मुख्यमंत्री द्वारा राहुल को पप्पू प्रचारित करने से उठी चर्चा।
क्या मोदी के ड्रोन ज्ञान पर चर्चा का माहौल तैयार कर रहे हैं मुख्यमंत्री
शिमला/शैल। सत्ता में वापसी का दावा करना और उस दावे पर जन विश्वसनीयता बनाने के लिए अपनी कथित उपलब्धियों का करोड़ों के विज्ञापन जारी करके जनता में बखान करने का सरकार और सत्तारूढ़ दल को पूरा-पूरा अधिकार है। क्योंकि उन दावों की जमीनी सच्चाई प्रचार के लिये जारी हुए विज्ञापनों में नहीं बल्कि जनता के सामने यथास्थिति खड़ी होती है। आज चुनाव की पूर्व संध्या पर जिस सरकार के विशेषज्ञ डाक्टर अपनी मांगों के लिये हड़ताल पर जाने को विवश हो जायें जहां राजधानी के साथ सटे स्कूल में ही कोई भी अध्यापक न होने का आरोप लगे जहां लंपी रोग से त्रस्त जनता के सामने पशु औषधालय में एक-एक डॉक्टर के हवाले चार-चार अस्पताल हों जहां अस्पताल को जमीन देने के लिये गौशाला से गाय औणे पौणेे दामों में अपने को बेचने के आरोप लगने लग जायें तो ऐसी सच्चाई को विज्ञापनों के आवरण में ढकने के सारे प्रयास बहुत बौने पड़ जाते हैं। ऐसी कड़वी सच्चाई के सामने पर जब कोई मुख्यमंत्री विपक्ष के लिये ऐसी भाषा का इस्तेमाल करने पर आ जाये कि ‘‘कांग्रेस तो तब आयेगी जब हम उसे आने लायक रखेंगे’’ तब न चाहते हुए भी यह सोचना पड़ जाता है कि यह भाषा किसी अहंकार के कारण है या सच्चाई के बेनकाब हो जाने की हताशा से उपजी पीड़ा का प्रमाण है। क्योंकि मुख्यमंत्री ने इस भाषा का प्रयोग प्रधानमंत्री की बिलासपुर रैली के बाद करना शुरू किया है। बिलासपुर में जब शीर्ष भाजपा नेतृत्व ने प्रदेश में हुए सारे विकास का श्रेय एक स्वर में नरेन्द्र मोदी के नाम कर दिया और प्रधानमंत्री ने आगे वह श्रेय जनता के नाम कर दिया तब ऐसी भक्ति से अभिभूत हुए प्रधानमंत्री ने जनता से अपना ड्रोन ज्ञान सांझा करते हुए यहां तक सपना दिखा दिया कि किन्नौर का आलू भी इससे बड़ी मंडियों में पहुंचाया जा सकता है। प्रधानमंत्री के इस ज्ञान पर विवश विपक्ष ने कोई बड़ी प्रतिक्रियाएं नहीं दी। क्योंकि इस तरह के ज्ञान के कई उदाहरण देश के सामने आ चुके हैं। परन्तु इस ज्ञान के बोझ से मुख्यमंत्री इतने दब गये हैं कि उन्हें लगा कि कहीं जनता सच में ही ड्रोन की मांग न करने लग जाये। इस मांग से जनता में कोई मुद्दा न खड़ा हो जाये इसलिये मुख्यमंत्री ने इस संभावित चर्चा का रुख कांग्रेस की ओर मोडते हुये तंज कस दिया कि कांग्रेस में उथल-पुथल पप्पू के कारण है और इसे प्रमाणित करने के लिए राहुल गांधी के नाम लगे आटा लिटरों में तोलने के बयान का हवाला भी दे दिया। राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने में भाजपा ने आई टी सैल के माध्यम से मीडिया में लाखों रुपया निवेशित किया है। यह कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन में सामने आ चुका है। आटा लिटरों में तोलने का बयान कैसे कांट-छांट करके तैयार किया गया था यह भी सामने आ चुका है। बल्कि इस बयान के बाद जब ‘‘बेटी बचाओ-बेटी पटाओ’’ का ब्यान पलटवार के रूप में सामने आया तब यह सारा प्रचार स्वतः ही बन्द हो गया। इस तरह से ब्यानों को तोड़मरोड़ कर पेश करने की संस्कृति आई टी सैल