के आधार पर 3.8.2016 को 20 लाख की सब्सिीडी रिलिज कर दी जबकि 25.93 लाख दी जानी थी। 5.93 लाख इसलिये नहीं दी गयी कि विभाग के पास पैसा ही नही था। इस निरीक्षण कमेटी ने मौके पर हुए काम के बारे में पूरा सन्तोेष व्यक्त किया है।
इस पहली निरीक्षण के बाद विभाग के निदेशक डा. बवेजा स्वयं 10.3.2017 को इस कोल्डस्टोर को देखने गये। इसी बीच विभाग को केन्द्र से इसकी सब्सिडी के 11 करोड़ मिल जाते हैं और 23.3.2017 को विभाग इस पैसे को ड्रा कर लेता है। यह पैसा आने के बाद कंपनी को 5.93 लाख की पैमैन्ट कर दी जाती है जो पहले नही हो पायी थी। जब निदेशक डा. बवेजा इसके निरीक्षण के लिये गये तो उन्होनेे इसके निर्माण आदि पर कोई सवाल खडे नहीं किये। बल्कि 29.4.17 को अपनी रिपोर्ट में केवल यह कहा कि निरीक्षण टीम में कुछ और विशेषज्ञ शामिल कर लिये जायें। निदेशक के इस सुझाव पर एसएलईसी की फिर प्रधान सचिव की अध्यक्षता में बैठक हुई और इसमें पहली कमेटी में एचपीएमसी के रैफरिजेटर इंजिनियर डीजीएम और नौणी विश्वविद्यालय के प्रौफैसर को भी शामिल कर लिया विभाग के प्रधान सचिव जेसी शर्मा ने 22.5.17 को यह दूसरी संयुक्त निरीक्षण टीम का गठन कर दिया। इसी टीम ने 26.5.2017 को कोल्डस्टोर का निरीक्षण करके अपनी रिपोर्ट उसी दिन सौंप दी। यह रिपोर्ट मिलने के बाद 27.5.17 को ही सब्सिडी का सारा शेष पैसा कंपनी को रिलीज कर दिया गया। जब यह दूसरी निरीक्षण टीम गठित हुई निरीक्षण पर की गयी, उसने अपनी रिपोर्ट सौंपी और रिपोर्ट के दूसरे ही दिन सब्सिडी रिलिज कर दी गयी। इस पूरी प्रक्रिया में पांच दिन का समय लगा। 22.5.17 को यह प्रक्रिया शुरू होती है और 27.5.17 को पेमैन्ट के साथ पूरी हो जाती है। सब्सिडी रिलिज करने के लिये कंपनी ने सर्वोच्च न्यायालय के एक वकील कंवर जीत सिंह के माध्यम से विभाग को एक नोटिस भी जारी किया था।
इस पूरे प्रकरण में यह सवाल उठाया जा रहा है कि पूरी प्रक्रिया केवल पांच दिन में ही क्यों पूरी कर गयी? इस दौरान विभाग के निदेशक संभवतः विदेश दौरे पर थे और यह सारी प्रक्रिया प्रधान सचिव जेसी शर्मा के आदेशों से पूरी हुई है। इसमें यह महत्वपूर्ण है कि पहली जेआईटी केन्द्र की गाईडलाईनज़ पर विभाग के तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव तरूण श्रीधर के आदेशों पर गठित हुई थी। इस जेआईटी में निदेशक बवेजा ने कुछ और विशेषज्ञ शामिल करने का सुझाव दिया? क्या उनकी नजर में पहली जेआईटी सक्षम नही थी? बवेजा के निर्देशों पर दूसरी जेआईटी गठित होती है और उसमें तीन नये लोग शामिल कर लिये जाते हैं। क्या बवेजा के निर्देशों पर दूसरी जेआईटी में तीन नये विशेषज्ञ शामिल किये जाने आवश्यक थे? यदि यह आवश्यक थे और उन्हे शामिल भी कर लिया गया तो क्या इस दूसरी जेआईटी की रिपोर्ट भी बवेजा के समाने नही रखी जानी चाहिये थी? क्या निरीक्षण टीम के सदस्यों की योग्यता पर दोनों बार डा. बवेजा को सन्देह था या फिर उनकी मंशा कुछ और थी? यदि मुख्यमन्त्री वास्तव में इसकी जांच करवाते हंै तभी इन सारे सवालों का खुलासा हो पायेगा। वैसे इस प्रकरण के इस तरह चर्चा में आने से भविष्य में कोई भी निवेश करने के लिये आगे नही आयेगा।

