Friday, 19 September 2025
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अब हिमुडा की कार्यप्रणाली आयी सवालों में

18 वर्ष पहले खरीदी संपत्ति पर आज तक कब्जा नहीं हो पाया

शिमला/शैल। हिमुडा ने वर्ष 2004-05 में राजधानी शिमला के धोबी धाट क्षेत्र में एक कालोनी बनाने के लिये जमीन खरीदी थी। इसमें कुछ खाली जमीन थी और कुछ मकान थे। इसमें एक मकान हार्डिगंज विला के नाम से था। यह मकान दो भाइयों जीत और जोगिन्दर का था। इसी के कुछ भाग में सुधीर नाम का एक किराएदार था और आऊट हाऊसिंग वाले भाग में पुलिस के वायरलेस विंग में कार्यरत अधिकारी कालिया किराएदार थे। हिमुडा के नाम रजिस्ट्री होने के बाद कालिया मकान छोड़ कर चले गये। लेकिन दूसरे किराएदार सुधीर ने कब्जा नहीं छोड़ा। अब सुधीर की मृत्यु के बाद उसके बेटों ने न केवल मकान की रिपेयर ही करवा ली बल्कि कालिया और जोगिन्दर वाले हिस्से पर भी कब्जा कर लिया है। मकान की रिपेयर करवा कर यह जताने का प्रयास किया है कि यह उन्हीं की संपत्ति है। यह रकवा करीब 1 बीघा है जिसकी कीमत 5 से 6 करोड़ मानी जा रही है। हिमुडा की प्लान के मुताबिक इस मकान को तोड़कर कॉलोनी के लिये सड़क बनायी जानी थी। जिसकी चौडाई चार से पांच मीटर प्रस्तावित थी और यह अभी तक नहीं बनी है। एक बार नगर निगम ने सड़क बनाने का प्रयास किया लेकिन हिमुडा ने ही इसे गिरा दिया। यहां पर बनी हिमुडा कॉलोनी का एक संगठन भी बना हुआ है। जिसका अध्यक्ष भी शायद सुधीर परिवार से ही ताल्लुक रखता है। यहीं पर जोगिन्दर के केयरटेकर एक नंदा शर्मा मजदूर थे। इस नंदा शर्मा से मकान खाली करवाने के आदेश हिमुडा प्राप्त कर चुकी है। लेकिन सुधीर के बेटों के खिलाफ कोई कारवायी नहीं करवा पायी है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब एक मजदूर से मकान खाली करवाने के आदेश पाने में हिमुडा सफल हो गया है तो दूसरे लोगों से ऐसा क्यों नहीं करवा पाया है। इस बारे में जब हिमुडा कार्यालय में बात की गयी तो प्रशासनिक अधिकारी को इसके बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। उन्होंने इस बारे में संबंधित अभियन्ता से बात करने को कहा जो कार्यालय में उपलब्ध ही नहीं था। यह मकान और जमीन 18 वर्ष पहले खरीदे गये थे। परंतु इनका पूरा कब्जा हिमुडा आज तक हासिल नहीं कर पायी है। यह एक व्यावहारिक सच है। ऐसा क्यों नहीं हो पाया है? क्या इसमें हिमुडा के अधिकारियों की ही नाकामी रही है या इस पर कोई और दबाव रहा है? क्योंकि यह कैसे संभव हो सकता है कि 18 वर्षों में हिमुडा मुख्यालय के संज्ञान में यह मामला ही नहीं आया हो और प्रशासनिक अधिकारी तक को इसकी जानकारी न रही हो।

आधी आबादी को आधी सुविधा देकर पूरी पर सता का गेम प्लान

क्या यह आधी सुविधा महंगाई और बेरोजगारी से ध्यान हटाने का प्रयास नहीं है

क्या यह महिलाओं को समझ नहीं आयेगा कि उन्हें सत्ता की आसान सीढ़ी माना जा रहा है?