के कार्यकर्ताओं तक तो कुछ देर के लिए चल जाती है और उसे कोई ज्यादा अहमियत भी नहीं दी जाती है। लेकिन जब ऐसे बयानों का सहारा मुख्यमंत्री को अपने विरोधियों पर हमला करने के लिये लेना पड़ जाये तब सारे संदर्भ और अर्थ बदल जाते हैं। विश्लेषकों के लिये भी यह आकलन का मुद्दा बन जाता है। क्योंकि आज जयराम सरकार अपनों के ही पत्र बम्बों से इतनी घिरी हुई है कि इनमें लगाये गये आरोपों की जांच कर इन्हें स्थाई रूप से विराम देने की बजाय सरकार के सलाहकारों ने इन पत्रों के लेखकों की तलाश की ओर रुख कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि न तो इन पत्रों के लेखकों को सरकार आज तक चिन्हित कर पायी और न ही इनमें लगे आरोपों से मुक्त हो पायी। जबकि सरकार की समझ के परिणाम स्वरुप यह पत्र अधिकारिक रूप से रिकॉर्ड पर आ चुके हैं। कुछ पत्रों पर तो मुख्यमंत्री के बयान की बाध्यता तक बन जाती है। इस वस्तु स्थिति में यह पत्र बम यदि अब चुनाव में एक मुद्दा बनकर सामने आ जाते हैं तो किसी को भी हैरत नहीं होगी। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या सरकार इन पत्र बम्बों की आंच से कांग्रेस को तोड़फोड़ का डर दिखाकर या राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित कर बच पायेगी।
चालीस टिकट बदले जाने की कवायद शुरू
धूमल के चुनाव लड़ने का फैसला हाईकमान पर छोड़ने के संकेत
नड्डा परिवार से बेटा या पत्नी के चुनाव लड़ने की संभावना
शिमला/शैल। भाजपा ने अभी तक विधानसभा चुनावों के लिये पार्टी के उम्मीदवारों की कोई सांकेतिक सूची तक जारी नहीं की है। जबकि कांग्रेस, माकपा और आप इस दिशा में भाजपा से बहुत आगे निकल चुके हैं। माना जा रहा है कि रणनीतिक तौर पर भाजपा अपने उम्मीदवारों की सूची अन्तिम दिन जारी करेगी। ताकि जिनके टिकट काट दिये जाते हैं उनके पास बगावत के लिए व्यवहारिक रूप से कोई समय न बचे। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक हो जाता है कि जो पार्टी केन्द्र और प्रदेश में दोनों जगह पार्टी की सरकारें होने के नाम पर सत्ता में वापसी के दावे कर रही है वह इतना संभल कर क्यों चल रही है? उसे बगावत का खतरा क्यों महसूस हो रहा है? इस सवाल की पड़ताल करने के लिए 2017 के चुनावों से लेकर आज तक सरकार और पार्टी में घटी कुछ मुख्य घटनाओं का स्मरण करना आवश्यक हो जाता है। स्मरणीय है कि 2017 में भी पार्टी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित न करने की रणनीति पर चली थी। लेकिन जब चुनाव प्रचार के दौरान यह फीडबैक मिला कि मुख्यमंत्री घोषित किये बिना जीत संभव नहीं है तब पीटरहॉफ की बैठक के बाद धूमल को मुख्यमंत्री घोषित करना पड़ा। इस घोषणा का लाभ मिला और पार्टी को चुनावों में बहुमत हासिल हो गया। परन्तु इस जीत में धूमल और उनके आधा दर्जन कट्टर समर्थक चुनाव हार गये। यह हार कितनी प्रायोजित थी यह जंजैहली प्रकरण से लेकर मानव भारती विश्वविद्यालय प्रकरण में शान्ता कुमार, राजेन्द्र राणा और जयराम की संयुक्त सक्रियता तथा बाद में सुरेश भारद्वाज के ब्यान से पूरी तरह खुलकर सामने आ चुकी है। इसी कारण से उस समय विधायकों का बहुमत धूमल के साथ होने के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। उस समय जगत प्रकाश नड्डा ने भी मुख्यमंत्री बनने के लिये पूरे प्रयास किये थे और वह सफल नहीं हो पाये थे। यह पूरा प्रदेश जानता है।