क्या बड़े बाबूओं के हितों के टकराव के कारण नहीं भरे जा रहे रेगुलैटरी कमीशन और ट्रिब्यूनल के खाली पद

शिमला/शैल। प्रदेश का शिक्षा के लिये गठित रेगुलेटरी कमीशन एक वर्ष से भी अधिक समय से खाली चला आ रहा है। प्रदेश में पिछले छः महीने से ही कोई लोकायुक्त भी नही है। पिछले दिनो प्रदेश प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में प्रशासनिक सदस्य का खाली हुआ पद भी अभी तक भरा नहीं गया है। यह सारे संस्थान महत्वपूर्ण संस्थाएं हैं और इनका इस तरह खाली रहना न केवल इनकी अहमियत को ठेस पहुंचाता है बल्कि सरकार और उसके शीर्ष प्रशासन की नीयत और नीति पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है। रेगुलेटरी कमीशन और प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में सरकार के मौजूदा या सेवानिवृत हो चुके बडे़ बाबूओं में से ही किसी की तैनाती होनी है। इन पदों के लिये दर्जनों बाबुओं ने दावेदारी भी पेश कर रखी है। लोकायुक्त के पद पर किसी उच्च न्यायालय का वर्तमान या सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश या फिर सर्वोच्च न्यायालय का भी ऐसा ही कोई न्यायधीश नियुक्त होना है। चर्चा है कि इस पद के लिये अन्यों के अतिरिक्त प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश मंसूर अहमद मीर और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत मुख्य न्यायधीश टी एस ठाकुर भी दावेदार हैं। इन दोनों के ही मुख्यमन्त्राी के साथ अच्छे व्यक्तिगत संबंध है। संभवतः इन्ही संबंधो के कारण यह चयन कठिन हो गया है।
लेकिन रेगुलेटरी कमीशन और प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में नियुक्तियां क्यों नही हो पा रही हैं इसको लेकर कई तरह की चर्चाएं उठनी शुरू हो गयी हैं। इस समय वीसी फारखा की बतौर मुख्यसचिव पदोन्नति और तैनाती को उनसे वरिष्ठ विनित चैधरी ने कैट में चुनौती दे रखी है। इसमें अभी प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार से जवाब दायर होने हैं। माना जा रहा है कि इस समय केन्द्र सरकार में सचिव कार्मिक का पदभार अजय मित्तल के पास आ गया है और मित्तल हिमाचल कार्डर से ही ताल्लुक रखते हैं इसलिये अब केन्द्र सरकार से जवाब आने में ज्यादा समय नही लगेगा। बल्कि फारखा के बाद तरूण श्रीधर दूसरे वरिष्ठ अधिकारी हैं और केन्द्र के सचिव पैनल में आ गये है। मुख्यमन्त्राी ने उनके दिल्ली जाने को भी हरी झण्डी दे दी है। परन्तु विनित चैधरी की याचिका में फारखा से ज्यादा तरूण श्रीधर की भूमिका पर सवाल खड़े किये गये हैं। संभवतः इन्ही सवालों के साथ उनके केन्द्र में सचिव पद के चयन पर भी सवाल उठाये गये हैं और इन सवालों पर राज्य सरकार से भी जवाब मांगा गया है। इस परिदृश्य में फारखा और श्रीधर दोनों ही अधिकारियों के रेगुलेटरी कमीशन या ट्रिब्यूनल में जाने की संभावना बहुत कम है क्योंकि अभी दोनों की नौकरी काफी शेष है। फिर फारखा को मुख्यमन्त्री भी छोड़ना नही चाहंेगे। लेकिन कल को विधानसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही इलैक्शन कोड लागू होने पर यदि उनके मुख्य सचिव रहने पर चुनाव आयोग में आपत्ति उठा दी जाती है तो उस स्थिति में एकदम सारा परिदृश्य बदल जायेगा। लेकिन इस स्थिति को आने में अभी दो तीन माह का समय लग जायेगा।
