Friday, 19 September 2025
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अध्यक्ष को लेकर प्रदेश कांग्रेस संकट में क्यों

शिमला/शैल। प्रदेश विधानसभा के चुनाव समय से पहले भी हो सकते हैं इसकी संभावनायें लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस बार आम आदमी पार्टी की दस्तक के बाद यह मुकाबला त्रिकोणीय होने की संभावना प्रबल हो गयी हैं। 2014 से लेकर 2019 लोकसभा चुनावों तक हुये चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा है। 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद 2021 में हुये चारों उपचुनाव कांग्रेस ने इस हार को रोकने का जो सफल प्रयास किया था उसकी धार को पांच राज्यों में मिली हार ने इस कदर कुन्द कर दिया है कि कांग्रेस को इस हार की मानसिकता से बहार निकलने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर पेशेवर चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवा लेने के मुकाम पर पहुंचा दिया है। इस सबका प्रभाव प्रदेश की राजनीति पर यह पढ़ा कि भाजपा ने कांग्रेस के स्थान पर आप को अपना पहला प्रतिद्वन्द्धी घोषित कर दिया है। कांग्रेस को चुनावी राजनीति से बाहर कर दिया है।
इस वस्तुस्थिति सेे भाजपा और आप को क्या लाभ मिलेगा इस सवाल से ज्यादा बड़ा प्रसन्न यह खड़ा हो गया है कि इससे कांग्रेस को कितना नुकसान होगा। इस समय तक आप के आने से कांग्रेस को ही ज्यादा नुकसान हुआ है। क्योंकि उसी के ज्यादा लोग कांग्रेस छोड आप मंे गये हैं। ऐसे में यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कांग्रेस को आप और भाजपा दोनों से एक साथ राजनीतिक लड़ाई लड़नी पड़ेगी। जबकि भाजपा कांग्रेस को इस लड़ाई से ही बाहर होना करार देकर सारे नुकसान का रुख कांग्रेस की और मोड दिया है। जनता में भी यह चर्चा चल पड़ी है कि कांग्रेस तो सारे परिदृश्य से पहले ही बाहर हो गयी है। व्यवहारिक तौर पर भी कांग्रेस की एकजुटता और भाजपा-आप के प्रति आक्रमकता सारे परिदृश्य से ही गायब हो गयी है। जबकि इतना कुछ भाजपा के खिलाफ उपलब्ध है कि उसका उपयोग करके कांग्रेस बनाम आप के हालात खड़े किये जा सकते थे। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है और विश्लेषकों के लिये यह एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है कि कांग्रेस ऐसी तन्द्रा मे चली क्यों गयी? क्या कुछ लोग कांग्रेस को भीतर से कमजोर करने की सुपारी लेकर बैठे हैं।
कांग्रेस में जब तक स्व.वीरभद्र सिंह जिन्दा थे तब तक वह निर्विवादित रुप से मुख्यमन्त्री का चेहरा बने रहे हैं। 1993 में जब पंडित सुखराम ने इस एकछत्रता को चुनौती दी थी तो उस वक्त कैसे विधानसभा का घेराव करवा कर सुखराम के हाथ से बाजी छीन ली थी उस समय के प्रत्यक्षदर्शी यह सब जानते हैं। लेकिन आज कोई वीरभद्र सिंह कांग्रेस के पास है नहीं। आज के कांग्रेस नेता यह भी भूल गये हैं कि भाजपा-मोदी ने 2014 और 2019 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनावांे में वीरभद्र के खिलाफ बने मामलों को खूब भुनाया था। यही मामले थे जिनके कारण वीरभद्र भाजपा के खिलाफ चाहकर भी आक्रमक नहीं हो पाये थे।