इन परिस्थितियों में जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री तो बन गये लेकिन आगे चलकर बतौर मुख्यमंत्री उनकी परफॉरमैन्स का जब यह परिणाम सामने आया कि भाजपा के पास डबल इंजन होते हुये भी चार में से दो नगर निगम हारने के बाद तीन विधानसभा के रूप और एक लोकसभा उपचुनाव हारने से शिमला नगर निगम का चुनाव करवाने तक का साहस नहीं कर पाये। इस स्थिति पर किसी भी हाईकमान का माथा टनकना स्वभाविक था। इससे प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें चलना शुरू हो गयी। कई मंत्रियों की छुट्टी करने और विभाग बदलने की चर्चाएं शुरू हो गयी। लेकिन यह चर्चाएं व्यवहारिक रूप नहीं ले पायी। क्योंकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा हिमाचल से ताल्लुक रखते थे। नड्डा धूमल शासनकाल में कैसे दिल्ली पहुंचे यह भी प्रदेश में सब जानते हैं। 2017 के चुनाव के बाद नड्डा ने फिर हिमाचल आने का मन बनाया तो जयराम ने इसे सफल नहीं होने दिया। लेकिन जब भी हिमाचल में नेतृत्व परिवर्तन का सवाल दिल्ली में उठा तो जयराम का विकल्प नड्डा की जगह धूमल ही उभरा। परन्तु नड्डा के लिये यह दिल से स्वीकार्य नहीं हो पाया। इसलिये परिस्थितियों ने जयराम को ही कुर्सी पर बनाये रखा। लेकिन जयराम अपने को प्रमाणित नहीं कर पाये वह अपनो के स्वार्थों से ऐसे घिर गये कि शीर्ष प्रशासन पर उनकी पकड़ और समझ रेत की मूठी से आगे नहीं बढ़ पायी। जो मुख्यमंत्री लोकसेवा आयोग के लिये किये गये अध्यक्ष के अपने फैसले को अन्जाम न दे सके जिस मुख्यमंत्री के शीर्ष प्रशासन के आधा दर्जन अधिकारियों पर लगे आरोपों की जांच के लिये आये पी.एम.ओ. के फरमान को अमली शक्ल न दे पाये वह प्रधानमंत्री का कितना विश्वास पात्र बना रह सकता है। इसका अन्दाजा लगाना किसी भी राजनीति विश्लेषक के लिये कठिन नहीं हो सकता है। मुख्यमंत्री की प्रशासनिक पकड़ का ताजा उदाहरण प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के रूप में सामने आया है। वर्ष 2000 में स्व. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर शुरू हुई इस योजना का अन्तिम चरण भी अब सितम्बर 2022 को समाप्त हो गया है। योजना का अन्तिम चरण 2019 में शुरू हुआ था। इस योजना में गांव को सड़कों से जोड़ना था। केंद्र में यह योजना ग्रामीण विकास विभाग देखता है। लेकिन हिमाचल में यह काम मुख्यमंत्री के लोक निर्माण विभाग के पास है। योजना समाप्त हो गयी है और इसके तहत बन रही 203 सड़के अभी तक अधूरी हैं। केन्द्र ने योजना की समय अवधि बढ़ाने का सरकार का आग्रह अस्वीकार कर दिया है। इनमें निवेशित हुआ सैकड़ों करोड़ रुपया बेकार होने के कगार पर पहुंच गया है। यदि मुख्यमंत्री के प्रभार में चल रहे विभाग की यह स्थिति होगी तो अन्य विभागों का क्या हाल होगा? क्या ऐसी परफॉरमेन्स पर सत्ता में वापसी के दावे जमीनी हकीकत हो सकते हैं। इस परिदृश्य में ही सुजानपुर में राज्य सभा सांसद इन्दु गोस्वामी को धूमल को भारी बहुमत से