शिमला/शैल। यह चुनावी वर्ष है और चुनाव जीतने के लिये कुछ भी करने का अधिकार राजनीतिक दलों का शायद जन्मसिद्ध अधिकार है। सरकार में बैठा हुआ दल इस अधिकार का प्रयोग पूरे खुले मन से करता है और कर्ज लेकर भी खैरात बांटने में संकोच नहीं करता है। इसी परम्परा का निर्वहन करते हुये मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने सरकार की बसों में महिलाओं को आधे किराये पर आने-जाने की सुविधा प्रदान कर दी है और यह फैसला तत्काल प्रभाव से लागू भी हो गया है। जबकि इसी के साथ घोषित न्यूनतम किराया 7 रूपये से 5 रूपये करने का फैसला अभी लागू होना है। महिलाओं का बस किराया आधा करने का फैसला धर्मशाला में आयोजित महिला मोर्चा के ‘‘नारी को नमन’’ समारोह में लिया गया। इस अवसर पर शायद मुख्यमंत्री भी सभा स्थल तक बस में गये। मुख्यमंत्री जिस बस में गये उसकी चालक भी शिमला से धर्मशाला पहुंची थी जिसे मुख्यमंत्री ने सम्मानित भी किया। महिला चालक का सम्मान शिमला में चल रही सरकारी टैक्सियों में महिला चालकों की भर्ती का फैसला लेना और सरकारी बसों के किराये में 50% की छूट देना महिला सशक्तिकरण की दिशा में बड़े कदम माने जा रहे हैं और इन्हीं के सहारे सत्ता में वापसी सुनिश्चित मानी जा रही है।
इस परिप्रेक्ष में कुछ सवाल उठ रहे हैं जिन्हें जनत्ता के सामने रखना आवश्यक हो जाता है। इस समय सरकार के सारे निगम बोर्डों में शायद हिमाचल पथ परिवहन निगम ही सबसे अधिक घाटे में चल रही है। शायद अपनी सारी संपत्ति बेचकर भी एक मुश्त अपने घाटे कर्ज की भरपाई नहीं कर सकती। फिर सरकार भी कर्ज के दलदल में गले तक धंस चुकी है। सरकार के फैसले इतने प्रशंसनीय है कि पिछले दिनों एचआरटीसी ने नई बसे खरीद ली जबकि काफी अरसा पहले खरीदी गई बड़ी-बड़ी बसें आज तक सड़कों पर नहीं आ सकी हैं। खड़े-खड़े सड़ रही हैं। ऐसा क्यों हुआ है इसके लिये कोई जिम्मेदारी तय नहीं की गई है। अब जो किराया सात से पांच रूपये किया गया और महिलाओं को आधी छूट दी गयी है इसका आकलन करने के लिये 2018 से अब तक रहे बस किराये पर नजर डालनी होगी। सितंबर 2018 में न्यूनतम किराया 3 रूपये से 6 रूपये कर दिया गया था। इसका जब विरोध हुआ तो 6 रूपये से 5 रूपये कर दिया। फिर जुलाई 2020 में यही किराया 5 रूपये से 7 रूपये कर दिया। अब इसे फिर से पांच किया जा रहा है। परिवहन निगम इस समय भी 40 से 50 करोड़ प्रति माह के घाटे में चल रही है। कोविड काल में ही 840 करोड़ का घाटा निगम उठा चुकी है। इसे उबारने के लिये सरकार को शायद 944 करोड़ की ग्रांट देनी पड़ी थी। इस तरह परिवहन निगम लगातार घाटे में चल रही है तो सरकार को भी करीब हर माह ही कर्ज लेने की जरूरत पड़ रही है। ऐसे में क्या निगम या सरकार किसी को कर्ज लिये बिना कोई राहत देने की स्थिति में है।
आज केंद्र से लेकर राज्य तक सभी कर्ज में डूबे हुये हैं और इसी कर्ज के कारण महंगाई और बेरोजगारी बढ़ रही है। आज जब हर रसोई में इस्तेमाल होने वाले आटा चावल दालें आदि सभी की कीमतें बढ़ गई हैं तो क्या घर संभालने वाली इससे प्रभावित नहीं होगी? क्या उसे नहीं समझ आयेगा कि उसे आधी सुविधा देकर सत्ता पर पूरे कब्जे का गेम प्लान बनाया गया है? क्या तब वह यह नहीं कहेगी कि इस सुविधा के बदले उसके बच्चे को रोजगार दिया जाये। जब उसके पास सिलैन्डर में गैस भरवाने के पैसे नहीं होंगे तो क्या वह खाली सिलैन्डर की आरती उतारकर भाजपा को वोट देंगी?