ऐसे में यह सवाल सचिवालय के गलियारों की चर्चा बना हुआ है कि अभी निकट भविष्य में इन पदों को भरे जाने की संभावना नही है। परन्तु इसी के साथ यह भी चर्चित हो रहा है कि यदि कोड आॅफ कन्डक्ट लागू होने तक यह पद नही भरे जाते हैं तो फिर यह नियुक्तियां नई सरकार के गठन के बाद ही हो पायेंगी। मजे की बात यह है कि इन अहम पदों के खाली चले आने पर विपक्ष की ओर से भी कोई सवाल नही उठाये जा रहें हैं। रेगुलेटरी कमीशन में मुख्यमन्त्री के प्रधान निजि सचिव सुभाष आहलूवालिया की पत्नी मीरा वालिया ने प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत होकर बतौर सदस्य ज्वाईन किया था लेकिन जैसे ही लोक सेवा आयोग में सदस्य का पद खाली हुआ तो मीरा वालिया ने रेगुलेटरी कमीशन से त्यागपत्रा देकर लोकसेवा आयोग में जिम्मेदारी संभाल ली। अब रेगुलैटरी कमीशन बिल्कुल खाली हो गया है। इन पदों को समय पर भरने के लिये और सारी स्थिति को मुख्यमन्त्राी के संज्ञान में लाने की जिम्मेदारी मुख्यमन्त्री के अपने ही कार्यालय की होती है, परन्तु मुख्यमन्त्री के कार्यालय पर तो सेवानिवृत अधिकारियों का कब्जा है। उन्होने चुनाव लड़कर जनता से वोट मांगने तो जाना नही है। फिर ऐसे पदों के इतने लम्बे समय तक खाली रहने से सरकार की जनता में छवि पर क्या असर पड़ता है इससे उनको कोई सरोकार कैसे हो सकता है। माना जा रहा है कि बडे़ बाबूओं के हितों में चल रहे टकराव के कारण अभी यह पद भरे जाने की कोई संभावना नही है।

भ्रष्टाचार के प्रकरण में वीरभद्र की विजिलैन्स की सक्रियता और भाजपा की अस्पष्टता क्या रंग दिखायेगी

शिमला/शैल।  नगर निगम शिमला के चुनावों के बाद जहां भाजपा ने सत्ता परिवर्तन के लिये रथ यात्राएं शुरू की हैं वहीं पर वीरभद्र की विजिलैन्स ने भी अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। भाजपा की रथ यात्रा में वीरभद्र सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर जनता को जागृत किया जा रहा है। उधर विजिलैन्स ने भ्रष्टाचार के दो मामलों में एफआईआर दर्ज कर ली है। एक एफआईआर धूमल शासन में खरीदी गयी एंटी हेलगन मामले में है तो दूसरी आईपीएच की गिरी वाॅटर स्पलाई योजना को लेकर है। इन दोनों मामलों में विजिलैन्स को एफआईआर दर्ज करने की अनुमति अभी निगम चुनावों के दौरान ही दी गयी है। स्वभाविक है कि यह अनुमतियां दिये जाने से पहले यह मामले मुख्यमन्त्री और उनके सचिवालय के संज्ञान में लाये गये होंगे क्योंकि गृह और सतर्कता का कार्यभार भी मुख्यमन्त्री के अपने ही पास है। यह मामले कांग्रेस के आरोप पत्र में दर्ज रहे हैं और आरोप पत्र विजिलैन्स को जांच के लिये भी सत्ता संभालने के बाद हुई पहली मन्त्रीमण्डल की बैठक में भेजने का निर्णय ले लिया गया था। ऐसे में यह सवाल उठना भी स्वभाविक है कि यह मामले अभी क्यों दर्ज हुए और क्या इनके अन्तिम परिणाम अभी आ पायेंगे? ऐसी संभावना कम है क्योंकि अब तक जिन मामलों