विजय बनाने का आह्वान करते हुये नेतृत्व के प्रश्न पर भी कई संकेत छोड़ जाता है। जबकि आज भाजपा के विधायक किस तरह प्रशासन पर अपने नाजायज फैसले मनवाने के लिये प्रशासन पर दबाव डाल रहे हैं यह विधानसभा उपाध्यक्ष हंसराज के वायरल वीडियो से सामने आ चुका है। उपाध्यक्ष केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर से शिकायत करने की धमकी दे रहे हैं। लेकिन मुख्यमंत्री से लेकर प्रदेश अध्यक्ष राष्ट्रीय अध्यक्ष और अनुराग ठाकुर तक की इस प्रकरण पर चुप्पी पार्टी और सरकार में फैली अराजकता का सीधा सन्देश दे रही है। इसी कारण से आज छः मंत्रियों सहित 30 विधायकों और 14 पूर्व विधायकों के टिकट काटने की चर्चा चल पडी है। इसी चर्चा के साथ नड्डा के बेटे या पत्नी तथा धूमल के चुनाव लड़ने का फैसला हाईकमान पर छोड़ा जा रहा है। निर्दलीयों और कांग्रेस से आये विधायकों तथा सुरेश चन्देल और हर्ष महाजन को शिमला की एक सीट से उम्मीदवार बनाने के लिये भाजपा अपने सिद्धांतों की आहुति देने के कगार पर आ पहुंची है।
शिमला/शैल। कांग्रेस के दो कार्यकारी अध्यक्ष पार्टी छोड़ भाजपा में चले गये हैं। विधायक लखविंदर राणा और पवन काजल भी भाजपा में शामिल हो गये हैं। तीन बार हमीरपुर से भाजपा सांसद और प्रदेश अध्यक्ष रहे सुरेश चन्देल भी भाजपा में वापसी कर गये हैं। कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाने वाले सभी नेताओं ने कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व से लेकर प्रदेश नेतृत्व तक पर वही रश्मि आरोप दोहराये हैं जो भाजपा का केन्द्र से लेकर राज्य नेतृत्व अब तक लगाता आ रहा है। इनमें से कितने नेता ई.डी. और आयकर विभाग की दबिश से डरकर भाजपा में गये हैं यह सब आने वाले दिनों में सामने आ जायेगा लेकिन इन नेताओं के जाने से सही में कांग्रेस को कितना नुकसान होता है यह इस पर निर्भर करेगा कि जाने वाले कितने लोगों को भाजपा टिकट देकर चुनाव लड़वाती है और वह जीत भी जाते हैं। लेकिन इस जाने से भाजपा तन्त्र नौमिनेशन फाइल होने की अन्तिम दिन तक कई नेताओं और सक्रिय कार्यकर्ताओं के पार्टी छोड़ने की अफवाहें फैलाने के एजेंडे को अंजाम दे सकता है। इसका परिणाम भी उस समय सामने आ गया जब स्वयं मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का यह ब्यान छप गया कि यदि कांग्रेस अध्यक्षा प्रतिभा सिंह भी भाजपा में आना चाहे तो उनका स्वागत है। बल्कि जब मुख्यमंत्री का यह ब्यान छपा तब एक वीडियो भी जारी हुआ जिसमें किसी भाजपा नेता राणा की प्रतिभा सिंह के साथ मीटिंग होने तक का जिक्र हुआ। कांग्रेस की ओर से न तो मुख्यमंत्री के ब्यान का और न ही इस वीडियो का कोई कड़ा जवाब आया। बल्कि यह जवाब न आने से और कई नेताओं के पार्टी छोड़ने की अफवाहों का बाजार गर्म है। ऐसी अफवाहों पर विराम लगवाना पार्टी नेतृत्व की जिम्मेदारी हो जाती है क्योंकि इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटता है। आज अफवाहों और ज्योतिषी आकलनों को मनोवैज्ञानिक हमले की संज्ञा दी जाती है जिसे काऊन्टर करना आवश्यक हो जाता है। कांग्रेस नेतृत्व इस प्रचार का जवाब देने में असफल रहा है इसमें कोई दो राय नहीं है। इस समय