शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह पिछले कुछ अरसे से प्रदेश के कांग्रेस संगठन के प्रति लगातार आक्रामक हाते जा रहे हैं। संगठन में नियुक्त सचिवों को लेकर यहां तक कह गये कि कई लोग तो पंचायत के सदस्य बनने के लायक नहीं है। अपने ही चुनाव क्षेत्रा शिमला बनाये गये सचिवों को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया उन्होने दी है उससे आहत होकर इन लोगों ने अपने पदों से त्याग पत्रा दे दिया है। वीरभद्र की आक्रामकता से पहले उनके बेटे युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष विक्रमादित्य ने भी एक पत्रकार वार्ता में यह कहा था कि चुनाव में टिकट केवल जीत की संभावना रखने वालों को ही दिया जाना चाहिये। इसमें नेताओं का कोटा नहीं होना चाहिये। व्यवहारिक दृष्टि से विक्रमादित्य का यह सुझाव सही है। लेकिन इसके लिये संगठन को लेकर सरकार तक एक ही स्तर का मानदण्ड होना चाहिये।
जब वीरभद्र ने इस बार सत्ता संभालने के बाद विभिन्न निगमों/बांर्डों में नेताओं को नियुक्तियां देना आरम्भ किया था उस समय हाईकमान ने ‘एक व्यक्ति एक पद’ पर अमल करने का निर्देश दिया था। लेकिन वीरभद्र ने इस सि(ान्त को मानने से इन्कार कर दिया था। आज विभिन्न सरकारी अदारों में हुई राजनीतिक नियुक्तियों से करीब पचास विधानसभा क्षेत्रों में समान्तर सत्ता केन्द्र स्थापित हो चुके हैं। इन नियुक्तियों के लिये क्षेत्रा के विधायक या वहां से अधिकारिक उम्मीवार बने व्यक्ति से कोई राय नहीं ली गई है। कल को यह लोग भी चुनाव टिकट के दावेदारों में शामिल होंगे। राजनीतिक पंडितो के मुताबिक युवा कांग्रेस के अध्यक्ष विक्रमादित्य का सुझाव इसी संद्धर्भ में आया है। वीरभद्र ने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है कि संगठन में भी पदाधिकारी मनोनयन से नहीं बल्कि चयन से ही बनाये जायेगें।
वीरभद्र की आक्रामकता को लेकर प्रशासनिक और राजनीतिक गलियारों में चर्चा का दौर शुरू हो चुका है। सभी इस आक्रामकता को समझने का प्रयास कर रहे हैं। अधिकांश इस अक्रामकता को वीरभद्र के खिलाफ केन्द्रिय ऐजैन्सीयों सी बी आई और ई डी में चल रही जांच के आईने में देख रहे हैं। इस जांच को रोकने और इसको लेकर दर्ज हो चुकी एफ आई आर को रद्द करवाने के लिये वीरभद्र हर संभव प्रयास कर चुके हैं। लकिन उनको इसमें कोई बड़ी सफलता नहीं मिली है। जांच को लेकर यह स्पष्ट हो चुका है कि अब यह मामले अपने अन्तिम परिणाम तक पहुंचने वाले हैं। इन मामलों में चालान ट्रायल कोर्ट में दायर होगें ही और इसी के साथ पद त्यागने की मांग पूरी मुखरता के साथ सामने आ जायेगी। हाई कमान भी इस स्थिति के आगे बेबस हो जायेगा। वीरभद्र पर पद त्यागने का दबाव बढ़ जायेगा। उस स्थिति में वीरभद्र के सामने केवल दो ही विकल्प रह जायेंगे, या तो वीरभद्र को पद त्यागना पड़ेगा या फिर खुली बगावत करके अदालत के अन्तिम फैंसले तक पद पर बने रहने का साहस दिखाना होगा। क्योंकि अदालत में अन्तिम फैंसला आने में काफी समय लगेगा।