आज वीरभद्र की कमी को पूरा करने वाला एक भी नेता सामने नहीं है। जयराम के कार्यकाल में किस तरह से सरकारी धन का दुरुपयोग करके प्रदेश को कर्ज के गर्त में धकेला गया है इसके दर्जनों मामले तो कैग रिपोंर्टाे में दर्ज हैं। लेकिन एक भी कांग्रेस नेता इनको पढ़ने और इन पर सवाल उठाने के लिये तैयार नहीं है। यहां तब की जयराम सरकार के खिलाफ आरोप पत्र तैयार करने के लिए कमेटी की घोषणा करके भी जब यह आरोप पत्र न आये तो आम आदमी को मानना पड़ेगा कि कुछ तत्व पार्टी के भीतर बैठकर संगठन को जनता की नजर में अक्षम प्रमाणित करने के प्रयासों में लगे हैं। यह इन्ही प्रयासों का परिणाम है कि हर सप्ताह अध्यक्ष का बदलाव चर्चित होता है और अंत में आकर अफवाह बनकर रह जाता है। जबकि इन मुद्दों पर हाईकमान को हरदम सूचित रखना प्रभारीयों का काम होता है। जब प्रभारी भी यह जिम्मेदारी निभाने में सफल न हो पा रहे हों तो फिर संगठन का क्या होगा यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा।

नड्डा की असफल जनसभाएं और निगम चुनावों का टलना सरकार के लिये खतरे के संकेत

क्या जयराम सरकार की हालत 2014 में दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार जैसी होती जा रही है
शिमला/शैल। आप ने जब से हिमाचल में विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान किया है उसके बाद जयराम सरकार और भाजपा ने जो भी परोक्ष/ अपरोक्ष प्रतिक्रियाएं दी हैं तथा राजनीतिक कदम उठायें हैं उन्हें आप की घोषणा के परिदृश्य में देखना समझना अवश्य हो जाता है। क्योंकि आप पंजाब की जीत के बाद दिल्ली से हिमाचल तक के पूरे क्षेत्र में भाजपा के लिये एक सीधी चुनौती बन चुका है। इस चुनौती को सार्वजनिक मंचों से नकारना भाजपा और उसके भक्तों की राजनीतिक आवश्यकता और विवशता बन चुका है। लेकिन इस नकार से स्थितियां नहीं बदल जाती हैं और किसी भी विश्लेषन और आकलन के लिये इन्हें संज्ञान में रखना इमानदारी की मांग हो जाता है। इस परिपेक्ष में यदि राष्ट्रीय स्तर पर नजर डाले तो पांच राज्यों में हुये चुनावों में चार में जीत दर्ज करने के बाद हुये चार राज्यों के उपचुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है। क्योंकि जीत का उपहार लोगों को महंगाई के रूप में मिला। यह महंगाई हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव में भी सिर चढ़कर बोलेगी यह तय है।
हिमाचल में जब चारों उपचुनाव में भाजपा को हार मिली थी तब प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चर्चायें उठी थी। इन चर्चाओं को भाजपा की विस्तारित कार्यकारिणी में उठे सवालों से भी अधिमान मिला था। लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का हिमाचल से ताल्लुक रखना नेतृत्व परिवर्तन के सवालों पर भारी पड़ा। राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नडडा का प्रदेश के नेतृत्व को कितना और कैसा संरक्षण हासिल है इसका खुलासा उस ब्यान से बाहर आ गया है जब नड्डा ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि वह दिल्ली में जयराम ठाकुर के वकील हैं। बल्कि नड्डा वहीं नहीं रुके और धूमल को लेकर भी यह कह दिया कि पार्टी गुण दोष के आधार पर फैसले लेती है। नड्डा के इस ब्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिमाचल में पार्टी को सत्ता में वापसी लाने की जिम्मेदारी सीधे नड्डा और जयराम के कंधो पर आ गयी है। इस जिम्मेदारी में धूमल और शान्ता की क्या और कितनी भूमिका रह गयी है इसका अंदाजा भी नड्डा की कांगड़ा रैली के लिए छपे पोस्टों में शान्ता-धूमल के चित्रों के गायब रहने से लग जाता है। इस परिदृश्य में जयराम सरकार के अब तक के कार्यकाल का आकलन और उसमें नड्डा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाम पर देश को उनके योगदान की भूमिका की चर्चा किया जाना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है कि केंद्र द्वारा हिमाचल से 69 राष्ट्रीय राजमार्गों का तोहफा दिये जाने की पहली सूचना नड्डा के पत्र से प्रदेश की जनता को मिली थी। इन राष्ट्रीय राजमार्गों की व्यवहारिक स्थिति क्या