इस वर्ष आरबीआई और सांख्यिकी विभाग के सरकार के अपने ही आंकड़ों के मुताबिक जीडीपी शून्य से 7.7% नीचे रहेगी। आईएमएफ और अन्य रेटिंग एजैन्सीयों का आकलन तो शून्य से 10% तक नीचे रहने का अनुमान है। जीडीपी के इन आकलनों से स्पष्ट हो जाता है कि विकास दर कितना नीचे आ गयी है और उसका प्रभाव किन किन क्षेत्रों में और सेवाओं पर पड़ा है। कितना रोज़गार प्रभावित हुआ है। जिन उद्योग क्षेत्रों को विषेश पैकेज देकर उभारने का प्रयास किया गया था उसके कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आये हैं। क्योंकि उत्पादक को पैकेज देने से उपभोक्ता की क्रय शक्ति नहीं बढ़ती है। दुर्भाग्य से इस सरकार की अधिकांश नीतियां ऐसी रही हैं जिनसे पांच प्रतिशत को तो लाभ मिला। लेकिन उसी लाभ की कीमत शेष 95% को चुकानी पड़ी और उसकी क्रय शक्ति कमजा़ेर हो गयी। इसी स्थिति का असर आने वाले दिनो में देखने को मिलेगा क्योंकि सरकार के पास आयुष्मान भारत, पीडीएस की कमी और मनरेगा जैसी योजनाओं को चलाये रखने के लिये धन की कमी आने की आशंकाएं उभर चुकी हैं। ऐसे में कृषि जैसे क्षेत्र को इन कानूनों से जिस तरह प्रभावित किये जाने का नक्शा बना दिया गया है उसके परिणाम इतने घातक होंगे जिनकी आज कल्पना करना भी कठिन होगा।
आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसान के नाम पर रद्द किया गया है कहा जा रहा है कि इससे किसान अपनी ऊपज को मन चाहे दामों पर जहां चाहे वहां बेच सकेगा। उचित कीमत मिलने पर वह चाहे तो ऊपज का भण्डारण कर सकता है और भण्डारण पर कोई सीमा नहीं होगी। क्या व्यवहारिक रूप में यह संभव है? यदि यह संभव भी हो जाये तो क्या इसका प्रभाव अन्तिम उपभोक्ता पर नहीं पडे़गा? क्या इससे कीमतें नहीं बढ़ेंगी। जो लोग इसका समर्थन कर हरे हैं क्या उन्होंने इन पक्षों पर विचार किया है? यही स्थिति न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर है। सरकार कह रही है कि इससे किसान को बड़ा बाज़ार मिल जायेगा और उसका प्रभाव फिर उपभोक्ता पर पड़ेगा। बडे बाज़ार तक पहुंचाना क्या हर किसान के लिये संभव है? क्या इससे सही में किसान की आय दो गुणी हो पायेगी? आज जो छः हजार रूपया किसान को दिया जा रहा है वह कब तक दिया जा सकेगा और कितनों को दिया जायेगा? यह पैसा आयेगा कहां से? क्या इसका अन्तिम असर भी आम उपभोक्ता पर नहीं पड़ेगा? न्यूनतम समर्थन मूल्य देने से किसान और उपभोक्ता दोनों का एक बराबर लाभ है। कान्ट्रैक्ट फार्मिंग में क्या किसान अपनी ही जमीन का मालिक होने के बावजूद कंपनी का नौकर होकर रह जायेगा। पंजाब में पैप्सी, कोला और आलू उत्पादकों का अनुभव क्या कान्ट्रैक्ट फार्मिंग के हित में कहा जा सकता है शायद नहीं। आज यदि इन कानूनों पर निष्पक्षता से विचार किया जाये तो यह कानून बडे सरमायेदार के अतिरिक्त और किसी के भी पक्ष में नही है। इन कानूनों का दुष्प्रभाव -प्रभाव सामने आने में पांच सात वर्षों का समय लग जायेगा और सरकार इसी का लाभ उठाना चाह रही है।
किसान आन्दोलन में पचास से अधिक लोग अपना बलिदान दे चुके हैं। हर गुज़रते दिन के साथ आन्दोलन गंभीर और बढ़ता जा रहा है। करनाल में मनोरह लाल खट्टर जन सभा नहीं कर पाये हैं। पंजाब और हरियाणा में आने वाले समय में भाजपा की सरकारें बनना संभव नहीं है यह भाजपा हाईकमान समझती है। इसलिये यह और भी गंभीर हो जाता है कि इन राज्यों की कीमत पर भी मोदी सरकार किसानों की बात मानने को क्यों तैयार नहीं है। स्पष्ट है कि सरकार बड़े उद्योगपतियों के इतने दबाव में है कि वह अपनी साख को दांव पर लगा रही है। यदि सरकार और किसानों में यह गतिरोध और कुछ दिन जारी रहा तो इसमें राजनीतिक दलों और आम आदमी को इस आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जायेगा।