Friday, 19 September 2025
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क्या कांग्रेस में उपमुख्यमंत्री का पद निश्चित न होने से सुखराम परिवार ने थामा भाजपा का दामन

क्या भाजपा का परिवारवाद का मानक अनिल-आश्रय पर लागू नहीं होगा?
क्या अनिल अब भी महेन्द्र सिंह को राजनीतिक गाली देने का साहस दिखायेंगे?

शिमला/शैल। भले ही बारिश ने प्रधानमन्त्री का मण्डी आना रोक दिया लेकिन इस मौसम ने सुखराम परिवार की राजनीतिक अनिश्चितता के बादल साफ करते हुये भाजपा में जाने का रास्ता प्रशस्त कर दिया है वैसे तो अनिल भाजपा के ही विधायक हैं। भाजपा ने उन्हें मन्त्री बनाकर पूरा सम्मान दिया था। परन्तु जब 2019 के लोकसभा चुनाव में अनिल के बेटे आश्रय शर्मा ने कांग्रेस के टिकट पर मण्डी से चुनाव लड़ लिया और अनिल स्वयं न तो भाजपा और मन्त्री पद छोड पाये न ही भाजपा के लिये चुनाव प्रचार कर पाये। इस स्थिति में भाजपा और अनिल के रिश्तों में कड़वाहट आयी तथा मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। लेकिन इसके बावजूद न भाजपा ने अनिल को निकाला और न ही अनिल कोई राजनैतिक नैतिकता दिखाई बल्कि इस सारे दौरान यह आरोप अवश्य बार-बार लगाते रहे की मुख्यमन्त्री को खराब करने में केवल महेन्द्र सिंह का हाथ है। अब जिस ढंग से अनिल के बेटे आश्रय को भी भाजपा में ले आये हैं उससे यह अवश्य इंगित होता है कि मण्डी में महेन्द्र सिंह को कोसने का काम सुखराम परिवार को किसी योजना के तहत मुख्यमन्त्री ने ही तो नहीं दे रखा था। क्योंकि आज सुखराम परिवार के इस तरह पाला बदलने पर पूरी भाजपा खामोश है जबकि महेन्द्र सिंह के नाम का कवर लेकर जो जो आरोप यह लोग जयराम सरकार पर लगा चुके हैं उनका जवाब देना इन्हें ही कठिन हो जायेगा। इस परिदृश्य में यदि अनिल और आश्रय के सारे राजनीतिक चरित्र का आकलन इससे भाजपा को लाभ तथा कांग्रेस को नुकसान के गणित से किया जाये तो यही सामने आता है कि जब से पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया तब से मण्डी में कांग्रेस को चुनावी लाभ बड़े स्तर पर नहीं हो पाया है। क्योंकि मण्डी में कांग्रेस के बड़े नामों में स्व. पंडित सुखराम के साथ कौल सिंह, गुलाब सिंह, रंगीला राम राव और महेन्द्र सिंह का बराबर लिया जाता रहा है। इनमें से गुलाब सिंह और महेन्द्र सिंह तो कांग्रेस छोड़कर हिविकां मे शामिल हो गये। 1998 में हिविंका के सहयोग से भाजपा की सरकार बनने तक अनिल शर्मा की राजनीतिक छवि पंडित सुखराम का बेटा होने से ज्यादा नहीं बन पायी है। बल्कि जब स्वास्थ्य और केस के कारण पंडित जी की सक्रियता में कुछ कमी आयी तब अनिल घर के अन्दर के विवाद को भी बाहर आने से नहीं रोक पाये। बल्कि इस दौरान जयराम के हाथों महेन्द्र सिंह को सार्वजनिक रूप से राजनीतिक गाली देने के मोहरे के रूप में यूज होने से नहीं रोक पाये। बल्कि आश्रय भी कांग्रेस में होते हुये भी प्रतिभा सिंह और कौल सिंह को कोसने का मोहरा होकर ही रह गये। क्योंकि जब आश्रय ने मण्डी में प्रतिभा सिंह के दखल पर सवाल उठाये और द्रंग से कांग्रेस टिकट की दावेदारी जताई थी तभी राजनीतिक पंडितों के लिये यह स्पष्ट हो गया था कि अब आश्रय का भाजपा में जाना कभी भी घोषित हो सकता है। बल्कि अनिल का कांग्रेस में उपमुख्यमंत्री की मांग रखना भी इसी रणनीति का हिस्सा था। जिसे कांग्रेस ने समय रहते ही समझ लिया और अस्वीकार कर दिया। इस परिपेक्ष में जब अनिल और आश्रय भाजपा के हो जाते हैं तो सबसे पहले इन्हें परिवारवाद के मानक को क्रॉस करना होगा। क्या भाजपा इनके लिये इस मानक को नजरअन्दाज कर देगी? क्या इस मानक के लिये यह लोग अपने राजनीतिक हित की आहुति देने के लिये सहमत हो जायेंगे? यदि भाजपा अनिल आश्रय के लिये परिवारवाद के सिद्धांत को नजरअन्दाज करने पर सहमत हो जाती है तो उसी गणित से यह सिद्धान्त महेंद्र सिंह और धूमल परिवारों पर कैसे लागू हो पायेगा? वैसे तो भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा भी अपने बेटे को विधायक या सांसद देखना चाहते हैं। बिलासपुर की कोई भी राजनीतिक गतिविधि नड्डा के बेटे की उपस्थिति के बिना पूरी नहीं होती है। दूसरी ओर अब जब अनिल और आश्रय दोनों भाजपा के हो गये हैं तो अब वह किस नैतिकता के तहत महेन्द्र सिंह के खिलाफ पहले की तरह मुंह खोल पायेंगे यह भी आने वाले दिनों का एक बड़ा सवाल होगा जिसका प्रभाव पूरे प्रदेश पर पड़ेगा।

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