शिमला/शैल। मुख्य संसदीय सचिवों के मामले में प्रदेश उच्च न्यायालय ने उनको मंत्रियों के समकक्ष मिलने वाली सुविधाओं और मंत्रियों की तर्ज पर काम करने की सुविधाओं पर रोक लगा दी है। यह आदेश आने पर ऐसा लगा था कि शायद अब इनसे कार्यालय और सरकारी कार्यालय की सुविधायें छिन जायेगी। परन्तु ऐसा कुछ हुआ नहीं है। क्योंकि वर्तमान मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां इस आश्य के 2006 में बने एक्ट के तहत हुई है। उस एक्ट में इन सारी सुविधाओं का प्रावधान है और वह एक्ट अभी तक अदालत द्वारा निरस्त नहीं किया गया है। वैसे इस एक्ट को भी उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। लेकिन जब तक एक्ट बना रहेगा तब तक यह लोग अपने पदों पर बने रहेंगे। वैसे यह एक्ट संविधान में मंत्रियों की संख्या को सीमित करने के आश्य के हुये संशोधन के मुलतः उल्लंघना है। इसलिये माना जा रहा है की अन्तिम फैसले में सरकार का 2006 का एक्ट निरस्त होगा ही। लेकिन इस परिदृश्य में यह राजनीतिक सवाल खड़ा होता है कि भाजपा ने जब मुख्य संसदीय सचिवों को मंत्रियों के समकक्ष मिलने वाली सुविधाओं पर रोक लगाने की मांग की है तब इस मांग से पहले इस एक्ट को निरस्त करने की मांग क्यों नहीं की? क्या इन भाजपा विधायकों को 2006 के एक्ट के प्रभाव की जानकारी नहीं थी या इसके पीछे निहित कुछ और है। इस समय जो फैसला आया है इसमें मुख्य संसदीय सचिवों का कोई अहित नहीं हुआ है। परन्तु इस फैसले पर कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों की कोई प्रतिक्रियाएं नहीं आयी हैं इससे भी कुछ अलग ही संदेश जा रहा है। स्मरणीय है कि संविधान में संशोधन करके मंत्रियों की सीमा तय करने के पीछे सरकारों की फिजूल़ खर्ची रोकना सबसे बड़ा उद्देश्य था और इसीलिये मुख्य संसदीय सचिवों और संसदीय सचिवों की नियुक्तियों को रद्द करते हुये असम के संद्धर्भ में यह फैसला दिया था कि विधायिका को इस तरह का एक्ट पास करने का अधिकार ही नहीं है। असम के मामले के साथ ही हिमाचल की एसएलपी संलग्न थी। जुलाई 2017 में आये इस फैसले के कारण ही जयराम सरकार के कार्यालय में ऐसी नियुक्तियां नहीं की गयी थी। मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां 2006 के एक्ट के तहत हुयी है और जब तक यह एक्ट निरस्त नहीं होता तब तक यह पदों पर बने भी रहेंगे। लेकिन उनके बने रहने से क्या नैतिक सवाल भी हल हो जायेगा? क्या उनके बने रहने से प्रदेश की वित्तीय स्थिति सुधर जायेगी? क्या सरकार को कर्ज नहीं लेना पड़ेगा? यह सारे सवाल नैतिकता से जुड़े हुये हैं? इस समय सरकार ने बहुत सारी नियुक्तियां कैबिनेट रैंक में कर रखी हैं। कैबिनेट रैंक में नियुक्तियों का अर्थ है कि ऐसे व्यक्ति को कैबिनेट रैंक के मंत्री के समकक्ष सुविधायें मिलेगी। भले ही ऐसी नियुक्तियों को अदालत में कोई चुनौती नहीं दी गयी है लेकिन प्रदेश जिस तरह की वित्तीय स्थिति से गुजर रहा है उसमें आने वाले दिनों में यह मुद्दे स्वतः ही चर्चा में आ जायेंगे। क्योंकि चुनाव में वायदे करते हुये मतदाताओं से यह नहीं कहा गया था कि उन्हें पूरा करने के लिये कर्ज लिया जायेगा। पिछली सरकार में जब मुख्य सचेतक और सचेतकों की नियुक्तियां की गयी थी तब उस एक्ट को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी थी जो अब तक लम्बित है। अब शायद यह सरकार भी ऐसी नियुक्तियां करने जा रही है। ऐसे में जो वातावरण निर्मित होता जा रहा है उसमें सरकार पर वैधानिक सवालों की जगह नैतिक सवालों का दायरा बढ़ने जा रहा है।