पर विजिलैन्स का ध्यान केन्द्रित रहा है उनमें ही कोई परिणाम सामने नही आये हैं। ऐसे में इन नये मामलों को चुनावी रणनीति के आईने में ही देखा जायेगा। कांग्रेस और वीरभद्र सरकार की इस रणनीति के क्या परिणाम होंगे इसको लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं, क्योंकि निगम चुनावों में मिली हार का ठीकरा वीरभद्र और सुक्खु ने खुलकर एक दूसरे के सिर फोड़ा है। दूसरी ओर भाजपा अपनी रथ यात्रा में भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर जनता से सत्ता परिवर्तन का आग्रह कर रही है। भाजपा का सारा शीर्ष नेतृत्व शान्ता से लेेकर नड्डा तक वीरभद्र सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित कर रहा है। सरकार पर माफियाओं को संरक्षण देने के आरोप लगाये जा रहे हैं। वीरभद्र सीबीआई से जमानत पर चल रहे है और उनका अधिकांश समय अदालतों में केसों के प्रबन्धन में व्यतीत हो रहा है। यह आरोप लगाया जा रहा है कि जिस मुख्यमन्त्री का ज्यादा वक्त अदालतों में गुजर रहा है उसके पास प्रदेश के विकास के बारे में सोचने का समय ही कहां बचा है। आम आदमी को थोड़े समय के लिये प्रभावित करने में इस प्रचार से लाभ मिल सकता है लेकिन जब इसी तस्वीर का दूसरा चेहरा जनता के सामने आयेगा तो स्थिति एकदम दूसरी हो जायेगी। क्योंकि यह सही है कि वीरभद्र केन्द्र की जांच ऐजैन्सीयों द्वारा बनाये गये मामलों में उलझे हुए हैं और इन मामलों के अन्तिम परिणाम नुकसानदेह भी हो सकते है। परन्तु बड़ा सवाल तो यह है कि अन्तिम परिणाम आयेगा कब? सीबीआई मामलें में वीरभद्र सहित सारे नामज़द अभियुक्तों को जमानत मिल चुकी है। इस मामले में राजनीतिक लाभ मिलना संभव नही है। सीबीआई मामले को अदालत से अन्जाम तक पहुंचाने में समय लगेगा। सीबीआई के साथ ईडी में चल रहे मनीलाॅंड्रिंग प्रकरण में ऐजैन्सी ने 23 मार्च 2016 को पहला अटैचमैन्ट आर्डर जारी किया और करीब आठ करोड़ की चल/अचल संपत्ति अटैच की। इसके बाद जुुलाई में वीरभद्र सिंह के एलआईसी ऐजैन्ट आनन्द चैहान की गिरफ्तारी हुई जो अब तक चल रही है। इस गिरफ्तारी के बाद अब ईडी ने एक और अटैचमैन्ट आदेश जारी किया है लेकिन इस पर कोई गिरफ्तारी नही हुई है। बल्कि अब जो तिलकराज प्रकरण हुआ है वह भी ईडी में जा पहुंचा है। तिलक राज और अशोक राणा गिरफ्तार चल रहे हैं। परन्तु उससे आगे कुछ नही हुआ है और यह न होना ही सारे प्रकरण को राजनीतिक द्वेष का रंग दे रहा है। ईडी पर अदालत की ओर से कोई रोक नहीं है। तिलकराज प्रकरण में सूत्रों के मुताबिक जो पैसा लिया जा रहा था वह वास्तव में ही मुख्यमन्त्री के ओएसडी रघुवंशी तक जाना था। उच्चस्थ सूत्रों के मुताबिक दिल्ली में एक बडे को 1.85 करोड़ की अदायगी की जानी थी। इसमें 1.50 करोड़ का प्रबन्ध शिमला में बैठे प्रबन्धकों ने कर लिया था। शेष 35 लाख तिलकराज ने जुटाना था और उसी के जुगाड़ में तिलकराज सीबीआई के  ट्रैप  का शिकार हो गया। चर्चा है कि इस ट्रैप के पिछले दिन ही चण्डीगढ़ के एक हितैषी ने जिससे सुभाष आहलूवालिया के प्रकरण में ईडी कभी कुछ पुछताछ भी कर चुकी है उसने बद्दी जाकर तिलकराज सहित ड्रग और पाल्यूशन