यह जो जानकारियां चुनावों के बाद सामने आयी हैं यह सब चुनाव परिणाम आने के बाद नही घटा है। यह सब पहले बड़े अरसे से देश में घट चुका था लेकिन इसकी जानकारी अधिकारिक तौर पर चुनावों से पहले बाहर नही आने दी गयी क्योंकि यदि यह सब जानकारियां चुनावों से पहले सामने आ जाती तो निश्चित रूप से यह सब जन चर्चा के मुद्दे बनते और तब शायद परिणामों पर भी इसका असर पड़ता लेकिन ऐसा भी नही है कि यह जानकारियां कतई बाहर आयी ही नही हों। यदि हम चुनावों के दौरान और उससे भी पहले के परिदृश्य पर नज़र दौड़ाएं तो यह सामने आता है कि कांग्रेस और उसके नेता राहूल गांधी इस ओर जनता का ध्यान खींच रहे थे। परन्तु जनता इन विषयों की गंभीरता का आकलन नही कर पायी और शेष विपक्ष भी इस संद्धर्भ में कारगर भूमिका नही निभा पाया। अभी सरकार के शपथ ग्रहण के बाद जम्मू-कश्मीर को लेकर जिस तरह की नीति अपनाने के संकेत दिये थे अब उसमें पूरी तरह से यूटर्न ले लिया गया है। आजकल बंगाल को लेकर जिस तरह की लाईन भाजपा ले रही है और उसको जिस तरह से मीडिया प्रचारित -प्रसारित कर रहा है उसके अन्तिम परिणाम क्या होंगे यह शायद अब आकलन से भी बाहर होता जा रहा है।
इसी तरह पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में कुछ पत्रकारों के खिलाफ कारवाई की गयी है उस पर सर्वोच्च न्यायालय को भी यह टिप्पणी करनी पड़ी है कि इस देश में अभी तक संविधान है और देश उसी के अनुसार चलता हैै। यह ठीक है कि पत्रकार होने से किसी को यह अधिकार हासिल नही हो जाता कि वह किसी के खिलाफ कुछ भी निराधार छाप दे। लेकिन इस तरह के समाचारों पर मानहानि का मामला दायर करने का रास्ता है। परन्तु इस रास्ते को न अपनाकर इसमें पुलिस स्वयं शिकायतकर्ता बनकर सीधे गिरफ्तारी से शुरू करे तो निश्चित रूप से यह सोचना पड़ता है कि आप विरोध का कोई स्वर सुनने को तैयार ही नही है। प्रैस की स्वतन्त्रता के मामले में आज भारत 140वें स्थान पर है और यह सही में लोकतन्त्र के लिये खतरा है।
अभी सरकार के नये कार्यकाल का एक माह भी पूरा नही हुआ है और अब तक जो कुछ सामने आ चुका है वह निश्चित रूप से चिन्ताजनक है। आर्थिक मोर्चे पर जो कुछ सामने है शायद उसका कोई बड़ा प्रतिकूल असर दस प्रतिशत लोगों पर नही पड़ेगा और हो सकता है कि इस वर्ग ने सरकार के पक्ष मे मतदान भी न किया हो लेकिन इस सबका असर देश की 90ः जनता पर पड़ता है और उसका गुनाह केवल यही है कि उसे इस सबकी पूरी समझ ही नही है। जनता को इसकी समझ तब आयेगी जब बेरोज़गारी और मंहगाई उसकी दहलीज लांघ कर उसके घर पर कब्जा कर लेगी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। ऐसे में आज देश के विपक्षी राजनेताओं से ही यह अपेक्षा है कि वह इस वस्तुस्थिति की गंभरीता को समझते हुए आम आदमी के बचाव में आगे आयें अन्यथा देश की जनता विपक्ष को भी क्षमा नही करेगी। आज देश का राजनीतिक वातावरण बंगाल से लेकर कश्मीर तक जिस मुकाम पर पहुंच चुका है वह हर संवदेनशील बुद्धिजीवि के लिये गंभीर चिन्ता और चिन्तन का विषय बन चुका है। इस समय परिस्थितियों की यह मांग है कि देश में एक सशक्त राजनीतिक विकल्प खड़ा हो। इसके लिये यदि राजनीतिक दलों को 1977 और 1989 की तर्ज पर अपना विलय करके भी यह विकल्प तैयार करना पड़े तो ऐसा किया जाना चाहिये। आज कांग्रेस में जिस तरह से राहूल गांधी ने अध्यक्षता छोड़ने का फैसला लिया है वह कांग्रेस के भीतर की परिस्थितियों को सामने रखते हुए सही है क्योंकि सत्ता के खिलाफ विरोध का जो स्वर उन्होंने मुखर किया था उसमें वह अपने ही घर में अकेले पड़ गये थे। लेकिन राष्ट्रीय संद्धर्भ में यह फैसला जनहित में नही है। आज वह सारे सवाल मुद्दे बनकर सामने आने लग पड़े हैं जो चुनावों से पहले ही राहूल ने उठाने शुरू कर दिये थे। आने वाले समय में आम आदमी जैसे जैसे पीड़ित होता जायेगा वह इन्हें समझता जायेगा यह तय है। उस समय उसकी समझ और पीड़ा को स्वर देने के लिये जनता एक नेता चाहेगी और वह शायद राहूल के अतिरिक्त और कोई न हो पाये।