कांग्रेस में स्व. वीरभद्र सिंह के बाद नेतृत्व का सवाल स्वभाविक रूप से खड़ा है। क्योंकि आज की तारीख में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कॉल सिंह भी 2017 का चुनाव हारने के बाद नेतृत्व के पहले दावेदार नहीं रह जाते हैं। इस समय चुनाव न हारने के मानक पर आशा कुमारी और मुकेश अग्निहोत्री तथा हर्षवर्धन चौहान रह जाते हैं। ठाकुर रामलाल और सुखविन्दर सिंह सुक्खू के नाम भी चुनाव हारने का तमगा चिपक चुका है। लेकिन जहां मुकेश अग्निहोत्री ने सदन में नेता प्रतिपक्ष के रूप में अपने को प्रमाणित कर दिया है वहीं पर मुकेश के बाद सुक्खू का बतौर अध्यक्ष रहा कार्यकाल भी पार्टी के लिये एक बड़ा योगदान रहा है जबकि वह स्व. वीरभद्र सिंह के साथ लगातार टकराव में रहे हैं। इस परिदृश्य में आज भाजपा के भ्रामक प्रचार को चुनौती देने की जिम्मेदारी सामूहिक रूप से प्रतिभा सिंह, आशा कुमारी, सुखविंदर सिंह सुक्खू और मुकेश अग्निहोत्री तथा हर्षवर्धन चौहान की बन जाती है। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व भाजपा के प्रचार को सक्षम रूप से चुनौती नहीं दे पा रहा है। बल्कि इन सभी नेताओं को उनके ही चुनाव क्षेत्रों में बांध कर रखने की रणनीति पर काम किया जा रहा है। इस समय भाजपा जिला शिमला में सबसे ज्यादा कमजोर है भाजपा पर यह दबाव और पुख्ता करने के लिए यदि प्रतिभा सिंह शिमला से विधानसभा चुनाव लड़ने की योजना पर काम करती हैं तो शिमला के अतिरिक्त पूरे प्रदेश में वीरभद्र सिंह के समर्थकों को न केवल सक्रिय होने का अवसर मिलता है बल्कि उनको एक राजनीतिक आका भी मिल जाता है। संयोग से भाजपा में धूमल के अतिरिक्त प्रदेश स्तर पर भाजपा कार्यकर्ताओं को आका नहीं मिल पाया है। क्योंकि जयराम एक वर्ग विशेष से बाहर ही नहीं निकल पाये हैं।
विधायक अनिरुद्ध के आरोपों का जवाब क्यों नहीं दे पा रही भाजपा
क्या हर्ष महाजन पर अपने ही आरोप पत्र में लगाये गये आरोपों को भाजपा वापस लेगी?
हर्ष महाजन की गाड़ी का पंजीकरण और इन्श्योरैन्स खरीद से पहले ही नोटबंदी में कैसे संभव हुआ
शिमला/शैल। हिमाचल में जब तीन विधानसभा तथा एक लोकसभा चुनाव क्षेत्र के लिये उपचुनाव हुये थे और भाजपा की जयराम सरकार यह चारों उपचुनाव हार गयी तब इसके लिये मुख्यमंत्री ने महंगाई को जिम्मेदार ठहराया था। अब सरकार का कार्यकाल समाप्त होने के बाद विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। सरकार और भाजपा नेता यह प्रचार कर रहे हैं कि इस बार रिवाज बदलेगा तथा भाजपा सत्ता में वापसी करेगी। ऐसा प्रचार तथा दावे करके भाजपा नेता अपने स्वभाविक राजनीतिक धर्म का पालन कर रहे हैं। क्योंकि चुनावों से पहले ऐसे दावे करना उसकी जिम्मेदारी है। जबकि कड़वा सच यह है कि अभी आरबीआई को बैंकों के दिये जाने वाले कर्ज की ब्याज दरें बढ़ानी पड़ी हैं। यह दरें बढ़ाने का स्वभाविक परिणाम होगा कि आने वाले दिनों में महंगाई और बेरोजगारी बढ़ेगी। जिसका प्रभाव हर घर और रसोई पर पड़ता है और व्यवहारिक रूप से सभी को समझ आता है। महंगाई और बेरोजगारी बढ़ाने का फैसला पिछला बजट बनाते हुए ही ले लिया गया था जब गांवों से जुड़ी हर चीज के बजट में भारी-भरकम कटौतीयां