के बड़ो को भी सचेत किया था कि किसी के भी खिलाफ कभी भी बड़ी कारवाई हो सकती है और दूसरे ही दिन यह घट गया। इसी तरह यह भी चर्चा है कि जब ईडी ने मई में वीरभद्र को रात करीब दस बजे तक पूछताछ के लिये रोका था उस दिन भी भाजपा के एक बडे़ नेता के ईशारे पर बड़ी कारवाई को रोक दिया गया था। चर्चा है कि इस बडे़ नेता ने अरूण जेटली के समाने यह रखा है कि यदि वीरभद्र के खिलाफ बड़ी कारवाई को अन्जाम दिया जाता है तो भाजपा को इससे प्रदेश के चुनावों में 25 सीटों का नुकसान हो सकता है। भाजपा के इस बड़े नेता की यह आशंका नगर निगम के चुनावांे में सही भी सिद्ध हुई है। क्योंकि इतने बडे चूनावी प्रचार के वाबजूद भाजपा को परिणामों में स्पष्ट बहुमत नही मिल पाया। वीरभद्र और सुक्खु के टकराव के परिणामस्वरूप कांग्रेस चुनाव में कहीं नजर ही नही आ रही थी। इतनी सफलता भी वीरभद्र के व्यक्तिगत प्रयासों से ही मिली है। ऐसे में आने वाले दिनों में वीरभद्र की विजिलैन्स की सक्रियता और वीरभद्र मामले में भाजपा की अस्पष्टता क्या रंग दिखाती है। इस पर सबकी निगाहें रहेंगी।

सरकार और वीरभद्र की व्यक्तिगत हार हैं नगर निगम के चुनाव परिणाम

शिमला/शैल। वीरभद्र को सातवीं बार मुख्यमन्त्री बनाने और कांग्रेस सरकार के पुनः सत्ता में आने के दावों पर नगर निगम शिमला की हार मुख्यमन्त्री और उनके सलाहकारों की टीम के लिये एक बहुत बड़ा झटका माना जा रहा है। इस हार का सबसे दुःखद निगम क्षेत्र में जुडे थे उनमें से केवल तीन में ही कांग्रेस को जीत हासिल हो पायी है। इन विधानसभा क्षेत्रों में इतनी बड़ी हार वीरभद्र सिंह के लिये व्यक्तिगत स्तर पर एक बड़ा झटका है क्योंकि शिमला ग्रामीण से वह स्वयं विधायक है और अगला चुनाव यहां से उनका बेटा विक्रमादित्य लड़ना चाहता है। विक्रमादित्य की उम्मीदवारी तो एक तरह से घोषित भी की जा चुकी है। शिमला ग्रामीण के साथ ही कुसुम्पटी भी उनका अपना ही क्षेत्र माना जाता है क्योंकि उनकी पत्नी पूर्व सांसद  प्रतिभा सिंह यहां से ताल्लुक रखती है। इस चुनाव में संजौली ढली क्षेत्र के भी सारेे वार्डो में काग्रेंस को हार देखनी पड़ी है जबकि इन क्षेत्रों में ऊपरी शिमला के लोगों का बाहुल्य है यहां कांग्रेस का पूरा सफाया हो जाना जिला शिमला को वीरभद्र के लिये एक बड़े संकट का संकेत माना जा रहा है।
नगर निगम शिमला पर 2012 तक कांग्रेस और वीरभद्र का एक छत्र राज रहा है। 2012 में सत्ता सीपीएम के हाथ चली गयी थी। उस समय भी सीपीएम कांग्रेस के एक बड़े वर्ग के सहयोग से सत्ता में आयी थी। सीपीएम और कांग्रेस के अघोषित गठबन्धन के कारण ही माकपा सत्ता में पूरा कार्यकाल काट गयी। इस कार्यकाल में माकपा शासन पर असफलता के ऐसे कई अवसर आये थे जब माकपा के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर उसे सत्ता से हटाया जा सकता था लेकिन ऐसा नही हुआ। इन चुनावों में भी जब कांग्रेस ने अधिकारिक तौर पर अपने उम्मीदवार उतारने से मना कर दिया था तब दबी जुबान से यह चर्चा भी थी कि कांग्रेस के एक धडे़ का माकपा से अघोषित गठबन्धन हो गया है। इसी गठबन्धन के कारण माकपा ने केवल 22 सीटों पर