है यह पूरा प्रदेश जानता है। नड्डा प्रदेश में दो बार मंत्री रहे चुके हैं। स्वस्थ और वन जैसे विभागों का प्रभार उनके पास रहा है। उन्हीं के काल में स्वस्थ विभाग में घोटाला हुआ था और निदेशक की गिरफ्तारी तक हुई थी। बतौर मंत्री नड्डा कितने सफल तथा विश्वसनीय रहे हैं यह प्रदेश की जनता अच्छे से जानती है। ऐसे में आज जब सरकार को रिपीट करवाने की पूरी जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली है तो यह स्वभाविक है कि जय राम सरकार की कारगुजारीयों के साथ ही उनके अपने समय में घट चुके महत्वपूर्ण घटनाक्रम तुरंत से जनता के जहन और जुबान पर आ जायेंगे। आज यह सर्वविदित है कि नड्डा की पीटरहॉफ में हुई सभा में भी कुर्सियां खाली रही हैं। कांगड़ा की रैली में भी यही परिदृश्य रहा है। लोग सभा से उठकर चले गये। जय राम ठाकुर ने मुफ्ती की घोषणा केजरीवाल के एलान के बाद की है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की स्थिति दिल्ली शीला दिक्षित की सरकार जैसी बनती जा रही है।
यही नहीं शिमला नगर निगम के चुनाव जिस तरह से अनिश्चितता में चले गये हैं उसका संदेश भी सरकार की सेहत के लिये नुकसान देह होने जा रहे है। क्योंकि इन चुनाव से पहले लायी गयी शिमला डवैलप्मैंट प्लान पर जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रियाएं उभरी है उससे सरकार की नियत और नीति दोनों सन्देह के घेरे में आ खड़ी हुई है। सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर एक बार फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में गंभीर सवाल उठे हैं। मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त के मामलों पर भी मुख्यमंत्री आगे कुआं और पीछे खाई जैसी स्थिति में पहुंच गये हैं। जैसे जैसे चुनाव निकट आते जायेंगे उसी अनुपात में सरकार सवालों के घेरे में फसती चली जायेगी। क्योंकि आज तक जयराम सरकार एक ही सिद्धांत पर चली है कि न तो अदालती फैसलों को अधिमान दो और न ही कठिन सवालों वाले पत्रों का जवाब दो। लेकिन चुनावी वक्त में यही नीति गले की फांस बन जाती है।

नड्डा की असफल जनसभाएं और निगम चुनावों का टलना सरकार के लिये खतरे के संकेत

क्या जयराम सरकार की हालत 2014 में दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार जैसी होती जा रही है
शिमला/शैल। आप ने जब से हिमाचल में विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान किया है उसके बाद जयराम सरकार और भाजपा ने जो भी परोक्ष/ अपरोक्ष प्रतिक्रियाएं दी हैं तथा राजनीतिक कदम उठायें हैं उन्हें आप की घोषणा के परिदृश्य में देखना समझना अवश्य हो जाता है। क्योंकि आप पंजाब की जीत के बाद दिल्ली से हिमाचल तक के पूरे क्षेत्र में भाजपा के लिये एक सीधी चुनौती बन चुका है। इस चुनौती को सार्वजनिक मंचों से नकारना भाजपा और उसके भक्तों की राजनीतिक आवश्यकता और विवशता बन चुका है। लेकिन इस नकार से स्थितियां नहीं बदल जाती हैं और किसी भी विश्लेषन और आकलन के लिये इन्हें संज्ञान में रखना इमानदारी की मांग हो जाता है। इस परिपेक्ष में यदि राष्ट्रीय स्तर पर नजर डाले तो पांच राज्यों में हुये चुनावों में चार में जीत दर्ज करने के बाद हुये चार राज्यों के उपचुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है। क्योंकि जीत का उपहार लोगों को महंगाई के रूप में मिला। यह महंगाई हिमाचल और गुजरात के विधानसभा चुनाव में भी सिर चढ़कर बोलेगी यह तय है।