कर दी गयी थी। यह कटौतीयां इसलिए की गयी थी क्योंकि आम आदमी की सुविधायें सरकार की प्राथमिकता ही नहीं है। इसलिए तो शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी अहम सेवाएं भी पीपीपी मोड पर प्राइवेट सैक्टर को देने का फैसला ले लिया गया है। आने वाली स्थितियों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज विशेषज्ञ डॉक्टरों को भी अपनी मांगे बनाने के लिये हड़ताल का रुख करना पड़ रहा गया है। यह सारे प्रभाव चुनाव से पहले कुछ ही दिनों में आम आदमी को व्यवहारिक रूप से सामना करने पड़ेंगे यह तय है।
सरकार भी इन खतरों के प्रति सचेत है इसलिए सीबीआई, ईडी और आयकर जैसी जांच एजेंसियों को सक्रिय कर दिया गया है। यूपी विधानसभा चुनाव में यह पूरे देश ने देख लिया है कि जब भाजपा से जुड़ा एक जैन आयकर और ई डी की जांच में फंस जाता है तो कैसे उसके लिए सारा तर्क बदल दिया जाता है। लेकिन जब सपा से जुड़ा दूसरा जैन ई डी के निशाने पर आ गया तो फिर तर्क बदल गये। ऐसे दर्जनों मामले हैं जो जांच एजैन्सियों के राजनीतिक उपयोग का सच बयां करते हैं। हिमाचल में ही कांग्रेस विधायक अनिरुद्ध सिंह ने तो सीधे मुख्यमंत्री पर उन पर भाजपा में शामिल होने का दबाव डालने का आरोप लगाया है। इस आरोप का जवाब मुख्यमंत्री की ओर से न आकर सुरेश भारद्वाज की ओर से यह कहना कि लोग अपनी इच्छा से भाजपा में आ रहे हैं एक कमजोर प्रतिक्रिया है। बेरोजगारों में आज हिमाचल देश के टॉप छः राज्यों में शामिल है यह भारत सरकार की रिपोर्ट में दर्ज है। क्या आज कोई हिमाचल में लगातार बढ़ रही बेरोजगारी से प्रभावित होकर भाजपा में शामिल होना चाहेगा?
अभी जो लोग निर्दलीय या कांग्रेसी भाजपा में शामिल हुये हैं वह राजनीति के साथ विजनैस से भी जुड़े हुये हैं। राजनेता को आयकर तथा ई डी जैसी एजैन्सियां कभी कहीं भी परेशान कर सकती हैं यह संदेश आम आदमी में नीचे तक जा चुका है। कांग्रेस छोड़ भाजपा में गये पूर्व मन्त्री और कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राज्य सहकारी बैंक के अध्यक्ष रह चुके हैं। अध्यक्षता के कारण भाजपा के आरोप पत्र में उनका नाम प्रमुखता से छपा हुआ है। भाजपा अपने ही आरोप पत्र में लगाये गये आरोपों का क्या जवाब देगी इस पर सबकी निगाहें लगी हुई है। नोटबन्दी के दौरान देशभर में पुराने नोटों को नये नोटों में बदलने में प्रदेश के सहकारी बैंकों का स्थान सबसे ऊपर रहा है। भाजपा ही इस पर एक समय सवाल उठा चुकी है। इसी नोटबन्दी के दौरान हर्ष महाजन 80 लाख की गाड़ी खरीद चुके हैं। इस गाड़ी का पंजीकरण और इन्श्योरेंस खरीदने से बहुत पहले हो चुका है। नूरपुर में हुआ यह पंजीकरण खरीद से पहले ही किन नियमों में संभव हुआ है भाजपा में ही इस पर एक समय सवाल उठ चुके हैं। चर्चा है कि यह सवाल अब फिर उठने जा रहा था। शायद इन सवालों से बचने के लिये ही हर्ष महाजन भाजपा में जाने के लिये बाध्य हुये हैं अन्यथा जो नेता एक दशक से भी ज्यादा समय से चुनावी राजनीति से विदा ले चुका हो उसकी चुनावी प्रसगिकता आज कितनी शेष रह चुकी होगी। इसका अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसा नेता कुछ लोगों को राजनीतिक गाली देने से ज्यादा क्या योगदान दे पायेगा यह अपने में ही अब सवाल बनता जा रहा है। वैसे राजनीति में सिद्धांतों और स्वच्छता का आवरण ओढ़े रखने वाली भाजपा कांग्रेस से गये हुये कितने लोगों को टिकट दे पाती है इस पर सबकी निगाहें लगी गयी हैं