लोक सेवा आयोग को लेकर आये उच्च न्यायालय के निर्देशों की अनुपालना कब होगी ? उठने लगा है सवाल

सर्वाेच्च न्यायालय 2013 में ऐसे निर्देश पंजाब-हरियाणा के संद्धर्भ में दे चुका है
2018 में सदस्यों के दो पद सृजित करके एक ही क्यों भरा गया?
सरकार के इसी कार्यकाल में तीसरा अध्यक्ष नियुक्त करने की स्थिति क्यों बनी
आयोग में परीक्षाओं के परिणाम निकालने में पहले की अपेक्षा अब देरी क्यों हो रही है 

शिमला/शैल।  प्रदेश लोकसेवा आयोग इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है। चर्चा के मुद्दे हैं सरकार द्वारा आयोग के सदस्यों को पैन्शन देने का फैसला लेना। इसी के साथ आयोग के पूर्व अध्यक्ष रहे के. एस. तोमर की उच्च न्यायालय में याचिका जिसमें 300 और 250 पैन्शन देने के 1974 में किये गये प्रावधान को आज के संद्धर्भ में संवैधानिक पद के साथ क्रूर मजाक करार देते हुये इसे सम्मान करने का आग्रह। इन्हीं मुद्दों के साथ उच्च न्यायालय द्वारा जनवरी 2020 में सरकार को दिये गये निर्देशों की आज तक अनुपालना न हो पाना इन निर्देशों में उच्च न्यायालय ने लोक सेवा आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक निश्चित प्रक्रिया और नियम बनाने के निर्देश/उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है  The Court said that it hopes that the State of H.P. must step in and take urgent steps to frame memorandum of Procedure,administrative guidelines and parameters for the selection and appointment of the Chairperson and Members of the Commission, so that the possibility of arbitrary appointments is eliminated.

