शिमला/शैल। देश की शीर्ष अदालत के शीर्ष जज की कार्यप्रणाली को उसी के साथी चार वरिष्ठ जजों ने लोकतन्त्र के लिये खतरा करार दिया है। इन चार जजों ने बाकायदा एक पत्रकार को संबोधित करते हुए देश की जनता से अपनी पीड़ा को सांझा किया है और आह्वान किया है कि वह अब आगे आकर इस शीर्ष संस्थान की रक्षा करे। अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के इन चार वरिष्ठतम जजों को अपनी पीड़ा देश की जनता से बांटने के लिये मीडिया का सहारा लेना पड़ा है तो वास्तव में ही स्थितियां कितनी गंभीर रही होंगी। क्योंकि जो इन चारों जजों ने किया है वह देश की न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार हुआ है वैसे तो न्यायपालिका पर एक लम्बे समय से अंगुलियां उठना शुरू हो गयी है। अभी पिछले ही दिनों जस्टिस सी एस करन्न और अरूणांचल के मुख्यमन्त्री स्व. काली खो पुल्ल के प्रकरण हमारे सामने हैं। न्यायपालिका पर से जब भरोसा उठने की नौबत आ जाती है तब उसके बाद केवल अराजकता का नंगा नाच ही देखने को बचता है। जिसमें किसी के भी जान और माल की सुरक्षा सुनिश्चित नही रह जाती है। केवल ‘‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’’ का कर्म शेष रह जाता है।
आज देश की जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति बनी हुई है उसको सामने रखते हुए यह कहा जा सकता है कि देश इस समय एक संक्रमण काल से गुजर रहा है क्योंकि आज सारे राजनीतिक दलों पर से आम अदामी का भरोसा लगभग उठता जा रहा है। देश की जनता ने 2014 के लोकसभा चनावों में जो भरोसा भाजपा पर दिखाया था उस भरोसे को दिल्ली के विधानसभा चुनावों में ही ब्रेक लग गयी थी। उसके बाद के सारे चुनावों में ईवीएम मशीनों पर सवाल उठते गये हैं और आज इन मशीनों के बदले पुरानी वैलेट पेपर व्यवस्था की मांग एक बड़ा मुद्दा बनने जा रही है। कांग्रेस पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे वह अभी तक उन आरोपों और उन लोगों के साथ से बाहर नही निकल सकी है जिनके कारण यह आरोप लगे थे। आर्थिक धरातल पर मंहगाई और बेरोजगारी का कड़वा सच्च घटने की बजाये लगातार बढ़ता ही जा रहा है और इसे छुपाने के लिये हर रोज नये नारों और घोषणाओं का बाज़ार फैलाया जा रहा है। सामाजिक स्तर पर विरोध को कब देशद्रोह करार दे दिया जाये यह डर बराबर बढ़ता जा रहा है। सरकार का हर आर्थिक फैसला मुक्त बाजार व्यवस्था की ओर बढ़ता जा रहा है जो कि 125 करोड़ की आबादी वाले देश के लिये कभी भी हितकर नही हो सकता है। आम आदमी इन आर्थिक फैसलों को सही अर्थों में कही समझने न लग जाये इसके लिये उसके सामने हिन्दू- मुस्लिम मतभदों के ऐसे पक्ष गढे़ जा रहे हैं जिनसे यह मतभेद कब मनभेद बनकर कोई बड़ा मुद्दा खड़ा कर दे यह डर हर समय बना हुआ है।
इस परिदृश्य में आम आदमी का अन्तिम भरोसा आकर न्यायपालिका पर टिकता है लेकिन जब न्यायपालिका की अपनी निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो जायेंगे तो निश्चित तौर पर लोकतन्त्र को इससे बड़ा खतरा नही हो सकता। आज सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों न्यायमुर्ति जे. चलमेश्वर, न्यायामूर्ति रंजन गोगाई, न्यायमूर्ति मदन वी लोकर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने जिस साहस का परिचय देकर देश के सामने स्थिति को रखा है उसके लिये उनकी सरहाना की जानी चाहिये और उन्हे समर्थन दिया जाना चाहिये। यह लेख उसी समर्थन का प्रयास है जो लोग इनके साहस को राजनीतिक चश्मे से देखने का प्रयास कर रहे हैं उनसे मेरा सीधा सवाल है कि यह लोग अपने लिये कौन सा न्याय मांग रहे है? इनका कौन सा केस कहां सुनवाई के लिये लंबित पड़ा है। इन्होने तो प्रधान न्यायधीश से यही आग्रह किया है कि संवेदनशील मामलों की सुनवाई के लिये जो बैंच गठित हो वह वरिष्ठतम जजों के हो बल्कि संविधान पीठ ऐसे मामलों की सुनवाई करे। अभी जजों के इस विवाद पर अटाॅर्नी जनरल ने एक चैनल में देश के सामने यह रखा है कि एक ही तरह के दो मामलों में लंच से पहले एक फैसला आता है तो उसी तरह के दूसरे मामलें में लंच के बाद अलग फैसला आ जाता है। ऐसे फैसलों का उल्लेख जब शीर्ष पर बैठे लोग करेंगे तो फिर आम आदमी ऐसे पर क्या धारणा बनायेगा?
अरूणाचल के स्व. मुख्यमन्त्री कालिखो पुल्ल ने अपने आत्महत्या नोट में यह आरोप लगाया है कि जस्टिस दीपक मिश्रा के भाई आदित्य मिश्रा ने किसी के माध्यम से उनसे 37 करोड़ की मांग की थी। कालिखो पुल्ल की आत्महत्या के मामले को लेकर उनकी पत्नी ने सर्वोच्च न्यायालय में भी दस्तक दी थी। जस्टिस दीपक मिश्रा ने भूमिहीन ब्राह्मण होने के आधार पर उड़ीसा सरकार से दो एकड़ ज़मीन लीज़ पर ली थी। वैसे जस्टिस दीपक मिश्रा पंडित गोदावर मिश्रा के वंशज हैं जो 1937-45 और 1952-56 जुलाई तक उड़ीसा विधानसभा के सदस्य रहे हैं। इन्ही के चाचा रंगनाथन मिश्रा भी देश के प्रधान न्यायधीश रह चुके है। ऐसी समृद्ध वंश पंरपरा से ताल्लुक रखने वाले दीपक मिश्रा को भूमिहीन होने के नाते दो एकड़ ज़मीन सरकार से लीज़ पर लेने की नौबत रही हो यह अपने में एक बड़ी बात है।
आज सर्वोच्च न्यायालय में सहारा- बिरला डायरीज़, मैडिकल काऊंसिल रिश्वत मामला और जज बी एच लोया की हत्या के मामले लंबित हैं। इन मामलों की सुनवाई संविधान पीठ से करवाई जाये न कि कनिष्ठ जजों के बैंच से। इसको लेकर प्रधान न्यायधीश और इन चार वरिष्ठतम जजों में मतभेद चल रहा है। देश की जनता की नज़र इन मामलों पर लगी हुई है।