चुनाव लड़ा जबकि उसने हर वार्ड में नये वोटर बनाये थे लेकिन जिन बारह वार्डों में माकपा ने अपने प्रत्याशी नही उतारे थे वहां पर माकपा का वोट कांग्रेस को ट्रांसफर नही हो पाया। इस तरह जहां माकपा को अपनी असफलताओं का नुकसान उठाना पड़ा और वह केवल एक सीट पर सिमट गयी वहीं पर कांग्रेस को भी इससे सीधे हानि हुई। इस चुनाव परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस का अधिकृत उम्मीदवार न उतारने का पहला फैसला एकदम गलत था। उसके बाद नाम वापसी के अन्तिम दिन प्रत्याशीयों की सूची जारी करके कई वार्डो में अपने प्रत्याशीयों को चुनाव से हटाने में सफल नहीं हो सके। इस चुनाव का प्रबन्धन हरीश जनारथा के पास था लेकिन वह अपने संजौली क्षेत्रा में ही बुरी तरह असफल रहे। हर्ष महाजन भी वीरभद्र के बडे़ राजनीतिक सलाहकारों में गिने जाते हैं लेकिन वह भी अपने वार्ड में सफलता नहीं दिला पाये। कांग्रेस अध्यक्ष सुक्खु जो स्वयं कभी इसी नगर निगम के पार्षद रह चुके है वह भी अपने वार्ड में असफल रहे है।
इस तरह जहां इस हार के लिये सुक्खु -वीरभद्र का द्वन्द बहुत हद तक जिम्मेदार है। वहीं पर मुख्यमन्त्री के गिर्द बैठे अधिकारियों का वह वर्ग भी पूरी तरह जिम्मेदार है जो कि वीरभद्र की सरकार चला रहा है। क्योंकि आज प्रशासन हर मोर्चे पर बुरी तरह असफल रहा है। इस कार्यकाल में भष्टाचार के जिन मामलों पर विजिलैन्स पूरी तरह व्यस्त रही है। उनमें एक भी मामले को अन्जाम तक नहींे पहुंचा सकी है। विजिलैन्स प्रशासन अपनी असफलता के लिये आज सीधे मुख्यमन्त्री के अपने कार्यालय को दोषी ठहराता है। विजिलैन्स का आरोप है कि कुछ मामलों की फाईले मुख्यमन्त्री के कार्यालय में सालो तक दबी रही हैं। इस कारण जब सरकार की ओर से कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिले तो फिर यह मामलें अपने आप ही कमजोर पड़ते चले गये। यही कारण है कि विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस ने धूमल शासन के खिलाफ ‘हिमाचल आॅन सेल’ का आरोप लगाकर सरकार की छवि पर भ्रष्टाचार का जो ’टैग’ चिपका दिया था। उस बारे में सत्ता में आकर कुछ किया ही नहीं गया। अपने ही लगाये आरोपों को प्रमाणित न कर पाने से वही टैग आरोप लगाने वालों पर चिपक जाता है। आज वीरभद्र प्रशासन की छवि के साथ अराजकता और भ्रष्टता के जो टैग चिपकते जा रहें है उसके लिये अधिकारियों का यही वर्ग जिम्मेदार है। यदि वीरभद्र समय रहते न संभले तो आने वाले समय में ज्यादा नुकसान होने की संभावना है। अभी भी संभलने का वक्त है क्योंकि इस चुनाव ने यह भी प्रमाणित कर दिया है कि आज की तारीख में मोदी लहर का असर प्रदेश में नही है।

31 साल में पहुंची भाजपा नगर निगम की सत्ता तक