उच्च न्यायालय ने यह निर्देश इसलिए दिये कि जो याचिका अदालत में आयी थी उसमें मीरा वालिया की नियुक्ति को अवैध करार देने के आग्रह के साथ ही एक तय प्रक्रिया और नियम बनाये जाने की गुहार लगाई गयी थी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि सर्वाेच्च न्यायालय ने भी 2013 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय से अपील में शीर्ष अदालत के पास पहुंचे एक मामले में दिये गये थे। सर्वाेच्च न्यायालय के इन निर्देशों पर शायद इसीलिये अमल नहीं किया गया कि इसे पंजाब हरियाणा का ही मामला मान लिया गया। लेकिन अब जब प्रदेश उच्च न्यायालय से भी ऐसे ही निर्देश आ चुके हैं तब भी प्रदेश सरकार द्वारा उसकी अनुपालना न किया जाना जयराम सरकार की नीयत और नीति दोनों पर ही कई गंभीर सवाल खड़े कर देता है। स्मरणीय है कि जबसे प्रदेश लोकसेवा आयोग का संविधान की धारा 315 के तहत गठन हुआ है तब से लेकर आज तक इसमें सेना के लै.जनरल से लेकर प्रदेश के मुख्य सचिव डीजीपी और पत्रकार तक अध्यक्ष रह चुके हैं। सदस्यों के नाम पर भी आई.ए.एस. अधिकारियों से लेकर इंजीनियर वकील विभागों के उप निदेशक और पत्रकार तक इसके सदस्य रह चुके हैं। ऐसा इसीलिये हुआ है क्योंकि आज तक सदस्य और अध्यक्ष की नियुक्ति के लिये कोई निश्चित प्रक्रिया और नियम ही नहीं बन पाये हैं। शायद पूरे देश में ऐसा ही है इसलिये जब पंजाब हरियाणा का मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा था तब ऐसी ही छः याचिकाएं शीर्ष अदालत के पास लंबित थी। सर्वाेच्च न्यायालय ने तब इसका कड़ा संज्ञान लेते हुए यह कहा था कि लोकसेवा आयोग राज्य की शीर्ष प्रशासनिक सेवाओं के लिये उम्मीदवारों का चयन करते हैं परंतु उनके अपने ही चयन के लिये कोई प्रक्रिया और नियम न होना खेद का विषय है। जबकि इनकी नियुक्ति तो राज्यपाल करता है परंतु इनको हटाने का अधिकार राष्ट्रपति के पास है। पर उसके लिये भी इनके खिलाफ आयी शिकायत की जांच सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा की जायेगी। सर्वाेच्च न्यायालय की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति उन्हें हटा सकता है। या विधानसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके ऐसा कर सकती है। इसलिये इनकी नियुक्ति के लिये भी नियम और प्रक्रिया होना आवश्यक है। सर्वाेच्च न्यायालय ने साफ कहा है कि सदस्य बनने के लिये सरकार के वित आयुक्त जितनी योग्यता होनी चाहिये। प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशों को ही आगे बढ़ाते हुये जनवरी 2020 में जयराम सरकार को निर्देश दिये थे कि वह तुरन्त प्रभाव से यह नियम बनाये जो आज तक नहीं बने हैं। यहां यह भी समरणीय है कि जयराम सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब लोकसेवा आयोग में सदस्यों के दो पद सृजित किये गये परंतु उनमें से भरा एक ही। बल्कि आज तक यह पद भरा नहीं गया है। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब दूसरा पद भरना ही नहीं था तो उसको सृजित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी? जयराम सरकार के कार्यकाल में शायद अध्यक्ष की नियुक्ति भी थोड़े-थोड़े समय के लिये ही होती रही है। इसमें भी यह सवाल उठते रहे हैं कि क्या सरकार को ऐसा व्यक्ति ही नहीं मिलता रहा जो पूरे छः वर्ष के लिये अध्यक्ष रह पाता। इसमें भी सरकार की नीयत पर सवाल उठते रहे हैं। क्योंकि सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले ही फिर अध्यक्ष की नियुक्ति की जायेगी। एक कार्यकाल में तीन बार अध्यक्ष की नियुक्ति किया जाना एक तरह से संस्थान की प्रतिष्ठा को भी सवालों में लाकर खड़ा कर देता है। क्योंकि इससे संस्थान की कार्य संस्कृति प्रभावित हुई है। आज आयोग द्वारा ली जा रही परीक्षाओं के परिणाम निकालने में इतना समय लगाया जा रहा है जो पूर्व में नहीं लगता था। आज छः माह से लेकर एक वर्ष तक परिणाम नहीं आ रहे हैं। चर्चा है कि एच.पी.सी.एल. में ए.ई. की परीक्षा को करीब एक वर्ष हो रहा है और परिणाम नहीं आया है। एच.ए.एस. के परिणाम में ही शायद माह का समय लग गया है। आम आदमी पर इस देरी का क्या असर पड़ेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा इसीलिए हो रहा है कि सरकार उच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद नियम बनाने को तैयार नहीं है। शायद अगले अध्यक्ष की नियुक्ति के बाद ही इस बारे में विचार किया जायेगा। जिस ढंग से पैन्शन का फैसला लिया गया है उससे स्पष्ट हो गया है कि मुख्यमंत्री को सलाह नहीं मिल रही है। क्योंकि पैन्शन का फैसला तो आयोग के गठन के साथ ही ले लिया गया था। 1974 के 300 रूपये की आज क्या कीमत होगी यह कोई भी अनुमान लगा सकता है। फिर ब्रिगेडियर एल.एस.ठाकुर को अदालत पैन्शन का लाभ दे ही चुकी है। इसी के आधार पर डॉ. मानसिंह, प्रदीप चौहान, मोहन चौहान अदालत गये थे। उच्च न्यायालय ने इन के हक में फैसला दिया था। सरकार जिस की अपील में सर्वाेच्च न्यायालय गयी हुई है। शीर्ष अदालत में मामला अभी तक लंबित है। ऐसे में क्या अभी 1974 के प्रावधान को जनता के सामने रखे बिना पैन्शन का फैसला लिया जाना चाहिये था। आज आर्थिक संकट के दौर में सारी स्थिति जनता में स्पष्ट किये बिना फैसला लेना सही ठहराया जा सकता है क्या यह मुख्यमंत्री के सलाहकारों पर प्रशन नहीं है।

पुलिस भर्ती पेपर लीक मामला क्यों नहीं गया सी.बी.आई.में

पेपर सैटिंग कमेटी और प्रिंटिंग कमेटी को भेजी गयी अलग-अलग प्रश्नवाली क्या है?
भर्ती बोर्ड के चेयरमैन आई.जी. जे.पी. सिंह का अलग से प्रश्नावली क्यों भेजी गयी?
क्या इनके जवाबों से एस.आई.टी. संतुष्ट है?
प्रिंटिंग प्रैस के चयन की प्रक्रिया क्या रही?

