पुलवामा आतंकी हमले के बाद प्रधानमंत्री ने देश को विश्वास दिलाया है कि शहीदों के खून का बदला लिया जायेगा। इसी के साथ यह भी स्पष्ट किया है कि सेना को इस संद्धर्भ में फैसला लेने का पूरा अधिकार दे दिया है। इस हमले का जवाब कब कहां और कैसे दिया जायेगा यह सब सेना तय करेगी। प्रधानमन्त्री के इस आश्वासन के बाद देशभर में उभरी प्रतिक्रियाओं में भी यही सामने आया है कि देश की जनता भी इसमें कोई निर्णायक कदम चाहती है। देश की यह प्रतिक्रिया स्वभाविक है क्योंकि इन्हीं घटनाओं में हमारेे सैंकड़ों सैनिक शहीद हो चुके हैं इन सैंकड़ों घरों के चिराग बुझे हैं। हर घटना के बाद ऐसी ही प्रतिक्रियाएं और ऐसे ही दावे सामने आते रहे हैं। सर्जिकल स्ट्राईक तक की गई। नोट बन्दी तक का देश ने स्वागत किया क्योंकि इससे आतंकवाद खत्म हो जायेगा यह कहा गया था। लेकिन आज पुलवामा ने इन सारे दावों पर नये सिरे से प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। हर घटना के बाद पाकिस्तान को गाली देकर जनता के आक्रोश को शांत किया जाता रहा है। हर बार हर आतंकी घटना के पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की बात की जाती रही है और पाकिस्तान हर बार इन आरोपों के ठोस सबूत मांगता रहा है। आज भी यही हो रहा है। यह सबूत हम मित्र देशों के साथ सांझा करने को तैयार हैं लेकिन पाकिस्तान को देने के लिये तैयार नही है। यह कैसी कूटनीति है? क्या हम मित्र देशों को दिये जाने वाले सबूत पाकिस्तान को भी साथ ही देकर अन्र्तराष्ट्रीय समुदाय में अपना पक्ष और पुख्ता नही कर सकते हैं? क्योंकि पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री यही कह रहे हैं कि सबूत दो तो हम करवाई करेंगे और उन्होने जमात-उद-दावा तथा फलह-ए-इन्सानियत फाऊंडेशन के खिलाफ कारवाई शुरू कर दी है। इन संगठनों के पाकिस्तान में 300 से ज्यादा मदरसे स्कलू, अस्पताल, एम्बुलैन्स सेवा-प्रकाशन संस्थान और 50,000 स्वयं सेवक कहे जाते हैं। यदि सही में पाकिस्तान ने इन संगठनों के खिलाफ कोई ठोस कदम उठाये हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में उसकी बात भी सुनी जायेगी। ऐसे में क्या यह सही नही होगा कि भारत सरकार पाकिस्तान के इन दावों की पड़ताल करके इसका सच देश और दुनिया के सामने रखे। क्योंकि युद्ध एक भयानक विकल्प है। न्यूर्याक के तीन विश्वविद्यालयों के एक अध्ययन की जो रिपोर्ट न्यूर्याक टाईम्स के माध्यम से सामने आयी है उसमें एक ही दिन में करोड़ो लोगों के मरने की आशंका जताई गयी है। रिपोर्ट के मुताबिक यदि युद्ध होता है तो उसके परिणाम सदियों तक भुगतने पड़ेंगे। क्योंकि दोनों देशों के पास परमाणु हथियार है और पाकिस्तानी सेना पर जिस ढंग से वहां के आतंकी संगठनों को सहयोग करने के आरोप लगते आये हैं उससे यह खतरा और बढ़ जाता है। युद्ध में जानेे से पहले इसे भी ध्यान में रखना आवश्यक होगा।
क्योंकि यह एक स्थापित सत्य है कि आतंकी को मार देनेे से ही आतंकी का खात्मा नही हो जाता है। मार देने से केवल अपराधी गैंग समाप्त किये जा सकते हैं। यदि आतंक विचार जनित है तो उसके लिये समानान्तर विचार लाया जाना आवश्यक हैं जम्मूकश्मीर में यह सामने आ चुका है कि सेना की कारवाई का विरोध वहां के छात्रों/युवाओं ने पत्थरबाजी से दिया। हजारों पत्थरबाजों को जेल में डाला गया और फिर छोड़ना पड़ा। पत्थबाजी की इस मानसिकता को समझना होगा। आज केन्द्र सरकार ने वहां के अठारह नेताओं की सुरक्षा वापिस ले ली है। इन नेताओं पर आरोप है कि यह लोग अलगाववादी गतिविधियों को समर्थन देते हैं। इन्हें विदेशों से आर्थिक मदद मिलती है। यदि यह आरोप सही हैं तो फिर सरकार पर ही यह सवाल आता है कि फिर इन लोगों को यह सुरक्षा दी ही क्यों गयी थी? क्योंकि विदेशों से गैर कानूनी तरीके से आर्थिक मदद लेना एक बहुत बड़ा अपराध है और फिर उस मदद से अलगाववाद को बढ़ावा देना तो अपराध को और बड़ा कर देता है। क्या सरकार इन लोगों को सुरक्षा देकर स्वयं ही अपरोक्ष में इन गतिविधियों को बढ़ावा नही दे रही थी? पुलवामा के बाद सारे देश मेे जहां कही भी कश्मीरी छात्र पढ़ रहे थे उन्हें प्रताड़ित किये जाने की घटनाएं समाने आयी है और सर्वोच्च न्यायालय को इन्हें सुरक्षा दिये जाने के आदेश करने पड़े हैं। क्या इस तरह की घटनाओं से जम्मू कश्मीर का आम नागरिक विचलित नही होगा। वह क्या सोचगा? वहां के हर नागरिक को तो आतंकी करार नही दिया जा सकता फिर जिन नेताओं की सुरक्षा वापिस ली गयी है उनके खिलाफ सरकार केे पास क्या पुख्ता प्रमाण है? इन्हे अभी तक देश के सामने नही रखा गया है। आज सबसे पहले देश को विश्वास में लेने की आवश्यकता है क्योंकि यह पुलवामा में उस समय घटा है जब देश लोकसभा चुनावों में जा रहा है। पुलवामा में हुई सुरक्षा की चुक को लेकर सरकार पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। जब गुप्तचर ऐजैन्सीयों ने सरकार को पहले ही आगाह कर दिया था तो फिर उस चेतावनी को किसके स्तर पर और क्यों नजरअन्दाज किया गया? यह सही है कि देश अब कोई निर्णायक हल चाहता है। युद्ध को ही विकल्प माना जा रहा है। लेकिन युद्ध के परिणाम क्या होंगे उससे कितना विनाश होगा इसका अनुमान भावनाओं में बहकर नही लगाया जा सकता। युद्ध की अपरिहार्यता के ठोेस कारण देश के सामने रखने होंगे और इसके पीछे किसी भी तरह की कोई राजनीतिक मंशा नही रहनी चाहिये। क्योंकि देश चुनावों में जा रहा है और सरकार का हर कदम चुनावी चर्चा का विषय बनेगा यह तय है।