इस विरोध में यह सवाल उठाया जा रहा है कि क्या राजनीति एक नौकरी है या स्वेच्छा से अपनाई गयी जन सेवा है। नौकरी में व्यक्ति 58/60 वर्ष की आयु तक नौकरी करता है उसके बाद सेवानिवृत होकर वह पैन्शन का पात्र बनता हैं नौकरी के लिये उसे परीक्षा/साक्षात्कार आदि से गुजरना पड़ता है और प्रतिवर्ष उसके काम की एक रिपोर्ट लिखि जाती है। नौकरी में आने के लिये न्यूनतम/अधिकतम आयु और शैक्षणिक योग्यताएं तय रहती हैं। लेकिन इसके विपरीत सांसद/विधायक बनने के लिये अधिकतम आयु की कोई सीमा नही है और न ही न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की कोई अनिवार्यता है। फिर यह लोग अपने वेतन भत्ते आदि स्वयं तय करते हैं। इस तरह की बहुत सारी चीजें हैं जिनके नियन्ता यह स्वयं होते है। नौकरी में तो सेवा से जुड़े कई नियम रहते है जिनकी अनुपालना न करने पर व्यक्ति को सज़ा दी जा सकती है। सेवा में व्यक्ति का काम तय रहता है और वह काम न करने पर व्यक्ति के खिलाफ कारवाई की जा सकती है। लेकिन इन माननीयों के लिये ऐसा कोई नियम या सेवा शर्त नही है जिसकी अनुपालना न करने पर इन्हे दण्डित किया जा सके। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की जब अभिकल्पना की गयी थी तब इस तरह का किसी के विचार में ही नहीं आया है कि आने वाले समय में सांसद/विधायक बनना एक ऐसा पेशा बन जायेगा जिसमें एक ही आवश्यकता होगी कि आप जनता से वोट कैसे हासिल करते हैं। उसके लिये धन बल और बाहुबल दोनों का प्रयोग आप खुले मन से कर सकते हैं। इसी का परिणाम है कि आज राज्यों की विधान सभाओं से लेकर संसद तक में हर बार अपराधियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे लोगों के सामने कानून और अदालत दोनों बौने पड़ते जा रहे हैं। चुनाव आयोग हर बार चुनाव खर्च की सीमा बढ़ा देता है जो किसी भी ईमानदार आदमी के लिये अपने जायज़ संसाधनों से जुटा पाना संभव नही है। राजनीतिक दल एकदम कारपोरेट घरानों की तर्ज पर काम कर रहे हैं। फिर चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च पर कोई सीमा नहीं लगा रखी है वह कुछ भी खर्च कर सकते है। अब चुनावी बाॅण्ड के माध्यम से कारपोरेट घरानों और राजनीतिक दलों में पैसा इक्क्ठा करना और भी आसान हो गया है। चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन आज तक दण्डनीय अपराध की श्रेणी से बाहर है। इसको लेकर चुनाव के बाद केवल चुनाव याचिका ही दायर की जा सकती है लेकिन ऐसी याचिका का फैसला कितने समय मे आ जायेगा यह कोई तय नही है। इस तरह आज चुनाव पैसे और अपराध तथा अयोग्यता का एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जिसके प्रति पैन्शन आदि के विरोध के माध्यम से जनाक्रोश एक स्वर लेने लगा है।
विधायक/ सांसद कानून निर्माता माने जाते हैं क्योंकि संसद और विधानसभा ही कानून बनाती है। उच्च न्यायालय/सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को केवल यह सदन ही बदल सकते हैं और पिछले दिनों यह सबकुछ देखने को मिला है। यही सदन और इनमें बैठे माननीय देश की आर्थिक और सामाजिक नीतियां तय करते हैं क्योंकि माननीयों को इसी काम के लिये चुनकर भेजा जाता है। इनकी बनाई हुई नीतियों से देश का कितना भला हो रहा है या आम आदमी का जीवन यापन और कठिन होता जा रहा है इसको लेकर कभी भी कोई सार्वजनिक चर्चा तक नहीं की जाती है। हां यह अवश्य देखने को मिलता है कि जो एक बार संसद/विधानसभा तक पहुंच जाता है उसकी कई पीढ़ीयों तक का आर्थिक भविष्य सुरक्षित हो जाता है। लेकिन आज आम आदमी इनकी नीतियों के कारण जिस धरातल तक पहुंच गया है वहां पर उसके पास इनके ऊपर नज़र रखने के अतिरिक्त और कोई बड़ा काम बचा नहीं है। क्योंकि आज आम आदमी मंहगाई और बेरोज़गारी से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित होने लग पड़ा है। उसका यही प्रभावित होना भविष्य की रूपरेखा तय करेगा।