शिमला/शैल। पुलिस भर्ती में पेपर लीक होने और उसके पांच से आठ लाख तक में बिकने के प्रकरण से प्रदेश तथा सरकार की प्रतिष्ठा पर जो दाग लगे हैं वह शायद कभी भी नहीं धुल पायेंगे। क्योंकि जैसे ही यह मामला उजागर हुआ तभी सारा विपक्ष सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया। उच्च न्यायालय की निगरानी में जांच करवाये जाने के ज्ञापन राज्यपाल को सौंपा गये। पुलिस द्वारा की जा रही जांच पर भरोसा न जता कर सीबीआई जांच की मांग की गयी। प्रदेश उच्च न्यायालय में इस आशय की याचिका पहुंच गयी। पूूर्व में घटे गुड़िया मामले की तर्ज पर इस मामले के भी सीबीआई में जाने की संभावना बढ़ गयी। यह लगने लगा था कि उच्च न्यायालय ही यह जांच सीबीआई को सौंपने के निर्देश कर देगा। क्योंकि पुलिस के खिलाफ पुलिस की ही विश्वसनीय नहीं होने का तर्क खड़ा हो गया था। पुलिस विभाग का प्रभार स्वयं मुख्यमंत्री के पास होने से उनकी अपनी प्रतिष्ठा और निष्पक्षता दाव पर आ गयी थी। इस सब को सामने रखकर उच्च न्यायालय की सुनवाई से पहले ही 17 मई को मामले की जांच सीबीआई को सौंपने की मुख्यमंत्री ने घोषणा कर दी। सभी ने घोषणा का स्वागत किया और मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा बहाल रह गयी।
लेकिन अब 27 जून को जब डी.जी.पी. संजय कुण्डू ने यह घोषणा कर दी कि एक सप्ताह के भीतर इस जांच का चालान अदालत में पेश कर दिया जायेगा और जांच की कुछ तफसील भी पत्रकारों के साथ सांझा कर ली तो वह सारे सवाल फिर से उठ खड़े हुए हैं जो पहले दिन से ही उछल गये थे। फिर कुण्डू ने सारे मामले में संबद्ध पुलिस अधिकारियों की लापरवाही की संभावना से इन्कार नहीं किया है। अब तक मामले में 171 लोग लोगों की गिरफ्तारी का तथ्य तो समझा कर लिया गया लेकिन यह कहीं सामने नहीं आया कि पुलिस के कितने लोगों से पूछताछ की गयी है। यह भी नहीं बताया गया कि एस.आई.टी. ने पेपर सैटिंग कमेटी और प्रिंटिंग कमेटी को जो अलग-अलग प्रश्नावलियां भेजी थी उनका क्या जवाब आया? क्या उस जवाब से एस.आई.टी. संतुष्ट है? पुलिस भर्ती बोर्ड के चेयरमैन आई.जी. जे.पी. सिंह को अलग से प्रश्न भेजे गये थे उनका क्या जवाब आया है? 2021 में पुलिस भर्ती प्रक्रिया में ऑनलाइन आवेदन मंगवाने का फैसला हुआ था। ए.डी.जी.पी. आर्मड पुलिस, आई.जी. रेंज, वैलफेयर और प्रशासन तथा डी.आई.जी. रेंज तक को बोर्ड में रखा गया था। लेकिन बाद में इस फैसले को किस तरह पर बदला गया यह आज तक सामने नहीं आ पाया है। यह सवाल भी अपनी जगह खड़ा है की पेपरों की प्रिंटिंग हिमाचल सरकार की प्रैस से न करवा कर बाहर से यह प्रिटिंग करवाने का फैसला किस स्तर पर और क्यों लिया गया। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिनकी ओर शायद जांच में कोई ध्यान नहीं गया है। 2006 के पी.एम.टी. पेपर मामले के अभियुक्त रहे मंडी ट्रक यूनियन के अध्यक्ष रहे मनोज कुमार कि अब इस मामले में भी संलिप्तता का खुलासा करके अपरोक्ष में यह तो कह दिया गया कि पेपर लीक तो बहुत पहले से होती आ रही है। यह तो बता दिया गया कि 10 राज्यों में यह गिरोह सक्रिय है। लेकिन इस सब से यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि पुलिस के अपने ही अधिकारियों कर्मचारियों के खिलाफ पुलिस की ही जांच की इससे विश्वसनीयता कैसे बन जाती है?

मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के सार्वजनिक संवाद पर उठते सवाल

क्या मुकेश अग्निहोत्री के उद्योग मंत्री काल में 73 करोड़ के खर्च में भ्रष्टाचार हुआ है?
यदि हां तो सरकार अब तक चुप क्यों थी?
यदि नहीं तो क्या मुकेश को डराने का प्रयास हो रहा है।
इसी दौरान आये डॉ. रचना गुप्ता के टवीट के मायने क्या हैं

शिमला/शैल। इन दिनों प्रदेश में नेता सत्ता पक्ष और नेता प्रतिपक्ष में सार्वजनिक संवाद जिस स्तर तक पहुंच गया है उसे आम आदमी मर्यादाओं का अतिक्रमण करार दे रहा है। मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष का आपसी संवाद जब मर्यादाए लांघना शुरू कर देता है तो आम आदमी पर उसका प्रभाव बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं रह जाता है। क्योंकि ऐसे संवाद में एक-दूसरे पर ऐसे आरोप अपरोक्ष में लगाये जाते हैं जिन पर न चाहते हुये भी आम आदमी का ध्यान चला जाता है और वह अपने ही स्तर पर अपने निज के लिये ही उनकी पड़ताल करना शुरू कर देता है। ऐसा वह इसलिये करता है कि इन नेताओं की जो तस्वीर उसने अपने दिमाग में बिठा रखी होती है उसका आकलन वह नये सिरे से कर सके। प्रदेश के इन शीर्ष नेताओं में हुये सार्वजनिक संवाद का विषय हेलीकॉप्टर का उपयोग/ दुरुपयोग बना है। यह एक सार्वजनिक सच है कि शायद मुख्यमंत्री की हवाई यात्रा की माइलेज उनकी रोड यात्रा से बढ़ जाये। यह भी सच है कि प्रदेश में सड़कों की सेहत दयनीय है। इनकी मुरम्मत में किस तरह की गुणवत्ता अपनाई जा रही है उसके प्रमाण राजधानी शिमला से लेकर हर विधानसभा क्षेत्र में मिल जायेंगे। कैसे तारकोल मिट्टी पर ही बिछा दिया जा रहा है इसके कई वीडियोस वायरल हो चुके हैं। लोक निर्माण विभाग और पर्यटन का प्रभार मुख्यमंत्री के पास है इसलिये हेलीकॉप्टर पर सबकी नजर चली जाती है। क्योंकि अधिकारियों को यह पता होता है कि मुख्यमंत्री ने तो हवाई मार्ग से ही आना है इसलिये उन्हें सड़कों की जमीनी हकीकत का पता क्यों और कैसे लगेगा। फिर मुख्यमंत्री के गिर्द मंडराने का अवसर भी उन्हीं को मिलता है जो हरा ही हरा दिखाने में पारंगत होते हैं।
ऐसे में जमीन से जुड़े और उसके सरोकारों से बंधे लोगों का हेलीकॉप्टर के उपयोग को लेकर आपस में बातें करना तथा सवाल उठाना स्वभाविक हो जाता है। इन लोगों को यह भी जानकारी रहती है कि मुख्यमंत्री के अतिरिक्त और कौन लोग इस में यात्रा कर लेते हैं। बल्कि एक समय तो जन चर्चा यहां तक रही है कि कुछ लोगों ने तो नाम बदलकर हवाई यात्रा की है। शायद उनके पद के कारण अपने ही नाम से यात्रा करना उनकी निष्पक्षता को प्रभावित करता। ऐसे में हेलीकॉप्टर के उपयोग को लेकर विपक्ष का परोक्ष/अपरोक्ष में सवाल उठाना स्वभाविक हो जाता है। शायद इन सवालों की धार कुछ ज्यादा पैनी हो होती जा रही थी जिस पर मुख्यमंत्री को सार्वजनिक मंच से यह कहना पड़ गया कि यह हेलीकॉप्टर नेता प्रतिपक्ष के टब्बर का नहीं है। मुख्यमंत्री के इस कथन का जवाब नेता प्रतिपक्ष ने भी उसी शैली में देते हुये यह कह दिया कि यह हेलीकॉप्टर न उनके परिवार का है और न ही मुख्यमंत्री के परिवार का। यह प्रदेश सरकार का है और इसके हर उपयोग की जानकारी हर आदमी को जानने का अधिकार है। आरटीआई के माध्यम से यह जानकारीयां मांगी जा सकती हैं। यह जवाब देते हुये नेता प्रतिपक्ष ने यह भी कह दिया कि यह हेलीकाप्टर सहेलियों के लिए भी नहीं है।
