Friday, 19 September 2025
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दिल्ली की हार के बाद उठते सवाल

दिल्ली के विधानसभा चुनावों में हर बार फिर भाजपा को हार का समाना करना पड़ा है। राजनीति में चुनावी हार-जीत चलती रहती है और इसका कोई बड़ा अर्थ भी नही रह जाता है। लेकिन शायद इस हार को इस तरह सामान्य लेकर नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता और न ही इसका कोई अर्थ रह जाता है कि अबकी बार भाजपा का मत प्रतिशत तथा सीटे दोनो बढ़ी हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह हार देश की राष्ट्रीय राजनीति के लिये कुछ ऐसे गंभीर सवाल छोड़ गयी है जिन पर तत्काल प्रभाव से विचार करना आवश्यक हो जाता है। भाजपा की इस हार को 2014 के चुनावी परिदृश्य से लेकर आज के राजनीतिक परिवेश के साथ जोड़कर देखना आवश्यक हो जाता है। 2014 की राजनीतिक परिस्थितियों का निर्माण भ्रष्टाचार, कालाधन, बेरोजगारी और मंहगाई के मुद्दों पर हुआ था। भ्रष्टाचार के टूजी स्कैम जैसे कई मुद्दे जनहित याचिकाओं के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय मे पहुंचे और शीर्ष अदालत ने भी उन्हें गंभीरता से लेते हुए इनमें जांच के आदेश दिये। जांच के परिणामस्वरूप कई राजनेता, बड़े नौकरशाह और उद्योग जगत के कई लोग गिरफ्तार हुए। सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय प्रचारित किया गया। इसी भ्रष्टाचार को लेकर लोकपाल की मांग उठी और अन्ना हजारे के जनान्दोलन का यह केन्द्रिय बिन्दु बन गया। इसी के साथ कालेधन को लेकर कई बड़े बड़े आंकड़े जनता में परोसे गये। इस सारे जनान्दोलन के संचालन का राजनीतिक श्रेय भाजपा को मिला। दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना के आन्दोलन में केजरीवाल और उनके साथियों की भूमिका सर्वविदित है। यह भी सब जानते है कि केन्द्र सरकार ने लोकपाल को लेकर सिविल सोसायटी की बात मान ली और आन्दोलन की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी तब उसमें अन्ना के साथ आन्दोलन के संचालकों और टीम केजरीवाल में मतभेद पैदा हुए थे। अन्ना इस सबसे दुखी होकर ममता के सहयोग से उन्हें आन्दोलन का आह्वान किया और बुरी तरह असफल हुए।
 तब इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को राजनीतिक विकल्प और मोदी को इसका राष्ट्रीय नायक के रूप में सफलता से चुनावों में स्थापित कर दिया। इन चुनावों में भाजपा और उसके सहयोगियों को प्रचण्ड बहुमत मिला। लेकिन इसी चुनाव के बाद जब दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए तो उसी जगह भाजपा को शर्मनाक हार मिली जो अन्ना आन्दोलन का केन्द्र थी। लोकसभा चुनावों के एक वर्ष के भीतर ही ऐसी हार क्यों मिली थी कोई आकलन आज तक सामने नही आया है जबकि इस दौरान सरकार की ओर से ऐसा कई बड़ा फैसला भी नही आया था जिससे जनता के नाराज होने की कोई वजह बनती लेकिन फिर भी भाजपा हार गयी क्योंकि इसी दौरान भाजपा के संघ की पृष्ठभूमि वाले नेताओं ने हिन्दु ऐजैण्डे के तहत अपने हर विरोधी को पाकिस्तान समर्थक होने और पाकिस्तान जाने की नसीहत देनी शुरू कर दी थी। हालांकि प्रधानमंत्री समय समय पर ऐसे नेताओं को ऐसे ब्यान देने से परहेज करने की बातें करते रहे। परन्तु प्रधानमन्त्री की यह नाराज़गी रस्म अदायगी से अधिक कुछ भी प्रमाणित नही हो सकी। बल्कि इस नाराज़गी के बाद ऐसे ब्यानों पर विराम लगने की बजाये यह और बढ़ते चले गये। इसका असर दिल्ली की हार के रूप में सामने आया। क्योंकि दिल्ली ही देश का एक मात्र ऐसा राज्य है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र नहीं के बराबर है। दिल्ली अधिकांश में कर्मचारियों/अधिकारियों और, व्यापारियों का प्रदेश है। यह लोग हर चीज को अपने तरीके से समझते और परखते हैं। दिल्ली सामाजिक और धार्मिक विविधता का केन्द्र है सौहार्द का प्रतीक है। यह सौहार्द बिगड़ने के परिणाम क्या हो सकते हैं दिल्ली वासी इसे अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिये उन्होंने भाजपा को उसी समय हरा दिया।