वीरभद्र पहली बार 1983 में मुख्यमन्त्री भी हाईकमान को आंखे दिखाकर ही बने थे। 1993 में भी जब पंडित सुखराम हाई कमान की पसन्द बन गये थे तब भी वीरभद्र ने खुली बगावत के संकेत देकर मुख्यमन्त्री का पद संभाला था। 2012 में भी जब सी डी प्रकरण में आरोप तय होने पर केन्द्र में मन्त्री पद छोड़ना पड़ा था तब भी बगावती संकेतों से ही पार्टी अध्यक्ष पद और फिर मुख्यमन्त्री की कुर्सी हासिल की थी। इस बार भी हाईकमान के एक व्यक्ति एक पद के सिद्धान्त खुली चुनौति दी है। जब सी बी आई और ई डी के मामले दर्ज किये तब कानूनी दावपेचों का सहारा लेकर मामलों को लम्बा खींचने के प्रयास किये वहीं पर संगठन में भी समानांतर संगठन खड़ा करने के खुले संकेत देते हुये वीरभद्र ब्रिगेड खड़ा कर दिया। ब्रिगेड के खढ़ा करने के साथ ही प्रदेश में जनता और अपने समर्थकों की नब्ज टटोलने के लिये प्रदेश का तूफानी दौरा शुरू कर दिया। इस दौरे के साथ ही सरकार की उपलब्धियों के विज्ञापन जारी होने शुरू हो गये ताकि विपक्ष और विरोधियों को यह संदेश चला जाये कि कभी भी मध्यावधि चुनाव हो सकते हैं। अब जैसे-जैसे वीरभद्र के खिलाफ चल रहे मामले क्लोज़ होने के कगार पर पहुंच रहे हैं वैसे ही पार्टी अध्यक्ष के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। सुक्खु के खिलाफ जो आरोप अभी लगे हैं और उनका एक ज्ञापन राजभवन तक भी पंहुचा दिया गया है उसे भी इस रणनीति के साथ जोड़कर देख जा रहा है। इससे यह संकेत उभरतें है कि वीरभद्र की पहली चाल होगी कि पद त्यागना ही पड़ता है तो विद्या स्टोक्स को अपनी जगह बैठाया जाये इसलिये प्रदेश दौरे में उसे अपने साथ रखा जा रहा है। दूसरी चाल पार्टी का अध्यक्ष पद संभालने की होगी ताकि अगले चुनावों में अपनी मर्जी से टिकट बांट सकें। क्योंकि टिकटों में विक्रमादित्य के समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा हिस्सा तभी दिया जा सकेगा।
वीरभद्र के राजनीतिक स्वभाव और रणनीति को समझने वाले पूरी तरह जानते हैं कि यदि वह अपनी रणनीति को अमलीजामा न पहना सके तो वह पार्टी से बगावत करने में भी गुरेज नहीं करेंगे। क्योंकि विक्रमादित्य को राजनीति में स्थापित करने के लिये उनके पास और कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन आज जिस एज और स्टेज पर वीरभद्र खडे़ हैं वहां पर यह सब करने के लिये एक टीम चाहिये जो उनके पास नहीं है। इस कार्यकाल में उनके पास भुनाने के लिये कोई उपलब्धि नहीं है। इस बार यह पहले दिन से ही धूमल और अनुराग को कोसते चले आ रहे हैं। इन्हे घेरने के लिये जो भी कदम उठाये उनके परिणाम शून्य रहे। इस बार जिस टीम के सहारे उन्होंने प्रशासन चलाया है वह उन्हे वांछित परिणाम नहीं दे पायी है क्योंकि अपने भविष्य को सामने रखते हुये उनकी निष्ठायें दूसरी जगह भी बराबर बनी रही हैं। बल्कि जो कुछ जांच ऐजैन्सीयों की पड़ताल के बाद वीरभद्र के खिलाफ खड़ा हो गया है यदि वह सब जनता के सामने सही तरीके से आ गया तो इस परिवार को राजनीति से भी बाहर होने की नौबत आ सकती है। बहरहाल जो मोर्चा वीरभद्र ने संगठन के खिलाफ खोला है वह क्या रंग लाता है इस पर सबकी निगाहें लगी हैं।