लेकिन इस आन्दोलन को लेकर सरकार ने जिस तरह का रूख अपना रखा है उससे जो सवाल उभरे हैं उन्हें नज़रअन्दाज करना आसान नहीं होगा। सरकार अपनी चुनावी जीत को सबसे बडे हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है यह सच भी है कि भाजपा ने 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव जीते हैं। बल्कि अब कोरोना काल में हुए बिहार विधान सभा चुनावों में भी भाजपा गठबन्धन ने ही सरकार बनायी है और इस सरकार बनाने को ही हर फैसले के लिये जनादेश करार दे रही है। लेकिन इसी का दूसरा पक्ष भी उतना ही गंभीर है। हर चुनाव के बाद ईवीएम को लेकर सवाल भी उठे हैं। ईवीएम को लेकर कई याचिकाएं शीर्ष अदालत में लंबित भी है। चुनाव ईवीएम की जगह वैलेट पेपर से करवाने की मांग उठ चुकी है। जहां वैलेट पेपर से चुनाव हुए हैं वहीं पर भाजपा को हार मिली है। हरियाणा के निगम चुनाव इसका ताजा उदाहरण है। जम्मू -कश्मीर में भी वैलेट पेपर से चुनाव हुए और वहां पर गुपकार को 107 और भाजपा को 74 सीटें मिली है। इसलिये आने वाले चुनाव ईवीएम से न करवा कर वैलेट पेपर से करवाये जाने को लेकर देश में एक सार्वजनिक बहस करवाकर फैसला लिया जाना चाहिये। क्योंकि अभी एक भाजपा नेता के यहां 200 नकली ईवीएम मशीने पकड़ी गयी हैं। चुनाव आयोग 2024 के चुनावों के लिये और भी नयी ईवीएम मशीने तैयार करवा रहा है जिनमें यह सुनिश्चित रहेगा कि अपने पोलिंग बूथ से दूर किसी दूसरे स्थान से भी वोट डाला जा सकेगा। इसलिये ईवीएम जब तक नये परिदृश्य में एक सर्वसहमति से फैसला नहीं आ जाता है तब तक बिहार जैसा जनादेश घटता रहेगा और सरकार एकतरफा फैसले लेती रहेगी।
इसी के साथ दूसरा बड़ा सवाल हिन्दु राष्ट्र को लेकर उठ रहा है। इस समय जिस तरह का आचरण सरकार कर रही है उससे यही सन्देश दिया जा रहा है कि इस देश में रहने वाले मुस्लिम और ईसाईयों को छोड़ कर सभी हिन्दु हैं। इसलिये गैर हिन्दुओं के खिलाफ एक सुनियोजित लड़ाई छेड़ दी गयी है। इसी दिशा में एक -एक करके फैसले लिये जा रहे हैं और पूरा समाज इसमें बंटा हुआ है। आर्थिक फैसलों की गुण दोष के आधार पर समीक्षा करने के स्थान पर हिन्दुओं को एकजूट होने का संदेश दिया जा रहा है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के 1998 के प्रस्ताव और मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस एस आर सेन तथा संघ प्रमुख मोहन भागवत के भारतीय संविधान का जो प्रारूप सामने आया है यह सब हिन्दुराष्ट्र की अवधारणा के आधार पर सभंव है। जिन पर अब व्यापक बहस की आवश्यकता है। क्योंकि चुनावी जनादेश और हिन्दु राष्ट्र की अवधारणा सरकार के ऐसे हथियार बन चुके हैं जिनकी आड़ में सारे आर्थिक फैसले बिना किसी बहस और सहमति के लिये जा रहे हैं। 130 करोड़ की जनसंख्या वाले देश के लिये कालान्तर में यह फैसले घातक होंगे। इसलिये यह आवश्यक हो जाता है कि राजनीतिक दल इस वस्तुस्थिति की गंभीरता को समझते हुए किसान आन्दोलन में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने के लिये आगे आ जायें।