लेकिन इस हार के बाद भी भाजपा की मानसिकता नही बदली। उसका हिन्दु ऐजैण्डा आगे बढ़ता रहा। इसी ऐजैण्डे के प्रभाव में जनता नोटबंदी जैसे फैसले पर भी ज्यादा उत्तेजित नही हुई। व्यापारी वर्ग ने जीएसटी पर भी बड़ा विरोध नही दिखाया। संघ/भाजपा और सरकार इसे जनता का मौन स्वीकार मानती रही। 2019 के चुनावों से पहले घटे पुलवामा और बालाकोट मे धार्मिक धु्रवीकरण को और धार दे दी। इस धार के परिणाम और तीन तलाक, धारा 370 और 35A खत्म करने, एनआरसी पूरे देश में लागू करने तथा उसके सीएए, एनपीआर जैसे फैसलों के रूप में सामने आये। जनता का एक बड़ा वर्ग इन फैसलों के विरोध में सड़कों पर आ गया। शाहीन बाग जैसे धरना प्रदर्शन आ गये। इसी सबके परिदृश्य में दिल्ली विधानसभा के चुनाव आ गये। यह चुनाव जीतने के लिये भाजपा ने प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों तक को इस चुनाव प्रचार में लगा दिया। अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं के ब्यानों के माध्यम से सारी हताशा सामने आ गयी। लेकिन इस सबका अन्तिम परिणाम फिर शर्मनाक हार के रूप में सामने आया। चुनाव हारने के बाद अमित शाह ने इन ब्यानों को भी हार का बड़ा कारण कहा है। अमित शाह का यह कहना अपनी जगह सही है क्या निश्चित रूप से इन ब्यानों से जनता में और रोष उभरा है। लेकिन क्या अब भाजपा इन ब्यानवीरो के खिलाफ कारवाई करेगी? क्या हिन्दु ऐजैण्डे पर पुनर्विचार होगा? क्या एनपीआर और सीएए को वापिस लिया जायेगा? यदि यह कुछ भी नही होता है और सरकार अपने ऐजैन्डे पर ऐसे ही आगे बढ़ती रहती है तो पूरा परिदृश्य आगे चलकर क्या शक्ल लेता है यह ऐसे गंभीर सवाल होंगे जिनपर चिन्ता और चिन्तन को लम्बे समय तक टाला नही जा सकता।
दिल्ली की हार के बाद भी संघ/भाजपा का सोशल मीडिया ग्रुप हिन्दु ऐजैण्डे की वकालत में और तेज हो गया है। हर तरह के तर्क परोसे जा रहे हैं। इन तर्को के गुण दोष और प्रमाणिकता की बात को यदि छोड़ भी दिया जाये और यह मान लिया जाये की भारत भी पाकिस्तान की तर्ज पर धार्मिक देश बन जाता है तो तस्वीर कैसी होगी। इस पर नजर दौड़ाने की आवश्यकता है। जब संविधान में हम धर्म पर आधारित हिन्दु राष्ट्र हो जाते हैं तब हमारी शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था क्या होगी? क्या हम तब आज वाला ही लोकतन्त्र रह पायेंगे? क्या उसमें समाज के हर वर्ग को एक बराबर अधिकार हासिल रहेंगे? क्या वह व्यवस्था हिन्दु धर्म के सिविल कोड मनु स्मृति के दिशा निर्देशों पर नही चलेगी? क्योंकि विश्व का धर्म आधारित हर देश अपने अपने धर्म के निर्देशों पर ही चलता है औ उसमें उदारवाद के लिये बहुत कम स्थान रह जाता है। आज हिन्दु राष्ट्र की वकालत करने वालों से आग्रह है कि वह इन सवालों का जवाब देश की जनता के सामने रखें। जिस मुस्लिम धर्म से हमारा गहरा मतभेद है उसमें एक सवाल संघ/भाजपा के उन बड़े नेताओं से भी हैं जिनके परिवारों के मुस्लिम परिवारों के साथ शादी-ब्याह के रिश्ते हैं। ऐसे नेताओं की एक लम्बी सूची और सार्वजनिक है। आज जो लोग धर्म के आधार पर मुस्लिम समुदाय के विरोध में खड़े हैं वह इन बड़े नेताओं के अपने परिवारों के भीतर और बाहर के धार्मिक चरित्र पर भी ईमानदारी से विचार करके इन सवालों का जवाब दें।

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