शिमला/शैल। आम आदमी पार्टी ने जहां चार विधानसभा क्षेत्रों के लिये उम्मीदवारों की घोषणा की है वहीं पर सी.पी.एम. ने एक दर्जन क्षेत्रों के लिये उम्मीदवार घोषित कर दिये हैं। मौजूदा विधानसभा में भी सी.पी.एम. का एक उम्मीदवार है जिसकी सदन में रही वर्किंग इसका पर्याप्त प्रणाम बन जाती है कि सी.पी.एम. जन मुद्दों के प्रति कितना सजग और ईमानदार रही है। सी.पी.एम. की तुलना आम आदमी पार्टी से करना इसलिये आवश्यक हो जाती है कि आप प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा का विकल्प होने का दावा कर रही है। जबकि जन सरोकारों के मुद्दों पर सी.पी.एम. की गंभीरता तथा जन संघर्ष में भागीदारी कांग्रेस और भाजपा से कहीं अधिक रही है। आज शिक्षा को जिस तरह मौजूदा सरकार प्राईवेट सैक्टर के हवाले एक योजनाबद्ध तरीके से करती जा रही है और प्राईवेट शिक्षण संस्थानों ने फीसें बढ़ाकर करीब एक लाख तक पहुंचा दी है तब इस सब के विरूद्ध किसी ने आन्दोलन का आयोजन किया है तो इसका श्रेय केवल सी.पी.एम. को जाता है। शिक्षण संस्थाओं को बाजार बनाने के प्रयासों का विरोध किया जाना आज पहली आवश्यकता बन चुका है। क्योंकि सरकारी स्कूलों को जानबूझकर कमजोर रखा जा रहा है बल्कि अध्यापकों की आपूर्ति करवाने के लिए उच्च न्यायालय का सहारा तक लेना पड़ा है।
अभी जब पशुओं विशेषकर गोधन में जो लम्पी रोग का प्रकोप फैला और इस दिशा में सरकार के प्रयास नहीं के बराबर सिद्ध हुये तब सी.पी.एम. के नेता और कार्यकर्ता ही प्रभावितों का दर्द बांटने के लिये उनके पास पहुंचे। कुसुम्पटी क्षेत्र जो शिमला की जलापूर्ति का एक बड़ा स्त्रोत है जब इसके बाशिंदों को पेयजल का संकट झेलना पड़ा तब इनकी समस्या को संबद्ध प्रशासन तक पहुंचाने में सी.पी.एम. नेता डॉ. तनवर ही इनके पास पहुंचे। महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर भी सी.पी.एम. नेतृत्व जनता के साथ खड़ा होने में अग्रिम रहा है। जनहित से जुड़े मुद्दों पर सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की जो भूमिका सी.पी.एम. ने निभाई है वह विपक्ष के नाते कांग्रेस या आप नहीं निभा पायी है। जन सरोकारों पर संघर्ष के मानक पर वाम नेतृत्व से ज्यादा खरा कोई नहीं उतरता है। ऐसे में यदि जनता का समर्थन मुद्दों के मानक पर आता है तो इस बार तीसरे दल के नाम पर सी.पी.एम. का दखल विधानसभा के पटल पर संख्या बल के नाम पर बहुत प्रभावी रहेगा यह तय है। क्योंकि आप भाजपा की बी टीम होने के लांछन से मुक्त नहीं हो पायी है। भाजपा सत्ता के लिए जांच एजैन्सियों के दुरुपयोग में सारी सीमाएं लांघती जा रही है यह धारणा समाज के हर वर्ग में बहुत गहरे तक उतर गयी है। कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग जांच एजैन्सियों के बढ़ते दखल से डरकर भाजपा में जाने में ही अपनी भलाई मान रहा है। इस वस्तुस्थिति का स्वभाविक राजनीतिक लाभ सी.पी.एम. को मिलना तय है।