नेता प्रतिपक्ष के इस जवाब से आहत होकर प्रदेश के वन मंत्री राकेश पठानिया और ऊर्जा मंत्री सुखराम चौधरी ने एक पत्रकार वार्ता में नेता प्रतिपक्ष को बिना शर्त माफी मांगने के लिये कहा है। उन्होंने सहेली शब्द को असंसदीय करार देते हुये यह भी कहा है कि उनके पास कानूनी कारवाई करने का भी विकल्प है। राकेश पठानिया ने इसी पत्रकार वार्ता में यह भी आरोप लगाया कि जब मुकेश अग्निहोत्री वीरभद्र सरकार में उद्योग मंत्री थे तब उनके क्षेत्र में हुये 73 करोड़ के कार्यों को लेकर भी काफी कुछ मसाला उनके खिलाफ है। पठानिया के मुताबिक इस 73 करोड़ के खर्च में भ्रष्टाचार हुआ है। जिस पर मुकेश अग्निहोत्री के खिलाफ मामला बनता है जो अब तक नहीं बनाया गया है। राकेश पठानिया जयराम सरकार में वन मंत्री हैं और इस सरकार का यह अंतिम वर्ष चल रहा है। आज पठानिया ने जो 73 करोड़ के खर्च में घपला होने का आरोप लगाया है यह आरोप पहली बार लगा है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जयराम सरकार के संज्ञान में यह मामला पहले दिन से रहा है। लेकिन यह सरकार इस पर इसलिये चुप रही क्योंकि मुकेश अग्निहोत्री सरकार के खिलाफ शायद इतने आक्रामक नहीं थे। अब जब आक्रमक हुये हैं तब उनके खिलाफ यह मामले याद आ रहे हैं या बनाये जाने की धमकी है यह जो भी हो इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार इस सिद्धांत पर चलती रही है कि तुम हमें कुछ मत बोलो हम तुम्हें नहीं बोलेंगे। जयराम के मंत्री का यह ब्यान कानून की नजर में बहुत मायने रखता है। आने वाले समय में जनता इसका जवाब अवश्य मांगेगी। अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि जयराम अपने ही मंत्री के इस वक्तव्य का क्या जवाब देते हैं। क्योंकि जनता को यह जानने का हक है कि सही में भ्रष्टाचार हुआ है या मंत्री सार्वजनिक रूप से डरा रहे हैं।
राकेश पठानिया ने मुकेश से बिना शर्त माफी मांगने को कहा है अन्यथा कानूनी विकल्प चुनने की बात की है। लेकिन मुकेश ने अब तक माफी नहीं मांगी है तो क्या पठानिया अदालत जायेंगे? यह देखना दिलचस्प हो गया है। दूसरी ओर मुकेश के ब्यान के बाद संयोगवश प्रदेश लोक सेवा आयोग की सदस्य डॉ. रचना गुप्ता का भी एक ट्वीट आया है। यह मुकेश के ब्यान की प्रतिक्रिया मानी जा रही है। यह ट्वीट भी यथास्थिति पाठकों के सामने रखा जा रहा है। वैसे कानूनी शब्दकोष के मुताबिक सहेली शब्द असंसदीय नहीं है। विश्लेषकों के लिये मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष के सार्वजनिक संवाद के दौरान डॉ. गुप्ता के ट्वीट के मायने और संद्धर्भ समझना एक बड़ा सवाल बना हुआ है।

यह है ट्वीट

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