शिमला/शैल। नगर निगम शिमला की सत्ता पर काबिज होने के लिये स्पष्ट बहुमत का 18 पार्षदों का आंकड़ा भाजपा अपने दम पर हालिस नही कर पायी है। सत्ता के लिये वह निर्दलीय पार्षदों पर आश्रित है। तीन निर्देलीय पार्षदों में से कितनों का समर्थन उसे मिल पाता है यह आने वाला समय ही बतायेगा। भाजपा पहली बार निगम में सत्ता के इतने निकट पहुुंची है। इन चुनावों के बाद विधानसभा के चुनाव आयेंगे इस नाते इन चुनावों का राजनीतिक महत्व और भी बढ़ जाता है। संभवतः इसी महत्व को भांपते हुए इन चुनावों से पहले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की शिमला में रैली आयोजित की गयी थी। मोदी की रैली के बाद अमित शाह और कई दूसरे बडे नेता भी किसी न किसी बहाने शिमला आये। स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा तो निगम चुनाव के प्रचार में भी आये। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने इस चुनाव को पूरी गंभीरता से लेते हुए इसमें अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। मीडिया को अपने साथ रखने के लिये इसके कुछ लोगों को पालमपुर और दिल्ली ले जाकर केन्द्रिय नेतृत्व से भंेट करवाई गयी। भाजपा की यह रणनीति विधानसभा में 60 का आंकड़ा पाने के घोषित दावे के परिदृश्य में थी लेकिन इतने सघन प्रचार के बावजूद भाजपा का 34 में से 17 सीटों पर आकर रूक जाना यह इंगित करता है कि अब मोदी लहर संभवतः पहले जैसी नही रही है। यदि लहर होती तो भाजपा का आंकड़ा 30 तक पहुंचता। भाजपा की इतनी सफलता के लिये भी कांग्रेस में वीरभद्र -सुक्खु द्वन्द जिम्मेदार है यदि द्वन्द न होता तो सत्ता फिर कांग्रेस के पास जा सकती थी।
इस चुनाव में भाजपा को उन वार्डों में असफलता का मुह देखना पड़ा है जो पूरी तरह व्यापारी वर्ग के प्रभुत्व वाले थे। इन वार्डों में भाजपा की हार का अर्थ है कि अब यह वर्ग पार्टी के हाथ से निकलता जा रहा है। इस वर्ग में जीएसटी को लेकर रोष व्याप्त हो गया है जो आने वाले समय में बढ़ सकता है। इसी के साथ इस चुनाव में यह भी सामने आया है कि जिन वार्डों में जगत प्रकाश नड्डा प्रचार के लिये गये थे वहां पर भी पार्टी को सफलता नही मिली है। जबकि नड्डा को प्रदेश का अगला नेता प्रचारित किया जा रहा है। ऐेसे में इस असफलता का एक ही अर्थ है कि या तो नड्डा को प्रदेश के कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग नही है या फिर जनता में उनकी स्वीकार्यता नही बन पा रही है। इस चुनाव के प्रचार में पार्टी के नेताओं ने वीरभद्र के खिलाफ चल रहे मामलों का भी जिक्र तक नहीं उठाया जबकि चुनाव से पहले तक मुख्यमन्त्री से त्यागपत्र की मांग की जा रही थी। क्या भाजपा को इन आरोपों की विश्वसनीयता पर स्वयं ही अब विश्वास नही रहा है।
भाजपा यदि इस चुनाव प्रचार के अन्तिम दिन धूमल को फील्ड में न उतारती तो इतनी सफलता भी उसे न मिल पाती क्योंकि धूमल से पहले वीरभद्र ने शिमला ग्रामीण से जुडे वार्डों में जाकर स्थिति को नियन्त्रण में कर लिया था। लेकिन धूमल ने अन्तिम दिन जाकर पूरा पासा ही पलट दिया। धूमल के अन्तिम दिन के प्रचार के कारण ही भाजपा को उन पांच वार्डों  में सफलता मिली जो कांग्रेस के पक्के गढ़ माने जाते थे। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि भापजा को विधान सभा चुनावों के लिये नेतृत्व के प्रश्न पर शुरू से ही दो टूक फैसला प्रदेश की जनता के सामने रखना होगा। सामुहिक नेतृत्व की रणनीति से भाजपा को लाभ मिलना आसान नही होगा।

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