हिमाचल में जब चारों उपचुनाव में भाजपा को हार मिली थी तब प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन को लेकर चर्चायें उठी थी। इन चर्चाओं को भाजपा की विस्तारित कार्यकारिणी में उठे सवालों से भी अधिमान मिला था। लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का हिमाचल से ताल्लुक रखना नेतृत्व परिवर्तन के सवालों पर भारी पड़ा। राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नडडा का प्रदेश के नेतृत्व को कितना और कैसा संरक्षण हासिल है इसका खुलासा उस ब्यान से बाहर आ गया है जब नड्डा ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि वह दिल्ली में जयराम ठाकुर के वकील हैं। बल्कि नड्डा वहीं नहीं रुके और धूमल को लेकर भी यह कह दिया कि पार्टी गुण दोष के आधार पर फैसले लेती है। नड्डा के इस ब्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि हिमाचल में पार्टी को सत्ता में वापसी लाने की जिम्मेदारी सीधे नड्डा और जयराम के कंधो पर आ गयी है। इस जिम्मेदारी में धूमल और शान्ता की क्या और कितनी भूमिका रह गयी है इसका अंदाजा भी नड्डा की कांगड़ा रैली के लिए छपे पोस्टों में शान्ता-धूमल के चित्रों के गायब रहने से लग जाता है। इस परिदृश्य में जयराम सरकार के अब तक के कार्यकाल का आकलन और उसमें नड्डा के राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाम पर देश को उनके योगदान की भूमिका की चर्चा किया जाना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है कि केंद्र द्वारा हिमाचल से 69 राष्ट्रीय राजमार्गों का तोहफा दिये जाने की पहली सूचना नड्डा के पत्र से प्रदेश की जनता को मिली थी। इन राष्ट्रीय राजमार्गों की व्यवहारिक स्थिति क्या है यह पूरा प्रदेश जानता है। नड्डा प्रदेश में दो बार मंत्री रहे चुके हैं। स्वस्थ और वन जैसे विभागों का प्रभार उनके पास रहा है। उन्हीं के काल में स्वस्थ विभाग में घोटाला हुआ था और निदेशक की गिरफ्तारी तक हुई थी। बतौर मंत्री नड्डा कितने सफल तथा विश्वसनीय रहे हैं यह प्रदेश की जनता अच्छे से जानती है। ऐसे में आज जब सरकार को रिपीट करवाने की पूरी जिम्मेदारी उन्होंने अपने ऊपर ले ली है तो यह स्वभाविक है कि जय राम सरकार की कारगुजारीयों के साथ ही उनके अपने समय में घट चुके महत्वपूर्ण घटनाक्रम तुरंत से जनता के जहन और जुबान पर आ जायेंगे। आज यह सर्वविदित है कि नड्डा की पीटरहॉफ में हुई सभा में भी कुर्सियां खाली रही हैं। कांगड़ा की रैली में भी यही परिदृश्य रहा है। लोग सभा से उठकर चले गये। जय राम ठाकुर ने मुफ्ती की घोषणा केजरीवाल के एलान के बाद की है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की स्थिति दिल्ली शीला दिक्षित की सरकार जैसी बनती जा रही है।
यही नहीं शिमला नगर निगम के चुनाव जिस तरह से अनिश्चितता में चले गये हैं उसका संदेश भी सरकार की सेहत के लिये नुकसान देह होने जा रहे है। क्योंकि इन चुनाव से पहले लायी गयी शिमला डवैलप्मैंट प्लान पर जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिक्रियाएं उभरी है उससे सरकार की नियत और नीति दोनों सन्देह के घेरे में आ खड़ी हुई है। सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर एक बार फिर प्रदेश उच्च न्यायालय में गंभीर सवाल उठे हैं। मुख्य सचिव और अतिरिक्त मुख्य सचिव वित्त के मामलों पर भी मुख्यमंत्री आगे कुआं और पीछे खाई जैसी स्थिति में पहुंच गये हैं। जैसे जैसे चुनाव निकट आते जायेंगे उसी अनुपात में सरकार सवालों के घेरे में फसती चली जायेगी। क्योंकि आज तक जयराम सरकार एक ही सिद्धांत पर चली है कि न तो अदालती फैसलों को अधिमान दो और न ही कठिन सवालों वाले पत्रों का जवाब दो। लेकिन चुनावी वक्त में यही नीति गले की फांस बन जाती है।

क्या ‘जय और तय’ के नारों से ही कांग्रेस भाजपा से सत्ता छीन लेगी?

