आज स्थिति यह बन चुकी है कि देश में हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव हो जाते हैं। जब यह चुनाव अलग-अलग होते हैं तो स्वभाविक है कि इन पर धन और समय दोनों ही अत्याधि खर्च हो जाते हैं। इस पृष्ठभूमि में यदि पूरी चुनावी व्यवस्था का एक निष्पक्ष आकलन किया जाये तो यह आवश्यकता महसूस होती है कि यदि सारे चुनाव एक साथ करवा दिये जाये तो धन और समय दोनों में महत्वपूर्ण बचत की जा सकती है। इसलिये अब जब प्रधानमन्त्री ने ‘‘एक देश एक चुनाव’’ को लेकर सर्वदलीय बैठक का आयोजन किया है तो सिद्धान्त रूप में इसका स्वागत है। अभी इस कार्यकाल के एक तरह से पहले ही दिन इस महत्वपूर्ण विषय को सार्वजनिक बहस के लिये प्रस्तुत करना एक सराहनीय कदम है। वैसे तो पिछले कार्यकाल में जब संसद का संयुक्त सत्र बुलाया गया था तब महामहिम राष्ट्रपति ने यह विषय को माननीयों के सामने रखा था। उस समय कुछ देर के लिये इस पर सार्वजनिक चर्चाएं भी हुई थी। लेकिन यह विषय कोई ज्यादा आगे नही बढ़ा क्योंकि उस समय प्रधानमन्त्री ने इसमें सीधे दखल नही दिया था। अब प्रधानमन्त्री ने स्वयं सर्वदलीय बैठक बुलाकर यह बहस उठायी है तो निश्चित है कि यह अपने अंजाम तक पहुंचेगा ही। इस बार जो बहुमत भाजपा और एनडीए को मिला है वह जनता के समर्थन का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसलिये इस विषय पर सभी दलों की सहमति केवल एक राजनीतिक औपचारिकता से अधिक कुछ नही है। सीधा है कि यदि प्रधानमन्त्री इस पर गंभीर और ईमानदार हैं तो यह फैसला हो जायेगा और इसे अमलीशक्ल मिल जायेगी। क्योंकि इस आश्य का संसद में विधेयक लाया जायेगा जहां यह पारित हो जायेगा और राज्यों की विधानसभाओं का अनुमोदन भी हासिल हो जायेगा।
प्रश्न केवल यह होगा कि इसे कब से लागू किया जायेगा। क्योंकि जब भी इसे लागू करने की बात आयेगी तब लोकसभा या राज्यों की विधानसभाओं को भंग करने की नौबत आयेगी ही। इसलिये यह स्पष्ट है कि ‘‘एक देश एक चुनाव’’ के लिये एक बार तो इन्हे भंग करना ही पड़ेगा इस समय लोकसभा से लेकर अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं इसलिये यह फैसला एक तरह से भाजपा को ही लेना है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि नरेन्द्र मोदी ने यह बहस पहले ही दिन क्यों छेड़ दी। लोकसभा का अगला चुनाव अब 2024 में होगा तो क्या इस पर उस समय अमल किया जायेगा। क्या उस समय सारी विधानसभाओं को भंग किया जायेगा? यह एक बड़ा सवाल होगा। यदि 2024 से पहले यह किया जाता है तो क्या इस लोकसभा को भंग किया जायेगा। इसी के साथ इस पक्ष पर भी विचार करना होगा कि यदि किसी राज्य में किसी कारण से राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तो क्या यह शासन उस विधानसभा के शेष बचे पूरे कार्यकाल के लिये होगा या शेष बची अवधि के लिये ही चुनाव करवाये जायेंगे। लेकिन यह चुनाव करवाने से ‘‘एक देश एक चुनाव’’ का नियम भंग होगा और ऐसे में शेष बची पूरी अवधि के लिये राष्ट्रपति शासन ही एक मात्र विकल्प रह जाता है। इसलिये यह फैसला केवल प्रधनमन्त्री मोदी के अपने ऊपर निर्भर करेगा। यदि अब इस पर फैसला न लिया जा सका तो यह प्रधानमंत्री की अपनी छवि पर एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह बन जायेगा।
यह सही है कि ‘‘एक देश एक चुनाव’’ लागू होने से धन और समय की बचत हो जायेगी। लेकिन क्या इस बचत से चुनावों की विश्वसनीयता पर इस समय लग रहे सवालों से छुटकारा मिल जायेगा। आज इन चुनावों को लेकर एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में मनोहर लाल की आ चुकी है। एक भानू प्रताप सिंह ने विस्तृत ज्ञापन महामहिम राष्ट्रपति को सौंप रखा है। इसी के साथ बीस लाख ईवीएम गायब होने को मुबंई और ग्वालियर उच्च न्यायालयों में याचिकायें लंबित है। इन पर अन्ततः फैसले तो आयेंगे ही और यह फैसले चुनाव आयोग से लेकर स्वयं उच्च न्यायपालिका की अपनी विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल होंगे। प्रधानमंत्री द्वारा छेड़ी गयी यह बहस यदि इन उठते सवालों से ध्यान हटाने का ही प्रयास होकर रह गयी तो इसके परिणाम घातक होगे।