शिमला/शैल। विधानसभा के चुनाव तय समय से पहले हो जाने की संभावनाएं बराबर बनी हुई है। हिमाचल में जो मुकाबला पहले कांग्रेस और भाजपा में ही होना तय माना जा रहा था उसमें अब आम आदमी पार्टी की एंट्री ने सारे राजनीतिक गणित और समीकरणों में उलटफेर खड़ा कर दिया है। क्योंकि आप में कांग्रेस और भाजपा से ही नाराज कार्यकर्ता एवं नेता शामिल हो रहे हैं। फिर जयराम ने आप के दिल्ली मॉडल की नकल करके भले ही अपने और पार्टी के लिये राष्ट्रीय स्तर पर सिर दर्द खड़ा कर लिया हो लेकिन कांग्रेस को वह अपने मुकाबले में ही नहीं मानते हैं यह संदेश देने में तो सफल हो ही गये हैं। इस परिदृश्य में कांग्रेस की चुनौतियां दोगुनी हो जाती हैं। उसे केजरीवाल के मॉडल को भी तथ्यों के साथ ध्वस्त करना होगा और जयराम तथा उनके सलाहकारों के बौैद्धिक दिवालीयेपन को भी उजागर करना होगा। यह करने के लिए कांग्रेस के नेताओं को अपनी कुष्ठाओं से बाहर निकालना होगा। पूरे अध्ययन के साथ आप और जयराम के खिलाफ प्रमाणिक साक्ष्य प्रदेश की जनता के सामने रखने होंगे। लेकिन जो कांग्रेस घोषणा के बाद भी सरकार के खिलाफ अभी तक आरोप पत्र नहीं ला पायी है क्या वह आने वाले दिनों में सफलता के साथ इस जिम्मेदारी को अंजाम दे पायेगी? यह सवाल इसीलिये उठने लगा है क्योंकि कांग्रेस के नेता अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में अपनी ही जय और अपने ही तय होने के नारे लगवाने में व्यस्त हो गये हैं। डॉ. अंबेडकर जयंती के अवसर पर हमीरपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में ‘जय सुक्खू तय सुक्खू’ ‘जय कांग्रेस तय कांग्रेस’ के नारे लगने से यह चर्चा आम आदमी तक पहुंच गयी है। इस आयोजन में हमीरपुर में कांग्रेस के तीनों विधायक सुक्खू, लखनपाल और राजेंद्र राणा हाजिर रहे हैं। इन नारों से यही संदेश जाता है कि यदि कांग्रेस को चुनाव में बहुमत मिलता है तो सुक्खू ही मुख्यमंत्री होंगे। यह सही है कि सुक्खू छः वर्ष तक पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं। लेकिन उनकी अध्यक्षता में कितनी चुनावी सफलताएं मिली है यह एक अलग विषय बन जाता है। इस समय सदन में नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी मुकेश अग्निहोत्री निभा रहे हैं। जयराम के कार्यकाल में कारगर विपक्ष की भूमिका कांग्रेस की जितनी सदन में सफल रही है उतनी सदन से बाहर नहीं रही है। पालमपुर के नगर निगम और फिर मंडी के लोकसभा उपचुनाव का संचालन मुकेश के पास रहा है। ऐसे में यदि मुकेश के समर्थक भी ऊना में ऐसे ही नारे लगाने पर आ जाये तो क्या संदेश जायेगा। आशा कुमारी कांग्रेस वर्किंग कमेटी की सदस्य हैं क्या मुख्यमंत्री बनने के लिये उनकी योग्यताएं कम हो जाती हैं। इसी तरह आनंद शर्मा, कौल सिंह ठाकुर, रामलाल, सुरेश चंदेल और हर्षवर्धन चौहान तक कांग्रेस में नेताओं की लंबी सूची है। हॉलीलॉज अभी काफी वक्त तक सत्ता का केंद्र रहेगा क्योंकि हर चुनाव में स्व.वीरभद्र सिंह का नाम लिया ही जायेगा। इस वस्तु स्थिति में यदि कांग्रेस के नेता अपने-अपने नारे लगवाने की दौड़ में शामिल हो जाते हैं तो उसे न केवल उनका अपना और संगठन का ही अहित होगा बल्कि प्रदेश की जनता के साथ भी धोखा होगा। क्योंकि जिस सरकार ने आकंठ कर्ज के बोझ तले प्रदेश में सत्ता में बने रहने के लिये मुफ्ती की मीठी गोली देकर और कर्ज बढ़ाने का दाव चल दिया हो उसे हल्के में लेना सही नहीं होगा। राजनीतिक विश्लेषकों का स्पष्ट मानना है कि कांग्रेस को पहले सदन में सरकार बनाने लायक बहुमत जुटाने को प्राथमिकता देनी होगी और उसके बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए एक दूसरे का गला काटने की योजनाओं को अंजाम देना होगा। क्योंकि विपक्ष में आप कांग्रेस से पहले अपनी गिनती करवाने में सफल हो गयी है। जबकि कांग्रेस सीडब्ल्यूसी की बैठक में आप को भाजपा की बी टीम होने का फतवा देकर चुप बैठ गयी है। इस फतवे को प्रमाणित करने के लिए कोई ठोस साक्ष्य लेकर जनता की अदालत में नहीं आयी है। यदि कांग्रेस इस मनोविकार से समय रहते बाहर नहीं निकलती है तो उसके लिये लंबे तक ‘‘दिल्ली दूरस्थ’’ हो जायेगी।

क्या मुफ्ती योजनाओं की घोषणा केजरीवाल के डर का परिणाम है?

अनुराग की आप में सफल सेंधमारी भी मुख्यमंत्री के मनोबल को कायम नहीं रख पायी
क्या इन योजनाओं को नड्डा का समर्थन हासिल है?
क्या प्रदेश की जनता सत्ता में वापसी के इन प्रयासों की कीमत करीब 500 करोड़ का और कर्ज झेल कर चुका पायेगी

शिमला/शैल। क्या जयराम सरकार आम आदमी पार्टी के हिमाचल का विधानसभा चुनाव लड़ने के ऐलान से मनोवैज्ञानिक दबाव में आ गयी है? यह सवाल इसलिये उठना शुरू हो गया है क्योंकि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 15 अप्रैल को हिमाचल दिवस के मौके पर प्रदेश की जनता को 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति मुफ्त और सरकारी बसों में महिलाओं को बस किराये में 50% की छूट देने की घोषणा की है। इन घोषणाओं पर इसी वर्ष 1 अगस्त से अमल शुरू हो जायेगा। इससे पहले 60 यूनिट बिजली मुफ्त देने का ऐलान किया गया था। जो पहली अप्रैल से लागू होना था। अब मुफ्त बिजली की मात्रा दोगुनी से भी बढ़ा दी गयी है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों केंद्र सरकार के दो दर्जन वरिष्ठ अधिकारियों की प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक हुई थी। इस बैठक में दो अधिकारियों ने इन मुफ्ती योजनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुये यह आशंका व्यक्त की थी कि यदि ऐसी घाषणाओं को सख्ती से समय रहते न रोका गया तो कुछ राज्यों की स्थिति जल्द ही श्रीलंका जैसी हो जायेगी। इस बैठक की चर्चा बहुत वायरल हुई है। इस परिदृश्य में जयराम ठाकुर की इन घोषणाओं को आम आदमी पार्टी के आसन भय के साथ जोडकर ही देखा जायेगा।
फिर यह सब कुछ केजरीवाल के मण्डी रोड शो के बाद हुआ है। इसी रोड शो की सफलता के बाद आप ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के अपने विधानसभा क्षेत्र सराज में भी ऐसा ही रोड शो करने का ऐलान किया हुआ है। बल्कि इस प्रस्तावित रोड शो से पहले अब कांगड़ा में रोड शो करने की तारीख की घोषणा कर दी है। कांगड़ा प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है और प्रदेश की सत्ता का रास्ता यहीं से होकर गुजरता है। यही नहीं आप को प्रदेश में पांव पसारने से रोकने के लिये जो सफल सेंधमारी की थी और नड्डा ने नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों पर विराम लगाते हुये प्रधानमंत्री से जो ईमानदारी का प्रमाण पत्र जारी करवा कर उत्साहवर्धन का जो प्रयास किया था उस सबका सच भी इन घोषणाओं से पूरी तरह अर्थहीन होकर रह गया है। आम आदमी पार्टी ने सराज की ओर से जो रूख करने का फैसला लिया है उसके पीछे वहां हुये विकास के सारे दावों और आरोपों का सच सराज से लेकर पूरे प्रदेश के सामने रखने की योजना है। चर्चाओं के मुताबिक सराज में देखने वाले विकास के नाम पर मुख्यमंत्री के अपने आवास होटल सराज और चुनाव क्षेत्र में बने करीब एक दर्जन हेलीपैड को छोड़कर और कुछ गिनती योग्य बड़ा नहीं है। होटल सराज बनने के साथ ही प्राइवेट सैक्टर को दे दिया गया है। क्षेत्र के युवाओं को रोजगार देने के लिए मल्टी टास्क वर्कर भर्ती में 50% का जो कोटा मुख्यमंत्री के लिये रखा गया था उस 50 को प्रदेश उच्च न्यायालय के दखल ने शून्य करके रख दिया है। ऐसे में आगे इन्हीं मुफ्ती योजनाओं का सहारा है। लेकिन जिस तरह से यह योजनाएं भी केजरीवाल के डर से का परिणाम कहीं जाने लगी हैं। उससे इन योजनाओं पर होने वाले खर्च की भरपाई सरकार कहां से करेगी यह और सवाल उठना शुरू हो गया है।
वैसे तो यह घोषणाएं पहली अगस्त से लागू किये जाने की बात कही गयी है। लेकिन यह संभावना भी बराबर बनी हुई है कि कहीं हिमाचल और गुजरात के चुनाव उत्तराखंड के उपचुनाव के साथ ही न करवा लिए जायें। यह उपचुनाव 15 सितम्बर तक हो जाना अनिवार्य है। यदि ऐसा होता है तो बहुत संभव है कि यह मुफ्ती की घोषणाएं चुनाव आचार संहिता के साये में लागू ही न हो पायें। अन्यथा इन्हें तुरंत प्रभाव से भी लागू किया जा सकता था। क्योंकि कर्ज लेकर घी पीने की परम्परा को ही तो आगे बढ़ाना है। इस परिदृश्य में आप की धार को कुन्द करने के जितने भी प्रयास किये जायेंगे वह निरर्थक ही प्रमाणित होंगे। क्योंकि इन मुफ्ती घोषणाओं को चुनावों की पूर्व संध्या पर किसी भी तर्क और गणित से जायज नहीं ठहराया जा सकेगा। जब 60 यूनिट बिजली मुफ्त देने की पहली घोषणा की गयी थी तब इसके बदले में 92 करोड़ बिजली बोर्ड को देने की बात की गयी थी। अब इसकी मात्रा दोगुनी करने से बोर्ड को दी जाने वाली रकम बढ़कर 200 करोड़ हो जायेगी। इसी के साथ जब ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल मुफ्त उपलब्ध करवाने और महिलाओं को बस किराये में 50% छूट का बिल भी साथ जुड़ जायेगा तो एक झटके में ही कम से कम 500 करोड़ का कर्ज बढ़ाने का प्रबन्ध सत्ता में वापसी के भरोसे को कायम रखने के लिये राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व ने कर लिया है। इस मुफ्ती योजना को मुख्यमंत्री के वकीलों नड्डा और अनुराग का कितना समर्थन हासिल है इसके लिये उनके ब्यान का इंतजार है। बाकी फैसला प्रदेश की जनता और बेरोजगार युवाओं के बढ़ते आंकड़े को करना है। क्योंकि यह सब सीधे उनके भविष्य के साथ जुड़ा है।

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